प्रश्नकर्ता: सर, बचपन से सुनते आए हैं ‘स्वयं से पहले सेवा’। पर यहाँ आकर सुना कि ‘सेवा से पहले स्वयं’। तो सर ये…
आचार्य प्रशांत: तो फँस गए!
प्र: हाँ, सर।
आचार्य: बैठो। बात ठीक है। भ्रम पैदा होना लाज़मी है। सेवा करेगा कौन? अब छह लोग तुम्हारे आसपास सोए हुए हैं और तुम भी सोए हुए हो और तुम उनकी सेवा करना चाहते हो। कर सकते हो? दूसरों की मदद कर लो। पर दूसरों को जगा सको इसके लिए क्या ज़रुरी है?
श्रोतागण: (एक स्वर में) पहले ख़ुद जाग जाओ।
आचार्य: पहले ख़ुद जगना होगा। पर हमें बड़ा उल्टा हिसाब पढ़ाया गया है। हमें कहा गया है कि “तुम जैसे हो वैसे ही रहो और दूसरों के काम आ जाओ।”
मैं ख़ुद बीमार हूँ। मैं दूसरों को स्वास्थ्य दे सकता हूँ क्या?
श्रोतागण: नहीं, सर।
आचार्य: मैं ख़ुद वायरस लेकर घूम रहा हूँ। तो मैं जिसको स्वास्थ्य देने जाऊँगा, मैं उसको दे क्या दूँगा?
श्रोतागण: (एक स्वर में) *वायरस*।
आचार्य: पर हमें आज तक यही पट्टी पढ़ाई गई है कि ‘स्वयं से पहले सेवा’। अरे, पहले अपना स्वास्थ्य तो ठीक करूँ। एक बीमार आदमी, दूसरों की मदद भी करने जाएगा तो मदद की जगह उन्हें बीमारी दे देगा। हम सब बीमार हैं, पर हमसे कोई ये नहीं कहता कि पहले ख़ुद को देखो। हम भी सोए पड़े हैं और हमसे कहा जा रहा है कि दूसरों को जगाने के सपने लो। “हम दूसरों को जगा रहे हैं, मैं ये सपने लूँ।” हमसे ये नहीं कहा जाता कि पहले ख़ुद तो जग जाओ।
मैं तुम्हारे पास आया हूँ और मैं बुरी तरह भ्रमित हूँ। मुझे कोई स्पष्टता नहीं है। मैं भ्रमित हूँ तो मैं तुममें क्या बाटूँगा?
श्रोतागण: भ्रम।
आचार्य: भ्रम ही तो बाटूँगा न? जो मेरे पास होगा वही तो तुम्हें दूँगा न? तुम बुरे, बड़े ख़राब मूड में हो। बहुत ख़राब मूड में हो, और तुम तीन-चार ऐसे लोगों के पास पहुँच जाते हो जो ठीक-ठाक मूड में हैं। दस मिनट बाद सबका मूड कैसा होगा वहाँ पर?
श्रोतागण: ख़राब।
आचार्य: जिसका ख़राब मूड है, वो सबमें क्या बाँटेगा?
श्रोतागण: ख़राबी।
आचार्य: और जो ख़ुद मस्त है, ख़ुद ख़ुश है वो दूसरों को क्या दे सकता है?
श्रोतागण: ख़ुशी।
आचार्य: पर ये तो हमसे कभी कहा ही नहीं जाता कि, “बेटा पहले ख़ुद तो ख़ुश हो लो।” माँ-बाप कहते हैं, “हमारी खुशी के लिए कुछ कर दे।” और तुम कभी ये जवाब नहीं दे पाते कि, “पहले मैं ख़ुद तो ख़ुश हो लूँ, तभी तो आपको खुश करूँगा।” वो कहते हैं कि, “हमने भी ज़िन्दगी-भर यही करा है। हमने अपनी खुशियों की कुर्बानी दी है तेरे लिए।” तुम्हें जवाब देना चाहिए कि “तभी तो मैं ऐसा हो गया।”
(सभी हँसते हैं)
ऐसी कुर्बानी पर जो बड़ा होगा उसकी हालत तो ऐसी ही हो जाएगी न जैसी तुम्हारी हो गई है। मैं भी तुमसे यही कह रहा हूँ कि बाँटो। दूसरों को सब कुछ दो, लेकिन दूसरों को कुछ दे सको – जोकि बड़ा अच्छा काम है अपने आप में, बड़ा प्यारा काम है दूसरों को देना – उसके लिए पहले तुम्हारी जेब में कुछ होना चाहिए न! तुम्हारी जेब में हैं दो रूपए, तो तुम पड़ोसी को सौ रूपए दे दोगे? (व्यंग्य कसते हुए) “नहीं, सर, दे देंगे। चेक काट देंगे। भले ही बाउंस होता रहे बाद में। अभी तो दे दिया न।”
(सभी हँसते हैं)
तो हमारा जो लेना-देना है, वो ऐसे ही है। ऐसे चेक्स की तरह, जो बाउंस होते रहते हैं। उस वक्त यही लगता है कि दे दिया।
दो जने बैठे हैं आसपास और एक कह रहा है कि “जानेमन, मैं तेरे लिए कुछ भी कर जाऊँगा।” अब ये एक चेक है, एक वादा है, एक प्रॉमिस है, जो आगे वो इस्तेमाल कर सकती है पर जब इस्तेमाल करने का समय आएगा तो तुम पीछे हट जाओगे। “अरे यार, उस वक़्त की बात थी, बातचीत थी, तो बस कह दिया। तू इसे इतना सीरियसली (गंभीरता से) कैसे ले सकती है? ऐसी बातें तो होती रहती हैं। अच्छा लगता है करने में, करनी चाहिए।”
(श्रोतागण हँसते हैं)
“जब मैं तुझसे बोलूँ कि मैं तेरे लिए कुछ भी कर जाऊँगा तो तू भी मुझसे बोल कि मैं भी तेरे लिए कुछ भी कर जाऊँगी। बस बात बराबर।”
(सभी श्रोता हँसते हैं)
“मैंने तुझसे कहा और तूने मुझसे कहा। तूने ये कैसे सोच लिया कि अब मैंने कह दिया तो करके भी दिखाऊँगा?”
ऐसे तो हमारे सम्बन्ध हैं। “भाई, जब तेरे पास कुछ है ही नहीं तो तू करके क्या दिखाएगा? वो तेरे से माँगने आई है और तू कह रहा है कि मेरी जेब खाली है, मैं दूँ क्या तुझे। जेब खाली, दिल खाली, दिमाग खाली। मैं तुझे दूँ क्या?” पहले दिल को भरो तो। पहले दिमाग को पाओ तो, फिर सबको देना। फ़िर तुम्हें देने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी, फ़िर तुमसे अपनेआप बहेगा, तुमसे उद्भूत होगा। सबको मिलेगा।
हमारी दुनिया उन्हीं लोगों से परेशान है, जो दूसरों की भलाई करना चाहते हैं। हमने एक-दूसरे की भलाई कर-कर के अपनी ये हालत कर ली है। टीचर से पूछो तो वो स्टूडेंट की भलाई करना चाहते हैं। और स्टूडेंट से पूछो कि, “तेरा हो क्या रहा है?” तो वो कहेगा कि “अब सामने ही है, देख ही लो।"
(सभी हँसते हैं)
सभी भलाई करने में लगे हुए हैं। भलाई करने में अहंकार बड़ा अच्छा महसूस करता है। “मैं कौन हूँ ? मैं वो, जो सबकी सेवा करता है। अरे मैं पोप हूँ, अरे मैं मदर टेरेसा हूँ। मैं सबकी बड़ी मदद करता हूँ।” बड़ा अच्छा लगता है कहने में कि “मैं कुछ हूँ”। एक तरह का दम्भ है ये। “देख, मैंने तेरे लिए अपनी ज़िन्दगी कुर्बान की है।” कितना अच्छा लगता है बोलने में न? “भाई, तेरे लिए मैंने इतना कुछ किया और तू दगाबाज़ निकला, जा!” बड़ी सही अनुभूति होती है न। होती है कि नहीं होती है?
(सभी हँसते हैं)
“पूरी दुनिया ही कमीनी है, मैं ही अकेला संत हूँ। ये सब तो क्या हैं- धोखेबाज़, बेवफ़ा। जाओ, हमने तुम्हें इतना कुछ दिया और तुमने हमें कुछ नहीं दिया?”
देने की ये जो भावना है, इसमें बड़ा अच्छा लगता है। पर ये बस भावना-ही-भावना है। और कुछ नहीं है इसमें। स्व ही सब कुछ है। स्व जड़ है और सेवा फूल है। अब समझ में आ रही है बात? स्व जड़ है और सेवा उस पेड़ का फूल है। सेवा वहीं होगी जिस पेड़ की जड़ें मज़बूत हैं। जो पेड़ स्वस्थ है उसी पर बड़े प्यारे फूल खिलते हैं, बहुत अच्छे फूल आते हैं। पर अगर तुम ये चाहो कि जड़ें तो सड़ी रहें पर फूल तब भी आ जाएँ, ऐसा हो सकता है क्या?
प्र: नहीं।
आचार्य: स्व मूल है, सेवा फूल है। मूल मतलब जड़; स्व पर ध्यान दो, सेवा अपनेआप हो जाएगी। जो भी कोई तुम्हें बताए सेवा ज़रूरी है, मदद ज़रूरी है, सहायता, सेवा ज़रूरी है। उनसे कहना ऐसे सेवा नहीं हो सकती। बीमार आदमी सेवा नहीं कर सकता। ठीक है?