भक्ति की तीन अभिव्यक्तियाँ || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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भक्ति की तीन अभिव्यक्तियाँ || आचार्य प्रशांत (2013)

आचार्य प्रशांत: हम लगातार इसी आधार पर ज़िंदा हैं कि बाहर जो कुछ है, वो असली है। हमारी पहचान, हमारे रिश्ते-नाते, रूपया-पैसा यह सब कुछ जो बाहर है, वो असली है।

दो विधियों की बात की हमने — पहली, जप, जिसको किया जाता है; दूसरी, मूर्त रूप देना कि सत्य को एक मूर्त रूप दे दो, प्रेम को एक मूर्त रूप दे दो। और निश्चित रूप से वो जो मूर्त रूप दिया जाएगा, वो भी ऐसा ही देना होगा जो मन को भाए।

तो इसीलिए मूर्त रूप कैसे दिए जाते हैं? जितना भी भक्ति संगीत है उसमें सत्य को, प्रेम को कैसे मूर्त रूप दिए जाते हैं? आराध्य को कैसे मूर्त रूप दिए जाते हैं? कैसे होते हैं? देखने में सुंदर होंगे, बहुत ही सुंदर होंगे। आवाज़ भी मीठी होगी, पूरा श्रृंगार किया जाएगा। वो सबकुछ किया जाएगा जो मन को भाता है। वो इसलिए नहीं किया जा रहा कि वास्तव में कोई भगवान है या कोई प्रियतम है वैसी आकृति का; वो इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि आपके मन को वैसी ही आकृति भाती है — आपके मन को! याद रखिएगा, सत्य बाहर नहीं — आपके मन को।

जब मूर्त रूप दिया जाता है तो एक सम्बन्ध भी अक्सर जोड़ लिया जाता है। वो सम्बन्ध भी जो जोड़ा जाता है, वो और कोई सम्बन्ध आमतौर पर कम रखा जाता है — भाई कम कहा जाएगा, दोस्त भी कम कहा जाएगा। कभी-कभी पिता कहा जाता है, पिता भी कम कहा जाएगा। जो सम्बन्ध सबसे ज़्यादा प्रयुक्त होता है, वो है प्रेमी का। क्योंकि वास्तविक सम्बन्ध सिर्फ़ वही है, बाकी सब तो सामाजिक सम्बन्ध हैं। वास्तविक सम्बन्ध सिर्फ़ वही है। तो इसीलिए सम्पूर्ण भक्ति संगीत में जिस सम्बन्ध को सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है, वो है पिया, प्रीतम, पति, प्रेमी, प्रेमिका का — इस रूप में देखा जाता है। यह विधि है। इस सम्बन्ध की किसी को लहर नहीं उठी है कि उसने इस रूप में रख दिया है। यह किसी की बेहोशी से नहीं निकल रहा है, यह बहुत सोच-समझकर बनाई गई तकनीकी है, ताकि मन ध्यान में जा सके। ताकि ‘मन’ ध्यान में जा सके!

तीसरी जो इसमें विधि इस्तेमाल की जाती है, वो है निश्चित रूप से संगीत की। जो कुछ भी कहा जा रहा है उसको संगीत में रखा जाए, संगीतमय तरीक़े से कहा जाए। संगीत क्या है? कम-से-कम जहाँ तक शास्त्रीय संगीत की बात है, वो प्रकृति की ही ध्वनियों से निकलकर आया है।

जो प्रकृति के ही वाइब्रेशंस (स्पंदन) हैं , उन्हीं का नाम संगीत है। मैं शास्त्रीय की बात कर रहा हूँ। जो आपके सारे राग होते हैं, वो कहाँ से आए हैं? जो आवाज़ें प्रकृति में हैं ही, सिर्फ़ उनको ध्यान से सुनकर, उनको रागों का रूप दे दिया गया है। वो और कहीं से नहीं आते। जो प्रकृति में है ही आवाज़ें, उन्हें ही रागों का रूप दे दिया गया है। अगर यहाँ पर कुछ लोग होंगे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत में शिक्षा पायी है, तो वो हमें और भी बता सकते हैं इस बारे में (श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए)।

संगीत यह करता है कि आप जिस स्रोत से आए हैं, संगीत भी ठीक वहीं से आ रहा है। आप भी इवोल्यूशन की, विकास की पैदाइश हैं — आपका शरीर, आपका मन — और संगीत भी ठीक वहीं से आ रहा है, उसी प्रकृति से आ रहा है। संगीत में यह ताक़त होती है कि वो मन को अपने साथ रेज़ोनेट कराता है, झनझनाता है। वो जो अवस्था होती है मन के रेज़ोनेट कराने की, मन के झनझनाने की, वो मन को शांत करती है। वो मन को शांत करती है, और सात्विक संगीत वही है।

सात्विक संगीत वही है जिसने प्रकृति की ही लहरों को पकड़ा हो। एक दूसरा संगीत भी हो सकता है जो मन को बेचैन कर दे — हैवी मेटल — वो मन को बेचैन करता है। उसका काम है आपको उत्तेजित करना।

श्रोता: ट्रांस, टेक्नो इत्यादि भी।

आचार्य: हाँ, ये सबकुछ।

तो हम तीन गुणों पर चर्चा कर चुके हैं। संसार में जो कुछ भी है, उसको बड़ी आसानी से देखा जा सकता है कि वो इन्हीं तीन गुणों पर चलता है — सत्, रज, तम; सात्विक होगा, राजसिक होगा, तामसिक होगा। संगीत भी तीनों प्रकार का हो सकता है।

एक संगीत होगा जिसको सुनकर के आप उत्तेजित हो जाएँ। एक संगीत होगा जिसको सुनकर के आप सो जाएँ। जिसको सुनकर के आप सो ही जाएँ, उठने का मन ही न करे, वो कौनसा हुआ? वो हुआ तामसिक। जिसको सुनकर के लोग उछलना शुरू कर दें, कूदना शुरु कर दें, मन में कामनाएँ उठने लग जाएँ, चंचलता उठने लग जाए, वो कौनसा हुआ?

श्रोता: तामसिक।

आचार्य: और एक तीसरा संगीत भी होता है जिसको सुनकर के आदमी हल्का हो जाए। अगर बेचैनी है तो बेचैनी कम हो जाए, वो हुआ सात्विक। तो भक्ति संगीत सात्विक संगीत पर ही चलता है, उसी को लेता है। इसी कारण से आजकल जो कोशिशें की जा रही हैं कि लिरिक्स (बोल) तो ले ली जाएँ सूफ़ियों के या तुलसी के या कबीर के, पर उनको आधुनिक संगीत पर रख दिया जाए। शब्द तो ले लिए जाएँ कबीर के पर संगीत ले लिया जाएँ वही टेक्नो-जैज़ या हैवी मेटल। यह कभी सफल हो नहीं सकता, क्योंकि इसमें जो पूरी विधि थी ध्यान की, उसको समझा ही नहीं गया है। उसके साथ बस खिलवाड़ किया जा रहा है।

कबीर के शब्दों को हैवी मेटल पर नहीं रखा जा सकता। अगर कोई रखने की कोशिश करेगा, तो बात बिलकुल गड़बड़ा जाएगी। आपका कुछ मनोरंजन हो सकता है, लेकिन उसका जो पूरा प्रयोजन है, वो ख़राब हो जाएगा। जिस कारण से कबीर ने वो सबकुछ कहा, वो सफल नहीं हो पाएगा।

प्र: मन को सबसे ज़्यादा कौनसा भाता है? राजसिक?

आचार्य: मन कोई एक चीज़ नहीं है। तुम फिर वही मन के एक होने की बात कर रहे हो।

प्र: मन का यह जो मिक्स एंड मैच (मिश्रण और मिलान) है, उसकी बात कर रहा हूँ?

आचार्य: हाँ, वही मैं कह रहा हूँ। मन कोई एक चीज़ नहीं है। मन जैसा है, उसको वैसा भाएगा। मन कोई एक चीज़ नहीं है। तुम जिस स्थिति में हो, तुमको वही भाएगा। जब लड़ाई करने जा रहे हैं, तो उस समय पर तुमको क्या चाहिए? कैसा संगीत चाहिए?

प्र: राजसिक।

आचार्य: वो होता कैसा है, सुना है?

श्रोता: धम-धम-धम। हेवी मेटल।

प्र: वो लता मंगेशकर का

आचार्य: लता मंगेशकर नहीं चाहिए उस समय। (सभी श्रोता हँसते हुए)।

श्रोता: वो देशभक्ति में आ गया।

आचार्य: जब आप लड़ाई करने जाते हैं, सुना है कभी कैसा संगीत चलता है?

श्रोता: वो ड्रम्स होते हैं, नगाड़े होते हैं।

आचार्य: हाँ! और जो दुदुंभी होती है, वो बजती है। तो मन की जो अवस्था है, उसको उस समय वही संगीत भाएगा। मन कोई एक चीज़ थोड़े ही है। आपको नींद आ रही है बहुत ज़ोर से, उस समय भी आपको एक संगीत भाता है। वो ऐसा होता है जो आपको बिलकुल और गिरा दे, पस्त कर दे, आप सो जाएँ।

कई रेस्तरां होते हैं जो बने ही डेटिंग के लिए होते हैं। उन्हें देखकर ही पता चल जाता है कि यह इसीलिए हैं — छोटे-छोटे क्यूबिकल्स (घनाकार कक्ष) बने होंगे, पर्दे-वर्दे लगे होंगे। उसमें कैसा संगीत बज रहा होता है? उसमें भजन बजेंगे?

श्रोता: तामसिक!

श्रोता: साइलेंट म्यूज़िक (शांत संगीत)।

आचार्य: साइलेंट म्यूज़िक नहीं होता है। आप जाया करिए पहले, तब पता चलेगा। (सामूहिक हँसी)

प्र: मैं जो पूछ रहा हूँ वो यह है कि जब आप सात्विक सुनते हैं, तो आप इसलिए नहीं सुनते हैं कि आपकी पहले से ही वही दशा है, आपका वो ही अवस्था है।

आचार्य: नहीं, तभी सुनना पड़ेगा।

प्र: नहीं, किसी को बहुत तनाव है और वो सात्विक सुनता है। फिर सात्विक संगीत सात्विक अवस्था को लाता है। मगर जब राजसिक और तामसिक अवस्था होती हैं, उस अवस्था में उसी तरह का संगीत सुना जाता है। मगर सात्विक वाले में संगीत के द्वारा सात्विक अवस्था को पाया जाता है।

आचार्य: देखो, सात्विक कोई आख़िरी बात नहीं होती है।

प्र: मैं आख़िरी नहीं, मैं बिलकुल ऐसे कह रहा हूँ कि जैसे हम सितार सुन रहे हैं। कई लोग होते हैं जिन्हें शास्त्रीय संगीत पसंद नहीं है, कोई कहते हैं कि पसंद है। पर एक चीज़ होती है, चाहे कोई भी हो उसके सामने सितार थोड़ी देर बज जाए या थोड़ी देर बाँसुरी बज जाए, तो वो खुद बंद नहीं कर पाता उसे।

आचार्य: दिक्कत क्या है न कि वो सुनेगा ही नहीं थोड़ी देर भी अगर उस समय मन में सतगुण न हो। वो सुनेगा ही नहीं, वो भाग जाएगा उठकर के। तुम भले ही कितने बेचैन हो, पर उस समय अगर तुम लगा रहे हो शास्त्रीय संगीत, तो इसका मतलब यही है कि मन में कम-से-कम एक कोना है, जो सात्विक है। वरना तुम लगाओगे नहीं। किसी और ने भी लगा दिया तो तुम सुन पाओगे नहीं।

तो यह तीन विधियाँ जब एक हो जाती हैं तो जो हमारे सामने आता है, उसको हम भजन या भक्ति संगीत का नाम देते हैं। जब यह तीनों एक साथ गूँथ दी जाती हैं, तो यह हमारे सामने आता है। स्पष्ट ही है कि यह मनोरंजन नहीं है। स्पष्ट ही है कि यह बड़ी समझ से, बहुत मेटिक्युलसली , बहुत जाँच-परख के, बड़ी बारीकी से देखकर के ईजाद की गई विधि है। यह पूरी-पूरी एक मेडिटेशन टेकनीक (ध्यान की विधि) है। लेकिन कोई भी मेडिटेशन टेकनीक कारगर तभी होती है जब उसका पालन किया जाए, उसको समझा जाए कि यह क्या करती है।

अगर भक्ति संगीत इसलिए है कि उसको जपा जाए, तो उसे जपना पड़ेगा, दोहराना पड़ेगा, खुद ही दोहराना पड़ेगा। आप नहीं दोहरा रहें, तो वो विधि अपना काम नहीं कर पाएगी।

वो इसलिए है ताकि मन शांत हो सके। वो मन को शांत कर नहीं पाएगी अगर आपने नहीं दोहराया। अगर आपने उसको वैसे ही सुन लिया जैसे आप दूसरे फ़िल्मी गानों को सुनते हैं, तो काम नहीं करेगी। आपको उसको अंतस्थ करके दोहराना पड़ेगा। वो आपके साथ बना रहे, वो मन में गूँजता रहे। जैसे लूपिंग (दोहराने की प्रक्रिया) कर देते हैं न गाने की कि वो चले ही जा रहा है — इनफाइनाइट लूप (अनंत दोहराव) — चलते ही जा रहा है, चलते ही जा रहा है। तो वो चलता ही जाए, चलता ही जाए।

आपने लोगों को देखा होगा और यह बात भी अक्सर बड़ी मूढ़ता की लगती है कि लोग बैठ जाते हैं और एक शब्द ले लेते हैं या कई बार एक मंत्र ले लेते हैं और उसको दोहराते जा रहे हैं, दोहराते जा रहे हैं, दोहराते जा रहे हैं। देखा है किसी ने? या कि कई लोग माला ले लेते हैं और उसको फेरे जा रहे हैं, फेरे जा रहे हैं, फेरे जा रहे हैं।

श्रोता: या लिखे जा रहे हैं, लिखे जा रहे हैं।

आचार्य: हाँ, वो यही है। अब वो बातें हमको थोड़ी ज़्यादा रूढ़िवादी लगती हैं, लेकिन संगीत किसी को रूढ़िवादी नहीं लग सकता। यहाँ ऐसा कोई नहीं है जो गाने नहीं सुनता। उसमें हमें ऐसा कुछ नहीं लगता है कि यह सब क्या पुराने ज़माने की रूढ़िवादी चीज़ हैं, यह क्यों कर रहे हैं।

प्र२: आचार्य जी, यह दमन जैसा नहीं हो गया फिर? क्योंकि मेरी जितनी भी इंद्रियाँ हैं, उन्हें एक जपना, एक देखना और एक सुनना, यह तीनों चीज़ें व्यस्त किए हुए हैं। अब जो विचार मन में चलते रहते हैं, वो उतनी देर के लिए जितनी देर के लिए यह तीनों इंद्रियाँ व्यस्त हैं, वो नहीं आएँगे। फिर उसके बाद जैसे ही बंद करा, एकदम से फिर आ जाएँगे।

आचार्य: फिर समझो न! विचार कोई ऐसी चीज़ नहीं जिनका अपना कोई अस्तित्व हो। जितनी देर के लिए विचार नहीं हैं तो नहीं ही है। वो कहीं जाकर छुप नहीं गया है। दमन की मूलभूत अवधारणा यही है कि कुछ है पर उसे दबा दिया गया हो। दबा नहीं दिया गया है, जब नहीं है तो नहीं है। जब नहीं है तो कहाँ है, मुझे बताओ? जब विचार नहीं हैं, तो फिर कहाँ है? कहाँ है? किसी बक्से में रखा हुआ है? कहाँ है? हाँ, जब वो वापस आएगा तो अपनी पूरी ताकत से आएगा — उसको वृत्ति कहते हैं। वो विचार का कारण है, बीज है। बीज बैठा हो सकता है, पर विचार जब नहीं हैं तब नहीं हैं।

जब आप सो जाते हो, उस वक्त आप कुछ नहीं होते हो। जब आप सो जाते हो तब आप कुछ नहीं हो। हालाँकि हम अपने मन को बहलाते हैं कि मैं सो भी रहा हूँ, तो मेरे बाहर संसार कायम है और मैं जो हूँ, वो बचा हुआ है। तथ्य यह है कि सोने पर कुछ नहीं बचता है। जब आप जगते हो तब आपके साथ संसार का पुनर्निर्माण होता है।

प्र३: आचार्य जी, इसका मतलब क्या जो सात्विक संगीत है, वो ध्यान की एक विधि हो सकता है?

आचार्य: आप जिसको भी ध्यान बोलते हो, वो एक मानसिक प्रक्रिया ही है और कुछ भी ध्यान की एक विधि की तरह प्रयुक्त हो सकता है। संगीत भी हो सकता है, यहाँ बैठना भी हो सकता है, पंखे की आवाज़ हो सकती है, दौड़ना हो सकता है। तो एक ही है, यह तो नहीं कहूँगा, पर हाँ, उसका एक सबसेट (उपवर्ग) ज़रूर है।

प्र३: स्लीप मेडीटेशन (निद्रा-ध्यान)।

आचार्य: बिलकुल हो सकता है। नींद को भी ध्यान के एक अंग की तरह इस्तेमाल करा जा सकता है। कुछ भी, जो आदमी के मन को रुचे, वो इस्तेमाल करा जा सकता है। संगीत इस समय एक ताकतवर विधि है, क्योंकि जैसा हमने कहा कि संगीत ठीक वहीं से आता है जहाँ से हमारा शरीर और मन आए हैं — प्रकृति से। इसी कारण से शायद ही कोई ऐसा होता है जिसको संगीत पसंद नहीं है। संगीत का प्रकार अलग-अलग हो सकता है, पर संगीत सभी को पसंद होता है।

हम आज जो कुछ भी सुनने वाले हैं, उसमें हम ध्यान से देखेंगे कि क्या उसमें इन्हीं तीनों का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। जपना, दोहराना बात को; दूसरा, मूर्त रूप देना, मन के आगे एक छवि को खड़ी करना — मन छवियों में ही जीता है, इमेजेस में ही जीता है। यहाँ पर इस बात को इस्तेमाल किया जा रहा है कि तुम तो हमेशा इमेज बनाते ही रहोगे, चलो, सत्य की इमेज बनाओ न! चलो, प्रेम की छवि बनाओ! और सुंदर-सुंदर बनाओ, ताकि मन आकर्षित हो सके उस ओर, भागे न — और तीसरा, संगीत और संगीत भी सात्विक।

ठीक है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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