भ्रांत कौन, और किसके लिए? || आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)

Acharya Prashant

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भ्रांत कौन, और किसके लिए? || आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)

अंतर्विकल्पशून्यस्य बहिः स्वच्छन्दचारिणः। भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्-तादृशा एव जानते॥ – अष्टावक्र गीता (१४- ४)

अनुवाद : भीतर से निर्विकल्प और बाहर से स्वच्छंद आवरण वाले, प्रायः भ्रांत पुरुष जैसे ही दिखने वाले प्रकाशित पुरुष अपने जैसे प्रकाशित पुरुषों द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं ।

प्रश्न : यह क्यों कहा गया है कि जो ज्ञानी है, जो योगी है, वो एक भ्रांत मनुष्य की तरह ही भ्रमण करता हुआ दिखाई देता है ?

वक्ता : हम ‘भ्रांत’ किसे कहतें हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि हम कौन हैं । संसारी मन भ्रांत उसे कहता है जो संसार के ढर्रों पर नहीं चलता । हम उन्हें भ्रांत कहतें हैं जो हमारे जैसे ढरों पर नहीं चलते। ढर्रों पर चलने के लिए भी एक योग्यता चाहिए, मन का थोड़ा सधा होना ज़रूरी है अन्यथा आप ढर्रों पर भी नहीं चल पाएँगे ।

एक छोटा बच्चा होता है, वो सीधा नहीं चल पाता क्योंकि उसके क़दमों में ज़रा भी ताकत नहीं है । आप छोटे बच्चे से अपेक्षा करें कि वो एक सीधी रेखा में चलता जाये, तो आप पाएँगे कि यह नहीं हो रहा है। ढर्रे पर चलने के लिए भी थोड़ी ताकत, थोड़ी योग्यता चाहिए ।

अगर सभी यहाँ तय करें कि आप को रोज़ सुबह पाँच बजे उठना है, तो आप पाएँगे कि बहुत सारे लोग इस प्रण में असफल हो जाते हैं । ढर्रा ही है, रोज़ सुबह पाँच बजे उठना है । पर आप अच्छे से जानते हैं कि यह प्रण कितनी बार टूटा है। हम अपने संकल्पों को भी पूरा नहीं कर पाते । हम जो ढर्रे बनाना भी चाहते हैं, हम उनको भी नहीं बना पाते । यही कारण है कि तथाकथित अच्छी आदतें भी हम विकसित नहीं कर पाते । ‘अच्छी आदतें’ माने ढर्रे, ढर्रे जिनको हमने ‘अच्छे’ का नाम दे दिया है । पर हम अच्छी आदतें भी विकसित नहीं कर पाते । उसमें कुछ अच्छा है नहीं, है वो ढर्रा ही, पर हम उसको भी नहीं रख पाते ।

तो उचित ही है कि जो संसारी मन है, जो पैटर्न पर चलता है, जो ढर्रों पर चलता है, वो जब ऐसों को देखता है जो ढर्रों पर भी नहीं चल पाते, तो उनको ज़रा उपेक्षा की नजर से देखे । ऐसे लोग वो हैं जिनका चित्त इतना भटका हुआ है कि उसको आदतें भी नहीं दी जा सकतीं, उसको छोटे से छोटा संकल्प भी नहीं दिया जा सकता ।

छोटे-छोटे प्रभाव आते हैं और उसको हिला कर चले जाते हैं । सीधी रेखा में कैसे चलेगा ? दाएँ तरफ से आकर्षण आया तो वो दाएँ को भाग लेता है, और बाएँ तरफ से बुलावा आया तो बाएँ को चल देता है, सीधे तो वो चल ही नहीं पाता । चित्त में किसी भी प्रकार की न्यूनतम स्थिरता भी नहीं है । यह प्रभावित होने की पराकाष्ठा है ।

ढर्रे पर चलने के लिए भी ज़रूरी है कि आप थोड़ा तो अप्रभावित रहना सीख ही लें । ‘मुझे अगर पाँच बजे उठना है, और बाहर बरसात हो रही है, तो भी पाँच बजे उठूँगा, अप्रभावित हूँ । अगर पाँच बजे उठाना है और तबियत खराब है, हल्का बुखार लग रहा है, तो भी उठूँगा, अप्रभावित हूँ ।’ प्रभावित होने की पराकाष्ठा यह है कि आप आदतें भी नहीं बना पाते हैं । याद रखियेगा कि मैं आदतों का समर्थन नहीं कर रहा हूँ, पर मैं कह रहा हूँ कि प्रभावित होना इस हद तक जा सकता है कि आप आदतें भी ना बना पाएँ । हल्का-सा सर दर्द हुआ प्रभावित हो गये, ‘हम नहीं उठेंगे’ । टूट गया संकल्प । तो संसारी मन ढर्रों पर न चलने वाले को ‘भ्रांत’ कहता है ।

हम देख रहे थे कि भ्रांत कौन है ? अब हमें यह प्रश्न पूछना पड़ेगा, ‘यह कौन कह रहा है?’ तो संसारी मन जब देखेगा, तो वो उसे ‘भ्रांत’ कहेगा जो ढर्रों पर नहीं चल पाता है । योगी किसे ‘भ्रांत’ कहेगा ? जो ढर्रों पर चल पाता है । दृष्टि का भेद समझिये । योगी किसे ‘भ्रांत’ कहेगा ? जो ढर्रों पर चल पाता है ।

तुम सिर्फ़ ढर्रों पर ही चलते रह गए, तुममें इतना आत्मबल ना आया कि तुम कहो, ‘अब मुझे ढर्रों के सहारे की ज़रुरत नहीं है’, और तुम्हारा ऐसा दुर्भाग्य था कि तुम पटरी छोड़ कर कभी उतरे ही नहीं । हाईवे से हटकर तुमने कभी देखा ही नहीं कि अगल-बगल कितनी सुन्दरता है और कैसी प्राकृतिक हरियाली है । तुम ढर्रे की सड़क पर ही चलते रह गए । तुम मुक्त आकाश में कभी उड़े ही नहीं ।

योगी ढर्रे पर चलने वाले को ‘भ्रांत’ कहेगा । लेकिन जो संसारी है उसने तो तय कर रखा है कि ‘भ्रांत’ कौन है, वो जो ढर्रे पर नहीं चलता । अब दो लोग हैं जो ढर्रे पर नहीं चलते । एक तो वो जो बिल्कुल ही आत्मबल हीन हैं, जो अपने छोटे-छोटे संकल्पों को भी पूरा नहीं कर सकते । और दूसरे वो जो इतने आत्मबली हैं कि उनको अब ढर्रों पर चलने की ज़रुरत ही नहीं रह गई है । और संसारी तो उनको भी ‘भ्रांत’ बोल देता है । वो कहता है, ‘यह देखो ढर्रों पर नहीं चल रहा है, यह भी भ्रांत है ।’ संसारी की चूक नहीं है उसमें ।

हजार में से नौसौ निन्यानवे लोग जो बधे-बंधाये रास्तों पर नहीं चलते, वो इसीलिए नहीं चलते क्योंकि उनमें उन रास्तों पर चलने की भी काबिलियत नहीं होती । हजार में से नौसौ निन्यानवे लोग जो संसार में तरक्की करते नज़र नहीं आते, वो इसीलिए नहीं नज़र आते क्योंकि उनमें संसार में तरक्की करने की भी काबिलियत नहीं होती । संसार में तरक्की करने के लिये भी काबिलियत चाहिए, आपके भीतर इतनी संकल्पशीलता होनी चाहिए कि आप मेहनत कर सकें । आपके भीतर बातों को समझने की, स्थितियों को जानने की, और स्थितियों का उचित उत्तर दे पाने की क्षमता होनी चाहिए, तभी संसार में तरक्की होती है ।

आपके भीतर ध्यान की क्षमता होनी चाहिए । आपका जीवन सधा हुआ होना चाहिए ताकि आपका समय नष्ट ना हो इधर-उधर । तभी आप संसार में तरक्की कर पाते हो । संसार में तरक्की से वही आशय है जो सामान्यतया समझा जाता है, कि रूपया, पैसा, इज्ज़त मिले । नौ सो निन्यानवे लोग जो संसार में असफल रहते हैं वो इसीलिये असफल रहते हैं क्योंकि उनमें संसार में भी सफल होने की पात्रता नहीं है । यह तो छोड़ ही दीजिये कि वो आध्यात्मिक रूप से सफल हो सकते हैं, उनकी तो हालत यह है कि वो सांसारिक रूप से भी सफल नहीं हैं । तो संसारी यह ठीक ही करता है कि वो जिसको भी ढर्रों से हटता हुआ देखता है, उसको ‘भ्रांत’ कह देता है ।

लेकिन हज़ार में से एक मामले में चूक हो जाती है । हज़ार में से एक ऐसा भी होता है जो संसार की अपेक्षा इतना श्रेष्ठ होता है कि अब उसे संसार के रास्तों पर चलने की आवश्यकता ही नहीं रहती । संसारी वहाँ धोखा खा जाता है । संसारी सोचता है कि यह भी उन्हीं संकल्पहीन लोगों में से है । संसारी सोचता है कि अगर इसके पास रूपया, पैसा, प्रतिष्ठा, सफलता, इज्ज़त नहीं है, तो इसीलिए नहीं है क्योंकि यह दौड़ में पीछे रह गया है । वो यह समझ ही नहीं पाता कि वह दौड़ में पीछे नहीं रह गया है, वह दौड़ कभी दौड़ा ही नहीं । वहाँ गलती हो जाती है । सांसारी मन उसको भी ‘भ्रांत’ समझ लेता है । और यही कारण है कि योगी, संसारी को ‘भ्रांत’ बोलता है, क्योंकि योगी तो संसारी को जान जाएगा, पर संसारी कभी योगी को नहीं पहचान पाएगा । और यही प्रमाण है इस बात का कि ‘भ्रांत’ कौन है ।

संसारी के लिए असंभव है कि वह योगी को पहचान जाए, और योगी संसारी को देखते ही पहचान जाएगा । उसकी कामनाओं से, वासनाओं से, उसकी प्यास से, तृष्णा से, उसके भटकाव से । उसके चहरे पर लिखा होता है, ‘मुझे इस संसार से अभी बहुत कुछ चाहिए।’ पर संसारी योगी को देखेगा तो बिल्कुल नहीं जान पाएगा । तुम्हारे सामने बुद्ध बैठे हों, तुम पहचान नहीं पाओगे । तुम्हारे बगल से कृष्ण गुज़र जाएँ, तुम्हें बिल्कुल खबर नहीं लगेगी, क्योंकि उनके पास आज के समय में ना तो मुरली होगी, ना मुकुट होगा ।

तुम्हारे लिए तो कृष्ण का मतलब ही यही है कि रथ पर निकलेंगे मुरली बजाते हुए । तुम पहचान ही नहीं पाओगे उनको । यही अंतर है दोनों में । जो सत्य में है वो संसार को बखूबी जानता है, पहचानता है । और जो संसार में है, उसे सत्य की कोई ख़बर नहीं होती । ओर यही सिद्ध भी कर देता है कि दोनों में से श्रेष्ठ कौन है ।

‘तुम मुझे बिल्कुल न जान पाओगे, और मैं तुम्हारी नस-नस से वाकिफ हूँ,’ – इसी को कहतें है अंतर्यामी होना । तुम्हें मेरा कुछ न पता चलेगा और मैं तुम्हारी नस-नस से वाकिफ हूँ । मैं अच्छे से जानता हूँ कि तुम्हारे रेशे-रेशे में क्या है । ‘मैं कूटस्थ हूँ’- सत्य यह कहता है ।

आपका पुरस्कार ही यही है कि जब आँखे खुलें, जब तड़प मिटे, जब विरह की आग बुझे, जब योग हो, जो योगस्थ है, उसका पुरस्कार ही यही है कि संसार उसे ‘भ्रांत’ समझे । आप उस दिन उत्सव मनाइयेगा जिस दिन संसार आपसे कहे कि तुम भटके हुए हो, तुम कुछ नहीं हो । उस दिन उत्सव मनाइयेगा । जीसस ने कहा है कि निराश मत हो, अगर आज वो तुमसे नफ़रत करतें हैं, तो तुमसे पहले उन्होंने मुझसे नफ़रत की थी । तुम बिल्कुल निराश मत होना । तुमसे तो छोटी-मोटी नफ़रत कर रहे हैं, मुझसे तो ऐसी की थी कि मुझे मार ही डाला था ।

लेकिन सावधान रहें। संसार अगर हज़ार लोगों को भ्रांत बोलता है, तो नौसौ निन्यानवे मौकों पर ठीक ही बोलता है । संसार अगर हज़ार लोगों को कहता है कि तुम भटके हुए हो, तो नौसौ निन्यानवे लोगों को ठीक ही कहता है, किसी एक को ही जानने में चूकता है । एक ही मौके पर उससे गलती होती है ।

योगी पागल जैसा दिखता है, पर हर पागल जैसा दिखने वाला योगी नहीं हो जाता । अब योग तो मुश्किल है, तो हम वो साध लेते हैं जो आसान है । क्या ? पागलपन । हम कहते हैं, ‘योगी पागल जैसा दिखता है, तो हम क्या करते हैं? हम पागलपन करते हैं, ताकि इससे क्या सिद्ध हो जाए ? हम योगी हैं !’

योगी का पागलपन मात्र संसार की नज़रों में है, योगी के भीतर तो गहरा ज्ञान है, उसके भीतर गहरा प्रकाश है, सजगता है । वहाँ कोई पागलपन नहीं है, कोई विक्षिप्तता नहीं है ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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