हमारी उम्मीदें ही हमारी समस्या है|

Acharya Prashant

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हमारी उम्मीदें ही हमारी समस्या है|

प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर। मेरा प्रश्न अपने साधारण जीवन को लेकर है। हम जो कुछ भी काम करते हैं, उसमें उम्मीदें तो होती-ही-होती हैं, चाहे वो नौकरी है या और कुछ भी है। जैसे पीएस मैच्योरिटी (पीएस परिपक्वता माडल) है, वीगन भी समझ लिया और सेवन भी करना है पूरा। तो सर, ऐसे काम किस तरह से हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: भाई, जो चीज़ जैसी है उससे वो उम्मीद करो न। मैं ये पानी पी रहा हूँ, इससे शैम्पू थोड़े ही हो जाएगा। जो चीज़ जिस काम आ सकती है, जो उसका सम्यक स्थान है, तुम उससे वो अपेक्षा कर लो तो चलेगा। फिर अपेक्षा की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि वो काम तो वो वस्तु स्वयमेव करेगी। पर अब पी रहे हो पानी और कह रहे हो, ‘काश! इससे दिल की आग बुझ जाए।’ ये (पानी) दिल में नहीं जाता, ये आँत में जाता है। अगर ये सीधे दिल में जाने लग जाए तो बीमारी हो जाएगी।

काम को काम जानो न, तुम काम पैसा कमाने के लिए करते हो। ठीक है। उसमें तुम्हें क्या तकलीफ़ है? तकलीफ़ ये है कि जो चीज़ तुम गये हो पैसा अर्जित करने के लिए, करने, वहाँ पर फिर तुम मानसिक, आध्यात्मिक शान्ति भी ढूँढने लग जाते हो। तुम चाहते हो कि तुम अच्छा काम करो तुम्हारी तारीफ़ हो जाए। एक-दो बार हो भी जाएगी, फिर तुम्हें पता चलेगा कि तुम जिसे अच्छा काम बोलते हो वो तुम्हारी संस्था की परिभाषा से ज़रा हटकर है। फिर तुम तो करोगे अच्छा काम अपनी तरफ़ से, तारीफ़ उधर से मिलेगी नहीं क्योंकि जो तुम्हारे लक्ष्य हैं उनके वो लक्ष्य हैं नहीं।

तुम्हारे लक्ष्य तुममें केन्द्रित हैं, उनके लक्ष्य उनके अपने स्वार्थों में केन्द्रित हैं, दोनों कब तक साथ चलेंगे? फिर तुमको अफ़सोस होता है। जीवन में जहाँ से जो मिल सकता है उससे उतना ही माँगो। काम से भगवान मत माँगने लग जाओ, प्रेमी-प्रेमिका से राम मत माँगने लग जाओ। न काम भगवान बनेगा, न प्रेमी राम बनेगा, तुम्हें बस विश्राम नहीं मिलेगा।

ये बहुत होता है, तुम आकर्षित हुए थे किसी की ओर उसकी देह देखकर के। ठीक? हकीकत यही है कि नहीं? अब तुम माँग क्या रहे हो उससे? प्रेम। अब प्रेम मिलता नहीं है तो तुम उस पर दोषारोपण कर रहे हो कि ये प्रेम नहीं दे पाता। उसने दावा कब किया था कि वो प्रेम देगा? और उसका दावा भी छोड़ो, तुम क्या वाकई उसकी तरफ़ प्रेम पाने गये थे? तुम्हारे कदम उसकी ओर बढ़े ही इसलिए थे क्योंकि उसकी देह आकर्षक थी। ठीक?

देह के लिए गये थे, देह मिल गयी, ज़्यादा की उम्मीद कर क्यों रहे हो? अब रोते क्यों हो कि प्रेम नहीं मिलता? जिस रिश्ते की बुनियाद ही देह थी, उसमें स्नेह क्यों माँग रहे हो? पर माँगते भी हो, कुछ हद तक तुम्हें मिल भी जाता है। नहीं भी मिलता है तो सामने वाला तुम्हारा दिल रखने के लिए स्वाँग कर लेता है। पर एक सीमा के आगे तक तो नाटक कर नहीं सकता, फिर कहते हो कि दिल टूट गया, प्यार में धोखा हो गया।

ईमानदारी से बताना, धोखा तो बाद में हुआ, शुरुआत कैसे हुई थी? शुरुआत में तुम प्रेम से लबालब थे? देह दिखी थी खिंचे चले गये थे। और जानते क्या थे तुम उसके बारे में? देह के अलावा दृष्टि पड़ी कहाँ थी? अब शिकायतें हैं। जहाँ से जो मिल सकता है वही लो, राम तुम्हें कहीं नहीं मिलने वाला, न माँगो, न खोजो, न उम्मीद रखो। दुनिया जैसी है तुम्हें वही देगी। दुनिया बीतती हुई कहानी है, ढलता हुआ सूरज है, गुज़रता हुआ मौसम है।

दुनिया अगर तुम्हें स्थायित्व दे सकती तो पहले स्वयं ही स्थायी न हो जाती? जो दुनिया खुद गुज़रने वाली है, उसमें तुम चाहते हो कि तुम्हें अमरता मिल जाए। दुनिया खुद अमर है क्या जो तुम्हें अमरता दे पाएगी? पानी के बुलबुले को तुम अपना कवच बनाना चाहते हो। वो बेचारा अपनी तो बचा नहीं पाता तुम्हें क्या बचाएगा! तुम कहते हो, ‘मकान तुम्हें सुरक्षा दे दे।’ मकान बनाया तुमने, मकान को सुरक्षा तुम देते हो और चाहते हो मकान तुम्हें सुरक्षा दे दे! तुम मकान को सुरक्षा न दो तो मकान कितने दिन चलेगा? बोलो? पर चाहते हो मकान तुम्हें सुरक्षा दे दे।

अरे, जो जितना दे सकता है उससे उतना ही माँगो। काम और मकान तुम्हें आत्मिक शान्ति नहीं दे पाएँगे, पर कुछ दे सकते हैं। जो दे सकते हैं वो ले लो। काम पैसा दे देगा, ले लो, मकान हवाओं के थपेड़ों से और शीत से सुरक्षा दे देगा, ले लो। पर कहोगे कि नहीं, मकान बनवा लिया है, अब इससे आध्यात्मिक प्रगति हो जाएगी, तो घंटा! एक के बाद एक बनवाते जाओ।

जो तुमने बनवाया है, वो तुम्हें तुमसे आगे कुछ कैसे दे देगा? नौकरी तुमने पकड़ी थी न? अब चाहते हो नौकरी तुम्हें बिलकुल...। और आदमी इन्हीं दो चीज़ों में उलझा रहता है, बाकी सारी बातें एक तरफ़। वक्त तुम्हारा सारा या तो दफ़्तर में जाता है या घर में जाता है। दफ़्तर में तुम्हारी उम्मीद रहती है नौकरी से और घर में उम्मीद रहती है बीवी से। और दोनों जगह तुम्हें मिलता है….!

और फिर तुम कहते हो कि अब हमें धर्मग्रन्थ पढ़ने हैं, अब हमें सद्गुरु की तलाश है। (मुस्कुराकर) सद्गुरु क्या करेंगे, वो बेचारे खुद सताये हुए हैं (श्रोतागण हँसते हुए)। उन्होंने कहा था कि तुम जाकर के उम्मीदें पालो?

प्र: अभी थोड़े दिन पहले आपका एक कोट पढ़ा — जो मध्यमार्गीय होता है वो दोनो तरफ़ से जूते खाता है — तो अपना उलझा हुआ पैर याद आ गया उसमें, कि मध्यमार्गीय हैं यहाँ से भी जूते खा रहे हैं, वहाँ से भी जूते खा रहे हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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