प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब कुछ समझ न आ रहा हो, तो क्या करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: देखो, स्थिति जब ऐसी हो कि तुम जितना समझते थे उस पर पूरा अमल कर लिया है और अब सामने दीवार खड़ी है, समझ की रौशनी जहाँ तक जाती थी उस पर तुम चल लिए हो और अब आगे अब अँधेरा है तब तो ये प्रश्न सार्थक है कि, "आगे कैसे समझें? और कैसे समझें?"
सवाल ये नहीं है कि सही और गलत में भेद कैसे करें, सवाल ये है कि जो भेद तुम जानते ही हो, तुमने उसपर अमल करा क्या? हज़ार चीज़ें हैं जहाँ हमें पता है कि उचित क्या है और अनुचित क्या है, लेकिन हम किसका पक्ष ले रहे हैं? अनुचित का।
तो अभी तो वो स्थिति आई ही नहीं है कि हमें पता ही न हो कि क्या उचित है और क्या अनुचित। हमारी तो ये हालत है कि हमें पता है कि क्या सही है और क्या ग़लत लेकिन हम उसपर अमल नहीं कर रहे।
आपको जितना पता है आप उसपर अमल करो और अमल करने के कारण और पता चल जाएगा। समझे बात को?
ये ऐसी सी बात है कि रौशनी कम है तो बहुत दूर का नहीं दिख रहा पर इतना तो दिख रहा है न कि दो कदम चल सको। और दो कदम अगर चल लो तो थोड़ा आगे का दिखने लगेगा। आप अपनी जगह पर खड़े-खड़े अगर पूछोगे कि आखिरी तौर पर, आत्यंतिक तौर पर क्या सही है, क्या ग़लत तो ये प्रश्न फिर किताबी हो जाता है, इसके कोई व्यावहारिक मायने नहीं रह जाते।
हममें से किसी को भी वास्तव में ये पूछने का हक़ ही नहीं है कि क्या सही है और क्या ग़लत क्योंकि हम सब जानते हैं कि क्या सही है और क्या ग़लत। हो सकता है कि तुम बहुत दूर का न जानते हो, हो सकता है तुम बहुत शुद्ध रूप से न जानते हो। लेकिन तुम कुछ तो जानते हो न? कुछ तो जानते हो। मैं पूछ रहा हूँ जो जानते हो उसपर ही अमल क्यों नहीं किया?
जितना तुम्हें पता हो भले ही वो सीमित हो, थोड़ा हो, तुम उस पर ही अगर अमल कर लेते तो आगे का अपने आप ज्ञात हो जाता। तो हमारी कमज़ोरी, या हमारी समस्या ये नहीं है कि हमको सच की आखिरी तस्वीर भी पता नहीं। विशुद्ध सत्य हमें नहीं पता ये हमारी समस्या नहीं है, हमारी समस्या ये है कि हमें जितना पता है हम उसके साथ भी ईमानदार नहीं हैं।
बात समझ रहे हो? थोड़ा-बहुत तो पता है उस पर तो चलो। ठीक है? तो यही सूत्र है, जहाँ तक निगाह जाती है कम-से-कम वहाँ तक तो होश से चलो, आगे की आगे देखेंगे। अभी जो ठीक लग रहा है कम-से-कम उस के प्रति तो निष्ठ रहो।
भई आपको नहीं पता होगा कि ब्रह्म क्या है। पर सच-सच बताओ इतना तो पता है न कि इस वक़्त मैं जो बोल रहा हूँ उसको सुनना ठीक है? ये तो पता है न कि अगर अभी बोल रहा हूँ तो उचित ये है कि उसको सुना जाए? तो तुम इस झंझट में पड़े रहोगे कि तुम्हें ब्रह्म नहीं पता या सीधे-सीधे इस वक़्त जो तुम्हें छोटी सी बात पता है उस पर अमल करोगे? वो छोटी सी बात क्या है?
श्रोतागण: सुनना।
आचार्य: कि सुन लो भाई, बताया जा रहा है सुन लो। तुम उतना ही कर लो न जितना तुम्हें पता है और उतना करने से आगे के दरवाज़े खुल जाएँगे। पर हम ज़रा बेईमानी कर जाते हैं। जो सीधी राह है उसपर दो कदम नहीं बढ़ाते और हम ज़्यादा उत्सुक हो जाते हैं आखिरी मंज़िल पर। और आखिरी मंज़िल का तुम्हें पता तब तक नहीं चलेगा जब तक तुम आगे नहीं बढ़ोगे। जहाँ खड़े हो वहाँ खड़े-खड़े आखिरी तो बस किताबी बात होगी, दिवास्वप्न होगी।
हमें हमेशा चल करके आगे का पता चलता है, सीढ़ी की एक पायदान पर कदम रखो तो आगे की एक या दो दिखाई देती है। नीचे खड़े-खड़े पूरे जीने को नहीं देख पाओगे।
तो अभी जितना पता है उस पर अमल करो, आँख मूँद कर अमल करो। बस यही है।
दूसरी कक्षा में पढ़ता हो कोई लड़का और वो दसवीं की किताब उठा करके उससे प्रश्न पूछे, तो ये ख़ुशी की बात है या धोखे की?
श्रोतागण: धोखे की।
आचार्य: आप जहाँ हो उस जगह के साथ न्याय करो। आपकी जो भी स्थिति है आप बस उसके साथ न्याय करो, आगे का आगे देखना। आठवीं-नौवीं में जब आ जाना तो दसवीं के सवाल पूछना। ठीक है? अभी दूसरी में हो अभी शिक्षक ने जो होमवर्क (घर का पाठ) दिया हो वो कर लो। और वो बहुत छोटी सी चीज़ है, है न? उसको कर लो बस, फिर अपने-आप तीसरी में आओगे, चौथी में आओगे, दसवीं में आओगे।
प्र२: ये जो अभी आपने बोला ये क्या इसलिए बोला कि अभी जो सवाल पुछा है उसके लिए?
आचार्य: बस सुनो, समझो।
प्र२: क्योंकि नहीं हो रहा कनेक्ट (जुड़ाव)।
आचार्य: उस सवाल से आया, कहीं से आया फ़र्क नहीं पड़ता बस समझो। सवाल का वैसे भी कोई बहुत महत्व नहीं होता। इस बात को समझो। ठीक अभी जो सामने है वो तुम जानते हो। बिलकुल जो सबसे छोटी इकाई है उस पर ध्यान दो, बिलकुल छोटी इकाई। और यकीन जानो कि वो कभी भी अस्पष्ट नहीं होगी, वो कभी भी धुंधली नहीं होगी।
ऐसा किसी के साथ और कभी भी नहीं हो सकता कि उसे अगले एक कदम का पता न हो। पर चूँकि अगला कदम सिर्फ अगला है इसीलिए वो हमको असंतुष्ट कर जाता है। हम क्या चाहते हैं? हम चाहते हैं कि बहुत आगे का पता चले, अगला कदम छोटी-सी बात लगता है। अगला कदम छोटी बात नहीं है, छोटी बात छोटी बात नहीं है, हमें छोटी बातों ने ही हरा रखा है। तुम वो छोटी-छोटी बातें बस ठीक करो बाकी सब सही-गलत अपने आप ठीक हो जाएगा।
और छोटी बात का तुम्हें पता है। अभी छोटी-से-छोटी बात क्या है? कि सुनो, ब्रह्म क्या है वो अपने आप स्पष्ट हो जाएगा। अभी के लिए एक छोटा सा नियम है, क्या? और मत पूछो कुछ, बस सुनो। ब्रह्म क्या है वो अपने आप स्पष्ट होगा। वो होगी आखिरी बात।
अभी अगर इसपर मन लगाओगे कि, "नहीं मैं तो शिविर में एक जिज्ञासा ले कर आया था।" क्या जिज्ञासा? कि, "ब्रम्ह-ज्ञान ले करके जाऊँगा", तो फँस जाओगे।
और मैं फिर कह रहा हूँ — इतना उलझा हुआ, या इतना मूढ़ कोई नहीं होता कि उसे ठीक सामने की चीज़ का भी पता न हो। इतना सबको पता होता है, तुम उन छोटी चीज़ों के बारे में सतर्क रहो। जो सामने है ठीक, उसके बारे में सतर्क रहो। और जो सामने है वो आसान है। वहाँ तुम्हें उलझन आएगी नहीं। वास्तव में उलझनें आती ही इसीलिए हैं क्योंकि हम जो सामने है जो ठीक अभी है, जो प्रस्तुत ही है, उसको छोड़ करके आगे के सही-गलत का विचार करते हैं। समझ रहे हो बात को?
कल सुबह तुम्हें कहाँ जाना है? अगर ये सवाल तुम्हें अभी सता रहा है तो कल सुबह तुम गलत ही जगह जाओगे। क्योंकि बहुत सम्भावना है कि अभी अगर तुम सुन लो तो कल सुबह कहाँ जाना है इसका फैसला अपने-आप हो जाएगा। लेकिन मन क्या कर रहा है कि, "अभी सुनो मत" और सुनने की जगह क्या विचार करो, कि, "कल कहाँ जाना है?" ये भूल हो रही है।
कल का क्या होगा, ये कल पर छोड़ दो। अगर अभी जो है वो सामने उसे ठीक कर लिया तो कल अपने-आप ठीक हो जाएगा। और अभी क्या ठीक है ये तुम जानते हो, ये मैं तुमपर भरोसा कर रहा हूँ। क्योंकि अभी क्या ठीक है वो बहुत छोटी सी बात है।
अभी क्या ठीक है?
श्रोतागण: सुनना।
आचार्य: गुरु सामने बैठा है उसको सुनो, यही ठीक है। और कुछ विचार ही क्यों? उसको सुन लिया तो आगे के निर्णय तुम अपने-आप ठीक कर लोगे। अभी वो छोटी सी चीज़ जो है उसका पालन कर लो बस। अभी की छोटी सी चीज़ को सही कर लो आगे की बड़ी-बड़ी चीज़ें भी अपने-आप सही हो जाएँगी।
और अभी ही वो मौका है जब तुम छोटी-छोटी चीज़ों को सही कर सकते हो। अभी में कुछ बड़ा होता ही नहीं है। अभी में जो होता है छोटा होता है इसीलिए क्या होता है? आसान। सारी कठिनाइयाँ आगे होती हैं।
ये कभी मत कहना कि, "हम अज्ञानी थे इसीलिए हमसे गलती हो गई।" सब जानते हैं, सबको पता है। अगर तुम जानते नहीं होते तो मुझे सुन नहीं पाते, अगर तुम जानते नहीं होते तो मैं तुमसे कोई संवाद ही नहीं कर सकता था। सही-गलत सबको पता है।
मैं फिर कह रहा हूँ — हमारी भूल ये नहीं है कि हमें सही-गलत नहीं पता, हमारी भूल ये है की हमें सब पता है उसके बावजूद हम पक्ष किसका लेते हैं? गलत का।
तो ये सवाल मत पूछो कि, "सही क्या है?" सही क्या है तुम जानते हो, गलत का पक्ष मत लो। और बहुत बड़ा वाला सही तुम्हें न पता हो छोटा वाला सही तो पता है न? छोटा वाला सही कौन सा? जो प्रस्तुत है, जो सामने है। बड़ा वाला सही कौन सा? वो जो किताबी है, और जो सैद्धांतिक है, और जिसका रूप और आकार तुम्हारे मन में बहुत बड़ा और मूल्यवान है। वो हो सकता है तुम्हें ना पता हो, क्योंकि वो तो सिद्धांत है वो तो ज्ञान है और ज्ञान कभी पूरा पड़ता नहीं। तो वो कभी पूरा पता भी नहीं चलेगा। पर जो प्रस्तुत सत्य है वो सिद्धांत नहीं होता, वो हक़ीकत होता है। वो पता होता है, उसपर अमल करो।
बात न जानने की नहीं है, बात है अमल न करने की। ये बात स्पष्ट हो पा रही है?
तुम अज्ञानी नहीं हो तुम आलसी हो, जानते-बूझते करते नहीं हो। तुम अज्ञानी नहीं हो तुम बदनीयत हो, जानते-बूझते गलत का पक्ष लेते हो। अज्ञान समस्या नहीं है, आलस और नीयत समस्या है। नीयत ख़राब है और आलस ज़्यादा है। ये दो बातें मिल करके हमारा बेड़ा गर्क कर रही हैं। कौन सी दो बातें?
श्रोतागण: आलस और नीयत।
आचार्य: पहले तो नीयत ख़राब है। और कभी-कभार नीयत ठीक होती भी है तो आलस छा जाता। पता तुम्हें सब है कि क्या करना चाहिए पर नीयत के और आलस के मारे हुए हो।
नीयत ठीक रखो।
जब जान जाओ कि क्या सही है जो कि जान ही जाते हो, तो उसके सामने सर झुका दो, अड़ो मत। इतना अकड़ कर मत चलो, झुकने के लिए तैयार रहो। एक बार पता चल गया कि क्या सही है अब बार-बार उसे पीछे मत धकेलो।
अब बार-बार तर्क मत करो, बहाने मत बनाओ, मुद्दे को बंद कर दो। मुद्दा बंद करना समझते हो न? ये बात पता चल गई, मैटर क्लोज़्ड * । अब इसपर अमल होगा, विचार नहीं होगा। अब इस पर अमल होगा, अभी और इसपर * कन्सिडरेशन (विचार-विमर्श) नहीं होगा कि, "अभी और सोचेंगे।" अब कुछ सोचना नहीं है। अब क्या करना है? अमल करना है।
विचार नहीं करना है, अमल करना है। कन्सिडरेशन नहीं करना है, एक्सेक्यूशन (अमल) करना है।
हम विचार कुछ ज़्यादा करते हैं कि, "ज़रा अभी सोचेंगे।" अरे क्या विचार करना है? जो बात दिख ही गई अब कल उस पर पुनः विचार क्यों कर रहे हो? और तुम्हें सौ बार बातें दिखी हैं।
किसी सत्र से तुम नहीं उठे हो बिना रौशनी के। हर सत्र से जब तुम उठते हो तो तुम्हारे मन का आकाश साफ़ होता है। तुम्हें कुछ बातें साफ़-साफ़ दिख रही होती हैं। लेकिन तुम क्या करते हो? तुम जो जान भी चुके होते हो उसके साथ बदनीयती कर जाते हो। तुम कहते हो, "अभी सोचेंगे।" तुम अमल करने के वक़्त पर आलस दिखा देते हो, पुनः विचार करना शुरू कर देते हो। ये मत करो।
जो समझ जाओ उसका बक्सा बंद कर दो और ताला लगा दो। कहो, "ये बात अब सुलझ गई और सुलझे हुए को अब मैं दोबारा नहीं उलझाऊँगी।" जो सुलझ गया उसको बार-बार मत उलझाओ। तुम्हारी समस्या ये नहीं है कि कुछ सुलझता नहीं, सुलझ तो सौ बार जाता है। जितनी बार तुमने सुना है मुझे सुलझ कर ही उठे हो।
तुम मुझे ये बताओ सुलझी चीज़ों को उलझाते क्यों हो बार-बार? क्या तुम्हें मैं बिना सुलझाव के छोड़ देता हूँ? जब आते हो सुलझ कर जाते हो और फिर वहाँ कमरे में बंद हो जाते हो, भीतर से सिटकनी लगा लेते हो, और अपने अंतर जगत में उलझन बुला लेते हो।
उस उलझन को मत बुलाओ, उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। समझ रहे हो? यहाँ से सुलझ कर लौटोगे और फिर क्या करोगे? कहोगे, "नहीं, नहीं! अभी पूरी तरह सुलझे नहीं हैं कुछ अभी बचा था।" ज़बरदस्ती उलझन बुलाओगे। जहाँ उलझन है ही नहीं वहाँ उलझन फिर खड़ी करोगे। जो मुद्दा सुलझ चुका है उसपर कहोगे, "अभी कुछ सवाल बाकी हैं।" ये मत किया करो।