प्रश्नकर्ता: सर, हम अगर किसी एक काम पर एकाग्रचित होते हैं तो बाकी सब जो हो रहा है उस पर हमारा ध्यान नहीं जाता। ऐसा होने पर सब यही कहते हैं, “तुम दुनिया से अलग हो गए हो, तुमने अपनी एक नई दुनिया बना ली है।" मैं जानना चाहती हूँ कि हर जगह से एक समान कैसे जुड़े रहें, हर जगह कैसे सक्रिय रहें?
आचार्य प्रशांत: अगर यहाँ, इस कक्ष में सक्रिय रहना है, तो उनकी दुनिया से कटना होगा जो अभी इस कक्ष के भीतर नहीं हैं। कैसे कर पाओगी ये कि बाहर रहो, वहाँ उपद्रव मचाओ, और यहाँ बैठकर कर मुझसे सवाल भी पूछो?
प्र: वो बात नहीं है। यहाँ पर एकाग्रता है, पर कभी-कभी ऐसा होता है कि मन कहीं और भी चला जाता है।
आचार्य: तो जहाँ चला जाता है, तुम वहीं की हो जाती हो।
प्र: जी सर, तो फिर इस तरफ ध्यान नहीं जा पाता।
आचार्य: तो ये तो करना ही पड़ेगा। जब जागोगे तो सपना टूटेगा। क्या तुम ये चाहती हो कि, “मैं जगी भी रहूँ और सपने के मज़े भी लेती रहूँ”? जब यहाँ पर बैठे हो तो बाहर जो रस की धारा बह रही थी, अभी उससे अपने आप को तोड़ना पड़ेगा न?
जब भी कभी अपने साथ हो पाओगी, तो बहुत कुछ जो नकली है, अधूरा है, उससे टूट ही जाओगी, उससे अलग हो ही जाओगी। उसमें क्या दिक्क़त है? वो सपने के टूटने जैसा है। (सभी श्रोतागण की ओर देखते हुए) सपना टूट जाता है, तो क्या सुबह उठकर रोते हो?
(सभी श्रोतागण ‘ना’ में सिर हिलाते हैं)
लोग हैं जो रोते हैं। ऐसे गाने बने हुए हैं कि ‘मेरा सुन्दर सपना टूट गया’।
हमारा जीवन ऐसा ही है – ‘मेरे सपने क्यों टूट गए?’ अरे सपने थे, टूटेंगे ही। यथार्थ में आओ। क्योंकि तुम्हें सिखाया गया है, ‘ऊँचा सोचो, बड़ा सोचो’, तो तुम्हारा जीवन ही सपनों से भर गया है।
प्र२: सर, तो हम क्या करें? सपने उन्हीं बातों से बनाते हैं जिनसे हम सम्बंधित होते हैं, जो हम करना चाहते हैं।
आचार्य: और तुम क्या चाहते हो? दाल-भात, रोटी-सब्ज़ी।
प्र२: सर, दाल-भात भी तो ज़रूरी है न।
आचार्य: समझो बात को। तुम वही तो चाहोगे जो तुम्हारा पुराना अनुभव रहा है।
प्र२: कुछ अंतर्मन भी तो होगा?
आचार्य: कोई अंतर्मन नहीं होता।
प्र२: सर, एक बार आप बात कर रहे थे काव्य लिखने की। बहुत लोग होते हैं जो काव्य से घृणा करते हैं, लेकिन फिर भी वो काव्य लिखना शुरू कर देते हैं। पता नहीं क्यों लिखना शुरू कर देते हैं।
आचार्य: उनके जीवन में ‘क्यों’ जैसा कुछ है ही नहीं। मन की दुनिया में सब यंत्रवत है। ये मत पूछो कि क्यों ऐसा हो जाता। उन पर कोई प्रभाव पड़ा, इसलिए हो गया, और कोई बात नहीं है।
प्र२: सर, मैं अपनी बात नहीं कर रहा हूँ। मैं तो वैज्ञानिक बनना चाहता हूँ। लेकिन अगर ये सपना टूट गया, तो उससे दुखी ना हों?
आचार्य: जो ‘अभी’ कर रहे हो, बस वो करो।
प्र३: सर, ऐसे तो ज़िन्दगी में तो कोई उद्देश्य ही नहीं रह जाएगा।
प्र४: उद्देश्य तो रहना चाहिए न, सर?
आचार्य: (मुस्कुराते हुए) रखो उद्देश्य। तुमने फैसला कर ही लिया है कि रखना है उद्देश्य, तो मुझसे क्यों पूछ रहे हो? रखो, अभी तक भी रखा है। अभी तक रखने पर ये हालत है और आगे भी रखना है, तो रखो।
प्र३: तो क्या उद्देश्य छोड़ देना चाहिए? क्या फ़ालतू था वो?
आचार्य: ये तुम जानो, अपनी हालत को देखो। मैं तो बस कुछ बातें कह रहा हूँ।
प्र५: सर जब तक कोई उद्देश्य नहीं होगा, तो फिर हम वास्तव में क्या करेंगे?
आचार्य: अभी तुम सवाल पूछ रही हो, मैं उसके उत्तर में कुछ कह रहा हूँ, तुम सुन रही हो। मन में कोई उद्देश्य चल रहा है?
प्र२: हाँ सर, जानो।
आचार्य: यही एक उद्देश्य हो सकता है। इसके अलावा भी कोई उद्देश्य चल रहा है? और कुछ भी चल रहा है क्या? सिर्फ़ जान रही हो। मैं कह रहा हूँ, तुम जान रही हो, यही हो रहा है न? बस काफ़ी है।
प्र२: तो वैज्ञानिक भी क्या चाहता है? वो बस जानना ही तो चाहता है।
आचार्य: सिर्फ जानना ही ठीक है, सिर्फ जानना।
प्र२: हम केवल जानना ही तो चाहते हैं।
आचार्य: जान तो अब भी सकते हो।
प्र२: बिना आगे पढ़े कैसे जानेंगे सर?
आचार्य: तो जानो, ‘अभी’ पढ़ो। वही तो है जानना, लगातार जानना। जानने में इच्छा का सवाल कहाँ है? क्या जानोगे? जो हो रहा है, वही तो जानोगे न? जो है, जानो लगातार, जानते रहो उसको, उसी का तो नाम ‘चेतना’ है। उसके लिए किसी व्यवसाय की ज़रूरत नहीं है, उसके लिए किसी नाम की ज़रूरत नहीं है कि वैज्ञानिक हैं तो ही जान सकते हैं। लगातार जानो, प्रतिपल जानो।
प्र२: सर अगर लक्ष्य नहीं होगा तो हम कैसे चुनाव करेंगे कि वास्तव में हमें किस रास्ते पर चलना है? क्योंकि अगर हमने ग़लत रास्ता चुन लिया, तो हम उसी दिशा में चलेंगे।
आचार्य: और अगर मैं अभी तुम्हें उत्तर दे रहा हूँ, तो क्या तुम चुनाव कर रहे हो कि क्या सुनना है और क्या नहीं सुनना है?
प्र३: नहीं।
आचार्य: जो है सो है, क्या दिक्कत है? शाकाहारी हो या माँसाहारी?
प्र३: माँसाहारी।
आचार्य: माँसाहारी। अभी तुम्हारे सामने बढ़िया माँसाहारी खाना रख दिया जाए और बगल में सूखी रोटी और लौकी की सब्ज़ी, क्या तुम उनमें चयन करोगे? माँसाहारी खाना, वही चुनोगे न? तुम्हें सिखाया गया है माँसाहार खाना, कर लिया तुमने चुनाव। यहाँ पर कोई ऐसा है जो शाकाहरी है?
(श्रोता हाथ उठाते हैं)
तुम लोगों के सामने एक तरफ़ रोटी और लौकी की सब्ज़ी और दूसरी तरफ़ माँसाहार रख दिया जाए, तो तुम क्या चुनोगे?
प्र४: रोटी-सब्ज़ी।
आचार्य: तुम्हारे सारे चुनाव तुम्हारी कंडीशनिंग से आते हैं। तो उनको अपनी रुचि मत मान लेना। जिसको शाकाहारी खाना सिखाया गया है उसे शाकाहार पसंद आएगा, जिसे माँसाहारी खाना सिखाया गया है उसे माँसाहार पसंद आएगा। ये क्यों मान रहे हो कि तुम्हारा चुनाव कोई बड़ी कीमती चीज़ है?
तुम्हारा चुनाव तुम्हारे यंत्र होने का संकेत है। तुम जो भी चुनाव करते हो, तुम वही चुनते हो जिसका संस्कार तुम्हारे मन में भरा हुआ है। तुम्हारे चुनाव में तुम हो कहाँ? ध्यान से देखो न।
प्र४: सर हम कुछ भी जानने के लिए बहुत सारे प्रश्न करते हैं, और उन प्रश्नों से हम बहुत कुछ सीख भी जाते हैं। लेकिन कभी-कभी वो प्रश्न हमें इतना हैरान कर देते हैं कि जानने के बाद भी हम अनिश्चित से हो जाते हैं।
आचार्य: ये भी तुमको संस्कारित कर दिया गया है कि जानने के लिए सवाल करना आवश्यक है – ये बहुत बड़ी भूल है। जानने के लिए सवाल करना आवश्यक नहीं है। अच्छा, यहाँ पर कोई ऐसा बैठा है जिसने आज कोई सवाल नहीं पूछा है?
(श्रोता हाथ उठाते हैं)
तुम यहाँ बैठे थे, क्या कुछ जान नहीं पाए? जान गए न? केवल सुन रहे हो। सच तो ये है कि सवाल करना जानने के रास्ते में बाधा है। कैसे? एक बड़ी दुकान है जहाँ पर सब कुछ उपलब्ध है। तुम जाते हो, तुम्हारे मन में बैठा हुआ है पहले से कि, "मुझे आलू लेने हैं।" तुम जाते ही उससे क्या सवाल करोगे?
प्र४: आलू हैं क्या?
आचार्य: ‘आलू हैं क्या?' अब क्या तुम जान पाओगे? जो समग्रता है वहाँ की, क्या उसे समझ पाओगे? जैसे ही तुमने सवाल किया तुमने पहले ही तय कर लिया कि इस सवाल का ही उत्तर चाहिए। जो उपलब्ध है, सब नहीं जानना। सवाल करते ही तुमने अपने आप को छोटा कर दिया।
इतनी बड़ी दुकान है, जिसमें पता नहीं क्या-क्या है, पर तुम्हें उत्तर क्या मिला? उतना ही छोटा उत्तर मिला जितना छोटा तुम्हारा सवाल है कि ‘आलू हैं क्या?’ एक दूसरा व्यक्ति है, वो बस खड़ा होकर देख रहा है, तो वो क्या-क्या जान जाएगा? वो सब कुछ जान जाएगा।
सवाल मत करो, देखो, समझो, शांति से जानो। सवालों में उलझना, ये भी एक संस्कार ही है, जो तुम्हें बचपन से दे दिया गया है कि खूब सवाल पूछो। सवाल तो मन से निकलते हैं, और मन है कुँए का मेंढक। कुँए का मेंढक सवाल करेगा भी तो क्या करेगा? कुँए का मेंढक क्या कभी ये सवाल पूछेगा कि महासागर कितना लम्बा और कितना गहरा है? क्या वो ये सवाल पूछेगा कभी? वो तो ये पूछेगा कि, "मेरे कुँए में थोड़ा-बहुत पानी कब आ जाएगा?"
तुम्हारे सवालों की कोई कीमत नहीं है, कीमत है केवल तुम्हारे जानने की।