वो अपना किसे मानते हैं? || गुरु कबीर और संत बुल्लेशाह पर

Acharya Prashant

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वो अपना किसे मानते हैं? || गुरु कबीर और संत बुल्लेशाह पर
कबीर अपनेआप को मैं की अपेक्षा कबीर कहकर उससे दूरी कर लेते हैं जो मरेगा, जो सीमित है और फिर वो शान से फ़रमाते हैं, “मैं कबीरा ऐसा मरा, दूजा जनम न हो।” “मैं कबीरा ऐसा मरा।” वो मर गया, जो कहता, ‘मैं’ कबीर, मैं कबीर। अब कौन बचा या तो सिर्फ़ मैं, या तो सिर्फ़ कबीर, ये जुड़ना नहीं बचा, ये द्वैत नहीं बचा। वो अतृप्त अहंकार नहीं बचा जिसे नाम का सहारा चाहिए और वो नाम नहीं बचा जो अहंकार की बैसाखी के साथ खड़ा होता है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: कमलेश पूछ रहे हैं कि ये राज़ क्या है कबीर हों, कि बुल्लेशाह हों, ये अपनेआप को किसी गैर की तरह क्यों सम्बोधित करते हैं — “कहें कबीर सुनो भाई साधो, कबीरा खड़ा बाज़ार में”? ऐसा क्यों नहीं बोलते — “मैं खड़ा बाज़ार में”? “बुल्ले नु समझावण आइयाँ”, “बुल्ला की जाणा मैं कौन” — ये क्या है?

आचार्य प्रशांत: कबीर अगर कबीर हैं तो फिर तो नीरू और नीमा के हैं, फिर तो बनारस के हैं, फिर तो जुलाहों के हैं, फिर तो बस चौदहवीं शताब्दी के हैं। समझ रहे हैं न? कबीर होना झूठ नहीं है, बस आंशिक है। कबीर हो जाने का अर्थ हो गया — वो देह हो जाना जिसे कुछ लोगों ने अधिकार पूर्वक नाम दिया था, कबीर! और यदि कबीर वो व्यक्ति ही हैं तो वो व्यक्ति तो बड़ा सीमित है। वो व्यक्ति तो मर गया और उस व्यक्ति ने एक सीमित भाषा में कुछ सीमित बातें बोली थीं। कबीर से दूरी रखकर, कबीर अखिल ब्रह्मांड के हो जाते हैं और कबीर अगर कबीर ही रहे आते तो एक छोटे से कुनबे भर के रह जाते। हम चूँकि हम रहे आते हैं इसलिए संसार हमसे बेगाना रहा आता है।

आप अगर वही शरीर हैं, जिसका जन्म हुआ, आप अगर वही पहचान हैं, जो आपको मिली है और आपने ओढ़ी तो फिर तो आपके वो सारे कर्तव्य भी हैं और वो सारी सीमाएँ भी हैं, जो नामों, पहचानों और देह के साथ आती हैं। अब भूल जाइए “वसुधैव कुटुम्बकम्”, अब भूल जाइए अमरता और अनन्तता। कबीर तो एक दिन जन्मा था और मरेगा; पर कबीर न जन्मते हैं, न मरते हैं।

समझ रहे हो?

कबीर अपनेआप को मैं की अपेक्षा कबीर कहकर उससे दूरी कर लेते हैं जो मरेगा, जो सीमित है और फिर वो शान से फ़रमाते हैं, “मैं कबीरा ऐसा मरा, दूजा जनम न हो।” “मैं कबीरा ऐसा मरा।” वो मर गया, जो कहता, ‘मैं’ कबीर, मैं कबीर। अब कौन बचा या तो सिर्फ़ मैं, या तो सिर्फ़ कबीर, ये जुड़ना नहीं बचा, ये द्वैत नहीं बचा। वो अतृप्त अहंकार नहीं बचा जिसे नाम का सहारा चाहिए और वो नाम नहीं बचा जो अहंकार की बैसाखी के साथ खड़ा होता है।

अब कबीर बोलें ‘मैं’, तो पूरा और अब कबीर बोलें ‘कबीर’, तो पूरा। वो पहचान खत्म हो गयी, जो संसार पर आश्रित थी। अब उनकी पहचान अपनेआप में पूरी है। शास्त्रीय रूप से इसी को मुक्ति भी कहते हैं, त्याग भी कहते हैं और साक्षित्व भी कहते हैं। कि ऐसे हैं कबीर जो कबीर के ही दृष्टा हैं, जो कबीर के ही साक्षी हैं। कबीर बैठे कबीर को देखते हैं और कहते हैं, ‘वो देखो, कबीरा खड़ा बाजार में। कबीर साक्षी हैं कबीर के। कबीर आत्मा साक्षी है कबीर की गति की, कबीर की देह की, कबीर के कर्म की। देह सीमित है, कर्म सीमित हैं, दिख रहा है सब सीमित है पर कोई अफ़सोस नहीं है क्योंकि देखने वाला असीमित है। देखने वाले का सीमाओं से कोई लेना-देना नहीं है। देखने वाला सीमाओं को देखता है, न घटता है, न बढ़ता है। देखने वाला सीमाओं को देखता है कोई चिन्ता नहीं होती उसको। इसलिए फिर जब वो कहते हैं, “कबीरा खड़ा बाजार में”, तो आगे ये भी कह पाते हैं, “न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।” दोस्त उन्हें बचा नहीं पाएँगे और बैरी उन्हें मिटा नहीं पाएँगे।

समझ रहे हो?

देह ही हो तुम पूरे-के-पूरे। एक झोला हो माँस का, रक्त का, रस का, हड्डी का, तमाम तरह की ग्रन्थियों और वृत्तियों का; पर ये बड़ा अद्भुत झोला है। ये ऐसा झोला है जिसमें शक्ति है अपनेआप को झोला जानने की। अब या तो जीवनभर झोले रहे आओ या जान लो कि तुम झोले हो और झोले से बाहर कूद जाओ।

एक दाल, सब्ज़ी, तरकारी, दूध, पानी से भरा झोला रखा हो और एक आदमी बैठा हो, दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। आदमी भी तो यही है। रक्त, मल, मवाद, दूध, पानी, दाल, सब्ज़ी रोटी यही उसमें भरे हुए हैं। और अगर वो माँसाहारी आदमी है तो उदाहरण को और सटीक बनाने के लिए उस झोले में एक चूज़ा डाल दो।

झोला तथ्य है और झोले की बात ये कि झोला जग भी जाए तो भी वो रहेगा झोला ही बस अब वो जान जाएगा कि झोला है। ये अजीब बात है अब बताओ कुछ बदला कि नहीं बदला? झोले को बदलना ये नहीं होता कि पहले झोला था, फिर झूला हो गया। झोले का बदलना ये होता है कि पहले ऐसा झोला था जो किसी अन्धेरी, गहरी, नींद, बेहोशी में था; जिसे कुछ नहीं पता ‘मैं कौन, मेरे भीतर क्या?’ और अब झोला खुलेआम कह रहा है कि झोला ही है अब ये।

भक्त झोल! झोले में किसी ने कुछ डाल दिया, किसी ने कुछ डाल दिया है। सब आयी चीजे़ं बाहर से भीतर जाकर उनमें कुछ क्रियाएँ भी हो गयीं, कुछ-का-कुछ बन गया; पर जो भी बना वो आया बाहर से ही। क्या बाहर से नहीं आया?

प्रश्नकर्ता: झोला है ये जानने वाला।

आचार्य प्रशांत: हाँ। अब जो ये जान रहा है वो क्या है भी? क्योंकि अगर वो होता तो झोले के भीतर होता; पर वो तो झोले के बाहर है और बाहर से देखकर बता रहा है कि देखो झोला है। जो कुछ हो सकता है, वो सब जिसकी हस्ती है, वो सब तो कहाँ है? झोले के भीतर। प्यासा झोला, निंदासा झोला, तो फिर कहते हैं, “बुल्लेनु समझावण अइयाँठ है। इसलिए तो कटाक्ष हैं कि तुम किसको समझाने आयी हो, तुम्हें पता भी है बुल्ला कौन है? ये जो हाड़-माँस का बुत है, इसको को तुम बुल्ला जानकर समझा रही हो। अरे! ये तो बुल्ला की दृष्टि का विषय है।

तुम जिससे बुल्ला समझकर बात कर रही हो, बुल्ला उससे दूर खड़ा उसे देख रहा है। उसे भी देख रहा है, तुम्हें भी देख रहा है। जैसे कोई तुम्हें समझाने आए और तुम्हारे पजामे को समझा जाए और तुम दूर खड़े देख रहे हो कि ये क्या माजरा है। किसको देख रहे हो? दोनों को, समझाने वाले को भी, और ?

प्रश्नकर्ता: पज़ामे को भी।

आचार्य प्रशांत: पज़ामे को भी। “बुल्ला दूर खड़ा बुल्लेनु समझावाण आईयाँ”, अब भाई-भौजाई दोनों ने पजामे की एक-एक टाँग पकड़ ली है और खींच रही हैं कि “चल रे, घर चल।” घर वो जाएगा कैसे?

बुल्ला तो जहाँ का था, वहाँ बस गया। अब खींचते रहो पजामा, “तुम ले जाओ पजामे को।” ये भी हो सकता है। ये तो बहनें थीं, भौजाइयाँ थीं बहुत इनके बाहुबल नहीं था। कोई राजा-महाराजा आता तो हो सकता था कि बुल्ले को उठाकर के ले ही जाता। जब वो बुल्ले को उठाकर के ले जाता, तो बुल्लेशाह हँस रहे होते, कहते, ‘पज़ामा ले गये। बुल्ले को कौन ले जा सकता है?’ वो तो आज़ाद है ये पज़ामा लिये जा रहे हैं और सोचते हैं, ‘मैं गिरफ़्तार हो गया।’

तभी तो मंसूर हों, कि सरमद हों, उन्हें शिकन नहीं आती। कहते हैं, ‘पज़ामा जला दिया, कोई बात नहीं।’ वे ऋषिकेश सेवा आ रहे थे, इनके हाथ में समोसा था तो एक साँड ने पछिया लिया। समोसा उसको देकर भगी, ‘ले ले भाई, तुझे जो चाहिए, तू हमें थोड़े ही पा लेगा, हमारी देह पा सकता है, हमारी वस्तुएँ पा सकता है। वो सबकुछ जो पदार्थ है, तू उसे पा सकता है, पा भी सकता है, नष्ट भी कर सकता है, गर्दन काट सकता है हमारी, हमें नहीं काट सकता।’ ‘क्या रे भाभी! किसको समझा रही हो?’ और समझा लो उसको क्या पता वो मान भी जाए।

महावीर संन्यस्त होना चाहते थे, तो बार-बार, बार-बार घरवालों से कहें कि जाने दो, जाने दो। घरवाले बात को टालें, कोई कहे अभी हम ज़िन्दा हैं जब हम मर जाएँ तो तुम जंगल जाना। कोई कुछ कहे, कोई कुछ कहे बड़े दिन बीत गये।एक दिन घरवाले उनके पास आये, बोले, ‘तुम जाओ, क्योंकि तुम जा ही चुके हो। हमने तुम्हारी देह भर रोक रखी है तुम तो जा चुके हो, तो तुम चले ही जाओ।’ ऐसा ही था, वो महावीर को रोक रहे थे, महावीर तो जा चुके थे। वो जिस महावीर को देख सकते थे, जिस महावीर का हाथ थाम सकते थे, जिस महावीर को कैद कर सकते थे, उसको रोके हुए थे। और एक महावीर ऐसा भी होता है कि मैं बेकैद, मैं बेकैद, उसको कैसे रोकोगे, उसको कैसे कैद करोगे वो तो उड़ गया। पिंजडे़ में पक्षी कैद हो सकता है प्राण तो नहीं न? कि ऐसा होता है पिंजडे़ में पक्षी है तो उसके प्राण-पखेरू भी नहीं उड़ेंगे, पखेरू बचा रह जाता है, प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं। तुम्हारी कैद तो बड़ी मज़बूर है, कुछ कैद भी नहीं कर पाते तुम, आदमी की ऐसी मज़बूरी आज़ादी तो वो जानता ही नहीं, कैद भी नहीं कर पाता।

कोई कहे कि साहब आप आज़ादी नहीं दे पाते, तो मतलब आप कैद तो कर लेते होंगे, कैद भी नहीं कर पाते। फ़कीरों का तो ऐसे ही रहा है। फ़कीर बैठे हैं, लोग आये हैं उन्हें पकड़ने तो फ़कीरों ने कहा, ‘दे ताली, और भाग’ तो इस पल ये नज़ारा है कि फ़कीर भाग रहे हैं और पीछे-पीछे उनकी भीड़ है कि इनको पकड़ ही लें। ये बहुत दुष्ट है नंगे घूमते हैं, आधी रात गाते हैं, न जाने क्या बवाल मचाते हैं। और गाँव के सब जवान लड़कों को भ्रष्ट किये दे रहे हैं।

ये इस पल का नज़ारा है कि फ़कीर कुछ देर भागे। जैसे बच्चे का खेल, फिर एक-दूसरे से निगाह मिलायी, बोले खेल पलट देते हैं। उसके बाद नज़ारा ये है कि भीड़ भाग रही है। और फ़कीर पीछे-पीछे और चिल्ला रहे हैं, ‘अरे! कोई तो पकड़ो हमें, हम तैयार हैं ले चलो।’ अब कोई पकड़ने को राज़ी नहीं है और वो सब चिल्ला रहे हैं कि है कोई जो हमें पकड़े।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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