योग से, साधना से, विद्या से, तपस्या से, जो प्राप्ति दुष्कर है, वह भक्ति से सहज ही हो जाती है।
~ बाणी महला
आचार्य प्रशांत: 'बाणी महला' का पाठ किया है प्रश्नकर्ता ने। और फिर वहाँ से जिज्ञासा करी है। एक पद है, जो कहता है कि “योग से, साधना से, विद्या से तपस्या से जो प्राप्ति दुष्कर है, वो भक्ति से सहज ही हो जाती है।" तो पूछ रहे हैं, कि “ऐसा क्या विशेष है भक्ति में कि जो योग से न हो, जो साधना से न सधे, जो तपस्या से न मिले वो भक्ति से सहज मिल जाए?"
भक्ति में शुरुआत ही वहाँ से होती है, जहाँ साधना के अंत में पहुँचना होता है। समझना बात को। भक्ति की शुरुआत होती है, इस स्वीकार के साथ कि मैं छोटा और मेरी जो उच्चतम और सहज संभावना थी वह बहुत-बहुत बड़ी, उस उच्चतम संभावना को भक्त नाम देता है भगवान का।
और भक्त शुरुआत ही यह कहकर करता है कि 'संयोग के चलते, कि अहंकार के चलते, कि माया, कि अविद्या के चलते मैं बहुत छोटा रह गया। छोटा रह जाना मेरी नियति नहीं थी, पर मैं छोटा बहुत रह गया। जो मेरा स्वरूप है, जो मेरी हक़ीक़त है, वह अनंत विराट और मैंने अपनेआप को बना लिया अति छुद्र।'
तो ऐसे में भक्त विनम्रता के साथ फिर यह भी नहीं कहता कि उस संभावना पर उसका कुछ दावा है। वह फिर यह कहता है कि भगवान बहुत बड़ा है, और मुझसे बहुत दूर है। भगवान माने और कुछ नहीं; भक्त की अंतिम, शुद्धतम, विराटतम संभावना को ही भगवान कहते हैं। भक्त ने पहले ही कदम पर मान लिया कि वह भगवान के सामने बहुत छोटा है, अहंकार एकदम ही टूट गया।
ज्ञानी, साधक, तपस्वी यह सब अपने द्वारा कुछ प्रयत्न करते हैं। ज्ञानी ज्ञान से देखता है कि जगत मिथ्या है, धारणाएँ मिथ्या हैं, अखिल प्रपंच मिथ्या है। ज्ञानी देखता है, साधक अपने दोषों को साधता है, साफ़ करता है, परिष्कार करता है। ज्ञानी बचा हुआ है करने के लिए, साधक बचा हुआ है करने के लिए। जब ज्ञानी ज्ञान के द्वारा सब कुछ काट लेता है, जब साधक साधना के द्वारा सब कुछ साध लेता है, तो उनके सामने एक आख़िरी चुनौती खड़ी हो जाती है — जिसने जाना उसका क्या करें? जिसने साधा उसका क्या करें? और उसको काटना बड़ा मुश्किल पड़ता है, वह अहंकार का आख़िरी दाँव होता है।
ज्ञानी अपनी यात्रा के अंत में जिस चुनौती से रूबरू होता है, भक्त अपनी यात्रा के आरंभ में ही उस चुनौती पर विजय पा लेता है। ज्ञानी सबको नकारने के बाद, सबकी नेति नेति करने के बाद अंतत: अपनी मूल वृत्ति के समक्ष खड़ा हो जाता है, कहता है, अब इसकी की नेति नेति कैसे करें? जिस तलवार से सबको काटा, उस तलवार को कैसे काटें? जिसने सबको झूठा जाना, उसको झूठा कैसे जानें?
ज्ञानी बेचारे की दुविधा बड़ी है, भक्त के लिए काम सहज है। भक्त ने शुरू में ही कह दिया, 'हम इतने छोटे हैं कि न हमारे ज्ञान द्वारा होगा, न हमारी साधना द्वारा होगा, प्रभु जी तुम ही आकर कर दो।' ज्ञानी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है, कहता है, 'हम जानेंगे।' साधक ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है, कहता है, 'हम साधेंगे'; योगी, तपस्वी सब ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं। और ऐसा नहीं कि वह उस ज़िम्मेदारी को वहन नहीं करते; वह उस ज़िम्मेदारी को पूरा भी करते हैं; पर सबकुछ कर लेने के बाद अंत में फँस जाते हैं बेचारे।
यह जो ज़िम्मेदार आदमी था अब इसका क्या करें, सबकुछ तो पीछे छोड़ आए। और वह ज़िम्मेदार आदमी सारा श्रेय लेने को तत्पर खड़ा है, वह कह रहा है, देखो इतनी साधना कर ली, इतनी तपस्या कर ली, इतना ज्ञान अर्जित कर लिया, इतने दोषों का निवारण कर लिया; अब क्या करोगे? फँस गए।
भक्त को ऐसी कोई झंझट ही नहीं। भक्त ने शुरू में ही कह दिया है, "मैं मूढ़, मैं छुद्र, मैं नालायक, मैं गँवार। मैं तो एक ही काम कर सकता हूँ कि डोर तुम्हारे हाथ में दे दूँ प्रभु जी, मेरा बड़े से बड़ा काम यह होगा कि मैं कोई काम न करूँ सारा काम तुम्हें ही दे दूँ।" भक्त मुक्त हो गया। भक्त को अब बस एक अनुशासन रखना है, क्या? कि बीच-बीच में जब वृत्ति उठे कि डोर अपने हाथ में ले लो, तो उस वृत्ति को समर्पित किए जाए।
बात समझ रहे हो?
योगी, ज्ञानी, तपस्वी, साधक, सिद्ध सबका एक यक़ीन साझा है, क्या? "हमें करना है।" भक्त का ऐसा कोई आग्रह ही नहीं। वह कहता है कि 'हम कर सकते तो उस दर्द दुर्दशा में क्यों होते, जिस दुर्दशा में हैं। और जिस कीचड़ में अपनेआप को लथपथ पाते हैं, वह हमारी करी हुई ही तो है, अब और क्या करें। तो हम तो एक बात जानते हैं भगवन, हमारे मत्थे कुछ न होगा; लो संभालो।' इसीलिए जानने वालों ने भक्ति को ज्ञान के समकक्ष ही नहीं ज्ञान से उच्चतर भी कहा है।
रमण महर्षि कहा करते थे, "भक्ति ज्ञान की माता है।" क्योंकि भक्ति के मूल में विनय बैठा है, भक्ति के मूल में ही सर का झुक जाना है। जो ऊँचे-से-ऊँचा है, उसके सामने मैं झुक गया।
ज्ञानी अगर झुक गया तो शुरुआत ही नहीं कर पाएगा, ज्ञानी को तो चौड़े होकर खड़ा होना है, ज्ञानी को तो न्याय करना है, ज्ञानी को तो जाँचना है, परखना है, भेद करना है, विवेक करना है; झुकने से ज्ञानी का काम ही नहीं चलेगा। ज्ञानी को तो जाँच-पड़ताल करनी है, जाँच-पड़ताल कभी झुककर की जाती है?
और भक्त को क्या करना है? उसे शुरू में ही बस सर को झुका देना है, उसके बाद और बचा ही क्या? ज्ञानी मेहनत करके, और ज्ञान जुटाके, और तपस्या करके जहाँ पहुँचेगा, भक्त वहाँ अपेक्षाकृत सरलता से पहुँच जाता है।
वास्तव में ज्ञान भी अपनी परिपूर्णता को उपलब्ध नहीं होगा अगर वह भक्ति में परिणित नहीं होता। ज्ञानी का ज्ञान यदि सच्चा है, तो ज्ञानी को भक्त हो जाना पड़ेगा। जो ज्ञानी भक्त नहीं हो पाया उसका ज्ञान झूठा, अधूरा था।
समझ रहे हैं?
ज्ञान के रास्ते में धोखा संभव है, ज्ञान स्वयं अहंकार बन जाता है। भक्ति के रास्ते में ऐसा कोई धोखा संभव ही नहीं है। क्योंकि वहाँ पर तो शुरुआत ही होती है अहंकार के टूटने से, विसर्जन से। भक्त का तो श्रीगणेश ही ऐसे होता है कि जाओ और दंडवत लेट जाओ। यह अभी शुरुआत हुई है, यह पहला काम है, जाओ और बिछ जाओ। ज्ञानी को बिछने में समय लगता है।
प्र: भक्त का आलस वाला चरित्र नहीं होना चाहिए?
आचार्य: भक्त जब सब समर्पित करता है, तो आलस भी समर्पित कर देता है। जिस भक्त ने आलस पकड़कर के रखा वह बेईमान भक्त है। यह भक्त की साधना है कि बेईमानी न कर जाए। जब मान ही लिया कि ‘मेरे पास जो है, सब छोटा, झूठा और दूषित है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि मेरा आलस भी छोटा, झूठा, दूषित है।‘ जब सब दे दिया प्रभु जी को तो आलस भी दे आओ न।
भक्त तो कहता है, हम तुम्हारे नौकर हुए। नौकर को कैसा आलस? नौकर को तो जब मालिक का हुक्म आया तो उसे उठना है, चलना है, भागना है। भक्ति की शुरुआत होती है, अपनी हीनता देखने से। भक्ति में फूल खिलते हैं प्रेम के और भक्ति का अंत होता है भक्त के भगवान में लय हो जाने से।
पहली चीज़, तड़प; "मैं कितना छोटा रह गया, क्या हो जाना था मुझे, क्या मेरी संभावना थी, और मैं क्या रह गया? मैं (ऊपर की ओर संकेत करते हुए) वह हो सकता था और मैं (स्वयं की ओर संकेत करते हुए) यह रह गया।" यहाँ से भक्ति की शुरुआत होती है। भक्ति माने विभाजन। भजना, भक्ति और विभाजन — यह सब एक ही धातु से आते हैं। दो — वह (भगवान) हो सकता था, यह (स्वयं) रह गया; भेद, विभाजन। यह शुरुआत हुई।
फिर प्यार उठता है; 'जब मैं वह हो सकता था तो वह क्यों नहीं हूँ, मुझे उसकी ओर जाना है।' तो इसीलिए भक्ति बिना प्रेम के हो ही नहीं सकती। भक्त को भगवान से अनन्य प्रेम होता है। वास्तव में अन्यता शब्द और कहीं उपयुक्त है ही नहीं। अनन्य समझते हो? भक्त भगवान को दूसरा मानता ही नहीं, मानना चाहिए भी नहीं। क्योंकि हमने कहा न कि "भगवान और कुछ नहीं है, भक्त की ही प्रबलतम संभावना का नाम भगवान है।" तो वह तो अनन्य प्रेम करेगा ही न।
भक्त फिर खिंचता है भगवान की ओर, कहता है, ‘अरे! बड़ी गड़बड़ हो गई; वह होना था, यह रह गए।' तो फिर वह सर के बल भागता है, दीवाना होकर दौड़ लगाता है। कि ज़िंदगी छूटी जा रही है, बड़ी गड़बड़ हो रही है। जैसे कोई प्राण लेकर के भागा जा रहा हो और तुम उसको पछियाओ। भक्त ऐसे पछियाता है भगवान को। और फिर भक्ति का शिखर क्या होता है? जिससे प्रेम था, उसमें लय हो गए। भक्त भगवत लीन हो गया। "साहिब, सेवक एक संग, खेलैं सदा बसंत।" अब पता ही नहीं साहब कौन और सेवक कौन।
प्र: इसमें भक्ति बस है, ज्ञान की आवश्यकता नहीं है?
आचार्य: (प्रेमपूर्वक मुस्कुराते हैं) मेरे देखे यह दोनों मार्ग अलग-अलग नहीं हैं। भक्त को सब पता चलता ही जाता है, अज्ञानी भक्त जैसी कोई बात—चीज़ नहीं होती। जो भक्त है वह स्वमेव ज्ञानी हो जाएगा। और अहंकारी-ज्ञानी जैसा कोई ज्ञानी होता नहीं। जो वास्तव में ज्ञानी है, वह विनम्र भी हो ही जाएगा। तो ज्ञानी को भक्ति में प्रवेश करना ही पड़ेगा, और भक्त को सहज ज्ञान उपलब्ध होता ही जाता है, तो क्यों कहें कि दो अलग-अलग मार्ग हैं।
बस यह है कि अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार, अपने-अपने संस्कारों के अनुसार, चित्त की दशा और जीवन में अपनी स्थिति के अनुसार कोई शुरुआत यहाँ से करता है, कोई शुरुआत वहाँ से करता है। पर इनको वास्तव में दो अलग-अलग मार्ग कहना उचित नहीं।
न सिर्फ़ दोनों की मंज़िल एक है बल्कि दोनों मार्ग भी ज़रा-सा चलो तो पता चलता है कि एक ही हैं। हाँ, शुरुआत जब करते हो तो तुम्हें ज़रा भ्रमवश ऐसा लगता है कि किसी ने भक्ति पकड़ी, किसी ने कर्म पकड़ा, किसी ने सिद्धि पकड़ी, किसी ने योग पकड़ा, किसी ने कुछ पकड़ा। वह सब शुरुआती भेद हैं। थोड़ा-सा आगे चलो तो फिर भेद मिटने लगते हैं।
प्र: थकने के बाद पता चलता है कि अब बस का नहीं है।
आचार्य: भक्ति में यह स्वीकार करना बड़ा आवश्यक होता है कि पूरी जान लगा दी, और अब कह रहे हैं कि ‘हमारे बस का नहीं है।‘ लेकिन सावधान रहना! पूरी जान लगाए बिना मत कह देना कि ‘हमारे बस का नहीं है’; वरना तो छल हो गया। बैठ जाना, अक्रिय हो जाना, कर्ता भाव से च्युत हो जाना उनको ही शोभा देता है, जिन्होंने पहले कर्त्तृत्व का झूठ देख लिया हो। अन्यथा तुम्हारी चुप्पी या तुम्हारी निष्क्रियता मात्र तमस है।
समझ रहे हो बात को?
साधु भी स्थिर दिखाई देता है और मूर्छित शराबी भी तो स्थिर दिखाई देता है; अंतर है दोनों में। मूर्छा की स्थिरता को स्थिरता मत मान लेना। एक स्थिरता है, जब तुम रजस से ऊपर उठ गए हो और दूसरी स्थिरता है, जब तुम रजस के तल के भी क़ाबिल नहीं हो।
तो पहले वह सबकुछ कर लो जो तुम्हारे बस का है, तुम्हारी छटपटाहट में सत्यता होनी चाहिए, तुम्हारी छटपटाहट में खरापन होना चाहिए। जो पहले वह सबकुछ कर लेते हैं जो उनके बस का था, उनको उतरता है कोई हाथ सहारा देने के लिए।
तुम अपनी जान लगाओ। तुम्हारी जान लगाने से कुछ हो नहीं जाना है; तुम्हारी जान है ही कितनी बड़ी कि उससे कुछ सध जाएगा? पर तुम्हारा जान लगाना इस बात का सबूत होता है कि तुम्हारी आकांक्षा सच्ची है, तुम्हारी मुमुक्षा गहरी है, फिर चमत्कार होता है। पर चमत्कार हो सके उसके लिए भी तुम्हारी सहभागिता आवश्यक है। चमत्कार की पृष्ठभूमि तैयार तुम ही करते हो, तुम्हारे बिना चमत्कार भी न हो पाएगा।
इसीलिए चमत्कारों का उल्लेख तुम संतो और फ़क़ीरों और पैगंबरों के जीवन में पाते हो। आम आदमी के जीवन में कौन-से चमत्कार हो जाते हैं, वहाँ कुछ नहीं होता। जीसस उठ जाते हैं मृत्यु-शय्या से; वहाँ होता है चमत्कार। आम आदमी को कभी उठते देखा है कि मर गया फिर जी गया, और फिर सीधे स्वर्ग का आरोहण हो गया, होते देखा है?
चमत्कार भी सिर्फ़ उनके साथ होते हैं, जिन्होंने चमत्कारों को आमंत्रण दिया हो, जिन्होंने मिट्टी पर हल चलाया हो, जिन्होंने ज़मीन तैयार कर रखी हो। जिन्होंने ज़मीन ही तैयार नहीं की उनके बाग़ में जादुई फूल कभी खिलेगा नहीं; फूल जादुई ही है लेकिन मिट्टी तुम्हें तैयार करनी है। मिट्टी तैयार करने से जादुई फूल नहीं खिल गया, पर मिट्टी तैयार किए बिना भी नहीं खिलेगा।
इसीलिए तुम वह तो करो ही जो तुम कर सकते हो। वह सब करे बिना तुम उस बिंदु पर पहुँचोगे ही नहीं, जहाँ तुम्हें तुम्हारे करने की सीमा, और व्यर्थता दोनों दिख जाए। भक्त यूँही भक्त नहीं हो जाता, भक्त भी कभी मस्त था। वह भी अपनेआप को…
श्रोता: ज्ञानी।
आचार्य: अरे! ज्ञानी नहीं, छत्रपति से नीचे नहीं समझता था। भक्ति का प्रादुर्भाव दिल टूटने से होता है। जब चोट लगती है, सपने सब खंडित होते हैं, तब समझ आता है कि हम क्या, और हमारी बिसात क्या? तब भक्ति उदय होता है।
समस्त आध्यात्मिक प्रक्रिया सीधे-सीधे अपनी क्षुद्रता की मान्यता को पकड़ने में, उसको झूठा देख लेने में, और फिर उसकी पकड़ से आज़ाद होने में है; यही है अध्यात्म। सबसे पहले तो जीवन का अवलोकन करके यह देखना है कि मैं जो कुछ करता हूँ, वह अपनी क्षुद्रता से करता हूँ।
अधिकांश लोगों को ये कभी समझ में ही नहीं आता, उन्हें यह बात पकड़ में ही नहीं आती कि जीवन में उनका एक-एक कर्म उनकी हीनता से उठ रहा है। वो डरे हुए हैं इतना! असुरक्षित हैं इतने, शंकित हैं इतने कि कभी यह कभी वह करते ही रहते हैं; अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं रहता।
जो अपने जीवन पर ज़रा तीखी और ईमानदार नज़र डालते हैं, उन्हें पता चलता है कि ऐसे जी रहा हूँ मैं? और जब पता चलता है ऐसे जी रहा हूँ मैं, तो भीतर बड़ी तड़प उठती है। उस तड़प से प्रेरित होकर अपनी क्षुद्र वृत्ति को त्यागना यही अध्यात्म का आख़िरी और महत लक्ष्य है।
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