प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। जीवन को देखा है, जाना है, महसूस किया है। सामान्यतया सब ठीक और संतुलित ही चलता है। कोई बेचैनी नहीं उठती, नृत्य उठता है, धन्यवाद आता है। पर कभी-कभी मृत्यु जैसी घटना घट जाती है, जैसे अपनों की अकाल मृत्यु, या दुर्घटना, या आत्महत्या इत्यादि। सब खो जाता है, कोई ज्ञान काम नहीं आता, सिर्फ़ गहन उदासी और बेचैनी बचती है। शून्य-सा रह जाता है, सब संतुलन खो जाता है। ठीक तब, जब उस संतुलन की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। जान नहीं पाती ऐसा क्यों।
कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: बात जानने की है ही नहीं। ह्रदय में उदासी उठती है, उठनी चाहिए। जीव पैदा हुए हैं न हम, और अकेले नहीं पैदा हुए हैं। इंसान को तो पैदा होने के लिए भी दो चाहिए। इंसान जब भी होगा, अपने आसपास और इंसानों को पाएगा। एक कुटुंब हैं हम, एक कुनबा हैं हम। और जितने हैं हमारे आसपास, सब हमारे ही जैसे हैं।
दो बातें कहीं हमने।
पहला, हम अकेले नहीं।
दूसरा, जितने भी हमारे आसपास हैं, सब हमारे ही जैसे हैं।
देखिए मृत्यु को, और देखिए कि आप ही भर नहीं डरी हुईं, और उदास हैं। आप ही को नहीं कचोट गई, आप ही को नहीं भेद गई, ये पूरी दुनिया जी ही रही है मृत्यु के दुःख और डर में।
इस डर को अपनी ऊर्जा बना लीजिए, इस गहरी उदासी को अपनी प्रेरणा बना लीजिए।
मत कहिए कि 'मेरे भीतर से उदासी मिट जाए'। वही उदासी जब दूसरों का भला करने के काम आती है, तो ‘करुणा’ कहलाती है। कृष्ण करुण हैं, बुद्ध करुण हैं। और बुद्ध का करुण चेहरा आप देखेंगे, तो उसमें आप हँस ही नहीं पाएँगे। बुद्ध को दुनिया का दुःख सताता है। और ये बात मैं बड़ी सावधानी से बोल रहा हूँ, क्योंकि मुझे मालूम है कि बुद्ध वो हैं, जो हर प्रकार के दुःख के पार निकल गए हैं।
बुद्ध हर प्रकार के दुःख के पार निकाल गए हैं, ये जानते हुए भी कह रहा हूँ कि बुद्ध को दुनिया का दुःख सताता है। इसीलिए जब बुद्ध ने अपने आर्ष वचन बोले, तो उसमें से पहला था- “जीवन दुःख है।” दुःख यदि होता ही नहीं, तो वो भी तो किसी ऊँचे शिखर पर चढ़कर इनकार कर सकते थे न। और बहुत घूम रहे हैं ब्रह्म-ज्ञानी, वो कहते हैं, “कोई दुःख है ही नहीं। दुःख माया है, दुःख मिथ्या है।”
दुःख माया है, दुःख मिथ्या होगा। पर तुम्हारे लिये माया है क्या? तुम्हारे लिये माया है या नहीं है, अपनी बात करो। है न?
बुद्ध के पास एक स्त्री आयी। ये कहानी हम सभी ने पढ़ी है, बचपन में पढ़ी होगी। उस स्त्री का बच्चा मर गया था। बुद्ध ने उसको ये नहीं कहा कि – “न तू है, न तेरा बच्चा। न जन्म हुआ था, न मृत्यु घटी है। सब अनात्मा है। ये सब तू थोथी बातें कर रही है। तेरा दिमाग चल गया है।”
ऐसा कहा उसको?
बुद्ध ज्ञानी मात्र नहीं हैं। बुद्ध सजीव करुणा हैं।
कह सकते थे न उस स्त्री को, “हट पगली! अरे जन्म ही झूठा है, मृत्यु कैसी? न तू है, न मैं हूँ, न संसार है, ये सब तो मिथ्या है। तू क्या मोह में उलझी हुई है।” ऐसा कह सकते थे या नहीं कह सकते थे? पर ऐसा उन्होंने कहा नहीं। क्या किया उन्होंने? बोलो क्या किया? बोले, “तू जा और देखकर आ। जा देखकर आ, और ऐसा घर खोजकर आ जहाँ मृत्यु न हुई हो। और उस घर से थोड़ा अन्न-चावल दाना, कुछ ले आना। फिर मैं करूँगा कुछ उपाय।”
दाना-चावल हम जानते हैं यूँ ही था, उपाय मात्र था। वो उसको क्या दिखा रहे थे? वो दिखा रहे थे कि – “देख, तू अकेली नहीं भुगत रही। यहाँ सब रो रहे हैं। यहाँ ऐसा कोई नहीं जिसकी आँखों में आँसू न हों। और कुछ की आँखें तो रोते-रोते पथरा गई हैं। तू जा देख।”
तो मैं भी ये नहीं कहूँगा कि आपको जो उदासी उठ रही है वो झूठी है, यद्यपि वो कहना सबसे आसान होता है। चढ़ जाओ अध्यात्म की चोटी पर, और वहाँ से करो उद्घोषणा – “सब मोह-माया, मिथ्या है, अरे हटाओ!” नहीं। उसको आप मेरी कमज़ोरी कह लीजिए, बुद्ध की कमज़ोरी कह लीजिए। जो विशुद्ध ज्ञानी होंगे वो कहेंगे, “ये उन्होंने ठीक कहा ही नहीं।”
और बुद्ध को काटने के लिए जो तर्क दिए जाएँगे, वो तर्क बड़े प्रबल होंगे। वो तर्क क्या होंगे? “वो जो स्त्री आयी थी, जानते हो कि वो बेहोश थी, नशे में थी। मोह ने इसको जकड़ लिया था और ये बेहोश हो गयी थी। और आपने इसको बाकी सब बेहोश लोगों के पास जाने दिया। यदि सौ लोग बेहोश हों, तो क्या इससे ये सिद्ध हो जाता है कि बेहोशी ही होश है?”
तो बुद्ध ने जो किया, तर्क-पूर्वक उसको काटा जा सकता है। पर मुझे नहीं काटना। मुझे नहीं काटना। उस स्त्री को मोह था, पूरे गाँव को मोह था, और ‘मोह’ हमारा तथ्य है। यहाँ सब रो रहे हैं, यहाँ सब परेशान हैं, यहाँ सब व्यथित हैं। क्या बोलूँ उनको? कि, “तुम्हारी व्यथा झूठी है"? मेरे बोलने से उनकी व्यथा मिट गई क्या? मेरे बोलने से उनकी व्यथा मिट गई होती, तो मैं पहाड़ पर चढ़कर चिल्लाता – “सब झूठा है, सब झूठा है।”
सब झूठा है, तो कौन-सा पहाड़, और कौन-सा चिल्लाना? और कौन-से आचार्य जी, जो चिल्ला रहे हैं - “सब झूठा है”?
कुछ झूठा नहीं है। और यदि सब झूठा-ही-झूठा है, तो किसके लिए रचे गए ग्रन्थ? झूठ को समझाने के लिए? क्यों बुद्धों ने किया इतना श्रम? झूठ को बचाने के लिए? हमारे-आपके लिए ही तो वो सब बातें कही गईं न? और हम सब अगर झूठे ही हैं, तो झूठों से क्या इतना लेना-देना?
नहीं! होगा झूठ, पर करुणा की यही बात है, करुणा की यही मिठास है। वो भली-भाँति जानती है कि आत्यंतिक रूप से तुम्हारे सारे भाव झूठे हैं। आत्यंतिक रूप से तो तुम्हारा होना भी झूठ है, लेकिन अभी तो तुम्हें दुःख है ही।
भले ही वो दुःख तुम्हें किसी भ्रमवश लगता हो, भासता भर हो, लेकिन उस दुःख का निवारण किया जाएगा। जैसे कोई छोटा बच्चा हो, उसे कोई भ्रम हो गया हो, और वो रोता हो। भ्रम ही तो हुआ है, लेकिन फिर भी उसके भ्रम का निवारण किया जाता है न। माँ को पसंद नहीं कि वो रोए।
आप भी माँ-जैसी हो जाईए। जो दुःख आपको सता रहा है, वो सबको सता रहा है। उनको सहारा दीजिए, समझाइये, उन्हें बताइये। अकसर दुःख हमें इसलिये लगता है, क्योंकि हम ये मानकर बैठे होते हैं कि सुख हमारा हक़ है। हम मानकर बैठे होते हैं कि हम तो सुख के प्रबल अधिकारी हैं।
जाइये लोगों को बताइये कि हम जैसा जीवन जी रहे हैं, जिन स्थितियों में हमने जन्म लिया है, और तदुपरांत जैसी हमने ज़िंदगी चुनी है, दुःख उसकी अनिवार्यता है।
जैसे बुद्ध ने उस स्त्री से कहा था कि, “देखो तुम नहीं भुगत रहीं, हम सभी भुगत रहे हैं। एक ही तरह का जन्म लेते हैं, और एक ही तरह का जीवन जीते हैं। बताइये सबको कि – “तुम जी रहे हो सुख की आकांक्षा में, इसीलिए दुःख और भी बुरा लगता है।” उम्मीद किसकी थी? सुख की। फिर जब दुःख आता है, तो और लगता है।
सुख की उम्मीद तुम करते ही इसीलिए हो कि और ज़्यादा हो, क्योंकि तुम दुखी हो। ये पूरा खेल उनको बताइये। द्वैत उनको समझाइये। पर शुष्क तरीके से नहीं। उसी वेदना के साथ, जो आपको अनुभव हो।
वास्तव में, बिना वेदना के कोई ज्ञान दिया भी नहीं जा सकता। जिसका दिल ख़ुद ना टूटा हो, वो किसी दूसरे को कुछ समझा नहीं सकता, कोई विद्या नहीं दे सकता। वेदना, संवेदना, विद्या, और वेद। ‘वेदना’ माने – कष्ट, ‘संवेदना’ माने – करुणा, ‘विद्या’ – जानते ही हो, और ‘वेद’ – समझते ही हो। ये सब एक ही मूल से आ रहे हैं, और इन सब में बड़ा गहरा नाता है।
"जाके पाँव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई"
तुम्हारा अपना दिल जब तक टूटा नहीं, तुम दूसरों के क्या काम आओगे! वेदना का अनुभव होना चाहिए। तुम्हारी अपनी वेदना को संवेदना बन जाना चाहिए। और जिसके हृदय में संवेदना उठने लगी, समस्त विद्या उसको उपलब्ध हो जाती है। अब वो ज्ञानी हुआ।