अपनी बात तो तब करें जब कोई दूसरा नज़र आये || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

Acharya Prashant

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अपनी बात तो तब करें जब कोई दूसरा नज़र आये || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

येन दृष्टम परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत्।

किं चिन्तयति निश्चिन्तो यो न पश्यति।।

~ अष्टावक्र गीता, अध्याय १८, श्लोक १६

(जिसने अपने से भिन्न परब्रह्म को देखा हो, वह चिन्तन किया करे कि वह है

ब्रह्म पर जिसे कुछ दूसरा दिखाई नहीं देता, वह निश्चिन्त क्या विचार करे)

आचार्य प्रशांत: अष्टावक्र कह रहे हैं, जिसको कुछ भी दूसरा दिखाई देता हो, वो तो फ़िर भी ये चिंतन करे कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’, लेकिन जिसको कुछ भी दूसरा दिखना अब बन्द ही हो गया हो वो चिन्तन करे भी तो क्या करे?

विचार के तल होते हैं: निम्न्तम तल पर आप कहते हो, ‘मैं भाई हूँ, पिता हूँ, बन्धु हूँ, कर्ता हूँ’, उच्च्तम तल पर आप कहते हो, ‘मैं ब्रह्म हूँ, शून्य हूँ’। अष्टावक्र कह रहे हैं कि उच्चतम तल पर भी तुम्हारा ‘मैं’ भाव अभी बाकी रहता है। अष्टावक्र परम मुक्ति की बात कर रहे हैं, कहते हैं, कि मैं तो ये भी नहीं कह सकता कि ‘ब्रह्म हूँ’। जो उपनिषदों की परम घोषणा है, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, अष्टावक्र ने उसको भी मज़ाक बना दिया है। कह रहे हैं, वो भी कैसे कहूँ? यह कहने के लिए कि ‘मैं कुछ भी हूँ’, किसी दूसरे की प्रतीति ज़रूरी है। जो कह रहा हूँ कि ‘हूँ’, उसके अलावा किसी दूसरे का होना ज़रूरी है, तभी कह पाऊँगा कि ‘हूँ’। यदि एक ही भाषा होती, और उसमें शब्द भी एक ही होता – ब्रह्म, तो ब्रह्म का कोई अर्थ ही नहीं होता। तो यदि ये कहते भी हो कि ‘ब्रह्म हूँ’, तो इसका अर्थ ये है कि अभी भाषा शेष है।

मुझे कोई ब्रह्म दिखाई नहीं देता, क्योंकि ब्रह्म दिखाई देने के लिए ब्रह्म से हटकर कुछ होना चाहिए। तो मेरे पास अब चिंतन के लिए कोई वस्तु बची ही नहीं है। मैं किसी के साथ अब सम्बद्ध होकर ये कह ही नहीं सकता कि, ‘मैं ये हूँ’। क्योंकि जिधर देखूँ, एक ही तत्व दिखाई देता है; अंदर-बाहर, लगातार, हर जगह, देखने वाले में। समझ रहे हो?

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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