प्रश्नकर्ता: जो इतने वर्षों में सीखा, घर में रह कर, दोस्तों के साथ, शिक्षा में, उसका बल इतना है कि लगता है कि वो गलत है—ये मैं अपना एक प्रोजेक्शन (प्रक्षेपण) कर रहा हूँ; गलत लगता तो छोड़ ही देता—लेकिन बल इतना है कि उसको गिराने के लिए अक्षम पा रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: तो आपने समाधान बता दिया न। आपने ठीक से देखा नहीं है कि वो गलत है। और ठीक से देखना कि कोई चीज़ गलत है, उसके लिए आपको कोई विशिष्ट शक्ति नहीं चाहिए। उसके लिए आपके पास कोई दैवीय सिद्धि हो ये कोई ज़रूरी नहीं है। उसके लिए तो बस मेहनत चाहिए, उसके लिए तो जाकर आज़माना पड़ेगा, प्रयोग करने पड़ेंगे, छान-बीन करनी पड़ेगी, सवाल करने पड़ेंगे, किसी से कोई कठिन प्रश्न खड़ा कर देना होगा, तभी तो पता चलेगा न।
होता क्या है न, जब किसी बात की आपको बस साठ प्रतिशत आश्वस्ति होती है, तो बड़ी आसानी से हम बाकि चालीस प्रतिशत का दुरुपयोग करके अपने-आपको बता देते हैं कि, "अभी तो जो मामला है न वो थोड़ा-सा अनिर्णीत है, अधर में अटका हुआ है।" अनिर्णीत समझते हैं? अनडिसाइडेड * । भले ही वो जो अभी अनिर्णय है, वो निन्यानवे और एक का अनिर्णय हो, कि निन्यानवे प्रतिशत आप किसी चीज़ को लेकर निश्चित हैं, और एक प्रतिशत आपके पास संदेह अभी कोई बचा हुआ है। लेकिन जब कर्म करने की बारी आएगी, तो आप फैसला उस निन्यानवे प्रतिशत के पक्ष में नहीं लेंगे, आप उस एक प्रतिशत के पक्ष में ले लेंगे ये बहाना देकर कि "साहब, अभी तो * फ़ाइनल डिसिज़न पेंडिंग (अंतिम निर्णय बाकी) है। देखिए अभी कुछ पेंच बाकी हैं, अभी कुछ बातें सुलटनी बाकी हैं। आखिरी चीज़ अभी तय थोड़े ही हुई है।"
अगर आखिरी चीज़ तय नहीं हुई है, तो तुम ईमानदारी का खेलो न। कुछ अभी तय नहीं हुआ है। उसके पक्ष में तुम्हारे पास निन्यानवे वजहें हैं, उसके विपक्ष में बस एक बची है। वो जो एक है, तुम उसके पक्ष में क्यों जा रहे हो? ये आप समझ रहे हैं मैं क्या बोल रहा हूँ? वो जो एक है, तुम उसके पक्ष में क्यों जा रहे हो? पर जाओगे!
तो तरीका फिर क्या है? तरीका ये है कि उस एक को बचे ही मत रहने दो। वो एक है, वो बोल रहा है, "देखो, अभी फ़लानी चीज़ का निर्णय नहीं हुआ है या हो सकता है अभी फ़लाना वहाँ पर अभी कुछ जानकारी नहीं है।" आप जाकर वो जानकारी ले ही लीजिए न। कहिए, "ठीक है, कौन-सी जानकारी नहीं है? बताओ, लिए लेते हैं आज। कौन-सी चीज़ अभी तय करनी बाकी है? तय कर ही देते हैं न आज।" स्पष्ट हो रहा है मैं क्या बोल रहा हूँ?
ये हमारा बहुत ज़बरदस्त बहाना रहता है। हम इतना-सा संदेह अपने भीतर जानबूझकर छोड़ देते हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं संदेह के खिलाफ हूँ। इसका मतलब ये है कि मैं जानबूझकर संदेह पालने के खिलाफ हूँ। इन दोनों बातों में अंतर करिएगा।
संदेह बहुत अच्छी चीज़ है अगर वो आपको जिज्ञासा और अन्वेषण की तरफ प्रेरित करे। और संदेह उठने पर, सहज-सी बात है, ये करना भी चाहिए न। संदेह उठेगा, तो क्या करना चाहिए? जा कर पूछ लो, जा कर पता करो, जा कर प्रयोग करो, संदेह उठा है तो।
हम ऐसे नहीं हैं। हमें संदेह उठता है, तो हम उस संदेह को एक डिबिया में बंद करके भीतर सहेज लेते हैं। पूछिए क्यों? ताकि हम ये कह सकें कि, "अभी तो संदेह बाकी है, तो इसीलिए हम अभी न कोई ठोस कर्म कर नहीं सकते।"
"द मैटर इस स्टिल पेंडिंग फॉर डिसिशन (मामला अभी भी निर्णय के लिए लंबित है)।" "इट इस नॉट स्टिल पेंडिंग। यू आर डेलिब्रेटेली कीपिंग इट हैंगिंग सो दैट यू केन रिमेन इनएक्टिव*। (वो निर्णय के लिए लंबित नहीं है। आपने उसे जानबूझकर लटका रखा है ताकि आप निष्क्रिय रह सकें।)"
मैं अंधभक्ति या अंधश्रद्धा की बात नहीं कर रहा हूँ। संदेह अच्छी बात है, पर साहब आपको संदेह हो ही गया तो उसको निपटा दो। या संदेह ऐसी चीज़ है जिसको सहेजोगे और उसको पोषित करते रहोगे भीतर-भीतर? हम ऐसे ही करते हैं।
फिर वो सब लोग आते हैं जो कहते हैं, "नहीं बात तो साहब आपकी बिलकुल सही है, लेकिन..."
ये क्या है? क्या है? क्या है? बात अगर बिलकुल सही है, तो ये 'लेकिन' कहाँ से आ गया फिर? ये वही है, कुछ एक प्रतिशत, थोड़ा-सा अपने भीतर जानबूझकर शक़ का बीज अनसुलझा छोड़ दिया ताकि वो ऐसे मौकों पर काम आ सके। और आप कह सकें, "नहीं वो मुझे थोड़ा-सा न अभी संदेह, डाउट बाकी था।"
मिटा दीजिए न। इसका मतलब ये नहीं कि अगला नहीं आएगा संदेह। उसको भी मिटा दीजिए। उसका काम है उठते आना, आपका काम है मिटाते जाना। कुछ समय बाद आपको ही दिख जाएगा कि ये बड़ा बेशर्म है, पिट-पिटकर भी लौटता है। उसकी ताक़त कम होती जाएगी। आप उसको जो महत्त्व देते हैं वो अपने-आप कम होता जाएगा फिर।
संदेह मिटेंगे तब न जब कड़े प्रयोग किए जाएँ। और उन प्रयोगों को मैं कड़ा क्यों बोल रहा हूँ? कोई प्रयोग कड़ा नहीं होता वास्तव में। कड़े प्रयोग का मुझे इस्तेमाल सिर्फ़ इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि उन प्रयोगों का जो नतीजा आएगा वो आप पर बहुत कड़ा गुज़रेगा, इसलिए वो कड़ा प्रयोग है। नहीं तो प्रयोग तो प्रयोग है, कड़ा क्या है? उन प्रयोगों का जो नतीजा आएगा वो आपको अच्छा नहीं लगेगा, इसलिए मैं कह रहा हूँ कड़े प्रयोग।
तो फिर हम वो प्रयोग करते ही नहीं क्योंकि वास्तव में हमको पहले से ही पता है कि वो प्रयोग करा तो होगा क्या। तो हम उस प्रयोग को लंबित रहने देते हैं। कैसा? *पेंडिंग*।
यहाँ लोग आते हैं, बात करते हैं, बहुत सारी बातें करते हैं, अपने परिवार के बारे में, अपने जीवनसाथी के बारे में, ये वो। मैं सुन रहा होता हूँ, सुन रहा होता हूँ, बीच में कभी हैरत से पूछ लेता हूँ, "ये बात जो आप मुझसे कर रहे हैं, आपने कभी करी नहीं अपने पति, पत्नी, जो भी हैं, प्रेमी, उनसे कभी करी नहीं? आपका पच्चीस साल का रिश्ता है।" बोले, "नहीं, ये कैसे हो सकता है?" तुम ये बात मुझसे कर सकते हो, तुमने पच्चीस साल में उससे नहीं करी।
बात बहुत सीधी है। तुमने बात इसलिए नहीं करी क्योंकि तुम्हें वो बात करने की कोई ज़रूरत थी ही नहीं, क्यों नहीं थी? क्योंकि बात वो करी जाती है जहाँ पर बात का अंजाम ना पता हो। तुम्हें पता था कि उस बात के उत्तर में तुम्हें क्या मिलने वाला है, तुम्हें पता था कि उस सवाल का जवाब क्या है, इसीलिए तुमने वो सवाल उठाया ही नहीं। सवाल नहीं उठाया और अपने-आपको ये नहीं बताया कि "मुझे जवाब पता है", अपने-आपको ये कहा कि "अभी तो जवाब आना बाकी है, तो इसलिए मैं निर्णय कैसे ले लूँ?" जवाब आना अभी बाकी नहीं है, आपको जवाब बहुत अच्छे से पता है। इसीलिए तो आप सवाल नहीं कर रहे।
उन सारे संवादों की सोचिए जो आपने कभी करे नहीं, *ऑल द कन्वर्सेशन्स दैट यू नेवर हैड*। वो क्यों नहीं हुए कभी? क्यों नहीं हुए? क्योंकि उनमें क्या होता है ये आप भलीभाँति जानते हैं। तो आपने कहा कि खैरियत इसी में है कि ये प्रयोग करो ही मत। तो लेकर बैठे रहो खैरियत। जिसको आप खैरियत बोल रहे हो उसमें किसकी खैर मना रहे हो? अहम की। तो फिर अहम खैरियत से है।
कड़ा सवाल वही होता है। वाल्मीकि का याद है न? "मुझे जब अपने पापों का दण्ड मिलेगा, तू चलेगी मेरे साथ?" ऐसा नहीं कि उसको उत्तर पता नहीं था। बड़ा व्यावहारिक आदमी था। डाकू होना छोटी-मोटी बात नहीं होती। डाकू और कुछ ना जानता हो, पर व्यवहार-निपुण तो बहुत होता है वो, सब जानता है। ऐसे ही थोड़े ही लूट लोगे किसी को। कोई लुटना नहीं चाहता। तुम किसी को लूट लेते हो, तो तुममें उससे ज़्यादा व्यवहारिक बुद्धि है। जानता वो भी था कि, "मैं जो कुछ कर रहा हूँ, कहने को तो इसलिए कर रहा हूँ कि बीवी है, बच्चे हैं।" हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था ये स्वीकार करने की। उस दिन हिम्मत जुटा ली, कड़ा प्रयोग कर लिया। कड़ा प्रयोग करा नहीं कि काम हो गया।
कड़ा प्रयोग कोई बहुत मुश्किल सवाल था? पाँच शब्द हैं कुल इस प्रश्न में। कोई भी पूछ सकता है। और फिर ये तो उसने किसी और से पूछा, अपनी पत्नी से। सबसे मुश्किल हमें वो प्रश्न पड़ते हैं जो हमें स्वयं से पूछ लेने चाहिए थे, हमने आज तक पूछे नहीं, पूछे ही नहीं। मैं पूछता हूँ, "ये रोज़ सवेरे चल देते हो नौकरी करने। बस जब जा ही रहे हो गाड़ी पर बैठकर दफ्तर की ओर निकलने के लिए, पूछ तो लो कि ये क्यों कर रहा हूँ?" उस दिन की एल.डब्लू.पी. लग जाएगी, जा नहीं पाओगे।
इसीलिए बहुत ज़रूरी है कि अपने-आपसे पूछा ही ना जाए कि "मैं ये नौकरी कर क्यों रहा हूँ?" कड़ा सवाल है; कड़ा नहीं है, बहुत आसान सवाल है, पर मैच फिक्सिंग हो चुकी है। तुम्हें पहले ही इसका उत्तर पता है।
"क्यों जा रहे हो नौकरी करने?" "ये मत पूछो।"
जो कुछ भी बहुत तत्परता और बड़ी उत्तेजना के साथ जीवन में कर रहे हो, क्यों कर रहे हो?
अब समझिए कि हम थमना क्यों नहीं चाहते। क्योंकि थमने पर इस तरीके के सवाल आते हैं। इससे अच्छा ये है कि भागते रहो, दौड़ते रहो ताकि किसी गहरे विचार का मौका ही ना मिले। गहरे विचार का मौका तो नहीं मिलेगा, लेकिन तुम सबको झाँसा दे सकते हो, समय थोड़े ही झाँसे में आएगा। समय थोड़े ही कहेगा कि "अभी ये साहब झूठ-मूठ के बहाने बना रहे हैं ज़िन्दगी में, अभी इनके लिए घड़ी बंद करके रखो।" समय ऐसा कहेगा?
आप चाहे झूठ-मूठ के बहाने बना रहे हों, चाहे कोई भी बेईमानी खेल रहे हों, उस पूरी प्रक्रिया में अपना ही समय तो नष्ट कर रहे हैं न। समय सीमित है। आप दौड़ते रहिए, भागते रहिए बदहवासी में इधर-उधर झूठ बोल कर बेईमानी में, समय तो बीतता जा रहा है। किसको धोखा दे रहे हैं? बड़ा भयानक सवाल है। कुछ भी कर रहे हो और अगर थमकर पूछ लिया कि क्यों कर रहे हो, तो निन्यानवे प्रतिशत जो कर रहे हो वो कर नहीं पाओगे। एक प्रतिशत लेकिन अगर कुछ बच गया, तो वो बहुत काम का होगा। वो जीवन का अमृत होगा फिर।
प्र: जैसे वृत्ति उठी कोई, लालच ही उठा मान लीजिए, तो अन्वेषण करेंगे तो विचार से लिप्त होंगे। पर कृष्णामूर्ति साहब कहते हैं उससे आइडेंटिफ़ाई (तादात्म्य स्थापित) नहीं करना है। तो इसमें मेरे को एक विरोधाभास दिख रहा है।
आचार्य: बाज़ार का अन्वेषण करने भेजा है, निरीक्षण करने भेजा है। निरीक्षण माने जानते हो क्या होता है? इंस्पेक्शन * । आप * इंस्पेक्टर (निरीक्षक) हो। आपको जहाँ पर गड़बड़ होती है उस जगह का इंस्पेक्शन करने भेजा है, वहाँ चोरियाँ हो रही हैं। अब आपको ये थोड़े ही भेजा है कि आप भी वहाँ जाकर चोरी करो। निरीक्षण करने भेजा है, लिप्त होने थोड़े ही भेजा है, कि इंस्पेक्टर साहब मौका-ए-वारदात पर पहुँचे, और उन्हीं के साथ वारदात हो गई। ये कौन-से इंस्पेक्टर साहब हैं? ये कौन-सा निरीक्षण है?
पर मैं समझ रहा हूँ, ऐसा होता होगा कि कहा जाए, "देखो, ये सब जो बाज़ार है न, ये बेवकूफियों के और माया के अड्डे हैं। जाओ, ज़रा-सा निरीक्षण करके आओ।" गए निरीक्षण करने, वहाँ एक जगह खड़े होकर गुलाबजामुन झाड़ रहे हैं। निरीक्षण करने भेजा था, ये क्या कर रहे हो? भक्षण कर रहे हो?
तो ये सतर्कता रखनी पड़ती है कि निरीक्षण करना है, भक्षण नहीं करना है।
प्र: क्या निरिक्षण करते समय ही लिप्त नहीं हो सकते?
आचार्य: लिप्त कैसे हो जाओगे? जिस चीज़ को देख रहे हो उससे लिप्त कैसे हो गए? और लिप्त हो रहे हो तो अपनी लिप्तता को भी देखो फिर। अगर आप लिप्त हो रहे हो तो फिर ये भी देखो कि लिप्त हो रहे हो।
प्र: जब कठोर प्रयोग करने होते हैं, तो इन बातों का ध्यान रखना होता है हमें कि हमारे मन की स्थिति क्या है, हम साधना में कितने परिपक्व हुए। मुझे दिखता है कि ऐसे कोई प्रयोग करने जाऊँगा तो कुछ समय के लिए मानो अस्त-व्यस्त मन हो जाए, या फिर टूटूँ भी कुछ समय के लिए। तो जब ये प्रयोग करते हैं तो किन बातों का ध्यान रखना ज़रूरी होता है?
आचार्य: बस उसी बात का जो तुमने कहा। प्रयोग का उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए। प्रयोग का उद्देश्य अपनी बेहतरी है। प्रयोग का उद्देश्य ये सिद्ध करना नहीं है कि इस प्रयोग को तो असफल होना ही था।
आप खाना बना रहे हैं। आपके साथ कोई खड़ा है वो आपसे कह रहा है कि "दाल में नमक कम डाला है आपने।" और आप उससे कह रहे हैं, "नहीं, नमक ठीक है।" वो आपको दबाव देकर कह रहा है, "नहीं, नमक कम डाला है आपने।" आप चिढ़ गए। आपने कहा, "ठीक है, भई। तुम इतना ही ज़्यादा बार-बार कह रहे हो कि नमक इसमें कम है, तो हम इसमें नमक बढ़ाए देते हैं।" और आपने उसमें (एक हथेली की अंजुली दिखाते हुए) इतना नमक लेकर डाल दिया। और डालने के बाद आपने दाल निकाली एक कटोरी में और उसी व्यक्ति को दी और कही, "चखो।" उसने चखकर कहा, "ये तो ज़्यादा है नमक।" तो आपने तुरंत क्या कहा? "मैं तो कह ही रहा था। मैं तो कह ही रहा था कि नमक डालने की कोई ज़रूरत नहीं है।"
तो ये जो प्रयोग किया गया था, ये किया किस नीयत से था? ये इसी नीयत से किया था कि प्रयोग असफल ही हो जाए। ये प्रयोग बेहतरी की नीयत से किया ही नहीं गया था। ये प्रयोग किया ही इसी नीयत से था कि "आज के बाद मुझे इस व्यक्ति की अब कोई बात मानने की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी। मैं ये साबित कर दूँगा कि तुम जो बात कह रहे हो कितनी गलत है।"
उसने तुमसे कहा, "नमक डालो।" नमक तुमने डाला ही इस अंदाज़ से कि दाल खराब हो जाए। अब तुमने सिद्ध कर दिया न कि वो जो सलाह देता है वो सारी गलत सलाह देता है?
अधिक-से-अधिक तुम्हारी तो आज की दाल खराब हुई, उस व्यक्ति की तो अब तुमको सलाह देने की हैसियत ही खराब हो गई सदा के लिए। अब वो तुम्हें कोई सलाह नहीं दे सकता। तुम उससे कहोगे, "उस दिन भी तूने सलाह दी थी न? दाल खराब करवा दी थी न?" दाल खराब हुई नहीं थी, दाल तुमने जानबूझकर खराब करी ताकि आगे से उसकी कोई सलाह माननी ही न पड़े। समझ में आ रही है बात?
तो वैसे ही अभी तुम्हें प्रयोग करने की सलाह दी जा रही है। बहुत संभव है कि तुम जाकर कोई ऐसा ज़बरदस्त प्रयोग कर दो जिसमें तुम्हारी टाँग टूट जाए, और फिर तुम कहो, "मुझे तो शक़ तो पहले से ही था कि ये आचार्य बेवकूफ है, पर अब तो बिलकुल साबित हो गया। देखो, ये मेरी टूटी हुई टाँग।"
वो टाँग टूटी नहीं है, वो तुमने तुड़वाई है ताकि मेरी उस एक बात के साथ तुम मेरी बाकी सब बातों से आज़ाद हो सको। तुम कहो, "देखो, उसकी एक बात मानी तो एक टाँग टूटी, और अगर बाकी बातें मानेंगे, तो शरीर में बाकी जितनी हड्डियाँ हैं वो भी टूट जाएँगी। तो अब हम उसकी कोई बात नहीं मानेंगे।"
मज़ा आ गया न अहंकार को? अब कोई बात नहीं माननी पड़ेगी। कीमत कितनी चुकानी पड़ी? एक टाँग ही तो तुड़वानी पड़ी, तुड़वा ली टाँग। कभी एक बार दाल खराब करवा ली, कभी एक बार टाँग तुड़वा ली। साबित यही तो करना था न कि सलाह गलत है? वो तुमने साबित कर लिया।
तो ये जो प्रयोग हैं वो इस नीयत से नहीं करने हैं कि ये असफल हो ही जाएँ। नीयत सही होनी चाहिए। मैंने ये थोड़े ही कहा है कि प्रयोग करते समय तुम बुद्धि और विवेक सब एक किनारे रख दो। और जाकर ऐसे उटपटाँग काम कर लो जिसमें कोई तुम्हारा सर फोड़ दे, या कोई दूसरा चल पड़े कि, "मैं तो जा रहा हूँ, अब ट्रैन से कट कर मर जाऊँगा।" और फिर तुम कहो, "ये देखो ये अध्यात्म ऐसे ही होता है।"
बहुत होते हैं ऐसे नीओ-एंथुसियास्ट (नव-उत्साही)। वो आएँगे बहुत ज़ोर से, "बताइए, क्या करना है, क्या करना है?" और बाहर निकलेंगे तो जो बताया है उसका कुछ उल्टा-पुल्टा संस्करण कर आएँगे और फिर एकदम गायब हो जाएँगे। कहेंगे, "देखो बेकार है ये सब। दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।" तुम दूध के जले नहीं हो, तुमने जानबूझकर खौलता हुआ दूध मुँह में डाला था।
तो ये जो भी सच के प्रयोग करने हैं, छानबीन-खोजबीन करनी हैं, वो व्यावहारिक सावधानियाँ लेकर करनी हैं। खोजबीन करनी है, अब तुम पता ही करना चाहते हो कि जहाँ तुम काम करते हो वहाँ भ्रष्टाचार कितना है, तो ये थोड़े ही करोगे कि वहाँ जाकर सी.ई.ओ से पूछ रहे हो, "तूने घूस कितनी खाई?" और फिर जब तुमको गार्ड (चौकीदार) ऐसे पकड़ कर कॉलर से बिल्डिंग (ईमारत) से बाहर फेंक रहा है तो वहाँ से संस्था को कॉल करो और गालियाँ दो। "देखो तुमने मेरी नौकरी खत्म कर दी।"
ये थोड़े ही कहा था कि इस तरीके से जाकर जिज्ञासा करनी है। तुम्हें पता भी करना था कि तुम्हारी कंपनी कितनी भ्रष्ट है, तो और भी तरीके होते हैं, थोड़ी अक्ल लगाई होती। कुछ समझ में आ रही है बात?
रैगिंग के दिनों में सबको उठाकर दौड़ाया जाता था चार बजे से। जुलाई-अगस्त का समय था, सेमेस्टर शुरू होता था पहला। तो जितने होते थे फच्चे, सबको, "चलो, दौड़ो, दौड़ो, दौड़ो।" उसमें पहले दिन एक को सही में मोच आ गई, तो दूसरे दिन उसको छूट मिल गई। दूसरे दिन आठ लोगों को मोच आई थी। अगर चोट लगने से सुबह की जॉगिंग से मुक्ति मिलती है, तो फिर चोट लगेगी, लगकर रहनी है, तुम रोक ही नहीं सकते चोट को लगने से। और ऐसा नहीं है कि जानबूझकर बेईमानी करके चोट लगवा रहे होओगे, वो लगेगी। चोट भी कुछ धुरंधर-सी चीज़ है। वो लगकर रहेगी।
इसी तरीके से अगर एक प्रयोग असफल कराने से जीवन भर की सत्य की साधना से तुम बच सकते हो, तो वो प्रयोग असफल होकर रहेगा। जिसके साथ तुम वो प्रयोग कर रहे हो, वो तुम्हें सीधे-सीधे बोल दे कि, "मुझे सत्य में रूचि नहीं है" तो झूठा कहलाएगा। तो वो ये नहीं कहेगा कि, "मुझे सत्य में रूचि नहीं है", वो क्या कहेगा? वो कहेगा, "ठीक है, प्रयोग कर लेते हैं।" वो प्रयोग करेगा और कुछ इस तरीके से करेगा कि प्रयोग बिलकुल औंधे मुँह गिरे। और फिर आपको पूरी छूट मिल जाती है कि जीवन भर आप ऐसा कोई प्रयोग ना करें।
तो जीवन भर अगर सतत सेवा करनी है सच्चाई की, तो ये सारे प्रयोग ज़रा नज़ाकत के साथ करो। ऐसे नहीं करना है कि एक बार बम फोड़ दिया और फिर अब फुस।