पाहन लै देवल रचा , मोटी मूरत माहि। पिण्ड फूटि परबश रहै , सो लै तारे काहि।।
पाहन पूजि के , होन चहत भव पार। भीजि पानि भेदै नदी , बूडै जिन सिर भार।।
वक्ता: मुक्ति का, बड़े से बड़ा भ्रम यह है कि ‘मुक्ति’, हमारे किये मिल सकती है। हम, कुछ ऐसा कर लेंगे, जो हमें मुक्त कर लेगा। आदमी ने, जितनी कोशिश मुक्ति की, की है, उतना ही ज़्यादा, ये बेवकूफी भी की है कि माना है कि ‘मुक्ति’ एक ऐसा साध्य है, मन जिसका साधन हो सकता है। गहरी से गहरी कोशिश, हमारी है, सच को जान लेने की और उतना ही गहरा आग्रह, गहरी ज़िद्द, हमारी है कि ‘हम ही’ जानेंगे। एक छोटी सी बात है, जिसे आदमी, हमेशा भूल जाता है कि,
‘स्वयं’ मुक्त नहीं हुआ जाता । ‘स्वयं से’, मुक्त हुआ जाता है ।
हम, लगातार ये कोशिश करते रहते हैं कि हम मुक्त हो जाएँ। हम जो हैं, हम वही रहें — और जान लगा दें, पूरी कोशिश कर दें, श्रम में कोई कमी ना रहे। कोई ऐसा जादू हो जाए कि — हम, ‘हम ही’ रहते हुए, पा लें रौशनी को, और मुक्त हो जाएं। क्या किया है आदमी ने? बिलकुल ये समझ में आया है कि अहंकार छोटा है। बिलकुल समझ में आया है कि, ‘’है कोई परम, जो इतना सुन्दर है, इतना अछूता है कि उसको, हम जानते भी नहीं हैं। आदमी ने उसे अपनी बनाई हुई मूर्ति में, बांध दिया और यहीं पर, सब नष्ट हो जाता है।
शुरुआत शायद इसी भाव से होती है कि समर्पण हो, पर बहुत स्पष्ट है कि समर्पण की जगह, क्या हो जाता है। आदमी तो परम के सामने, क्या ही झुक पाता है; ‘परम’ आदमी की इच्छा के सामने, पूरा-पूरा झुक जाता है। और आपके करे, होगा भी यही। अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। परम, आपके द्वारा दिये गये रूप में, आपके द्वारा बनाई गई मूर्ति में, आपके द्वारा स्थापित मंदिर में, आपकी इच्छा अनुसार, आ कर के कैद हो जाता है। कौन, किसको समर्पित हो रहा है?
बात स्पष्ट होना चाहिए। हमारे करे तो, हमारा सर भी नहीं झुकेगा। हम तो जब सर झुकाने की भी कोशिश करेंगे, तो यही पाएंगे कि हमारा सर तो, तना का तना है। हमने ‘परम’ को ही, अपने सामने झुका लिया। हमारे बन्धनों पर तो कोई अंतर नहीं पड़ा। हम उन्हीं घरों में, उसी तरह की दिनचर्या मे, रह रहें हैं, जैसे रहते थे। ‘’हां, हमने परम को भी, एक घर में ज़रूर बांध दिया।’’ एक मूर्ति में जरुर बांध दिया। जो निराकार है, उसको आकार दे दिया; जो अमूर्त है, उसको मूर्त कर दिया। ये होता है, हमारी ऊंची से ऊंची, कोशिश का नतीजा। फर्क नहीं पड़ता कि आपकी नीयत क्या है? नीयत होगी मुक्ति की, नीयत होगी समर्पण की, नीयत होगी सत्य को जानने की पर, ‘आपकी’ नीयत है ना! ‘आपका’ जो कुछ भी होगा — क्षमा कीजिएगा — मैला ही होगा। आप जिस भी चीज़ पर हाथ रखेंगे, उसे गन्दा ही कर देंगे। और आदमी के लिए, गहरी से गहरी निराशा की बात ये है कि हम तो समर्पित भी, नहीं हो सकते। ये कहना तो, एक बात है कि, ‘’हम अपने करे कुछ कर नहीं सकते।’’ मैं कह रहा हूं, ‘’हम अपने करे समर्पित भी नहीं हो सकते। अपने करे अगर हम, समर्पित भी हो रहें हैं तो उसमे, अहंकार ही बल पा रहा है। ऐसा है, आदमी का मन।
पाहन लै देवल रचा , मोटी मूरत माहि।
क्या करता है इंसान? ‘’नहीं, मैं स्वयं नहीं बदलूंगा, मेरी मूर्ति वही रही आएगी, जो है। मेरी छवि पर, मेरे विचारों पर, मेरी दुनियां पर, लेश मात्र भी, फर्क ना पड़े; सब वैसा का वैसा रहे। हां, मैं उसमें कुछ और शामिल ज़रुर कर लूंगा।’’ क्या शामिल कर लिया?‘’मेरे पास घर था, मेरे पास दुकान थी, मेरे पास दफ़्तर था, मेरे पास बाज़ार थी, मेरे पास सिनेमा हॉल था, और इस पूरे मेले में, अब मेरे पास एक मंदिर भी है।’’ सब कुछ वैसा का वैसा ही है, यथावत। कुछ और आ गया है। कुछ कम नहीं हुआ है, कुछ और आ गया है और, जो ‘और’ आ गया है, वो किसलिए आया है? ताकि जो पुराना है, वो सुचारू रूप से चलता रहे। नया आया ही इसीलिये है, ताकि पुराना कायम रहे। कुछ वास्तव में नया है? कुछ वास्तव में बदला है?
ये मंदिर तो आपके मन का हिस्सा है। ये मंदिर तो आपकी पुरानी दुनिया को कायम रखने का तरीका है। आप जैसे हो, आपने मंदिर में वैसा ही देवता बैठा दिया है। जैसा आपका मन, वैसी देवता की मूरत। किसके सामने सर झुका रहे हो? जिस देवता की मूरत के सामने सर झुकाया जा रहा है, वो आदमी का अहंकार ही है, जो उसने, मंदिर में प्रतिष्ठापित कर दिया है। कुछ बदला नहीं है, और मंदिर के आने से, कुछ बदल सकता भी नहीं है। ये वैसा ही होगा कि किसी को हल्का होना हो, उसने पांच अलग-अलग तरह के, बोझ उठा रखे हों। और वो कहे, ‘’एक छठा बोझ भी उठा लेना है, उससे शायद मैं हल्का हो जाऊं।’’ छठा बोझ, किसी भी तरह का हो, किसी भी रूप का हो, किसी भी प्रकार का हो, सुन्दर से सुन्दर मूर्ति हो, वो पिछले पांच को हटा नहीं रहा है। पिछले पांच के रूप में, हमारा अभिमान तो जम कर के बैठा ही हुआ है ना? वो तो वैसे के वैसे ही हैं। बल्कि इस छठे की सार्थकता ही हम इसी में जानते हैं, इस छठे को शुभ ही हम तभी कहते हैं, जब पिछले पांच बने रहें। यदि छठे के आने से, पिछले पांच की, हानि होती हो, तो हम छठे को, आग लगा देंगे।
पाहन लै देवल रचा , मोटी मूरत माहि। पिण्ड फूटि परबश रहै , सो लै तारे काहि।।
ये देवता, तो तुम्हारे अहंकार के आगे, पहले ही झुका हुआ है; ये परवश है। इसमें कोई दम नहीं, तुम इसके सामने, क्या सर झुका रहे हो? इसने तुम्हारे सामने, पहले से सर झुका रखा है। देवता की शक्ल, तुमसे मिलती है या तुम्हारी शक्ल, देवता से मिलती है? ठीक-ठीक बताओ?
किसने, किसके सामने पहले ही, सर झुका रखा है? और यदि, तुम्हारी शक्ल बदल जाए, तो क्या तुम्हारे देवता की शक्ल, तुम नहीं बदल दोगे? अफ़रीकन देवता और चीनी बुद्ध, हम जानते हैं कि वैसे नहीं होते, जैसे भारतीय देवता होता है। स्पष्ट कह रहें हैं कबीर कि, ‘’ये जो पिंड है, इसमें क्या दम है? ये तो खुद परवश है।’’ तुमने बनाया है, तुम्हारे अहंकार की रचना है। और तुम कोई कोशिश कर लो, तुम्हारे द्वारा रचित कुछ, तुमसे बड़ा नहीं हो पाएगा। तुम्हारे द्वारा रचित कुछ, तुम्हें मुक्ति नहीं दे पाएगा। तुम पगले हो, अगर सोच रहे हो कि खुद कुछ निर्माण करके, या खुद कुछ भी और कर के, तुम्हें कुछ मिल जाना है। समर्पित ना होना पड़े, झुकना ना पड़े। इसके लिए अहंकार, किसी भी हद तक जाने को, तैयार हो जाएगा। आप, श्रम उससे कितना भी करवा लो। श्रम करना, उसे अच्छा लगता है क्योंकी श्रम करने में, लगातार ये भाव रहता है कि, “मैंने श्रम किया, मैंने अर्जित किया” मुझे जो मिला है, मेरा है।’’ किसी की अनुकम्पा नहीं। श्रम, अहंकार को खूब प्रोत्साहन देता है। श्रम करावा लो, बड़े से बड़ा मंदिर करवा लो, ऊंची से ऊंची कष्टप्रद, साधना करवा लो, अहंकार कर लेगा। जो सरलतम काम है, अहंकार वो नहीं करेगा। झुकने को तैयार नहीं होगा। मेहनत, कितनी भी करवा लो।
पिण्ड फूटि परबश रहै , सो लै तारे काहि।।
ये मूर्ति, तुम्हें तार देगी? तुम, किसको भ्रम में रखे हुए हो? जो खुद, तुम पर निर्भर है कि तुम उसे ले जा कर के, कहीं खड़ा कर दो, वो तुम्हें तार देगी? तुम्हे, वाकई लगता है। मूर्ति तुमसे बड़ी है? पूरी प्रक्रिया को, तुमने ध्यान से देखा है? मूर्ति ही नहीं, जीवन भर, तुमने जो कुछ किया, वो सिर्फ़ तुम्हारे अहंकार की चाल है। और, बड़ा सूक्ष्म होता है अहंकार। तुमने भले अहंकार को, गलाने के लिए ही, बड़ा श्रम किया हो। लेकिन उससे भी, अहंकार बढ़ेगा ही बढ़ेगा। ‘मैं’ का भाव, बढ़ेगा। “मैंने किया”, ये, बड़ी विकट स्थिति है क्योंकी, मन की शुद्धी के लिए भी, आप जो कुछ करोगे, उससे मन और अशुद्ध होना है। कोई चारा नहीं है। हांथ-पांव, खूब चला लेने के बाद, पूरी कोशिश कर लेने के बाद, आप अंततः पाओगे कि कोई चारा नहीं है। चुपचाप खड़े होना पड़ेगा और कहना ही पड़ेगा कि, ‘’ठीक, अब तू जैसा चाहे कर।’’ जब तक, वो स्थिति नहीं आती है तब तक, मंदिर बनाओ कि मस्जिद बनाओ, कि ग्रन्थ पढ़ो, कि साधना करो, कि तपस्या करो, योग में लीन हो जाओ। जो करना है कर लो, करने वाले तो, तुम्हीं हो। तुम्हारा किया, तुम्हारे काम नहीं आएगा।
पाहन पूजि के , होन चहत भव पार।
बड़े चतुर हो तुम। जो पत्थर को पूज कर के, तर जाना चाहते हो। बड़े चतुर हो, जो भवसागर से पार हो जाना चाहते हो, पत्थर की पूजा कर के। जो पत्थर, खुद नहीं पार हो सकता, खुद जिसका डूबना पक्का है, वो तुम्हें क्या पार कराएगा? पत्थर तुम्हारा गुलाम है। तुम्हें खेल खेलना हो, तुम्हें मनोरंजन करना हो। पत्थर, उसके लिए अनुकूल है और पत्थर से अर्थ, मात्र मूर्ति भर नहीं है, कि कबीर यहां पर, मूर्ति पूजा पर, उंगली उठा रहें हैं। पत्थर से अर्थ है, वो सब कुछ जो, हमारे अहंकार का साधन है। पत्थर से अर्थ है, वो सब कुछ, जो हम करते हैं।
भीजि पानि भेदै नदी , बूडै जिन सिर भार।।
एक ही तरीका है, पार होने का, सिर्फ़ एक तरीका है। और पत्थर इकट्ठा नहीं करने हैं, और करने का भाव, संचित नहीं करना है कि मैंने ये भी करा, मैंने वो भी करा, तो अब, पात्रता है मेरी, मुझे मुक्ति चाहिए ही। मुक्ति, आपको दावेदारी से नहीं मिलेगी। आप, वहां खड़े हो कर, ये नहीं कह पाओगे कि, ‘’देखिए, आपकी जितनी भी अपेक्षाएं थीं, हमने पूरी कर ली।’’ अब हमें मुक्त करिए। मुक्ति तो, ऐसे ही मिलती है कि जो दवा करने वाला मन है, वही हल्का हो जाए।
हल्के-हल्के तरि गये , बूड़े जिन सिर भार।
जो हल्का रहेगा, वो पार हो जाएगा। बिलकुल हल्का, बोझ ही नहीं करने का। जिसने सारे करने को सौंप ही दिया है। जिसकी दुनिया, वो करे। मुझे क्या करना है, करने से। जिसको, दंभ ही नहीं कि, ‘‘अपने तैरे, मैं पार भी हो जाऊंगा’’; जो बस, छलांग मारना जनता है, और उसके बाद कहता है, ‘’ठीक, अब नदी जहां ले जाए।’’ वो पार हो जाएगा और जिसने, हाथ-पांव मारे, जिसने तैरने की कोशिश भी की, उसका डूबना, पक्का है। ये नदी, इतनी आसन नहीं। आपके प्रयत्नों से, नहीं पार होगी, ये पक्का समझ लीजिए। लेकिन, मन को बड़ी सुविधा रहती है। मन कहता है, देखो भाई, हम कोशिश कर रहें हैं ना? पूरी-पूरी कोशिश कर रहें हैं। समर्पण की ज़रूरत क्या है? हम कोशिश कर तो रहें हैं। और हमें ये सिखा दिया गया है कि कोशिश बड़ी बात है। हमें ये सिखा दिया गया है कि कोशिश करने में जैसे, आपकी निर्दोषता प्रकट होती है कि, ‘’नहीं-नहीं, गंभीर है, चाहता है, कोशिश कर रहा है ना!’’ और जो जितनी कोशिश करे, हम सोचते हैं कि वो, उतना ही सच्चा है। जो जितनी कोशिश करे, हमें ऐसा लगता है कि वो, उतनी ही गहराई से, अपने साध्य को, पा लेना चाहता है।
भूल जाते हैं हम कि ये जो हमारी दुनिया है, इसमें हमें ये भ्रम हो सकता है कि कोशिशों से कुछ हासिल होता है। वास्तव में, जो जितनी कोशिश कर रहा है, वो उतना ही ज़्यादा, पाने से बचना चाहता है। कोशिश ही तो, बाधा है। भ्रम हमें क्या है? कि कोशिश प्रमाण है?
श्रोता: कि हम पाना चाहते हैं।
वक्ता: कि तुम पाना चाहते हो। पर समझिए इस बात को कि कोशिश वास्तव में इस बात का प्रमाण है कि तुम पाना, नहीं चाहते। पाना चाहते होते, तो कोशिश कब की बंद कर दी होती। कोशिश तो सिर्फ, अहंकार को खड़ा रखने का, कायम रखने का, साधन है। ‘’मैं कोशिश कर तो रहा हूं’’ और इस बात को आप, बड़ी ठसक के साथ बोलते हो कि, ‘’साहब, कोशिश तो हमने पूरी की पर, हासिल कुछ नहीं हुआ।’’ और इतना ही नहीं, इससे आपके मन में, एक ऐसा भाव भी आता है कि जैसे आपके साथ कोई, बड़ा गुनाह कर दिया गया हो। ‘’हमने बड़ी कोशिश की, अब खुदा की ही मर्ज़ी नहीं थी, हमें हासिल नहीं हुआ, तो क्या करें?’’ नहीं, किसी ख़ुदा की मर्जी नहीं थी कि तुम्हें, ना हासिल हो। ये तुम्हारी अपनी मर्ज़ी थी कि तुम्हें ना हासिल हो। यही तो तुम्हारी पूरी कोशिश थी। तुम सफल हुए, बधाई हो! जो तुम हमेशा चाहते रहे, मिल गया तुमको। लगातार और क्या कोशिश करी थी? यही तो करी थी।
श्रोता: सर, एक दिन अनुशासन पर बात हो रही थी, आप बता रहे थे ना? कि उस ढर्रे को तोड़ने के लिए, पहले तो अनुशासन चाहिए होगा। और वो अनुशासन, एक कोशिश ही होगी और निश्चित है कि अहंकार की होगी। पर, एक वो पहला कदम तो होगा ना, इस परम्परा को तोड़ने के लिये?
वक्ता: कहां से आएगा, वो कदम? कहां से आएगी, वो ऊर्जा? उस दिशा में, आपका कदम बढ़ेगा ही क्यों? आप हैं कौन? आप खुद वो परम्परा ही तो हैं, जिसको आप, तोड़ने की बात कर रहीं हैं? तोड़ने की बात करना भी, उसी ढर्रे का एक हिस्सा है, खेल को समझिए। ढर्रा इतना ही नहीं है कि मैं चार कदम सीधी चलती जाती हूं। ढर्रा, जानती हैं क्या है? ढर्रा, ये है कि चार कदम सीधे चलो, एक कदम पीछे आओ, फिर चार कदम चलो, फिर एक कदम पीछे आओ। ये पीछे एक कदम वापस आना, ढर्रे का हिस्सा है। ढर्रा बड़ा चतुर है, वो सीधे आपको नहीं ले जाता। ढर्रा कहता है, चार कदम चलो, एक कदम पीछे आओ, उस एक कदम पीछे आने से भ्रम में मत पड़ जाइएगा? ये मत सोचने लग जाइएगा कि, ‘’अरे, देखो मैंने ढर्रा तोड़ा।’’ ना, तोड़ा-वोड़ा नहीं है, ये ढर्रे का हिस्सा है। आप हफ्ते के छह दिन, एक तरह की जिंदगी जीयो, सातवें दिन यहां आ जाओ। आपको क्या लगता है? आप उस ढर्रे को तोड़ रहे हो? ना, ये उस ढर्रे का हिस्सा है। छह दिन, एक तरफ को चलो, सातवें दिन, एक कदम पीछे। उससे बाकी छह दिन, फिर वैसे ही चलने की ऊर्जा मिलती है। ठीक, छह दिन इकट्ठा कर लो, सातवें दिन जा कर के, धो आएंगे, वो, ढर्रे का हिस्सा है। इसलिए आदमी ने, पाप धोने के हज़ार तरीके बना रखे हैं ताकि, उसकी दुनिया कायम रहे। वो ढर्रे का हिस्सा हैं, ये मत सोचिएगा कि इससे दुनिया पर, कोई फ़र्क पड़ता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। दुनिया और मज़बूत होती है।
कबीर का एक, कुछ इस तरह से था उसमें कि:पोथी पढ़ पढ़ नैन गवावे, सतगुरु नाथ शरण नहीं आवे।
वो किसी से कह रहें हैं, कोई ऐसा क्यों करेगा कि ‘पोथी पढ़-पढ़ नैन गवावे और सतगुरु नाथ शरण नहीं आवे’? कोई ऐसा क्यों करेगा? वो, पोथी पढ़-पढ़ के, अंधा होने को तैयार है, वो इतनी मेहनत कर रहा है। मैं, रात भर पढूंगा, किताबिन पढूंगा, सारे ग्रन्थ पढ़ लूंगा। ‘पोथी पढ़-पढ़ नैन गवावे, सतगुरु नाथ शरण नहीं आवे,’ एक काम वो करने को तैयार नहीं है कि, ‘’छोड़ो ना किताबें।’’ जा कर के सर झुका दो, काम हो जाएगा।’’ तो किताबें पढ़ना क्या है? सारा श्रम क्या है?
श्रोता: सर ना झुकाना पड़े।
वक्ता: सर ना झुकाने का तरीका। ‘’हम खुद ही पढ़ लेंगे और खूब पढेंगे।’’ जीवन भर हम जो श्रम करते हैं, वो और क्या होता है? अहंकार को, बचाए रखने का साधन ही तो। कहीं ना कहीं, हमारा सारा श्रम, मौत से बचने की कोशिश है और, ‘’जिस सहजता से मौत से बचा जा सकता है, उसको हम अभी हासिल कर लें,’’ वो ना करेंगे। तो भुलावे में मत आ जाइएगा। आप देख रहे हो कि कोई बहुत जान लगा रहा है, तो सतर्क हो जाइएगा क्योंकी बहुत कोशिश करना, अहंकार का ही लक्षण है। कुछ पाना चाहता है ये। कुछ है, सिद्ध करने को इसके पास।
कह गए थे ना, बुल्लेशाह?‘एक अलिफ़ पढ़ो छुटकारा है’ अब ये मामला क्या है? वो कह रहें हैं कि, ‘’अलिफ़ से ही छुटकारा हो जाना है।’’ और यहां आप दुनिया भर के ग्रन्थ पढ़ लिए, पारंगत हो गए आप। आशीष से (एक श्रोता को इंगित करते हुए) अष्टावक्र का कुछ पूछ लीजिए, अभी बता देंगे। निधि, (एक श्रोता को इंगित करते हुए) कबीर की खास जानकार हैं। अंशु तो, (एक श्रोता को इंगित करते हुए) बिलकुल पारंगत, कुछ भी पूछ लीजिए। फिर भी काम हो नहीं रहा। अष्टावक्र भी हारे, कबीर भी हारे, कृष्ण भी हारे। काम क्यों नहीं हो रहा है? क्योंकी, आदमी का अहंकार, इन सब को अपना उपकरण बना लेता है। मैं कौन?
श्रोता: कबीर को पढ़ने वाला, अष्टावक्र को पढ़ने वाला।
वक्ता: ठीक है, बढ़िया। जब भी कभी लगे कि मुक्ति चाहिए, और मन उस कारण कुछ करने को करे। तो अपने आप से पूछियेगा, ‘’मैं करना चाह रहा हूं क्या? अगर इस क्षण पर भी, मेरी दिशा अपने ही करे कुछ करने की है, तो और फंस ही रहा हूं, मुक्त नहीं हो रहा।’’ बिलकुल ठहर के पूछ लीजिएगा। आप बिलकुल ऊब गए हैं, बिलकुल भर गए हैं। दिखाई दे गया है कि जिन रास्तों पर चल रहें हैं, उनपर क्षोभ के अलावा, और कुछ नहीं है। और आप बैठते हैं शाम को, और एक योजना उभरने लगाती है कि यहां से चलते हैं, फिर ऐसा कर लेंगे, फिर वैसा कर लेंगे। भागने मत लगिएगा, योजना पर तुरंत, अमल मत कर दीजिएगा। थोड़ा पूछ लीजिएगा, अपने आप से। जिस मन से क्षोभ उठा, क्या उसी मन से, ये योजना भी नहीं उठी है? क्या ये योजना, उस क्षोभ से मुक्ति दिला पाएगी? आपके करे कुछ नहीं होगा, बुरा लगता है सुनने में। आठवीं-नौवीं बार, दोहरा रहा हूं। आपके करे, कुछ नहीं होगा। वो विडियो था ना? वो भेजा था? बोलता है, ‘‘बेटा, तुमसे ना हो पाएगा,’’ तो ये परम सूत्र है, इसको याद कर लीजिए। अपनी शक्ल देखा करिये आईने में और, ‘’बेटा तुमसे ना हो पाएगा।’’ जिस दिन ये बात, समझ में आ गई आपको, ‘तुमसे ना हो पाएगा’, उस दिन तर गए। उस दिन? तर जाएंगे।
कबिरा नाव जर्जरी , कूड़ा खेवनहार
और क्या कह रहें हैं कबीर? कि नाव है जर्जर और जो तुम्हारा खेवनहार है, जो तुम्हारा मन है, वो कूड़ा है। पर ये हमें याद नहीं रहता ना? कि ये कूड़ा है, ये कैसे पार लगा देगा? तो उसी का ये सूत्र है। बेटा, बोलो।
समस्त श्रोतागण(एक स्वर में): ‘तुमसे ना हो पाएगा।’
वक्ता: तुमसे ना हो पाएगा। ये याद रह गया, तो सब हो जाएगा और जहां ये भूले, तो फिर कोशिशें हैं। करिए कोशिश, बनाइये योजनाएं, लगाइये दम।क्या कह रहीं हैं आगे? कह रहीं हैं कि अभी आपने कहा था कि ध्यान के साथ-साथ, श्रद्धा बड़ी जरूरी है। आज दोपहर में, मैंने एक मेल भेजी थी, उसमें ये बात थी कि ध्यान तो ठीक, पर श्रद्धा बड़ी ज़रूरी है। ध्यान के साथ, एक बात है। आपको बड़ा आसान है, ये कहना कि, ‘’मैं ध्यानस्थ हूं, मैं ध्यान दे रहा हूं, मैंने जाना।’’ ध्यान में समर्पण होता है पर, बिलकुल आखिरी बिंदु पर आकर के। जब आप शेष नहीं रह जाते, जब ध्यान इतना गहरा होता है कि आप, शेष नहीं रहा गए। इसीलिए ध्यान में, चूक की संभावना बहुत है। कहा यही जाता है ना? ‘’ध्यान दो।’’ तो कौन ध्यान दे रहा है? ध्यान की शुरुआत कहां से होती है? ध्यान की शुरुआत, आपसे होती है। आपके विचार से होती है। तो ध्यान आपको, कैसे कुछ दे सकता है? जब ध्यान में पूरी तरह आपका ही कर्तृत्व है? ध्यान कौन कर रहा है? ध्यान देने वाला कौन है? ‘मैं’।ध्यान में समर्पण कहां है?‘’कहीं नहीं है, मैं हूं।’’ ध्यान में समर्पण होता है। ध्यान में भी, अहंकार विगलित होता है। लेकिन, चरम पर जा कर।
जब, ध्यान इतना गहरा हो जाता है कि ध्यानी ही विलीन हो जाए, तब ध्यान में समर्पण होता है।
वरना नहीं होता। तो इसी कारण, ध्यान अपने आप में पूरा, हजारों में किसी एक के लिए रहेगा। कोई ये कहे कि, ‘’मैंने ध्यान के माध्यम से ही, मुक्ति पा ली,’’ ऐसा हजारों में, कोई एक ही हो सकता है। उसके लिए, बड़ा साफ़ मन चाहिए। उसके लिए, ऐसी आंखे चाहिए, जिन पर लालच का और डर का और तादात्म का, बिलकुल भी पर्दा ना पड़ा हो। इतने ध्यान से देख पाए वो आंखे।
ध्यान की विधि, बहुत साफ़, बड़े निर्दोष, बड़े निष्पक्ष मन के लिए है।
अन्यथा, आपका ध्यान आपको वही दिखाएगा, जो आप देखना चाहते हो। आप कहोगे तो कि, ‘’मैं देख रहा हूं?’’ आप ये भी दावा कर सकते हो कि, ‘’मैं साक्षी हूं।’’ लेकिन देखने वाला कौन है? आप हो और आपकी वृतियां इतनी गहरी हैं कि इस देखने वाले से, आपको निजात मिल नहीं रही है दावा आप चाहें जो करते हो। तो इसीलिए ध्यान अक्सर आपको, कुछ दूर तक तो ले जा पाएगा, उससे आगे नहीं। चरम बिंदु तक की यात्रा, ध्यान भर से नहीं हो पाएगी। ध्यान, आपको ये दिखा देगा कि काफ़ी कुछ है, जो सड़ा हुआ है। ध्यान आपको ये भी दिखा देगा कि आप हार रहे हो। लेकिन ध्यान, आपको बता नहीं पाएगा कि जीतें कैसे? ध्यान, आपको उर्जा नहीं दे पाएगा, जिससे जीत मिलती है। ध्यान, आपको ये तो बता देगा और आपने अक्सर ऐसा देखा भी होगा कि आपको पता है अच्छे से कि आप आदतों में पड़े हुए हो। आपने जान लिया, ध्यान दे कर के, लेकिन आदतें फिर भी हावी हैं? ध्यान से आपने बिलकुल जान लिया कि आपके रिश्तों की सच्चाई क्या है? लेकिन उन रिश्तों में आप अभी भी उलझे हुए हो? ध्यान भर से मुक्ति नहीं मिल रही; जान कर भी फंसे हुए हो। आंखो-देखी मक्खी निगले जा रहे हो क्योंकी ध्यान मुक्ति देता है, बिलकुल आखिरी बिंदु पर जा कर के। अब इसमें, सिर्फ़ ‘तड़प’ मिलेगी। बड़ी गहरी यंत्रणा कि जान भी गए कि गन्दगी में फंसे हैं, पर मुक्त भी नहीं हो पा रहे हैं, गन्दगी से। दिख रहा है कि चारों तरफ, दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध उठ रही है लेकिन, उससे उठ कर के भागने की ऊर्जा भी नहीं मिल रही है। वो ऊर्जा मिलाती है, श्रद्धा से। वो ऊर्जा मिलती है, सत्संग से।
प्रक्रिया को समझिएगा।
ध्यान, आपको बताता है कि, ‘’मैं बंधन में हूं।’’ सत्संग, आपको दिखता है कि, ‘’ऐसे लोग हैं, जो बंधन से मुक्त जीवन, जी रहें हैं, तो मैं भी, जी सकती हूं।’’ दोनों, इकट्ठे चल रहें हैं, तब जा कर के, बात बनती है। ध्यान ने क्या दिखाया? “मैं बंधन में हूं।” सत्संग ने क्या दिखाया? कि “बंधन से मुक्ति संभव है।” यदि आपको सिर्फ़ इतना ही पता चले कि, ‘’मैं बंधन में हूं’’ तो आपको तड़प के अलावा, और कुछ नहीं मिलेगा। फिर तो, अच्छा था कि आपको पता भी ना चलता। बेहतर था कि आप पहले जैसे ही, रहे आते। इसीलिये ध्यान के साथ, श्रद्धा बहुत ज़रूरी है। जिसके पास ध्यान होगा पर श्रद्धा नहीं होगी, उसका जीवन, घुटन से भर जाएगा।
श्रोता: सर, श्रद्धा भी तो हमारे किये नहीं आएगी?
वक्ता: श्रद्धा भी आपके किये नहीं आएगी, बिलकुल ठीक। जब मिले, तो दरवाजे बंद मत करिएगा। आप, इतना ही कर लीजिए। कह तो आप ऐसे रहीं हैं कि जैसे देने वाले ने, कोई कमी करी है आपके साथ देने में कि हमारे किये, आएगी नहीं तो मिलेगी कैसे? और, अगर मिली ही हुई हो तो? देने वाले ने, दे ही रखा हो तो?
श्रोता: तो अगर मिली ही हुई है, तो हमें क्यों नहीं पता चलता?
वक्ता : क्योंकी धारणा है आपकी कि, ‘’अपने करे पाना है।’’ सीख लिया है आपने ये, ‘’खुद तरेंगे।’’ ‘ध्यान’, जो बिलकुल दिखा दे कि क्या तथ्य है, बिलकुल आपको, तथ्यों के करीब ले जा दे, झूठ की ताकि कोई संभावना ही ना रहे, दूध का दूध और पानी का पानी और फिर श्रद्धा, जो आपको गहरे विश्वास से भर दे, ऊर्जा से भर दे कि, ‘’मुक्ति का रास्ता मैं नहीं जानता, मेरे करे मुक्ति मिलेगी नहीं। पर मुक्ति संभव है, ये पूरी श्रद्धा है मुझे।’’ समझ में आ रही है, ये बात? ये आपको ध्यान नहीं दे पाएगा।
श्रद्धा, क्या कहती है? ‘’हम, नहीं जानते कि बाहर निकलने का रास्ता क्या है? रास्ता तू जान। पर हम ये जानते हैं कि बाहर निकलना संभव ज़रूर है।’’ ये श्रद्धा है। ध्यान बताएगा, आप फंसे हुए हैं। और श्रद्धा कहेगी कि बाहर निकलना, संभव है। जब ये दोनों मिलते हैं, बात बन जाती है। श्रद्धा भर रहेगी, तो आप कहोगे, ‘’बाहर निकलने की ज़रूरत क्या है? हम, फंसे ही नहीं हैं।’’ आप आम घरों में देखिए, बड़े श्रद्धालु मिल जाएंगे आपको। झूठी श्रद्धा है, पर उनको ये पता ही नहीं है कि उनके घर ही, जेल हैं। घरों में श्रद्धा चल रही है, जेलों में श्रद्धा चल रही है। ध्यान ही नहीं है ना? उन्हें पता ही नहीं है कि घर ही तो कारागार है, फंसे हुए हैं। और दूसरे सिरे पर भी लोग हैं, जिनके पास ध्यान खूब है। पर वो सिर्फ़ घुट रहें हैं, वो तड़प रहें हैं। उन्हें दिख गया है कि जीवन नरक है। उन्हें साफ़-साफ़ समझ में आ गया है कि, ‘’बंधन के अलावा, मेरे पास और कुछ नहीं।’’ पर ये जानते हुए भी, ना उन्हें कोई रास्ता दिखता है, ना उनमें उत्साह आता है, मुक्त हो पाने का।
श्रोता: आखिरी कबीर के सत्र में, एक बार बात हुई थी कि ये भी सोचना कि, ‘’मैं बंधन में हूं, ये भी माया है और ये सोचना कि मुक्त हूं, ये भी माया है।’’ तो अगर कोई ये सोच रहा है कि वो बंधन में है, उसका जीवन ख़राब है। तो ये भी तो हो सकता है कि नहीं..
वक्ता: ऐसी स्थिति में यदि कोई पहुच जाए, जहां उसे दिखाई दे कि ना बंधन होता है ना मुक्ति होती है। वहां पर तो वो सोचने वाला भी नहीं होगा ना? पर देखिये हमारी कोशिश क्या है? हमारी कोशिश ये है, ‘’हम, हम रहें और बंधन का एहसास होना भी, बंद हो जाए।’’ ये ड्रग्स लेने जैसी बात है कि हम, हम रहें। और हम कौन है? जिसका पूरा शरीर, घाव से भरा हुआ है। पर हम चाहते हैं कि, ‘’हमें, दर्द का एहसास होना भी बंद हो जाए।’’ ये तो नशे की हालत हो गई। पूरे नशे की हालत है ये। ये हालत, ये नहीं है कि आपने जान लिया है कि आप शरीर हो ही नहीं। शरीर तो आप हो, अभी आपका पूरा-पूरा जुड़ाव है, शरीर से; पूरा तादात्म्य है। तादात्म्य पूरा है शरीर से, लेकिन साथ ही साथ, चोटों से मुँह भी छुपाना चाहते हो। धर्म ग्रन्थ इसलिए नहीं हैं कि आप, छुप सको। वो अपने पीछे मुह छुपाने के लिए नहीं है। ना बंधन हैं, ना मुक्ति है। बात बिलकुल ठीक है। पर उनके लिए ठीक है, जो समस्त द्वैतों के पार चले गए हों। हम पूरी तरह द्वैत में घिरे हुए हैं लेकिन, हमें अच्छा बहाना मिल गया, बंधन तो कुछ होता ही नहीं जी। ये सब तो द्वैत की बातें हैं। होंगी बिलकुल द्वैत की बातें, तुम द्वैत से मुक्त हो?
श्रोता: अगर ध्यान में हो, और श्रद्धा भी हो, जिनमें बाहरी ताकतें भी मिल जाएँ। उदहारण के तौर पर, पक्षी है, वो पिंजरे में है। उसे पता है कि वो बंधन में है। उसे ये भी पता है कि मुक्ति भी संभव है लेकिन पिंजरे की चाभी किसी और के पास है, तब?
वक्ता: ‘पक्षी’, ‘पिंजरा’, ‘कोई और’ और ‘चाभी’, ये सब एक ही तंत्र के हिस्से हैं। जब पक्षी अपनी पूरी ताकत से मुक्ति चाहता है, बाहर से कोई आ जाता है, उसे आज़ाद करने के लिए। यही श्रद्धा है। जब पक्षी, अपनी पूरी ताकत से मुक्ति चाहता है, कोई आ जाता है बाहर से, उसे आज़ाद करने के लिये। पक्षी अकेला नहीं है। पक्षी की इच्छा, पूरे तंत्र की इच्छा है। यही श्रद्धा है। ‘’मैं अकेला नहीं हूं, मेरी आवाज़, अस्तित्व की आवाज़ है।’’ पक्षी के माध्यम से, पूरा अस्तित्व आज़ादी मांग रहा है। जब पक्षी मांगता है वो आज़ादी, तो अस्तित्व खुद आ कर के उसे, मुक्त करता है। कैसे? मत पूछिए। कोई तर्क नहीं है इसका। पक्षी मांगे तो! पर पक्षी का आज़ादी मांगना, बड़ा अतार्किक होगा। क्योंकी देखिये न, स्थितियां कैसी हैं? पक्षी बंद है, चाभी किसी और के पास है, पक्षी में अगर श्रद्धा नहीं है, तो पक्षी तर्क देगा। क्या कहेगा? ‘’मेरे मांगने से क्या होगा? चाभी तो किसी और के पास है।’’ श्रद्धा ऐसी ही होती है, अंधी जैसी। सच तो ये है कि श्रद्धा को अंधा होना ही पड़ेगा। वहां कोई तर्क नहीं चल सकता। वहां तो ऐसा ही होना पड़ेगा कि मुझे मालूम है कि चाभी किसी और के पास है, पर मुझे आज़ादी चाहिए, और फिर जादू हो जाता है।
आपको नहीं पता चलेगा, क्यों कोई आ कर के आपकी सहायता कर गया। बिलकुल आप जान नहीं पाओगे, आपको बिलकुल नहीं पता चलेगा कि जीवन में परिस्थितियाँ क्यों उलट गयीं। कोई घटना अचानक क्यों घट गई। एक दिन आपके कदम क्यों बढ़ गए? आप बिलकुल जान नहीं पाओगे। आपको लगेगा, ये तो ऐसे ही हुआ है, अकस्मात्। वो अनायास ही नहीं हो गया है, वो संयोग नहीं है। वो आपके अंतर्मन की पुकार थी कि आप जा कहीं और को रहे थे, अचानक मुड़ गए, किधर और को। आपको लगेगा, ये तो ऐसे ही हुआ है। आप कंप्यूटर पर मेल देख रहे थे। अचानक आपने एक बटन दबा दिया। आपको लगेगा, ये तो ऐसे ही है। कितने ही बटन दबाता रहता हूं, ये भी दबा दिया। ना, उसको संयोग मत मान लीजिएगा। अस्तित्व बड़े मजेदार तरीकों से चलता है। तंत्र उसका बड़ा विशाल है। वहां कौन सा तार, किससे जुड़ा हुआ है, आप नहीं समझ पाएंगे। क्या हो रहा है? किस वजह से हो रहा है? आप नहीं जान पाओगे। यही श्रद्धा है। उस तंत्र की बारीकियों से, परिचित ना होते हुए भी,ये सुदृढ़ विश्वास कि वो तंत्र है और वो भला है। वो मेरी मदद करेगा। वो जो कुछ भी करेगा, उसमें मेरी मदद ही संनिहित है। इसी का नाम ‘श्रद्धा’ है। यही श्रद्धा है। तार्किक मन को ये बड़ी अख्ड़ेगी क्योंकी वो कहेगा, ‘’ना, पक्षी को अंदर बैठे-बैठे सिर्फ़ चाहना थोड़े चाहिए कि मैं मुक्त हो जाऊं।’’ अरे! उसे कुछ करना चाहिए। क्या करना चाहिए? कुछ आयोजन, किसी तरीके का कुछ। पक्षी के करे, कुछ नहीं होगा। नहीं, ये नहीं कह रहा हूं कि वो हाथ पर हाथ धर के बैठ जाए। पर जो वास्तव में होगा, वास्तविक मदद आएगी, वो तो जादू जैसी ही लगेगी।
~ ‘शब्द-योग सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।