वक्ता: आशीष का सवाल यह है की कैसे अनपेक्षित परिस्थितियों पर हम समुचित प्रतिक्रिया दें? मैं सवाल सही समझ रहा हूँ(प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए) ?
कोई भी परिस्थिति होती है तो उसका हम सामना कैसे करें, उसमें हम क्या प्रतिक्रिया दें? तो हफ्ते के पांच-छः दिन, अलग-अलग शहर, अलग-अलग लोग, उनकी अलग-अलग उम्र और अलग-अलग महाविद्यालय। और उम्र में भी इतना अंतर रहता है की साठ साल वाले भी हैं और सोलह साल वाले भी हैं। तो क्या करता हूँ या कर सकता हूँ मैं? अभी तुम बोल रहे थे तो मैं सिर्फ तुम्हें सुन रहा था। मेरे पास कोई पका-पकाया जवाब है ही नहीं तुम्हारी बात का या किसी की भी बात का। आज के सत्र में तुम शायद पांचवे या छठे होंगे जिसने सवाल पूछा और मेरे पास इन पांचो सवालों का कोई पूर्व-निर्धारित जवाब होता ही नहीं। यह परिस्थिति ही है। यह परिस्थिति ही है कि मै यहाँ बैठा हूँ, और यह सवाल आ गया। मैं कैसे जवाब दूँ इस प्रश्न का, इस परिस्थिति का? मैं ध्यान से सुनता हूँ, मैं भूल जाता हूँ कि मै प्रशांत त्रिपाठी हूँ। मेरे लिए महत्व सिर्फ प्रश्नकर्ता का ही रह जाता है। सब कुछ समर्पित है जानने लिए, मैंने कुछ बचाया नहीं अपनी रक्षा के लिए, स्मृति के लिए भी नहीं। स्मृतियों में भी नहीं चला जाता क्योंकि कई सवाल तुम पूछते हो जो मुझसे पहले भी पूछे जा चुके हैं। सही बात तो यह है कि आज भी मुझसे एक सवाल ऐसा पूछा गया जो इसी कमरे में मैं पहले भी सुन चूका हूँ। जो इसने (एक श्रोता की तरफ इशारा करते हुए) पूछा था। यह सवाल कम से कम बीस बार पूछा जा चूका है मुझसे और दो-तीन बार तो यहीं पूछा जा चुका है लेकिन जब परिस्थिति सामने आती है तो उसका उत्तर स्मृति से नहीं आ सकता। उसका उत्तर ऐसे ही आ सकता है कि परिस्थिति के ही और निकट जाओ। यहाँ पर परिस्थिति है प्रश्नकर्ता, प्रश्नकर्ता के ही और निकट जाओ कि बात क्या है। और निकट जाते रहो तो फिर एक जादू होता है अचानक से। और वह जादू क्या होता है? जब तुम परिस्थिति के करीब पहुँच जाते हो तो तुम्हें समाधान खुद ब खुद मिल जाता है।
मज़े की बात यह है कि समस्या को जब समस्या कह रहे हो तो तुम उसके करीब जाओगे ही नहीं क्योंकि वह डरावनी लगेगी। समस्या का अर्थ ही है कोई ऐसी चीज़ जो गड़बड़ है और जो गड़बड़ है तुम उससे दूर भागोगे, उसके करीब नहीं जाओगे। करीब जाओगे नहीं तो समाधान निकलेगा नहीं। समस्या का समाधान इसी में है, परिस्थिति का जवाब इसी में है कि तुम उसके निकट जाओ। पास जा कर खड़े हो जाओ, निडर होकर। ‘मुझे कुछ बचाना नहीं है, मुझे आत्म-रक्षा का कोई काम नही, बेख़ौफ़ खड़ा हूँ’। और फिर उत्तर आ जाता है। तुम्हें क्या वाकई ऐसा लगता है कि मैं जो बोल रहा हूँ मुझे ज़रा भी पता है कि मैं क्या बोल रहा हूँ? यह उत्तर मैंने आज से पहले कभी दिया ही नहीं, यह बिल्कुल ताज़ा है। और क्यों ताज़ा है? क्योंकि मैं तुम्हारी बात सुन रहा हूँ, तुम्हारे चेहरे को देख रहा हूँ, और उसके बाद जो हो रहा है अपने आप हो रहा है। तो मुझे कुछ करना ही नहीं है। मेरे लिए बड़ा विश्राम का इंतज़ाम है।
तुम्हें सिर्फ क्या करना है? ध्यान देना है। तुमने ध्यान दिया और उत्तर खुद ही बहने लगा। मैं कोशिश करके उत्तर नहीं दे रहा हूँ कि आशीष ने यह सवाल पूछा, लाओ थोड़ी जुगत लगाता हूँ, थोड़ी चालाकी दिखाता हूँ कि कैसे उत्तर दिया जाए। ‘आज से तीन साल पहले यही प्रश्न पूछा गया था, उसका क्या उत्तर दिया था मैंने, उसे याद करूँ, उसमें इधर से कुछ जोड़ो, उधर से कुछ जोड़ो और परोस दो’। यह सब करूँगा तो उस उत्तर में कुछ जान नहीं रह जाएगी, वह बासी खाने जैसा ही रहेगा। पर अगर मुझे आत्म-रक्षा की उत्सुकता है तो मुझे वैसा ही करना पड़ेगा। मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ, इसलिए नहीं कि मुझे इज़्ज़त कमानी है, इज़्ज़त की ही रक्षा की जाती है। और किस चीज़ की रक्षा की जाती है? मैं इसलिए तुम्हारे सामने नहीं बैठा हूँ कि मुझे कुछ चाहिए, मैं इसलिए तुम्हारे सामने बैठा हूँ कि तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ। वह प्रेम का काम है, वह बाँटना चाहता है। जीवन प्रेम में जीयो हर परिस्थिति का समुचित उत्तर मिल जाएगा। जीवन डर में जीयोगे तो हर परिस्थिति का उल्टा-पुल्टा उत्तर ही आएगा क्योंकि डरा हुआ व्यक्ति कुछ भी सही कर ही नहीं पाएगा। वह जो भी करेगा गड़बड़ ही करेगा। परिस्थिति चाहे जैसी आए उससे कभी भागना मत, मंत्र है यह। कुछ भी हो रहा हो, उसके करीब जाना और देखना। पहले से मत मान लेना कि मुझे तो पता ही है, मैं और क्या जानूँ। पहले से ही मत मान लेना कि अरे बाप रे, खौफनाक है यह तो, भागो। दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो तुमसे ज़्यादा ताक़तवर है और दुनिया में कुछ भी इतना उलझा हुआ नहीं है कि जिसे तुम समझ नहीं सकते। ज़रा निकट जाओगे सब समझ आ जाएगा ।
श्रोता १: सर क्या हम परिस्थिति का हल परिस्थिति से जुड़ा हुआ पा सकते हैं?
वक्ता: बिल्कुल पा सकते हैं। तुम गणित में सवाल हल करते हो? तुम्हारे सामने एक इक़ुएशन लिखी होती है, उसका हल कहाँ से आ जाता है? क्या ऐसा नहीं है कि सवाल में हल छुपा हुआ है? कि बाहर से आता है कूद- फांद के? सवाल में ही तो जवाब छुपा है, है कि नहीं छुपा है? सवाल नहीं तो जवाब कभी आएगा क्या? जवाब कहाँ से आता है? सवाल से एकता से। तुम एक हो जाओ सवाल के साथ। तुम खेल रहे हो सवाल से और अचानक सब कुछ खुल जाता है। और इसी का नाम समाधान है। और याद रखना कि वह समाधान अनपेक्षित होगा, वो वह नहीं होगा जो तुमने पहले ही दे रखा या सोच रखा था। वह समाधान नया होगा। और ध्यान रहे कि ऐसा न हो कि नया तुम्हें मिल भी गया तो तुम उसे ठुकरा दो कि नहीं यह ठीक नहीं लग रहा क्योंकि यह पहले जैसा नहीं है।
श्रोता १: सर यानी जो जवाब इज़्ज़त बचाने को ध्यान में रख कर दिया जाएगा, और जो प्रश्न से जुड़ कर दिया जाएगा, उन दोनों में अंतर होगा?
वक्ता: बिल्कुल होगा क्योंकि एक ज़िंदा उत्तर आएगा और एक मुर्दा। और कब आएगा ज़िंदा उत्तर?
श्रोता १: जब जुड़ाव करेंगे।
वक्ता: और जुड़ने से मतलब है कि उसके करीब जाओ, पूरा जानो कि बात क्या है। जब तक पूरा जानोगे नहीं उत्तर कहाँ से दोगे।
श्रोता १: सर, समझ क्या है? क्या समझ सही और गलत हो सकती है?
वक्ता: क्या नाम है?
श्रोता १: सूर्य प्रताप।
वक्ता: सूर्य, बैठो। समझ क्या है और क्या समझ भी सही समझ और गलत समझ होती है? जब तक समस्या रहती है तब तक उस समस्या का तनाव रहता है, तब तक उस समस्या के बारे में विचार, चिंतन चलता रहता है। उलझा-उलझा महसूस करते हो। यहाँ तक ठीक है। समझ का अर्थ है तनाव ख़त्म हो गया, अब मुझे सोचने की ज़रूरत ही नहीं। समझ कोई वक्तव्य नहीं है कि मैं समझ गया की “कुछ है”। तुम जब भी कहोगे कि मैं समझ गया कि ” कुछ भी है ” तो तुम अपने विचार प्रस्तुत कर रहे हो। समझ कोई विचार नहीं है, समझ विचार का अभाव है। जब तक सोच रहे हो तब तक तनाव बना ही रहेगा। मामला हल हो गया इसका प्रमाण यह होगा कि उस विषय में सोचने की भी आवश्यकता नहीं है, उसी को कहते हैं समझ। समझ यह नहीं है कि तुम्हें कोई विशेष हल मिल गया है। समझ का अर्थ है कि कुछ बचा ही नहीं, सोचना विचारना क्या है।
श्रोता २: प्रश्न ही खत्म?
वक्ता: हाँ, बढ़िया। मैं इस बात को आगे बढ़ाता हूँ। तुम्हें प्रशन का हल नहीं मिल गया, प्रश्न ही विलुप्त हो गया। अब प्रश्न का दूसरा हिस्सा, ‘क्या समझ सही और गलत हो सकती है?’ जब कुछ है ही नहीं तो सही गलत क्या। समझ का अर्थ ही यही है कि जिसके भी बारे में तुम सोच रहे थे अब वो सोच भी खत्म हो गयी। कोई संख्या हो तो तुम सही या गलत का चिह्न लगा सकते हो। शून्य पर तुम +शून्य(+०) लिखो या -शुन्य(-०) लिखो कोई फर्क पड़ता है क्या? सही समझ या गलत समझ जैसा कुछ होता ही नहीं। समझ माने, ‘न होना’ और न होने में तुम क्या कहोगे कि सही है और क्या कहोगे कि गलत है। वहाँ अभाव है, चिंतन का अभाव, तनाव का अभाव है, मुद्दे का ही अभाव है। वह मुद्दा ही नहीं बचा जीवन में।