तुम्हारी और संसार की प्रकृति है अनित्यता || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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तुम्हारी और संसार की प्रकृति है अनित्यता || आचार्य प्रशांत (2013)

श्री प्रशांत: कम्युनिकेशन (संचार) की ज़रुरत हमेशा से बरकरार रही है। टेलीग्राम (तार), वायरलेस फ़ोन, और जानकारी एक जगह से दूसरी जगह भेजने का, इन सबसे ज़्यादा सुविधाजनक तरीका तो इन्टरनेट हो गया है।

बदला क्या है?

द नीड टू कम्यूनिकेट’ (संवाद करने की ज़रुरत) तो वही की वही है।

इन्टरनेट कम्युनिकेशन के अलावा और क्या है?

श्रोता: पर व्यक्ति भी तो बदलता है समय के साथ।

वक्ता: कैसे? क्या बदल रहा है? एक आपका कंप्यूटर सिस्टम होता है, ध्यान से देखिएगा इस बात को, उसमें एक हार्डवेयर है। उस हार्डवेयर के ऊपर एक परत बैठी होती है सॉफ्टवेयर की, और उसमें एक मेमोरी होती है, जो बहुत ही टेम्पररी मेमोरी होती है। और जो हार्डवेयर है वो पूरी तरह प्रोग्राम्ड है।

उस हार्डवेयर का नाम है ‘डर’ और ‘लालच’।

उसके ऊपर सॉफ्टवेयर है जो कि सेमी-परमानेंट है। आप रोज़ अपनी विंडोज़ नहीं बदलते, आप रोज़ माइक्रोसॉफ्ट-वर्ड भी नहीं इनस्टॉल करते, आप रोज़ मूवी-मेकर भी नहीं इनस्टॉल करते। पर अगर चाहो तो अन-इनस्टॉल कर सकते हो। कोशिश करोगे तो अन-इनस्टॉल कर लोगे।

पर हार्डवेयर तो आप चाहकर भी अन-इनस्टॉल नहीं कर सकते। हार्डवेयर के ऊपर है सॉफ्टवेयर , जो अर्द्ध-स्थायी है और उसका नाम है समाज और उस सॉफ्टवेयर के ऊपर भी वो है जिसको आप बोलते हो कैशे-मेमोरी । जो दो-चार दिन रहती है या ज़्यादा-से-ज़्यादा दस-बीस दिन रहती है। जो बिल्कुल ही अस्थायी मेमोरी है, वो हैं आपके रोज़ के प्रभाव, रोज़ के चलन। अब इसमें आप देख लीजिये कि इसे परमानेंट (स्थायी) बोलना चाहते हो या इसे टेम्पररी (अस्थायी) बोलना चाहते हो। दोनों ही बोल सकते हो!

जहाँ तक मन के मूलभूत बनावट की बात है, तो वो तो परमानेंट है। डर और लालच उसके हार्डवेयर हैं। उसके ऊपर बैठता है समाज , और उसके ऊपर बैठते हैं ये रोज़मर्रा के अनुभव – “आज क्या हुआ, आज की मेरी क्या कार्यसूची है, आज सुबह-सुबह मुझे किसी ने क्या बोल दिया”। तो बहुत कुछ है जो वहाँ स्थायी है, जो कभी नहीं बदल रहा। कोई कलयुग की बात कर रहा था। कलयुग हो, सतयुग हो, कोई युग हो, वो हार्डवेयर नहीं बदल रहा। डर और लालच ही प्रेरणा हैं और वो लगातार बने हुए हैं।

डर और लालचस्थायी हैं, और फिर बहुत कुछ है जो अस्थायी भी है। आपके एक कंप्यूटर में लगातार कितना ही एम.बी.पी.एस . डाटा आ रहा है, पर जिसमें आ रहा है, वो स्थायी है। अब आप कहना चाहो तो यह भी कह सकते हो कि इसमें सब क्षणिक है, क्योंकि इतनी सारी बिट्स इसमें प्रत्येक क्षण आ रही हैं। पाँच एम.बी.पी.एस. लगातार उसमें आ रहा है, तो कहने वाला कहेगा कि इसमें सब क्षणिक है। दूसरा, दूसरी दृष्टि से देखकर कहेगा कि देखो न जो इसका हार्डवेयर है कितना स्थायी है, कुछ बदल कहाँ रहा है। ये कंप्यूटर कभी अपनी प्रोग्रामिंग के बाहर नहीं जा सकता, कभी नहीं।

जो पूरी तस्वीर इससे बाहर निकलकर आ रही है। वो यही है कि यह सारा खेल प्रोग्राम्ड है, पूरी प्रकृति है। प्रकृति में कुछ स्थायी भी है, कुछ अस्थायी भी है। सिर्फ़ इसलिए कि कुछ स्थायी लग रहा है तो इसका मतलब वो प्रकृति से बाहर नहीं है, वो भी प्रकृति ही है।

ध्यान से देखेंगे तो प्रकृति में जो कुछ है, वो सब समय का गुलाम है। हार्डवेयर भी एक दिन मिट जाना है। अधिक-से-अधिक फ़र्क इस बात से पड़ सकता है कि आप किस टाइमस्केल (कालक्रम) पर देख रहे हो। आप बहुत छोटी टाइमस्केल पर देख रहे हो तो आपको ऐसा कुछ स्थायी लग सकता है। पर अगर आप बड़ी लम्बी-चौड़ी टाइमस्केल पर देखोगे तो आपको यही दिखाई देगा कि कुछ भी स्थायी नहीं है। कुछ भी नहीं।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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