तुम ठीक हो, तो तुम्हारा संसार ठीक रहेगा

Acharya Prashant

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तुम ठीक हो, तो तुम्हारा संसार ठीक रहेगा

प्रश्नकर्ता: कई लोग जैसा बोलते हैं कि तुम संसार को छोड़कर यदि कुछ और तरफ जा रहे हो, तो वो पलायनवादिता है। असली स्पिरिचुअलिटी (आध्यात्मिकता) वो है जब तुम सब चीज़ों के बीच में रहते हुए, वो हो सको। तो इस बारे में थोड़ा सा प्रकाश डालें प्लीज़।

आचार्य प्रशांत: तुम जिन चीज़ों के बीच में हो, अगर वहाँ हो ही इसीलिए क्योंकि तुम्हारी हिम्मत ही नहीं है हटने की, तो? जहाँ भी रहोगे चीज़ों के तो बीच में ही रहोगे, क्योंकि मानुष जन्म लिया है। तो घोर अन्तरिक्ष में जाकर के तो विराजोगे नहीं। जहाँ भी रहोगे, आस-पास कुछ-न-कुछ तो होगा ही, धरती पर ही चरण धरोगे। तो एक चीज़ तो सबसे पहले तय हो गयी कि होगी, क्या? धरती। और आस-पास भी कुछ-न-कुछ तो होगा — रेगिस्तान होगी, पेड़-पौधे होंगे, पानी होगा, नहीं तो खाओगे-पियोगे क्या? लोग भी होंगे। दुनिया की इतनी आबादी हो गयी है, कहाँ जाओगे कि जहाँ लोग ही न मिलें? तो चीज़ों के बीच में जीना, ये तो किस्मत है। हाँ, चीज़ों के आकार-प्रकार बदल सकते हैं, पर चीज़ें तो होंगी। प्रश्न ये है कि किन चीज़ों के बीच में हो और क्यों हो।

तुम जिन चीज़ों के बीच में हो, अगर वहाँ हो ही इसीलिए क्योंकि उनसे हटने की तुम्हारी हिम्मत ही नहीं हो रही। या उन चीज़ों ने तुम्हें डरा रखा है, पकड़ रखा है, जकड़ रखा है, तो फिर तो हटना पड़ेगा न? पूछो अपने आप से, ‘मैं जहाँ हूँ, उस जगह से मेरा सम्बन्ध क्या है? क्या प्रेमवश हूँ उस जगह? यदि पूर्णतया मुक्त होता, तो भी क्या यहीं पाया जाता? अगर आज ढील मिले, तो क्या बचूँगा यहाँ? बसूँगा यहाँ?’ ये सवाल पूछो अपने आप से।

तो जान जाओगे कि जो करते हो, जो कहते हो, जहाँ जाते हो, जिसकी संगति करते हो, वो क्यों करते हो। भीतर कौन बैठा है जो तुम्हें विवश कर रहा है वहीं बने रहने को, बसे रहने को, जहाँ तुम हो। अगर पाओ कि प्रेम है इसीलिए रोज़ सुबह दफ़्तर जाते हो, तो ज़रूर जाओ। ‘कि साहब, हमारा तो दिल आ गया है इस काम पर। ये काम करने के लिए तो हम पैसा देने को तैयार हैं, हर महीने हमसे लिया करो। हम इसीलिए तो दफ़्तर जाते हैं क्योंकि हमें प्यार है।’ तो जाओ, (दफ़्तर)। पर ये पूछना ज़रूरी है कि वजह क्या है। कौन है जो आकर्षित हो रहा है उस जगह की ओर, तुम्हारे भीतर का भय तो नहीं? भीतर जो भयभीत सा या लालची बच्चा बैठा है वो तो नहीं?

तुम्हें संसार छोड़कर भागना नहीं है, क्योंकि संसार के अलावा कोई जगह नहीं है। जहाँ तुम हो, वहीं संसार है। तुम जहाँ जाओगे, वहीं संसार होगा, क्योंकि संसार तुमसे कोई पृथक चीज़ तो है नहीं। तुम जहाँ खड़े हो गये, वहीं तुमने संसार रच लिया। संसार तो होगा-ही-होगा, जहाँ भी तुम होगे।

प्रश्न ये है, ‘कौनसा संसार, और कैसा संसार?’ और संसार कैसा होगा तुम्हारे इर्द-गिर्द, वो इस पर निर्भर करता है कि तुम्हारे भीतर का संसार कैसा है, तुम कैसे हो। तुम ठीक हो, अपने आप तुम अपने चारों ओर एक सुन्दर, प्यारा, शान्त संसार खड़ा कर लोगे। और तुम गड़बड़ हो, तो तुम अपने चारों ओर सिर्फ़ हिंसा और कारागृह की सलाखें खड़ी करोगे। बाबाजी भागकर पर्वत के शिखर पर भी चढ़ जाएँ, तो वहाँ कोई-न-कोई तो होगा। ऐसा नहीं हो सकता, इतनी निर्जन कोई जगह नहीं है कि बिलकुल ही वहाँ कोई न हो। और कोई नहीं होगा तो तुम पत्थरों से रिश्ता बनाओगे, पर बनाओगे ज़रूर।

कहते नहीं हो, ’ये मुझे बहुत प्यारा है’, तो वहाँ भी एक प्यारा पत्थर मिल जाएगा। एक पत्थर ज़्यादा प्यारा है, एक पत्थर थोड़ा कम प्यारा है। कोई चिड़िया आ गयी, उससे रिश्ता बना लोगे। एक चिड़िया चोंच मार रही थी, उसके पीछे भागोगे पत्थर लेकर। ‘ये दुष्ट चिड़िया है, ये सलोनी चिड़िया है’, कुछ-न-कुछ तो रिश्ता बना ही लोगे। तो संसार तो खड़ा हो गया। जहाँ तुम, वहाँ संसार।

प्रश्न ये है — दोहरा रहा हूँ — प्रश्न ये है, ‘कैसा संसार तुमने खड़ा कर लिया है, और क्यों?’ क्या इसीलिए पैदा हुए थे कि ऐसे संसार में जियो। और संसार कोई एक जगह नहीं है, तुम जैसे हो, वैसा तुम्हारा संसार है। सबके अलग-अलग संसार हैं। हम सब अलग-अलग विश्वों में जीते हैं।

ये सवाल अपने आप से ईमानदारी से पूछना ज़रूरी है, ‘ऐसे ही जीने के लिए जन्म लिया था क्या? जन्म लिया, एक तो यही बदकिस्मती है और उसके बाद और ये हालत करा रहा हूँ।’

प्र: आचार्य जी, हमारे फ़ैसले हमारे अहंकार से ही निकल रहे होते हैं, तो नियति के अनुसार कैसे जियें?

आचार्य प्रशांत: नियति क्या कह रही है, ये नहीं जान पाओगे कभी। आज पहली ही बात हमने करी कि अज्ञेय को अज्ञेय ही रहने दो। उसे ज्ञात क्षेत्र में घसीट लाने की कोशिश मत करो, क्योंकि तुम सफल भी नहीं होओगे, और अगर सफल हो गये, तो और बड़ा धोखा हो जाएगा। नियति कुछ बोलेगी नहीं।

नियति आपके साथ जब होती है, तो आत्मा रूप में होती है, बोध रूप में होती है। आपकी आँखों की सफ़ाई का नाम है नियति, वही आत्मा है, वही सत्य है। वो आपको ये देखने की दृष्टि देती है कि आप जो कुछ कर रहे हो वो क्यों कर रहे हो। और वो देखना बिलकुल मुश्किल नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कर रहे हो उसमें कर्तानुसार अनुभव मिल जाता है, क्योंकि कर्ता ही भोक्ता है। जो कर्ता है, वही भोक्ता है। कर्ता-भोक्ता एक होते हैं। और भोक्ता को क्या मिलते हैं? अनुभव। तो दिन भर किन अनुभवों में जीते हो, बस, ये देख लो। उससे जान जाओगे कि तुम कर रहे हो या नियति कर रही है।

अगर भोक्ता को देख लिया, तो कर्ता को समझ जाओगे। कर्ता और भोक्ता एक होते हैं। कर्ता तुम्हें दिखाई नहीं देगा, क्योंकि वो आँखों के पीछे (सिर के पीछे की ओर इशारा करते हुए) है। भोक्ता तुम्हें दिखाई देगा, क्योंकि अनुभव तो तुम्हें होते ही हैं। अनुभव तो होते हैं न? अशान्त होते हो, तो अनुभव होते हैं न? शान्ति का अनुभव नहीं होगा, शान्ति अनुभव के पार की चीज़ है। सत्य का अनुभव नहीं होगा, सत्य भी अनुभव के पार की चीज़ है। लेकिन झूठ का, चिढ़ का, धोखे का, क्रोध का अनुभव तो होता है न? तो अपने अनुभवों से पूछो कि मैं कर रहा हूँ या परमात्मा कर रहा है। परमात्मा कर रहा होता, तो भय का अनुभव न होता। परमात्मा कर रहा होता, तो हिंसा का, द्वेष का, पृथकता का अनुभव न होता।

तुम्हारे अनुभव ही सारी कहानी बता देंगे। दिन भर तुम्हारे मन की क्या दशा रहती है, ये पूछ लो न अपने आप से। पूछना भी क्या है, पता नहीं है क्या? तुम ही तो अनुभव कर रहे हो। तुम्हें नहीं पता, तो किसको पता है? इसीलिए किसी विशेष अनुसन्धान की ज़रुरत भी नहीं है। जैसा जी रहे हो, उसी को देख लो। तुम्हारे अनुभव ही खुली किताब हैं।

अपने मन से पूछो, ‘सुकून है तुझे?’ और अगर वो साफ़-साफ़ हाँ न बोल पाये, तो जान लेना कुछ गड़बड़ है, ‘अपने चलाये चल रहा हूँ, परमात्मा के चलाए नहीं’, ये बात ज़ाहिर हो जाएगी। प्रत्यक्ष रूप से कभी नहीं जान पाओगे कि परमात्मा की मर्ज़ी क्या है, इतनी हमारी हैसियत नहीं है। लेकिन ये तुम ज़रूर जान सकते हो कि कब तुमने अपनी मर्ज़ी चलाई है। क्योंकि जब भी अपनी मर्ज़ी चलाओगे, उसका फल तुम्हें पीड़ा के रूप में मिलेगा।

तो अपने आप से पूछ लो कि कहीं पीड़ा के अनुभवों में तो सतत जीवन नहीं बीत रहा। और अगर पीड़ा मिल रही है, कष्ट है, चैन नहीं है, कुछ खटका सा लगा रहता है, कुछ डर सा, शक सा लगा रहता है, पूरी तरह से निर्द्वन्द्व होकर नहीं जी पाते, तो जान लेना कि अपनी ही चला रहा हूँ, खुद को ही बहुत होशियार बनाया है। उसकी नहीं सुन रहा हूँ, मेरी ज़्यादा कीमती है, ऐसी मेरी धारणा है। और इसी धारणा के चलते मुझे क्या मिल रहा है? दुख। तो दुख ही निर्धारक है। देखो कि जीवन में दुख कितना है। दुख यूँ ही नहीं मिलता किसी को, अपने करे मिलता है। अपनी सम्पदा है दुख, अर्जित करते हैं हम।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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