ताकत मत माँगो, देखो कि क्या तुम कमज़ोर हो || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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ताकत मत माँगो, देखो कि क्या तुम कमज़ोर हो || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्नकर्ता: सर, ताकत पाने के लिए क्या किया जाए?

आचार्य प्रशांत: तुम में ताकत ही ताकत है, कमज़ोरी कहाँ है? तुम्हें क्यों लगता है कि कोई ख़ास ताकत होनी चाहिए तुम्हारी? ज़रूर कमज़ोरी का कुछ एहसास है जिसके कारण ताकत की बात कर रहे हो। ताकतवर कहाँ ताकत की बात करता है? कभी किसी स्वस्थ आदमी को देखा है स्वास्थ्य की चर्चा करते हुए? स्वास्थ्य की चर्चा तो बीमारी की मौजूदगी में ही की जाती है। सबसे ज़्यादा स्वास्थ्य कब याद आता है? जब बीमार होते हैं।

तो क्यों बात कर रहे हो ताकत की? कमज़ोरी कहाँ है? और अगर ताकत की बात कमज़ोरी के एहसास से निकली है, तो पहले क्या आया? ‘कमज़ोरी का एहसास’ — तो क्यों न उसकी बात करें। क्योंकि अगर कमज़ोरी का एहसास न हो तो ताकत की बात छिड़ेगी ही नहीं। कमज़ोरी का एहसास कहाँ से आया? किसने तुम्हें कहा कि, “तुम कमज़ोर हो”?

प्र: सर, कहा किसी ने नहीं बस कभी-कभी अन्दर से ही ऐसा लगता है।

आचार्य: तुमसे जो पहली बात कही मैंने तुमने उसे ठीक से समझा क्या? यह सवाल ही कौन पूछता है कि, “मुझमें कोई ताकत है या नहीं”, यह कौन पूछता है? जिसको लग रहा होता है कि कमज़ोर है। तुम्हें लगना कब शुरू हुआ कि तुम कमज़ोर हो? और किन-किन तरीकों से तुम्हें यह एहसास हुआ कि तुम कमज़ोर हो? यहाँ तक बात साफ़ थी कि जो कमज़ोर नहीं है, वो ताकत की बात करेगा नहीं।

तुम दिन में कितनी बार सोचते हो अपनी किडनी के बारे में? और अगर किडनी की कोई बीमारी हो जाए तो फ़िर कितनी बार सोचोगे? दिन में कितनी बार अपने दाँत पर जीभ फेरते हो? और अगर दाँत हिलने लगे तो देखा है कितनी बार जीभ फेरते हो उस पर? तो पहले क्या आता है जीभ का फेरना या दाँत का हिलना?

प्र: दाँत का हिलना।

आचार्य: कमज़ोरी का एहसास पहले आता है न। तुम्हें कमज़ोरी का एहसास कैसे हुआ?

तुम्हें इस बात को बहुत गहराई से पकड़ना पड़ेगा क्योंकि अगर पकड़ोगे नहीं, तो वो एहसास तुम्हें बार-बार कराया जाएगा, और-और कराया जाएगा। बल्कि रोज़ ही कराया जाता है — कभी प्रकट रूप से तो कभी प्रत्यक्ष। और ज़्यादा ख़तरनाक तब होता है जब चोरी-छुपे तुम्हें कहा जाता है कि तुम कमज़ोर हो। बोलो, किन तरीकों से हमारे मन में यह बात डाली जाती है कि हम कमज़ोर हैं? कैसे डाली जाती है?

प्र२: सर, सार्वजनिक रूप से हमारा अपमान करके। मीडिया में जो विज्ञापन आते हैं जिनमें एक उत्तम छवि दिखाई जाती है और उनको देखकर ऐसे लगता है कि हम कमज़ोर हैं।

प्र३: सर, अगर मुझे कोई कुछ काम करने से रोकता है तो मुझे कमज़ोरी का एहसास होता है या जब कोई किसी से तुलना करता है तो कमज़ोर महसूस होता है।

आचार्य: और गहरे जाओ। ऐसा कैसे होता है कि एक छोटा बच्चा होता है, वो बीस साल का होते ही यह सोचना शुरू कर देता है कि, "मुझमें कोई खोट है, कोई कमज़ोरी है"?

प्र४: सर, हमारी जो शिक्षा-व्यवस्था है, वो इस तरह की है कि आप एक-दूसरे से तुलना करने लगते हो। हमें बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि उसके जैसे बनो, उसके जैसे करो।

आचार्य: पर एक बात बताओ, अगर दस लोग हैं, तो यह तो पक्का ही है न कि अगर परीक्षा ली जाए तो उसमें किसी के सबसे ज़्यादा और किसी के सबसे कम अंक होंगे? और अगर दस लोग खड़े हैं तो यह भी पक्का है कि कोई सबसे ज़्यादा लम्बा होगा और कोई सबसे ज़्यादा छोटा होगा कद में?

प्र५: जी, सर।

आचार्य: तो यह तो पक्का ही है। इसमें एहसास कैसे कराया जाता है कि तुम में कुछ कमी है?

प्र६: सर, यह बता कर कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। एक मापदंड रख दिया जाता है और कहा जाता है कि अगर यह नहीं है तो कुछ नहीं है, और अगर आप उस मापदंड पर खरे नहीं उतर रहे हो तो आप में कुछ कमी है।

प्र४: और जो मापदंड बनाए जाते हैं वो स्वाभाविक नहीं होते।

आचार्य: बहुत बढ़िया। पर एक बात और समझिए कि जब स्वाभाविक मापदंडों पर ही तय कर दिया जाए ‘ऊँचा’ और ‘नीचा’, तब बात और ख़तरनाक हो जाती है। उदाहरण के लिए, “तुम इस नस्ल के हो, इस रंग के हो, या तुम्हारा यह लिंग है”, या “इधर पैदा हुए थे”, या “इस उम्र के हो”, तो बात और ख़तरनाक हो जाती है। और वो भी होता है, खूब होता है।

प्र५: सर, जो मापदंड बाहर से आते हैं, उनसे पहले जो स्वाभाविक होते हैं वो बहुत पहले ही शुरू हो जाते हैं, जैसे लिंग-भेद बचपन से शुरू हो जाता है। उस उम्र में बेशक यह न पता हो कि पढाई में कितने अंक आने चाहिए पर यह पता होता है कि मैं लड़की हूँ और वो लड़का है, उसके साथ नहीं बैठना है या इसके साथ ही बैठना है। यह सब तो बहुत पहले आ जाता है।

आचार्य: ताकत जैसी कोई चीज़ होती नहीं है अस्तित्व में। तुम्हारे भीतर जो यह मूल्य भी स्थापित किया गया है कि तुम्हें ताकतवर होना चाहिए, यह बिलकुल बेकार की बात है। क्यों ताकतवर होना चाहिए?

जो इस कमरे के बाहर मुर्गा बैठा है, उसके पास क्या ताकत है? लेकिन मस्त है न, उड़ भी नहीं सकता। आज यह मुर्गा बाहर रखे एक गमले को इधर-उधर करने लगा तो उसके पीछे से घोंघे निकल पड़े, उनमें क्या ताकत है? पाँव रख दो तो पिचक जाएँगे। तो क्या वो दुखी हैं? उनका मस्त होना ही ताकत है न उनकी।

घास में क्या ताकत है बताओ? और डायनासोर्स में बहुत ताकत थी, वो कहाँ गए? मच्छर में क्या ताकत है? पर जितनी दुनिया में आदमियों की आबादी है, हर आदमी पर कुछ नहीं तो कम-से-कम पचास मच्छर तो होंगे। बिना ताकत के ही इतने हो गए।

ताकत की ज़रूरत नहीं होती है; सिर्फ़ यह भाव ना हो कि ‘मैं कमज़ोर हूँ’ — यही काफ़ी है।

कमज़ोरी का जवाब ताकत नहीं होती। कमज़ोरी का जवाब होता है: “कमज़ोरी के भाव का ना होना” — यही ताकत है।

किसी में यह भाव है कि ‘मैं कमज़ोर हूँ’ और किसी में यह भाव है कि ‘मैं ताकतवर हूँ’, यह दोनों ही बीमार लोग हैं। इतना ही काफ़ी है कि मैं ना सोचूँ कि ‘मैं कमज़ोर हूँ’। और जो नहीं सोचेगा कि ‘मैं कमज़ोर हूँ’, वो यह भी नहीं सोचेगा कि ‘मैं ताकतवर हूँ’।

ना ताकतवर हूँ ना कमज़ोर हूँ; ‘बस हूँ’; और इतना काफ़ी है।

तुम बताओ कि क्यों ग्रहण किया तुमने इन बातों को कि तुम कमज़ोर हो? और मैं जवाब इस अर्थ में नहीं माँग रहा हूँ कि तुमने कोई अपराध कर दिया हो, मैं जवाब इस अर्थ में माँग रहा हूँ कि जान जाओगे तो और ज़्यादा ग्रहण नहीं करोगे।

प्र६: सर, मैं पढ़ना छोड़ कर सारे काम बड़े अच्छे से करता हूँ।

आचार्य: अच्छे से माने?

प्र३: मतलब पूरे ध्यान के साथ।

आचार्य: तो उसमें कोई दिक्कत नहीं आती है? ठीक लगता है?

प्र३: पर माता-पिता हमेशा एहसास दिलाते हैं कि पढ़ना ज़रूरी है।

आचार्य: बेटा, जो काम तुम कर ही इस भाव से रहे हो कि हीनता है और मजबूरी है, तो उसमें तुम्हारी हीनता और मजबूरी की ही छाप दिखाई देगी। कॉलेज के लड़कों की उत्तर-पुस्तिका कभी देखो, तो उसमें उन्होंने कुछ नहीं लिख रखा होता है, बस यही दो शब्द होते हैं लिखे हुए; ‘हीनता', और 'मजबूरी’। शुरू से लेकर अंत तक उनकी मजबूरी टपक रही होती है, कि, "अगर हमारे बस में होता तो हम कुछ लिखते ही नहीं इस पुस्तिका में। पर करें क्या, फीस जो दी है, तो पास होना है। करें क्या, भविष्य का दबाव है। पेट है, तो डिग्री हासिल करनी है।"

तुम्हें उत्कृष्टता कैसे हासिल हो जाएगी? ज़बरदस्ती से करे हुए काम का नतीजा कोई शुभ तो नहीं हो सकता, या हो सकता है? जो काम इस एहसास से निकला हो कि ‘मैं छोटा हूँ’ और ‘कमज़ोर हूँ’, क्या वो काम तुम्हें ऊँचाई पर पहुँचा देगा? काम निकला ही इसी भावना से है कि, ‘मैं नीचा हूँ’, और काम का फल तुम्हें ऊँचाई पर पहुँचा देगा? ऐसा हो सकता है क्या? नीचा मन तो जो भी करेगा, वो काम भी नीचा ही होगा। तभी तो मजबूरी से जब उत्तर-पुस्तिका में लिखते हो तो उसमें भी क्या दिखाई देती है? मजबूरी ही तो दिखाई देती है, या उत्कृष्टता दिखाई देती है कि, “वाह! संगीत बह रहा है उत्तर पुस्तिका में", ऐसा तो नहीं होता, या होता है?

कल तुम्हारे कॉलेज में मैंने कहा था, “प्यार करो या छोड़ दो।” ‘प्यार करो’ का मतलब समझना। ‘प्यार करो’ का मतलब यह नहीं होता है कि अपनी किताब को चूमने लग जाओ। ‘प्यार करो’ का मतलब यह भी नहीं होता कि दिन-रात किताब का ही ध्यान कर रहे हो। ‘प्यार करो’ से मतलब होता है कि जब तक हैं साथ में, तब तक उसके साथ पूरे तरीके से हैं। बड़ा साधारण सा मतलब है प्यार करने का। अगर मैं अपनी पढ़ाई से प्यार करता हूँ तो इसका यह मतलब बिलकुल भी नहीं है कि तुम्हारे ९५ प्रतिशत अंक आने चाहिए।

अगर मैं अपनी बात भी करूँ तो जो विषय मुझे बहुत भाते भी थे, उनमें भी मैं कोई अव्वल नहीं आता था। हाँ, अंक बुरे नहीं आते थे, अंक हमेशा अच्छे ही आते थे। पर अंक जब उदेश्य ही नहीं है, तो अव्वल नहीं आ पाओगे। अव्वल होने के लिए तो फ़िर अव्वल आने वाली मानसिकता चाहिए, कि निशाना ही पदक पर है।

प्यार करने का बस इतना सा ही मतलब है कि जब पढ़ रहे हैं तो बस पढ़ रहे हैं, और यह काफ़ी है। उसके बाद अंक शायद ६० आएँ, या फ़िर ८० भी आ सकते हैं, या कौन जाने ९५ आ जाएँ; ६० का भी मैं क्यों हवाला दूँ, ३० पर भी अटक सकते हो, तो फ़िर ठीक है, कभी ३० का स्वाद भी चख लेना, वैसे भी चखते ही रहते हो। कौन-सी आफ़त आ जानी है।

जैसे अभी तुमने कहा न कि बाकी काम करता हूँ, और वो ठीक-ठाक रहते हैं, वैसे ही पढ़ाई को भी कुछ ख़ास मत समझो। जिस सहज भाव से बाकी काम करते हो, उसी सहजता से पढाई भी कर लिया करो। शान्तिपूर्वक पढ़ा, और पढ़ने के बाद छोड़ दिया। अब क्या कर रहें हैं? अब कुछ भी कर रहें हैं, बैठे हैं इन्टरनेट पर, ठीक है। अभी नहीं पढ़ रहे, और जब नहीं पढ़ रहे तो बस नहीं पढ़ रहे। और कोई अगर तब कहने आए कि, “तुम पढ़ क्यों नहीं रहे हो?” तो कहना, “नहीं पढ़ रहे तो बस नहीं पढ़ रहे, हमारी मर्ज़ी! ना पढ़ रहे हैं और ना अगले दो घण्टे पढेंगे, और हमें तकलीफ मत देना। ना तुम्हारे कहने से पढ़ेंगे और ना तुम्हारे कहने से पढ़ना बंद कर देंगे।”

ना कमज़ोरी ना ताकत, बस सहज बहाव।

खेले तो खेले, पढ़े तो पढ़े, बोले तो बोले और चुप रहे तो चुप रहे। किसी चीज़ को लेकर के ग्रंथि नहीं बाँध ली। किसी चीज़ को मन में चक्कर नहीं कटा रहें हैं कि “मेरा रिज़ल्ट क्या आया होगा, मुझे अब पढ़ना चाहिए।” अरे, जब पढ़ना था तब पढ़ लिया। अभी सोच रहे हो क्या कि कल फ़ुटबाल खेलना है? नहीं सोच रहे न, वैसे ही यह भी मत सोचो कि कल पढ़ना है।

सोच कर करने से कुछ ख़ास नहीं हो जाता। असल में हम सोचते हैं कि कुछ कर लो, और जो बचे उसे सोच लो। तुम देखो न कि तुम बिलकुल यही करते हो कि नहीं? तुम्हें दस काम करने थे, तुम चार काम कर लेते हो और बाकी छह के बारे में सोच लेते हो। तो चार कर लिए और छह सोच लिए — कुछ करो और कुछ सोचो।

और उम्मीद कुछ ऐसी रहती है कि सोचने से करने की क्षतिपूर्ति हो जाएगी। तुम सोचते ही उसी के बारे में हो जो करना बाकी है। तुम्हें करना होता तो कर डाला होता। करना तुम्हें था नहीं, तो तुम क्या करोगे? सोचोगे! और फ़िर उसमें हज़ार तरीके की आफतें हैं। “मैं कमज़ोर हूँ; मैं ताकतवर हूँ।” ‘मैंने कर लिया’, इससे क्या सिद्ध होता है? कि ये सब मेरी ताकत है, और ‘मैं नहीं कर पाया’, उससे क्या सिद्ध होता है? कि ये सब मेरी कमज़ोरी है।

दुनिया ने वैसे भी पचास बातें तुम्हारे दिमाग में डाल रखी हैं और तुम विचारों को ऊर्जा दे करके और तैयार हो जाते हो यही सब सोचने के लिए।

कुछ भी ख़ास नहीं है। कभी फेल भी हो सकते हो, तो उसमें क्या हो गया? क्या गजब हो गया अगर फेल हो गए तो? कुछ ख़ास नहीं हो गया। और कभी तुम हो सकता है बड़े अच्छे अंक लेकर आओ, तो भी क्या हो गया, कुछ ख़ास नहीं हो गया। अगर तुम चार रोटी खाते हो तो किसी दिन तीन भी तो खा जाते हो और किसी दिन पाँच भी तो खा जाते हो, या नहीं होता है ऐसा? कि बिलकुल चार ही खाते हो रोज़? या कहोगे कि, “यह मेरी कमज़ोरी का सबूत है कि आज तीन ही खा पाया और ताकत बढ़ रही है तो आज पाँच खा गया?”

मस्त रहो बिलकुल। तुम बिलकुल कमज़ोर नहीं हो; तुम ताकतवर भी नहीं हो। क्या समझ में आया?

प्र३: कि जैसे हैं, वैसे ही रहना चाहिए।

आचार्य: कैसे हैं? कमज़ोर हैं या ताकतवर हैं?

प्र४: ना कमज़ोर हैं और ना ताकतवर।

आचार्य: फ़िर कैसे हैं?

(हँसते हुए) बोलो कि, "क्यों बताएँ, यह कोई सवाल है? काम धंधे की बात करनी है तो करिए।" हाँ, यह ठसक ज़रा विकसित करो, नहीं तो दुनिया चढ़ जाएगी। कोई आकर कहेगा, “अरे, रात भर मुँह डाल लिया करो पानी में तो रात भर भीग कर ज़रा फूल जाएगा, बड़ा हो जाएगा।”

दुनिया का क्या है, वो तो किसी भी चीज़ को कमज़ोरी बना देगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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