अभी एक पिक्चर देखी ‘छिछोरे’, आईआईटी बॉम्बे पर आधारित है वो। कैंपस में चालीस लड़कों पर एक लड़की है। लेकिन वो जो लड़की है उसका कहानी में जो कुल योगदान है वो यही है कि वो सुंदर-सुंदर है और सब लड़के उसके पीछे पड़े हैं।
तो पूरी कहानी में लड़कों को जो महत्व मिला है वो इसलिए मिला है क्योंकि वह जीत रहे हैं, खेल रहे हैं और संघर्ष कर रहे हैं और लड़की को महत्त्व किसलिए है? क्योंकि वो सुंदर-सुंदर है। वैसे ही वो पिक्चर आगे बढ़ती है तो उसमें थोड़ी दुखद स्थिति में रियूनियन (पुनर्मिलन) होता है। वो जो लड़की है वो उनमें से एक को ब्याह चुकी है, तो वो भी अब वहीं पर मौजूद है, और आईआईटी के बैचमेट (सहपाठी) हैं, और पिक्चर क्या दिखा रही है? ये-सब बैठ कर के कैंपस की पुरानी यादों की चर्चा कर रहे हैं और इन्हीं की बैचमेट क्या कर रही है? खाना बना रही है और कह रही है, “गाइज़ डिनर इज़ रेडी ! (खाना तैयार है!)”
ये बात हमने महिलाओं के भीतर बहुत गहरे से बसा दी है कि, “देखो, तुम्हारी उपयोगिता, तुम्हारा महत्व, तुम्हारा सम्मान तभी है जब तुम या तो सुन्दर-सुन्दर हो जाओ या बाकी सब करो – खाना बनाना, बच्चे पैदा करना है, इत्यादि-इत्यादि।“ स्त्रियों ने भी इस बात को बहुत हद तक आत्मसात कर लिया है। यह बड़ी दुर्घटना हुई है महिलाओं के साथ!