आचार्य प्रशांत: अब पन्द्रह-वर्ष से ऊपर हो गये मुझे सार्वजनिक जीवन में। लाखों लोगों से मिलने का अनुग्रह हुआ है और हज़ारों में उनके प्रश्न लिये होंगे। मुझे नहीं याद आता कि कोई भी ऐसा प्रश्न रहा है जिसने प्रत्यक्ष-परोक्ष, सीधे ही या घुमा-फिराकर के ये न पूछा हो कि करूँ क्या?
लगभग सभी प्रश्नों में एक ढर्रा होता है। शुरुआत होती है ये बताने से कि जीवन में क्या चल रहा है। जीवन में जो चल रहा होता है, उसे समस्या के तौर पर रखा जाता है। कि ये जो अभी स्थिति है, ये पसन्द नहीं आ रही। तो ये स्थिति अब समस्या हो गयी और फिर प्रश्न रख दिया जाता है कि करें क्या।
तो शायद इंसान के सामने जीवन की तमाम तरह-तरह की स्थितियों में फँसते हुए यही प्रश्न सीधे, प्रथमतया सामने आता है। करें क्या? हर इंसान जैसे इसी एक सवाल से जूझ रहा है — ‘क्या करूँ?’
यही जो प्रश्न है — ‘क्या करूँ?’ इस पर जब दार्शनिक या विचारक गम्भीरता से चिन्तन करते हैं, तो ये प्रश्न बन जाता है — ‘मेरा धर्म क्या है?’ जो प्रश्न आम आदमी की भाषा में होता है, ‘बता दो अब करूँ क्या?’ ‘बता दो अब करूँ क्या?’
‘व्यापार अच्छा चलता था फिर व्यापार में मन लगना बन्द हो गया, व्यापार ठप्प पड़ रहा है। लेकिन फिर भी मन नहीं लग रहा उसमें और मन नहीं लेकिन लग रहा, तो अब घर में हालत ख़राब हो रही है। बताइए, करूँ क्या? न काम में मन लगता, न बच्चों की दुर्दशा देखी जाती। बताइए, करें क्या?’ प्रश्न क्या बना? ‘करें क्या?’
‘नौकरी मिल रही है, लेकिन मैं तो लेखक बनना चाहता हूँ। बताइए, करें क्या?’
‘प्रेम हो गया है पर उसकी जाति दूसरी है, घरवाले विरोध कर रहे हैं। बताइए, करें क्या?’
‘आपकी बातें सब समझ में आती हैं, फिर भी सोया पड़ा रहता हूँ। बताइए, करें क्या?’
तो ये प्रश्न मेरे लिए पिछले पन्द्रह साल का है। लेकिन मानवता के लिए समय के पहले दिन से है ये प्रश्न। जैसे इंसान पैदा हुआ और उसने पहले अपनी अंगड़ाई, और पहली अपनी श्वास, और चेतना में अपने पहले विचार के साथ पहला प्रश्न ही यही पूछा, बताइए करें क्या? ‘करें क्या?’
यही सवाल हम तब से पूछते चले आ रहे हैं। करोड़ों नहीं तो लाखों साल तो हो ही गये हैं। ‘करें-तो-करें क्या?’
तो जब ये सवाल इतना ज़्यादा पूछा गया कि करें-तो-करें क्या? करें-तो-करें क्या? तो विचारकों ने कहा कि गम्भीर सवाल लगता है भाई, जिसको देखो वही इसी प्रश्न से ग्रस्त है। यही समस्या है सबकी — ‘करें-तो-करें क्या?’ तो उन्होंने फिर कहा कि देखते हैं, ‘थोड़ा समझने दो माजरा क्या है?’
तो उन्होंने देखा, समझा, बातचीत करी होगी खूब, ध्यान से देखा होगा जीवन को, मनुष्य के चित्त को समझने का प्रयास किया होगा। इधर-उधर जाकर तरह-तरह के प्रयोग करे होंगे फिर आपस में मन्त्रणा करी होंगी, चर्चाएँ करी होंगी। तो उन चर्चाओं में उनके लिए जो बात निकलकर आयी, बोले, ‘देखो, लोग हमसे पूछने आते हैं, ‘करें-तो-करें क्या?’ पर कोई ये नहीं बताता है कि तुमने कर ही क्या रखा है। क्योंकि शुरुआत मुद्दे की यहाँ से नहीं हो सकती कि बताइए अब आगे क्या करें; शुरुआत तो यहाँ से होगी कि बताओ आज तक करते क्या आ रहे हो। लेकिन वो नहीं कोई बताना चाहता।
आज तक करते क्या चले आ रहे हो, ये कोई नहीं बताना चाहता। और ये बताना बहुत ज़रूरी है क्योंकि जो तुम आज तक करते चले आ रहे हो अगर वो ठीक ही होता, तो आज तुम्हें ये पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती कि बताइए आगे करें क्या। तो निश्चित रूप से फिर समस्या ये नहीं है कि तुम नहीं जानते कि आगे क्या करना है। समस्या ये है कि तुमने आज तक का जीवन बिना कुछ जाने, पर करते हुए जिया है। जाना कुछ नहीं, करा खूब। समस्या ये है, पर उस समस्या की तुम बात नहीं करना चाहते।
आप हमें बताना ही नहीं चाहते कि आप अपनी इस स्थिति में फँस कैसे गयें? आप बस ये पूछ रहे हो अब — बता दो क्या करना है? और जिस चीज़ ने आपको आपकी वर्तमान स्थिति में फँसा दिया है। वो चीज़ आपके अन्दर है। तो अगर हम आपको बता भी देंगे, आगे करना क्या है? तो आपके अन्दर जो आपको फँसाने वाली चीज़ बैठी हुई है वो तो बैठी ही रह गयी, वो तो हटी नहीं न? तो हमने एक बार को किसी तरह आपको आपकी समस्या से राहत दिला भी दी। तो पाँच-सात रोज़ बाद फिर क्या पाएँगे हम? आपने फिर किसी नये तरीक़े से अपनेआप को समस्या में डाल लिया। कोई भी स्थिति आएगी जीवन की, वो आपके लिए समस्या ही बन जाएगी। पाँच दिन में नहीं तो पाँच महीने बाद, पर फँसोगे तो फिर से।
समझ में आ रही है बात?
तो जब आम आदमी इसी समस्या से त्राहिमाम कर रहा था कि हम नहीं जानते कि जियें कैसे। हर पल निर्णय की घड़ी होता है और हर पग पर चौराहें मिलते हैं। और हमें नहीं समझ में आता, निर्णय किधर का करें?
तो विचारकों ने, ऋषियों ने, ध्यानियों ने क्या कहा? पहले हम देखते हैं कि तुम्हारे आज तक के निर्णय कैसे हुए? पहले हम देखते हैं कि तुमने आज तक जीवन कैसे जिया है? तो उन्होंने फिर खोज करनी शुरू करी, जैसा अभी हम कह रहे थे। और उनके सामने खोज में जो परिणाम आये। वो मैं आपको उस भाषा में बता देता हूँ जिससे आप परिचित हैं। उनके जो परिणाम आये वो उसको शास्त्रीय भाषा में व्यक्त करते हैं। पर मैं आपसे हमारी, आपकी जो मिट्टी की, ज़मीन की सरल भाषा है, उसमें कहे देता हूँ। और उस भाषा से आप पहले से ही वाक़िफ़ हैं।
उन्होंने कहा, ‘तुम आज तक जो कुछ करते आये हो न? तीन तरीक़ों से करते आये हो।’ और ये जो तीन तरीक़े हैं, इनको आप जानते हैं। ‘तुमने आज तक जो निर्णय लिये हैं, वो तीन ताक़तों के प्रभाव में लिये हैं। पहली ताक़त — शरीर, दूसरी ताक़त — समाज, और तीसरी ताक़त — संयोग।’
बोले, ‘पहले तो तुम ये समझो कि इनके प्रभाव में आकर तुम जो भी कुछ करोगे या निर्णय लोगे, वो तुमको भारी पड़ेगा। पहले तो ये समझो। तुम इन चीज़ों पर चलते रहे हो। तुम्हें शरीर ने कुछ करने को बोल दिया। तुमने कह दिया यही तो मुझे करना है। और जो करना तुम्हारे लिए एकदम आवश्यक और उचित हो,’ हमने थोड़ी देर पहले कहा था शास्त्रीय भाषा में उसको ही 'धर्म' कहते हैं। ‘तो तुमने शरीर के आवेगों को या आज्ञाओं को अपना धर्म बना लिया।’ शरीर ने आपसे एक बात कही, ‘आपने कहा मेरा धर्म है।‘ शरीर के इशारों पर चलना या शरीर की माँगों की पूर्ति करना यही तो मेरा धर्म है। कहे, ‘इसीलिए तुम्हारी ये दुर्दशा है। अगर तुम्हारी दुर्दशा है तो एक बड़ा कारण शरीर है तुम्हारा।
शरीर माने वो सबकुछ जो आपकी साधारण जैविक वृत्तियों से उठता है। साधारण लालच, देहभाव, लिंगभाव, क्रोध, ईर्ष्या, वो सबकुछ जो आप पशुओं में पाते हो। तमसा। शरीर इतना ही माँगता है न? खाओ-पियो, पड़ जाओ। आप किसी भी पशु को खूब खिला-पिला दीजिए, फिर देखिए। उसमें कोई उत्साह नहीं रह जाता घूमने-फिरने का भी। घूमने-फिरने के पीछे भी ज़्यादा उसकी प्रेरणा यही रहती है कि शिकार मिल जाएगा। आप किसी पशु को इधर-उधर घूमता देख रहे हैं, तो सम्भावना कम ही है कि वो आनन्द में टहल रहा होगा, हो सकता है, पर सम्भावना कम है। अगर आप किसी पशु को इधर-उधर घूमता देख रहे हैं और वो कभी दायें देख रहा है कभी बायें देख रहा है। तो सम्भावना ज़्यादा यही है कि वो भूखा है। वो तलाश रहा है कि कुछ खाने को मिल जाए। या फिर अगर उसका मौसम चल रहा है तो वो नर या मादा को तलाश रहा है। खिला-पिला दिया तो वो पड़ जाएगा। देह सन्तुष्ट हो गयी, वो कहेगा, ‘अब मुझे हिलना भी नहीं है क्योंकि मैं हिलता ही किसलिए था? देह की पूर्ति को, देह सन्तुष्ट हो गयी, अब पड़ जा।’
तो यही काम आप मनुष्यों में भी पाते हो। देह सन्तुष्ट हो गयी, आप गिर जाते हो। आप कहते हो, ‘अब कुछ करना ही क्यों है?’ पैसा आता है, आदमी मोटा होने लग जाता है। हिलना ही क्यों है?
समझ में आ रही है बात?
आप थोड़े ही निर्णय कर रहे हो? आपका शरीर आपसे निर्णय करा रहा है। और आप शरीर की आज्ञाओं का अन्धानुकरण कर रहे हो। ये देह-धर्म है। देह-धर्म का पालन कर रहे हो इसीलिए दुख पा रहे हो।
दूसरी चीज़, उन्होंने जब खोज करी। तो उन्होंने पायी कि दूसरी चीज़ जिसका तुम बहुत पालन करते हो, वो है समाज की आज्ञाएँ। और समाज माने कोई व्यक्ति तो होता नहीं। समाज माने कौन? तुमसे कहा जाए, जाओ समाज को लेकर आओ। किसको लेकर आओगे? समाज तो कुछ नहीं है। तो समाज का अर्थ ही होता है एक परम्परा, एक सिद्धान्त। एक कॉन्सेप्ट है समाज। न व्यक्ति है, न चेतना है, न इकाई है। एक भीड़ है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति या तो दूसरों को देखकर चल रहा है या उसी भीड़ के इतिहास को देखकर चल रहा है।
तो समाज के आदेशों पर चलने से चेतना को बड़ी राहत हो जाती है। कहते हैं, ‘मुझे क्यों सोचना है? बस ये देख लो कि मोहल्ले में बाक़ी लोग क्या कर रहे हैं। मुझे क्यों सोचना है? बस ये देख लो कि पीछे लोग क्या करते चले आये हैं। मुझे मौलिक चिंतन और मौलिक जीवन के ख़तरे उठाने ही क्यों हैं? ये दूसरे किसलिए हैं?’ यहाँ तक तर्क ठीक था, समस्या ये है कि जो दूसरे हैं, वो भी यही तर्क दे रहे हैं।
आप इसीलिए नहीं सोचोगे क्योंकि सोचने का काम आपके अनुसार दूसरों का है। और दूसरे भी इसीलिए नहीं सोचेंगे क्योंकि सोचने का काम उनके अनुसार दूसरों का है। तो ले देकर कोई नहीं सोचता। तो जब कोई नहीं सोचता तो फिर कर्म होता कैसे है? निर्णय लिये कैसे जाते हैं? इंसान आगे कैसे बढ़ता है? फ़ैसले कैसे करता है? जो होता आ रहा है वही कर रहे हैं, क्योंकि आज तो किसी को सोचना नहीं है। आज तो जो सोचने लग जाए, वो बाग़ी कहला जाएगा। कह रहे हैं, ‘ये देखो, ये नयी अपनी कुछ अलग ही सोच चलाते रहते हैं। तो हर व्यक्ति कहता है, ‘सोचने की कोई बात नहीं, दूसरे सोच लेंगे।’ जाओ, भाई सबसे मशवरा करके आओ। कोई भी फ़ैसले की बात होती है, तो कह देते हैं, ‘जाओ, सबसे पूछकर आओ।’ कभी देखा ऐसा? पन्द्रह लोग हों उनमें से किसी से पूछने जाओ, तो बोलेगा, ‘जाओ बाक़ियों की राय ले लो।’ और बाक़ी किसी के पास जाओ तो क्या बोलेगा? ‘जाओ बाक़ियों की राय ले लो।’
ये आमतौर पर ऐसे संगठनों या संस्थाओं में ज़्यादा होता है, जहाँ हर आदमी बस किसी तरह अपनेआप को बचाना चाहता है। कोई भी व्यक्ति ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता, क्योंकि सबको लगता है कि बँधा-बँधाया काम है, बँधी-बँधायी तनख़्वाह है, सब बँधा-बँधाया चल रहा है। जैसे सरकारी जगहों पर होता है, तो काहे के लिए फटे में टाँग डालनी! ‘सब दूसरा देख लेगा, दूसरा देख लेगा।’ ले देकर कोई कुछ नहीं देखता और जैसा चला आ रहा था वैसे ही चलता रहता है क्योंकि निर्णय का अर्थ होता है, पुरानी धारा को बदलना। या तो प्रवाह की दिशा मोड़ देना, या प्रवाह में बल जोड़ देना, या प्रवाह को क्षीण करना। ये सब होता है निर्णय का मतलब।
जब निर्णय लिया ही नहीं जाना, तो मतलब होता है पीछे से जो आ रहा है वो चलेगा। और निर्णय कोई नहीं लेना चाहेगा; क्योंकि ख़तरा कौन उठाए? निर्णय का मतलब ही होता है ख़तरा। पीछे से जो चला आ रहा है, उसमें ख़तरा कम होता है। ख़तरा कम क्यों होता है? क्योंकि वो पीछे से सफलता-पूर्वक चला आ रहा है न! कोई चीज़ जो तीन शताब्दियों से चली आ रही है। वो जैसी भी है, जो भी है, तीन शताब्दियों तक चली न? रही होगी बहुत सड़ी-गली, जो भी है, जैसा भी है। पर इतना तो उसमें दम था कि तीन शताब्दियों तक वो बनी रह गयी चीज़। तो आदमी कहता है, ‘नये का ख़तरा उठाने से अच्छा, वो चीज़ है जमीं-जमायी है, सिद्ध है, प्रमाणित है। उसी को फिर से कर डालो।’
लेकिन जब भी ये करोगे, दुख पाओगे क्योंकि जीवन तो आपसे सही उत्तर माँग रहा है, पुराने उत्तर नहीं। जीवन आपसे सही उत्तर माँग रहा है, पुराने उत्तर नहीं माँग रहा है। अब पुराने उत्तरों में बात ये है कि वे कम-से-कम कुछ हद तक तो सही लगते हैं सिर्फ़ इसलिए, क्योंकि वे पुराने हैं। नये उत्तर में ख़तरा होता है कि चूँकि वो नये हैं माने मौलिक हैं, तो पूरी तरह से ग़लत भी सिद्ध हो सकते हैं। हम वो ख़तरा उठाने से डरते हैं। तो हम पुराने उत्तर को ही आज चिपका देते हैं जीवन की उत्तर पुस्तिका में। नतीजा असन्तुष्ट करता है हमको। जब नतीजा असन्तुष्ट करता है तो फिर हम ज्ञानियों के पास भागे-भागे जाते हैं, क्या पूछने? ‘बताओ, करें क्या? जो चल रहा है वो ठीक नहीं चल रहा है; बताओ, करें क्या?’
ज्ञानी पूछते हैं, ‘आज तक करते क्या आये हो?’ बोले, ‘आज तक जो पुराने जवाब थे, उनको नये सवालों के आगे चिपकाते आये हैं।’ कह रहे हैं, ‘ग़ज़ब कर दिया तुमने!’ पुराने जवाब रट लिये हैं गणित के और नये-नये सवाल हैं गणित के और जाकर के वही पुराने जवाब। ये भी नहीं देख रहे हैं कि सवाल पूछा क्या जा रहा है। ‘थोड़ा-बहुत देखा-देखा ही है, ये तो सुना-सुनाया सवाल लग रहा है। शायद ये उस पुराने सवाल से मिलता-जुलता सवाल है, तो लो उसका जवाब यहाँ भी लगा दो।’ वो कभी चलेगा क्या? वो नहीं चलता।
जब नहीं चलता तो कष्ट मिलते हैं तरह-तरह के, ज़िन्दगी में तनाव आता है, सूनापन आता है, असफलता का भाव आता है, व्यर्थता का भाव आता है। जब व्यर्थता का भाव आता है, भीतर फिर अपना विश्वास टूटता है। समझ में नहीं आता। कहते हैं, ‘हम तो जो करते आये हैं वो चला नहीं,’ तो जाओ अब किसी और से पूछ लो कि क्या करना है। किसी और से भी पूछने इसीलिए जाते हो, क्योंकि किसी और से ही पूछने की आदत बन गयी है।
लेकिन जिससे अब पूछने गये हो, अगर वो किसी तरह से जानकार है, ज्ञानी है तो वो आपको नहीं बताएगा करो क्या। वो कहेगा, ‘अभी तक जो करा है, सबसे पहले उसको थामो। जो तुम्हारे पुराने ढर्रे हैं अगर यही चलते रहे, तो जीवन में कुछ नहीं बदलेगा।’
तो शरीर-धर्म और उसके बाद समाज-धर्म। इन दोनों धर्मों पर नहीं चलना है। शरीर जो बता दे वो धर्म नहीं हो गया आपका। शरीर ने कह दिया, ‘चलो खाओ।’ अरे भाई, चार और लोग हैं जो ज़्यादा भूखे हैं। शरीर लेकिन दूसरे की भूख अनुभव तो कर ही नहीं सकता। ये सम्भव ही नहीं है। आपके सामने कोई बहुत भूखा भी व्यक्ति बैठा हो। आप कितनी भी करुणा रख लीजिए लेकिन उसकी भूख, उसकी भूख है। आप अपने पेट में नहीं अनुभव कर पाएँगे। तो शरीर तो बोलेगा, ‘खाओ।’ ये शरीर-धर्म है। इसका पालन नहीं करना है।
समाज-धर्म क्या है? ‘जो चला आ रहा है, उसी को आगे बढ़ाओ। न कोई अपनी सोच होनी चाहिए, न कोई मौलिक चेतना होनी चाहिए। तुम कुछ हो ही नहीं, तुम्हारी कोई निजी दृष्टि है ही नहीं? तुम्हें देखने, सोचने, समझने, सुनने का अधिकार ही नहीं है? ये समाज-धर्म है। समाज-धर्म कहता है — कोई भी चीज़ ठीक इसीलिए है, क्योंकि वो हमेशा ठीक मानी गयी।
तो शरीर-धर्म पर नहीं चलना है। ऐसे समाज-धर्म पर नहीं चलना है।
समाज-धर्म को आप समूह धर्म भी बोल सकते हो, समुदाय धर्म भी बोल सकते हो। समय धर्म भी बोल सकते हो, क्योंकि अतीत से आता है। जैसे भी बोलना चाहो। जो चीज़ जितनी प्यारी होती है न, उसके लिए उतने ख़तरे उठाने पड़ते हैं। सबसे प्यारी चीज़ होती है अपनी निजता। और वो तो ख़तरों पर चलकर ही मिलती है। भीड़ में सुरक्षा का भरोसा आ जाता है, भाई। कहीं इकट्ठा हो गये हों पाँच-सौ, हज़ार, या पचास-हज़ार लोग वो सब प्रफुल्लित हो जाते हैं। उनको लगता है — ‘देखो, सब हमारे ही जैसे हैं। लगता है हम बच गयें। जो होगा अब सबके साथ होगा न, मैं अकेला नहीं मरूँगा।’
लेकिन भीड़ में आपको उस तरह की खोखली सुरक्षा की भावना भले ही मिल जाती हो। लेकिन जो चीज़ सबसे क़ीमती है, वो पीछे हो जाती है — निजता आपकी। भीड़ में कोई निजता होती है? भीड़ में सुरक्षा होती है। कुछ निजी कहाँ होता है भीड़ में, बताओ? होता है? भीड़ का चयन करने का मतलब ही है, अपनी निजता का सौदा कर लेना।
और तीसरा जो धर्म है। जिस पर आप चलते रहते हैं, चलते आये हैं। जिसके कारण सारी समस्या जीवन में खड़ी होती है, वो है संयोग-धर्म। संयोग-धर्म क्या है? अवसरवाद, अपॉर्च्यूनिज़्म। वहाँ तो कोई सिद्धान्त भी नहीं होता। वहाँ बस ये होता है कि जो राह खुली देखो, उधर को ही चल दो। जो द्वार खुला देखो, उसी में घुस जाओ। जिसको ताक़तवर देखो, उसी के पाँव पकड़ लो। जिस विचारधारा का छाता देखो, उसी विचारधारा को स्वीकार कर लो। जो चलन देखो, उसी चलन के हो जाओ। ये संयोग-धर्म है।
समाज-धर्म कहता है — जो पीछे रहा है, उसका अनुसरण कर लो। और संयोग-धर्म कहता है — जो अभी चारों तरफ चल रहा है, बस चुपचाप उसी धारा में बह लो, ये संयोग-धर्म है। कोई पूछे, फ़लाना काम क्यों किया? क्योंकि आज कल यही तो हो रहा है। अब आज कल जो हो रहा है, वो तो एक संयोग है। हो सकता है न भी होता? तुम्हारे यहाँ हो रहा है सौ-मील दूर चले जाओ, किसी दूसरे देश चले जाओ? तो वहाँ नहीं हो रहा है। पर आपने संयोगवश जो होते देखा, आप भी वैसा ही करने लग गयें। ये संयोग-धर्म है।
क्यों ऐसे कपड़े पहनते हो? क्योंकि सब ऐसे पहनते हैं। अच्छा, उत्सव मनाना है। इस तरीक़े से क्यों मनाना है जैसे मनाने की सोच रहे हो? क्योंकि आज कल ऐसा ही चलता है। आज कल ऐसा ही चलता है। जो चलता है वही करना संयोग-धर्म है। और जो चलता है, वैसा क्यों चलता है; ये कोई भी नहीं जानता। क्योंकि जो चल रहा है उसके पीछे कारण रैंडम (यादृच्छिक) हैं। अकारण है वो एक तरह से। बस है।
‘क्यों खा रहे हो माँस?’ ‘मेरे परिवार में सब खाते हैं तो मैंने खाना शुरू कर दिया।’ ‘अच्छा; और तुम? तुम्हारे परिवार में तो कोई नहीं खाता। तुम क्यों खा रहे हो?’ ‘नहीं, मैं हॉस्टल (छात्रावास) आ गया था, हॉस्टल में सब खाते हैं, तो मैंने भी खाना शुरू कर दिया।’ ‘अच्छा, तुम-तुम ठीक आदमी लग रहे हो। तुम क्यों नहीं खाते?’ ‘नहीं, मेरे परिवार में कोई नहीं खाता, इसीलिए मैं भी नहीं खाता।’
ये तीनों ही किस धर्म का पालन कर रहे हैं?
श्रोतागण: संयोग-धर्म।
आचार्य प्रशांत: संयोग-धर्म। और जो संयोग-धर्म का पालन करेगा। खोजियों ने पाया कि वो दुख में रहेगा। उसकी आँखों के सामने हमेशा एक कोहरा रहेगा। उसे नहीं पता जीवन क्या है? मुझे आगे बढ़ना कैसे है? जीना कैसे है? और समय तो गति का नाम है साहब।
समय का मतलब ही है कि मामला आगे बढ़ रहा है लगातार, गति हो रही है। और आगे बढ़ रहा है और तुम ज़िन्दा हो तो तिनके की तरह धारा में बह नहीं सकते। तुमसे सवाल पूछे जाते हैं, ‘अच्छा जी, आगे कहाँ जाना है?’ और आपके पास कोई जवाब होता नहीं। हर पल आपसे ये सवाल पूछ रहा है न, बताओ आगे कहाँ जाना है? तिनका बह रहा होता है नदी में, उससे कोई सवाल पूछा जाता है? उसे अपने किसी धर्म का निर्णय करना ही नहीं है। जड़ होने में कितना लाभ है? वहाँ कोई धर्म नहीं निर्धारित करना होता है। जो हो रहा है, (होने दो, इशारे से बताते हुए)।
पर आपसे तो सवाल पूछे जाएँगे। और वो सवाल चुभते हैं, चिढ़ाते हैं क्योंकि हमारे पास कोई जवाब नहीं होता। हमारे पास कोई आधार भी नहीं है। हमारे पास कोई, कोई क्राइटेरिया (मापदण्ड) नहीं है जिसके आधार पर हम जवाब तय कर सकें। और कोई जवाब हमें सूझ भी जाता है, तो हमारे पास कोई कसौटी नहीं है। जिस पर परख सकें कि ये ठीक है कि नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि बस शरीर से एक आवेग उठा और हमें लगा यही तो अभी धर्म है हमारा।
पढ़ाई कर रहे थे, पढ़ाई कर रहे थे। पढ़ाई छोड़ दी; ‘क्यों पढ़ाई छोड़ दी?’ ‘प्रेम हो गया। प्रेम तो बड़ी बात होती है न?’ वो प्रेम है कि शरीर-धर्म है, तुम्हें कैसे पता? तुम्हें कैसे पता? तुमने जानना भी चाहा? लेकिन एक निर्णय ले लिया न बड़ा! क्या निर्णय ले लिया? ‘पढ़ाई छोड़ देनी है।’ आगे — नौकरी कर रही थीं, नौकरी कर रही थीं। नौकरी से छुट्टी ली, क्यों? ‘क्योंकि बच्चा हुआ था।’ और बच्चा अब थोड़ा बड़ा भी हो गया है, तो भी नौकरी में वापस नहीं आयीं क्यों? ‘अरे, बच्चे का भरण-पोषण भी तो करना है। उसका ख़याल रखना होता है, बच्चा छोटा है। यही तो हमारा कर्तव्य है। आपको कुछ पता है कि वो बच्चे के प्रति आपका प्रेम है या बस ये एक शरीर-धर्म है।
अब आप पड़े रहो घर पर, पाँच-साल बाद अकुलाओगे। और पाँच-साल बाद उठकर आओगे और कहोगे, ‘क्या करूँ? क्या करूँ? ज़िन्दगी बड़ी बेरौनक है। ऐसा लगता है एक अन्धी गुफ़ा में क़ैद हूँ।’ क्योंकि जो निर्णय लिया था, वो आपकी समझ-बूझ से नहीं आ रहा था। वो आपके शरीर से आया था। और आपने शरीर को ही मालिक बना लिया।
प्रकृति ये सब करती है, सब प्राणियों में। माँ के शरीर में बच्चे के प्रति वो एक भाव बनाकर रखती है। वो भाव बहुत पुराना है। वो प्रागैतिहासिक भाव है और उस भाव से लाभ भी रहे हैं, बच्चों की रक्षा होती रही है। माँ के शरीर में बच्चे के प्रति जो भाव उठता है, वो भाव अच्छा रहा है। उससे बच्चे की रक्षा हो जाती रही है। पर वो भाव तब तक आवश्यक था न, जब तक बच्चे की रक्षा करने के और साधन नहीं उपलब्ध थे। वो एक लाख-साल पहले भाव ठीक था अगर आता था। आज आपको वही भाव आ रहा है, तो भाव बहुत गैरज़रूरी है और घातक है। लेकिन ये आपने देखा नहीं। शरीर की लहर को ही अपना धर्म बना लिया।
तो ये जो तीन धर्म हैं, इन पर नहीं चलना है। इन तीनों धर्मों के लिए एक संयुक्त नाम है परधर्म।
शरीर से जो धर्म उठता है, धर्म माने क्या? ‘करो, ये तुम्हारा कर्तव्य है।’ शरीर सिखाने लग जाता है — ‘ऐसा करो, ऐसा करो।’ शरीर जो कर्तव्य सिखाये उसको धर्म नहीं मान लेना है। तो शरीर-धर्म पर नहीं चलना है। समाज जो कर्तव्य बता दे, उसको नहीं मान लेना है। तो समाज-धर्म पर नहीं चलना है। और संयोगों से जो कर्तव्य सामने आ जाएँ, उनको अपना नहीं लेना है। वो नहीं हो गये आपके कर्तव्य। तो समाज-धर्म पर नहीं चलना है। और इन तीनों धर्मों के लिए एक संयुक्त नाम है परधर्म। और इन तीनों धर्मों के लिए जैसे परधर्म नाम है वैसे ही शरीर, समाज, और संयोग के लिए संयुक्त नाम है प्रकृति।
प्रकृति के क्षेत्र में, प्रकृति के विषयों में, प्रकृति की आज्ञाओं में, और प्रकृति के भोग में आपको वो नहीं मिलेगा जो आपको चाहिए। प्रकृति माने क्या? ये पूरा जो संसार है, इसी को प्रकृति बोलते हैं। सिर्फ़ जंगल को प्रकृति नहीं बोलते। हमने प्रकृति का बड़ा छोटा अर्थ लगा दिया है कि पेड़-पौधे, पर्यावरण इसको हम प्रकृति बोल देते हैं। नहीं। ये सड़क, ये घर, ये पूरा ब्रह्माण्ड ही प्रकृति है। मनुष्य जो बना रहा है, वो भी प्रकृति ही है। मनुष्य स्वयं प्राकृतिक है।
जो कुछ प्राकृतिक है, उसका निर्माण भी प्राकृतिक ही है। हम एक झूठी रेखा खींच देते हैं। हम कहते हैं कि कुछ प्राकृतिक होता है और कुछ मानवकृत होता है। हम कहते हैं, ‘कुछ प्राकृत होता है और कुछ मानवकृत होता है।’ नहीं। जो मानवकृत है, वो भी प्राकृत ही है।
ठीक है?
तो प्रकृति माने सबकुछ। तो माने इस दुनिया से आदेश नहीं लेने हैं। प्रकृति माने अगर ये दुनिया, ये जगत, ये पूरा, सबकुछ, जिसमें आपका शरीर भी आता है। प्रकृति माने पहली बात तो सबकुछ, सिर्फ़ जंगल ही नहीं, शहर भी। सिर्फ़ जंगल ही नहीं, शहर भी, पहली बात तो प्रकृति की परिभाषा में ये साफ़ समझिए। नहीं तो मैं जितनी बातें करता हूँ। मैं बार-बार प्रकृति शब्द कहता हूँ, आप लोग फँस जाएँगे। तो प्रकृति में हमने कहा, पहली बात ये कि जंगल भर को नहीं प्रकृति बोल देना। जंगल, शहर सबकुछ प्रकृति ही है। और दूसरी बात — प्रकृति में बस ये बाहर-बाहर की चीज़ को प्रकृति नहीं बोल देना। वो भी प्रकृति है और ये देह, तन और मन ये भी प्रकृति ही है। तो ये दो बातें प्रकृति के बारे में स्पष्ट हों।
तो प्रकृति धर्म पर नहीं चलना है माने दुनिया के इशारों पर नहीं चलना है और देह के इशारों पर नहीं चलना है। ‘न दुनिया के कहने पर चलूँगा, न देह के कहने पर चलूँगा।’ ये हो गया परधर्म। दुनिया और देह को मिलाकर के ही हमने ये तीन तत्व बना दियें। शरीर, समाज, संयोग। यही तीन तत्व प्रकृति हैं, प्रकृति पर ही चलना परधर्म है।
हम धर्म समझना चाहते हैं, क्योंकि धर्म बड़ा संवेदनशील मुद्दा है न? जो लोग सीधे-सीधे धर्म की व्याख्या नहीं पूछते, आज मैंने आरम्भ में ही कहा कि वो भी इतना तो पूछते ही हैं न कि करूँ क्या; और जिस भी किसी व्यक्ति ने ये प्रश्न पूछ दिया कि करूँ क्या। वो वास्तव में यही पूछ रहा है कि मेरा धर्म क्या है। तो ले देकर हर सवाल इसी मुद्दे पर होता है कि मुझे मेरा धर्म बता दो।
तो हम कह रहे हैं कि आपको बताया जाए कि आपका धर्म क्या है; इससे पहले आप जानिए आपका धर्म क्या नहीं है। ‘क्यों जानना ज़रूरी है आपका धर्म क्या नहीं है?’ क्योंकि साहब, जो आपका धर्म नहीं है, आप उसी पर तो आजतक चलते आये हो और इसी कारण दुख पाये हो। मैं आगे की आपको दवाइयाँ बताऊँ इससे पहले ये तो समझना पड़ेगा न कि बीमारी क्या है और आ कहाँ से रही है। या बीमारी को जाने बिना दवाई तय कर दी जाए? कोई चिकित्सक करता है ऐसा? नहीं।
तो बीमारी क्या है? परधर्म बीमारी है। और परधर्म माने पड़ोसी का धर्म नहीं होता। परधर्म माने देह-धर्म, समाज-धर्म, संयोग-धर्म। परधर्म का ये नहीं मतलब होता कि आप हिन्दू हैं तो इस्लाम परधर्म हो गया या आप ईसाई हैं तो यहूदी धर्म परधर्म हो गया।
हम बहुत हुनरमन्द लोग हैं। हम कोई भी व्याख्या कर सकते हैं और ऐसी व्याख्याएँ भी खूब चल रही हैं बाज़ार में कि परधर्म माने दूसरे का धर्म।
परधर्म माने कौनसा धर्म? उसका इन सबसे मुसलमान, ईसाई, यहूदी; इससे कोई लेना-देना नहीं है। परधर्म माने?
श्रोतागण: शरीर, समाज, संयोग।
आचार्य: हाँ, आप यहाँ बैठे हो और हम चर्चा कर रहे हैं और आँखें नींद से बिलकुल गिरी जा रही हैं। पलक बन्द करते हो कि पलक नहीं बन्द करी तो भरोसा नहीं आँख पट्ट से यहाँ ज़मीन पर न गिर जाए! इसीलिए तो जल्दी-जल्दी पलकें गिराते हो। और आपने स्वीकार कर लिया कि चलो ठीक है, सबको लगेगा — बन्दा ध्यान में है, गहरे ध्यान में है। और आपने स्वीकार कर लिया। आँखों का हुकुम सिर आँखों पर! तो ये आपने कौनसे धर्म का पालन कर लिया? ये शरीर-धर्म का पालन हो गया। यहाँ क्या बात हो रही है? और आपने देह की आज्ञा मान ली। ये परधर्म हो गया।
समझ में आ रही है, बात?
परधर्म माने ये नहीं कि कोई और, कोई दूसरी किताब ले आया था, आपने वो माननी शुरू कर दी। अपनी ही आँखों की बात मान लेना परधर्म है।
स्पष्ट हो रहा है?
तो वो जो खोजी थे। जिनको आप ‘ऋषि’ कह देते हैं। ऋषि कहना बहुत अच्छी बात है। लेकिन ‘ऋषि’ शब्द के साथ हमने इतनी छवियाँ जोड़ दीं और इतनी मान्यताएँ, इतनी कहानियाँ जोड़ दीं कि ऋषि बोलो तो पता नहीं आपको क्या लगता है। तो मैं तो उनको कहता हूँ — खोजी। मैं उनको कहूँगा, 'अन्तर्जगत का वैज्ञानिक।' जिनको आप आमतौर पर वैज्ञानिक बोलते हो वो कहाँ खोज करते हैं? बाह्यजगत में। तो जो अन्तर्जगत का वैज्ञानिक है उसका नाम ‘ऋषि’ हुआ।
तो उन्होंने खोजकर के आपको कुछ बातें बतायीं। उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी सारी दुर्दशा इसीलिए है कि तुम चलते हो देह-धर्म पर, और चलते हो समाज-धर्म पर, और चलते हो संयोग-धर्म पर। अब त्यौहारों का अभी चल रहा है मौसम। तो आप यहाँ बैठे हुए हो और तभी आपके फ़ोन पर आ जाए — ‘अरे, जल्दी आओ, जल्दी आओ! आज फ़लानी एकादशी है। आज फ़लानी एकादशी है और घर में ये हुआ है और बहुत बढ़िया वाला फ़लाने आटे का आज क्या बना है? लड्डू बना है, कुछ बना है। और इतने बजे से पहले आना ज़रूरी होता है, क्योंकि हमारे यहाँ यही परम्परा रही है, जल्दी आओ। उसके बाद वो जो बुढ़वा पीपल है, उसमें जाकर के पानी भी डालना है।’ और यहाँ आप ये सारी चर्चा-वर्चा छोड़कर के फट से उठकर भाग जाएँ।
और भाग इसलिए भी जाएँ, क्योंकि वो काम एक तो आपका पूरा कुनबा कर रहा है और पूरा मोहल्ला भी कर रहा है। और पूरा मोहल्ला करेगा और सब सज-बजकर जाएँगे, सब सजे-बजे लड़के और सजी-बजी लड़कियाँ। और आपने कहा, ‘ये सब क्या यहाँ पर रूखी चर्चा हो रही है! कोई खोजी, वैज्ञानिक। और मुझे करना क्या है? मेरा धर्म क्या है? ये क्या बातें-ही-बातें हो रही है। वहाँ पर पहले तो खाने-पीने का प्रबन्ध है और इतने सारे लोग वहाँ जमा हैं। एक सामूहिक काम हो रहा है। और ऊपर से वहाँ सौन्दर्य की वर्षा होगी, तो मुझे जाने दो।’ तो ये आपने किस धर्म का पालन कर लिया?
श्रोतागण: समाज-धर्म।
आचार्य: ये समाज-धर्म का पालन कर लिया। न आप जानते, न वो सब जानते कि वो जो कर रहे हैं, वो क्या कर रहे हैं? किसी को कुछ नहीं पता। पर आप श्रीकृष्ण को, गीता को, छोड़कर भागने को तैयार हो गयें, क्योंकि आपके यहाँ पर फ़लानी एकादशी की, फ़लानी अमावस्या को, फ़लाने पीपल में, पेड़ पर जल चढ़ाना है। और सब वहाँ पर पुरुष और महिलाएँ अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनकर आते हैं। और क्या वहाँ मौसम होता है? ऐसा लगता है बिलकुल जैसे कोई पुरानी भारतीय सांस्कृतिक पिक्चर (फ़िल्म) चला दी गयी है। और बड़ा बढ़िया सा लगता है, ‘हम आपके हैं कौन?’ राज श्री प्रोडक्शंस। मन तो बहुत करता है।
ऐसी तीसरी चीज़ — यहाँ बैठे हो, बैठे हो बात चल रही है। और तभी फ़ोन में एक सन्देश आ जाता है। ‘ओ यार, गल दस्स! मैं आ गया कनाडा से और जल्दी आ-जा बाहर। फ्लाइट लैंड (उड़ान का उतरना) कर चुकी है, टैक्सी पर बैठ गया हूँ, मिलते हैं नोएडा में।’ और आपने कहा, ‘ये देखो, ये बुला रहा है, जाना ही पड़ेगा। और ये जो बुला रहा है वो आपको बिना बताये आया है, लेना एक, न देना दो। आपको यहाँ छोड़कर वो दस-साल से कनाडा में पड़ा हुआ था। अब वहाँ ठंड ज़्यादा होने लग गयी है, नवम्बर का महीना और यहाँ बढ़िया अब झालरें और पटाखे फूटेंगे तो यहाँ आ रहा है। अब जब यहाँ आ ही गया है, तो मनोरंजन के लिए उसको कुछ साधन चाहिए। तो कहीं से उसने आपका नम्बर जुगाड़ा है और उसने आपको मैसेज (सन्देश) कर दिया है कि आ गया मैं कनाडा से। और आप बिलकुल प्रफुल्लित हो गयें, ‘अरे, वो मेरा कनाडा वाला यार!’ और उठकर यहाँ से भग दिये। कर लिया न निर्णय? क्या निर्णय करा? उठकर भग जाने का। ये कौनसे धर्म का पालन कर लिया? संयोग-धर्म। ये तीनों ही धर्म पराये हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं — ‘परधर्म भयावह होता है।’ परधर्म को अच्छे से समझो। ‘देह पर नहीं चलूँगा। देह परायी है, तो देह का धर्म भी पराया है। समाज पर नहीं चलूँगा। समाज पराया है, तो समाज का धर्म भी पराया है। और संयोगों पर नहीं चलूँगा।’ संयोगों का तो बिलकुल ही नहीं कोई भरोसा। ये कैसे अपने हो गयें? जो संयोग है, यादृच्छिक है, उसका तो परिभाषा में ही कोई भरोसा नहीं। जिसका कोई भरोसा नहीं उसी को तो संयोग बोलते हैं? तो जिसका कोई भरोसा नहीं वो अपना कैसे हो सकता है? कि हो सकता है? कोई आपके जीवन में हो जिसका कोई भरोसा नहीं है। उसको आप अपना बोलोगे कभी? तो संयोग अपने कहाँ से हो गयें? इन पर नहीं चलना है। इन पर एकदम नहीं चलना है।
जो इससे बच जाता है, वो फिर इस सवाल से मुक्ति पा जाता है कि अब करूँ क्या। लेकिन इनसे बचने की क़ीमत आदमी को कई बार बहुत बड़ी चुकानी पड़ती है। जानने वालों ने कहा है वो क़ीमत चुका देना। अगर प्राण भी देने पड़ें, तो भी इन तीन धर्मों पर मत चलना। किस पर चलना; उसकी अभी हम आगे चर्चा करेंगे। पर इन तीन पर नहीं चलना।
और इन तीन पर नहीं चलोगे तो लोग ख़फ़ा होते हैं। अभी-अभी ही तो हुआ। एक मैसेज कहाँ से आया था? कि वो एकादशी पर बुढ़वा पीपल। अब वहाँ नहीं जाओगे तो पूरा मोहल्ला ख़फ़ा हो गया। दूसरा कहाँ से आया था? वो कनाडा वाला यार, वहाँ नहीं जाओगे तो वो ख़फ़ा होगा। और तीसरा कहाँ से आया था? वो शरीर से आया था, वहाँ से नहीं जाओ तो ख़ुद ही ख़फ़ा हो जाते हो। अपना ही मुँह उतर जाता है। बैठे तो हुए हो, पर लटके हुए हो। आँख खुल नहीं रही हैं और फिर खुलती भी हैं आँखें, तो उसमें से आग बरसती है।
कह रहे हैं, ‘सुनना कान से है।’ तर्क क्या है? तर्क चूहा है। जिधर मिठाई दिखती है, उधर को तर्क चल देता है। तर्क तो चूहा है? जिधर स्वार्थ की मिठाई दिखेगी तर्क बिलकुल उधर को चलेगा। तो सुनना किससे है? कान से। ‘दिखने में ये आचार्य जी इतने खूबसूरत हैं नहीं कि इनको देखें। हाँ, बात इनकी कभी-कभार एखाद ठीक होती है और वो सुनेंगे कान से। तो ये आँख काहे को खुलवा रहे हैं? जब मैं कह रहा हूँ कि मैं आँख बन्द करके ध्यान कर रहा हूँ। तो मुझे करने दो न आँख बन्द करके ध्यान? काहे को बोल रहे हो कि टक-टकी बाँधकर हमें देखो? कैमरे लगवा रखे हैं छः, उसमें से पाँच इनकी ओर। अब या तो हम इनको देख रहे हैं या तो कैमरा हमें देखे। हमारा जब यहाँ कोई काम ही नहीं सुनने के अलावा, तो अपने कान यहाँ छोड़ देते हैं, हमको जाने दो। कहीं और बैठ जाएँगे, वहाँ पर लगा लेंगे प्लग और उससे सुन लेंगे।’ तर्क?
कष्ट होता है। जब कष्ट होता है, तो कृष्ण कहते हैं, ‘मर भी जाओ तो भी इन धर्मों का पालन मत करना। मर जाओ तो भी। छोटा-मोटा कष्ट नहीं, मृत्यु-तुल्य कष्ट हो तो भी इन तीन की नहीं सुनना। मरना बेहतर है, “निधनं श्रेय:।” मरना बेहतर है, परधर्म पर लेकिन नहीं चलना है। “परधर्मों भयावह:।” ‘मर जाऊँगा इन तीन की नहीं सुनूँगा।’ किसके लिए मरना बेहतर है? अभी उसकी हम बात करेंगे, वो अभी समझेंगे। लेकिन ये पक्का है — “निधनं श्रेय:।” ‘मौत श्रेयस्कर है। मौत चुन लूँगा, इन तीन को नहीं चुनूँगा।’
समझ में आ रही है बात ये?
‘मौत चुन लूँगा इन तीन को नहीं चुनूँगा।’ तो किसको चुनना है?