अनुशासन का सही अर्थ क्या है?

Acharya Prashant

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अनुशासन का सही अर्थ क्या है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अनुशासन का क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत: अनुशासन का जो हमें आमतौर पर अर्थ पता है न, वो बड़ा सीधा है। वो ये है कि तुम वही रह जाओ जो तुम हो, बस एक नये तरीके की आदत डाल लो। तुम्हारे मन में लालच भरा है, भरा रहने दो, पर तुम ये अनुशासन पाल लो कि मैं सुबह पाँच बजे उठूँगा। इसी को डिसिप्लिन (अनुशासन) कहते हैं न — ये तो सुबह पाँच बजे उठ जाता है।

प्र: जी।

आचार्य प्रशांत: इसमें तुम्हारे मन का रूपांतरण तो कहीं नहीं है न, कि है? तुम लालची रहे आ सकते हो, और सुबह पाँच बजे?

प्र: टास्क (नियत कार्य) मिला है, वही करते हो।

आचार्य प्रशांत: उठ सकते हो।

ये बात समझ में आ रही है न? ये हमारा आम डिसिप्लिन है। तुम घूसखोर हो, और घूसखोर रहते हुए भी तुम इस अनुशासन का पालन कर सकते हो कि मैं ऑफ़िस रोज़ दस बजे पहुँच जाऊँगा।

होता है कि नहीं?

प्र: ऐसे ही है।

आचार्य प्रशांत: हो ही रहा है। तुम्हारे मन से लालच तो कहीं नहीं गया, पर तुम अनुशासन का पालन करते हो। अनुशासन क्या है? दस बजे ऑफ़िस पहुँच जाओ; सिर्फ़ एक काम है, एक मर्यादा है, इसको करे जाओ।

उसका एक सीमित फ़ायदा हो सकता है, बहुत सीमित फ़ायदा। सीमित फ़ायदा ये हो सकता है कि तुम्हारे मन में लालच भरा हुआ है, पर तुमसे कह दिया गया है कि सुबह पाँच बजे उठा करो, ब्रह्ममुहूर्त में, तो तुमने उठना शुरू कर दिया सुबह पाँच बजे। अब सुबह पाँच बजे उठोगे तो क्या देखोगे? देखोगे कि सूरज उग रहा है, हवा साफ़ है, पक्षियों का चहचहाना सुनोगे, मन थोड़ा शान्त रहेगा, निर्मल रहेगा, तो उससे हो सकता है कि मन दिन भर भी थोड़ा निर्मल बना रहे। ये बड़ा इंडायरेक्ट (अप्रत्यक्ष) फ़ायदा है।

ठीक है?

आलस कम रहेगा, ये सब चीज़ें इस डिसिप्लिन से हो जाएँगी। पर असली बात क्या थी? असली बात तो यही थी कि मन साफ़ होना चाहिए। अगर मन साफ़ हो, मन समझदार हो, और वो खुद ही ये समझे कि सुबह पाँच बजे उठना कितनी प्यारी बात है, तो क्या वो बेहतर नहीं है? आम डिसिप्लिन कहता है कि सुबह पाँच बजे उठोगे तो मन साफ़ हो जाएगा — वो मुश्किल है, होगा भी तो बड़े सीमित रूप में होगा। मैं तुमसे कह रहा हूँ — सुबह पाँच बजे उठने से ध्यान हटाओ, जो मूल बीमारी है उसी की ओर ध्यान लगाओ।

मूल बीमारी क्या है? मन। मन गन्दा है इसीलिए तो तुमसे उठा नहीं जाता न, इसीलिए आलस है। आलस मन की बीमारी है। तुम मूल बीमारी की ओर ही ध्यान दो, मन की ओर ध्यान दो। सुबह पाँच बजे उठने को पीछे छोड़ो, मन की ओर ध्यान दो, बस ये कह रहा हूँ।

प्र: सर , और ये डिसिप्लिन ब्रेन (दिमाग) की पैटर्न (ढाँचा) है।

आचार्य प्रशांत: पैटर्न क्या है तुम्हारा? आलस एक पैटर्न है। पैटर्न टूटेगा अगर?

प्र: जब हम सजग हो जाएँगे।

आचार्य प्रशांत: जब सजग हो जाओगे।

प्र: आचार्य जी, ज़िन्दगी में हमारी जो उपलब्धियाँ हैं, अगर हम उनसे समझौता कर लें, तो ऐसा नहीं होगा कि हमारी ज़िन्दगी की दिशा बदल जाएगी?

आचार्य प्रशांत: नहीं, ज़िन्दगी की दिशा नहीं बदल जाएगी। जो तुम्हारी अभी दिशा है, वो जिसकी दिशा है वो बदल जाएगा, ऐसे समझो।

एक एक्टर (नायक) होता है, एक फ़िल्म में वो रोल (भूमिका) कर रहा है टीचर (शिक्षक) का। वो क्या कर रहा है?

प्र: टीचर का रोल कर रहा है।

आचार्य प्रशांत: पढ़ा रहा है। उसकी दिशा क्या है? उसकी दिशा है प्रेम की दिशा, शान्ति की दिशा, ज्ञान की दिशा, उस दिशा में है वो। वो दूसरी फ़िल्म में रोल कर रहा है एक हिंसक डाकू का। अब उसकी क्या दिशा है? बम, धमाका, हिंसा, खून, मारपीट। इन दोनों ही दिशाओं में से क्या कोई भी दिशा उस व्यक्ति की दिशा है? मान लो वो जो एक्टर है, उसका नाम है, कुछ भी नाम — तुम्हारा क्या नाम है?

प्र: अविनाश।

आचार्य प्रशांत: अविनाश। उस एक्टर का नाम है अविनाश। पहली फ़िल्म में उसने किसी शिक्षक का रोल किया, उस शिक्षक का कुछ नाम दे दो। क्या नाम है उस शिक्षक है? राहुल। राहुल की क्या दिशा है? ज्ञान बाँटना — मेरी दिशा ज्ञान की दिशा, मेरी दिशा शान्ति की दिशा। दूसरी फ़िल्म में उसने राका डाकू का रोल किया, अब वो राहुल से राका हो गया। राका की क्या दिशा है? खून, गोलियाँ, हत्या।

राहुल हो चाहे राका हो — इन दोनों में से कोई भी अविनाश है क्या?

प्र: नहीं, *सर*।

आचार्य प्रशांत: जिनको तुम अपनी दिशा कहते हो, तुम्हारी दिशा है नहीं न, वो दिशा तो तुम जो चरित्र अभिनीत कर रहे हो उसकी दिशा है। और वो चरित्र नकली है, कि चरित्र असली है? राहुल का अभिनय अविनाश को राहुल तो नहीं बना देगा।

लेकिन ज़िन्दगी बड़ी अजीब है, ज़िन्दगी में ऐसा होता है कि अविनाश राहुल का अभिनय करते-करते, करते-करते, बीस साल, पच्चीस साल उसका अभिनय करते-करते अपनेआप को क्या समझने लग जाता है?

प्र: राहुल।

आचार्य प्रशांत: और फिर वो राहुल की दिशा को अपनी दिशा मान लेता है; वो तुम्हारी नहीं है। तो जब तुम कह रहे हो कि सर , अगर हमने समझ लिया आप जो कुछ कह रहे हैं, या एच.आइ.डी.पी. जो कुछ कह रहा है, अगर हमने वो समझ लिया तो हमारी दिशा बदल जाएगी, तो मैं तुमसे पूछ रहा हूँ — वो दिशा तुम्हारी थी कहाँ?

मैं तो तुमसे यही कह रहा हूँ कि न तो तुम राहुल हो, न तुम राका हो, न इसकी दिशा तुम्हारी है, न उसकी दिशा तुम्हारी है, तुम तो अपनी दिशा तलाशो। जिन दिशाओं को, जिन गतियों को, जिन धारणाओं को खोने का तुमको डर है, वो वैसे भी तुम्हारे नहीं हैं, तो तुम डर क्यों रहे हो? तुम्हारे होते, तो डर थोड़ा जायज़ भी होता। तुम्हारे हैं नहीं, छोड़ो उनको!

ये वैसा ही है कि अब फ़िल्म की शूटिंग पूरी होने वाली है, तो अविनाश डर रहा है। क्या? कि शूटिंग खत्म हो गयी तो फिर अब राहुल छूट जाएगा। राहुल तुम्हारा था कब, कि था? पर ऐसा होता है। जो लोग स्टेज (मंच) पर भी काम करते हैं, जब परफ़ॉर्मेंस (अभिनय) करीब आती है, उनको दिखाई देता है कि अब परफ़ॉर्मेंस हो जाएगी, उसके बाद रिहर्सल (पूर्वाभ्यास) बंद हो जाएगी, तो उन्हें अजीब सा लगने लगता है, उन्हें ऐसा लगता है कि कुछ छूट रहा है। अभिनेता को अक्सर अपने चरित्र से प्यार हो जाता है, अक्सर।

प्र२: आचार्य जी, मैं कहता हूँ कि अगर कोई गरीब लड़का है, उसे अपने माँ-बाप के लिए बहुत कुछ करना है, उसे अपने माँ-बाप की स्थिति अच्छी करनी है। तो उसके लिये तो ये ज़रूरी है कि उसे कुछ-न-कुछ पाना पड़ेगा, अच्छी जगह पहुँचना पड़ेगा, नौकरी की सोचकर चलेगा। अगर वो यही नहीं सोचेगा कि मुझे वहाँ पहुँचना है, या अब वो करता भी रहेगा, लेकिन उसे उस चीज़ का तनाव नहीं है न, कि मुझे वहाँ पहुँचना है?

आचार्य प्रशांत: बेटा, इतने गरीब लड़के हैं, जाकर के बाहर देखो, क्या वो अपने माँ-बाप को सुख दे पा रहे हैं? जाकर बाहर सौ, पाँच सौ, हज़ार गरीब लड़कों का सर्वेक्षण कर लो, और देखो कि क्या वो अपने माँ-बाप को कुछ भी सुख दे पा रहे हैं। बीस साल के हैं, तब दे पा रहे हैं? पच्चीस के हो गये, तब दे पा रहे हैं? पैंतीस के हो गये, तब दे पा रहे हैं? जाकर देखो। उनसे तुम पूछो, ‘तुम्हारी इच्छा क्या है,’ तो वो क्या बोलेंगे? बोलेंगे, ‘सुख देने की इच्छा है, हम चाहते हैं कि माँ-बाप को कुछ दें, माँ-बाप बेचारे गरीब हैं।‘

सवाल ये है कि इच्छा तो सबकी है, पर सुख तो कोई दे नहीं पा रहा, सोचते सब यही हैं कि हम किसी तरीके से करें, तो निश्चित रूप से कहीं कुछ गड़बड़ तो है ही। सोचने भर से अगर तुम सुख दे पाते माँ-बाप को, तो कब का दे चुके होते। अगर अपनी इच्छा भर से तुम्हारे माँ-बाप सुखी हो सकते, तो कब के हो गये होते। हम असल में सुख को जानते नहीं, इसलिए सुख को पाते नहीं। आज अगर तमाम लड़के भी दुखी हैं और उनके माँ-बाप भी दुखी हैं, तो क्या ये इस बात का प्रमाण नहीं है कि उनको पता ही नहीं है कि दुख क्या है और सुख क्या है?

तलाश सब क्या रहे हैं?

प्र२: सुख।

आचार्य प्रशांत: और पा सब क्या रहे हैं?

प्र२: दुख।

आचार्य प्रशांत: तो इससे क्या पता चलता है? कि तुम्हारे तरीकों में कुछ तो गड़बड़ है ही, तुम्हारे सोचने में कुछ तो गड़बड़ है ही, कोई बात है जो तुम समझ नहीं पा रहे हो।

मानते हो या नहीं मानते हो?

अब एक अगला सवाल भी। तुमने कहा — जो बच्चे गरीब घरों से हैं, वो अपने गरीब माँ-बाप को सुख नहीं दे पा रहे। ध्यान से जवाब देना — जो बच्चे अमीर हो जा रहे हैं, उनके माँ-बाप सुख पा रहे हैं? जो बच्चे पहले से ही अमीर थे, उनके माँ-बाप भी अमीर थे, उनके माँ-बाप सुख पा रहे हैं? तो सुख-दुख का अमीरी-गरीबी से यानी कि सम्बन्ध है ही नहीं। तो सवाल ये पूछो ही मत, कि गरीबी का क्या करें। अमीरी में भी सुख कहाँ है!

एक गरीब घर से आया हुआ बच्चा है, उसने खूब कमा लिया। अब उसके माँ-बाप से जाकर पूछो, ‘सुखी हैं?’

जाओ, पूछो! पूछो!

तुम्हें उतने ही दुखी मिलेंगे वो, जितने कि गरीब के माँ-बाप। बच्चा अगर गरीब रह गया, तो भी वो उतने ही दुखी मिलेंगे तुम्हें। ये बात अमीरी-गरीबी की नहीं है।

देखो, अगर तुम्हारी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति न हो रही हो, तब तो एक बात होती है। आज तुम जिस ज़मीन पर खड़े हो, जिस तबके से आ रहे हो, वहाँ इतना गरीब कोई नहीं है कि खाने को मर रहा हो। आज जो तुम्हारी गरीबी होती है न, वो तुलनात्मक होती है। जब तुम कहते हो कि मैं गरीब हूँ, उसका अर्थ इतना ही है कि मेरे घर की आमदनी दस हज़ार रुपये है और पड़ोसी के घर की आमदनी तीस हज़ार रुपये है; गरीबी नहीं है, तुलना है।

और तुलना का तो कोई अन्त नहीं है। कल को बच्चा पन्द्रह हज़ार भी कमाने लगेगा, तो भी पड़ोसी का बच्चा कितना कमा रहा है? वो पच्चीस कमा रहा है। तो दुख तो बना ही रहेगा।

अगर तुम ये कहते कि सर , इतने गरीब हैं हम कि भुखमरी है, स्टार्वेशन है, तब तो मैं कहता कि जाओ, ज़रूर कमाओ, ताकि कम-से-कम कुछ अन्न-जल दे सको घर पर, कपड़े दे सको घर पर। पर इतनी खराब हालत किसी की नहीं है। तुम्हारे पूरे कॉलेज में कोई ऐसा नहीं होगा जो कुपोषण का शिकार हो, या हैं, कि खाने को नहीं पाते?

प्र२: इतना तो इंसान कर ही लेता है कि खाने को मिल जाए।

आचार्य प्रशांत: हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि कोई बहुत महँगा वाला खाना खा रहा है, कोई सेब और अनार पा रहा है, और कोई सेब-अनार नहीं पा रहा, वो केले में काम चला रहा है। हो सकता है कोई महँगे होटल में खाता हो, कोई ढाबे पर खाता हो, और किसी के पास इतना भी न हो कि ढाबे पर खा सके, तो वो बेचारा खुद बनाकर खाता हो, ये हो सकता है। पर ऐसी तो हालत नहीं है, कि भूखों मर रहे हो।

और ऐसी भी हालत नहीं है कि तन पर कपड़े नहीं हैं। ये ज़रूर हो सकता है कि कोई डेढ़ हज़ार की शर्ट (कमीज़) पहनता हो और कोई डेढ़ सौ की पहनता हो, ये हो सकता है। ये भी हो सकता है कि कोई हर तीसरे महीने नये कपड़े खरीदता हो, और कोई बेचारा साल-दो साल, तीन साल चलाता हो, ये भी हो सकता है। लेकिन ऐसी हालत तो किसी की नहीं न, कि इंस्टिट्यूट आता हो और कहता हो कि मेरे पास पहनने को शर्ट नहीं है? ऐसा तो कोई नहीं होगा।

हमारी गरीबी वास्तविक नहीं है, मात्र तुलनात्मक है, और इसीलिए वो दूर हो नहीं सकती। चाहे तुम न कमाओ, और चाहे तुम खूब कमाओ, स्थिति एक सी रहनी है।

मैं कभी नहीं कहता हूँ कि जहाँ पर तुम्हारी आधारभूत ज़रूरतें हैं, तुम वहाँ पीछे हट जाओ, कि मैं तो नहीं कमाऊँगा। मैं नहीं कहूँगा कि अगर तुम्हारे माँ-बाप ने कर्ज़ लिया हुआ है, तो तुम उस कर्ज़ को न चुकाओ। लेकिन कर्ज़ कितना, बेटा? तुम जहाँ पढ़ रहे हो, वहाँ फ़ीस (शुल्क) ज़्यादा है ही नहीं। तुम न तो विदेश में पढ़ रहे हो, कि तुमने करोड़ों दिये हों, न ही तुम भारत में पुणे या बैंगलौर के किसी कॉलेज में पढ़ रहे हो, कि तुम्हारा बी.टेक. दस या पन्द्रह लाख में हुआ हो। तुम्हारा काम तो बहुत सस्ते में चल रहा है, और इतना चुकाने के लिये तुम्हें अपनेआप को बेच देने की कोई ज़रूरत नहीं, इतना तो तुम चुका ही लोगे।

तुम महीने का आठ कमाओ, चाहे दस कमाओ, चाहे पन्द्रह कमाओ, चाहे बीस कमाओ, धीरे-धीरे करके तुमने शिक्षा के लिए जो खर्च किया है वो चुका दोगे। कोई तीन साल में चुकाएगा, किसी को आठ-दस साल भी लग सकते हैं, पर चुका दोगे, ये दो-चार लाख कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं होते। तो ये सवाल गैर-ज़रूरी है, कि सर , ये पैसा हम कैसे चुकाएँगे, या कि हम घरवालों के लिये क्या करें।

अगर वास्तव में घरवालों के लिये कुछ करना चाहते हो, तो मैं बात करूँ। बोलो, करना चाहते हो?

सबकी मूल प्यास जो है, वो आनन्द की है। ‘आनन्द’ अगर न समझो, तो मैं उसे कहूँगा ‘चैन’, ‘शान्ति’। सबको शान्ति चाहिए। हम सोचते ये हैं कि पैसा मिल गया तो शान्ति मिल जाएगी, पर हमें पैसे के माध्यम से भी चाहिए तो शान्ति ही। तो तुम सीधे ही ऐसे क्यों नहीं हो जाते, कि तुम्हारे माध्यम से तुम्हारे आस-पास जो भी हों, सबको शान्ति ही मिले? तुम बीच में पैसे को माध्यम क्यों बनाना चाहते हो? तुम अपनेआप को ऐसा कर लो कि तुम जहाँ हो, तुम्हारी मौजूदगी से शान्ति फैले, ये असली सेवा होगी माँ-बाप की।

अशान्ति रहती है क्योंकि मन में भ्रम रहते हैं, क्योंकि आँखों पर जाले रहते हैं। तुम ऐसे क्यों नहीं हो जाते कि माँ-बाप के मन का भ्रम दूर करो, सबके मन का भ्रम दूर करो? तुम ऐसे क्यों नहीं हो जाते कि तुम्हारी आँखें साफ़ हैं तो तुम्हारे होने से तुम्हारे माँ-बाप की आँखें भी साफ़ हो जाएँ? वो उनकी वास्तविक सेवा है।

माँ-बाप की वास्तविक सेवा ये नहीं है तुमने जाकर के उनको पैसे दे दिये। मैं पैसे देने को मना नहीं कर रहा हूँ, पैसे हों तो बेशक दो, पर मैं इतना ही कह रहा हूँ कि पैसे देना बहुत काम नहीं आएगा। असली काम की बात ये है — कुछ ऐसा करो कि उन्हें वास्तविक शान्ति मिले, चैन मिले। और वो वास्तविक शान्ति और चैन, जब तक उनकी भ्रमित धारणाएँ कायम हैं, उन्हें नहीं मिलेगा। जब तक उनके मन पर उनकी कल्पनाओं का, अतीत का, कंडीशनिंग (अनुकूलन) का पर्दा पड़ा हुआ है, तब तक उन्हें चैन नहीं मिलेगा।

अगर तुम वास्तव में किसी से प्रेम करते हो, तो उसकी मदद करो कि वो अपने स्वभाव को पा ले, उसकी मदद करो कि उसका मन निर्मल हो पाये। सिर्फ़ यही प्रेम है, सिर्फ़ यही सेवा है, यही एक अच्छे बेटे का धर्म है। तुम अच्छे बेटे का धर्म इतने पर सीमित मत मान लेना, कि वो घर पर कुछ पैसे भेज देता है; तुम नहीं भी भेजोगे तो भी काम चल जाएगा, यकीन मानो। पैसे कहीं और से आ सकते हैं, वो छोटी बात है। शान्ति कीमती चीज़ है, वो देकर दिखाओ, वो असली बात है।

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