आचार्य प्रशांत: मन सुख की कामना और भोग की इच्छा से ही घिरा रहता है। मन के लिए भोग और वासना, सत्य और प्रेम के स्थानापन्न हो जाते हैं। मन, सत्य और प्रेम का अस्वीकार करता है। कोई चीज़ आपके समक्ष भी हो, तो भी आप उसका अस्वीकार कर सकते हैं। किसी चीज़ को अस्वीकार करने में तो कोई विशेष बात नहीं है न।
कुछ प्रत्यक्ष हो सकता है, तब भी आप उसके होने से इनकार कर सकते हो। तो सुख अपने आप में इतना रमा रहता है, प्रियत्व, प्रिय होने की भावना कि 'मुझे कुछ प्रिय है', ये भावना इतनी रमी रहती है कि ये एक नकली पूरेपन का ऐसा अहसास देती है, कि उसके बाद आपको कुछ लगता ही नहीं कि जीवन में शेष है। कुछ पाने की कोई विशेष इच्छा महसूस ही नहीं होती है। उस दिन बात हो रही थी न कि जीवन अगर मस्त चल रहा है, तो समस्या क्या है। जीवन मस्त चल ही रहा है, तो समस्या क्या है? और ऐसा ही है, यही तो माया है।
माया क्या है? माया एक झूठा पूरापन है। माया पूरे होने का एक झूठा अहसास है। झूठा इस कारण है कि नित्य नहीं है, टूटता है। अपने विपरीत पर निर्भर रहता है, तो टूटता है। पर ज़्यादातर लोग क्यों नहीं आध्यात्मिक होते? क्योंकि मन जिस दुनिया में है, सुख की, भोग की, सौन्दर्यकरण की, उसमें कहीं इस अनुभव के अलावा और कुछ है ही नहीं कि जो है, सो पूरा है, और जो पूरा नहीं है, सो पूरा किया जा सकता है। कहीं हमारी हार है, हमारे तरीके अधूरे हैं, इस बात का अहसास ही नहीं आता।
सुख प्रेम को नकारता है, सुख सत्य को नकारता है। मुझे जाहे का आकर्षण है, वही मेरी दुनिया है। दुनिया क्या है? वो सब कुछ जो मुझे प्रिय लगे, वो सब कुछ जो मुझे रुचे, वो सब जिसकी ओर मन खिंचे। और वो या तो उपलब्ध है, और अगर उपलब्ध नहीं है तो मेरे पास साधन हैं जिनसे उन्हें उपलब्ध किया जा सकता है। अगर मेरे पास साधन नहीं हैं तो मुझे कम-से-कम उन साधनों का ज्ञान है। तो वो सब पूरा है न। अब किसी और चीज़ की क्या ज़रूरत है? मुझे जो कुछ चाहिए वो मुझे मिल रहा है। तो इसलिए आपको ऐसे लोग मिलेंगे, जिन्हें विरह की अग्नि, अलग होने की पीड़ा, बोध ना होने का कष्ट, ये कहीं दिखाई देता ही नहीं है।
आप सड़क पर चलते हैं, एक आम आदमी और औरत के चेहरे को देखिए, वो मूढ़ है। पर उस मूढ़ता का कष्ट कहीं उसके चेहरे पर दिखता है? वो खुश है, वो फर्नीचर खरीद कर खुश है। और दुखी होता है जिस दिन, दो नई कुर्सियाँ ला कर घर में रख दो, वो खुश हो जाएगा। तो अब सत्य के लिए जगह कहाँ है? जब सोफा-सेट आपको ख़ुशी दे देता है, तो सत्य की क्या ज़रूरत है। आपके लिए सोफा काफ़ी है। सोफा काफ़ी है। अब वो है ही ऐसा। आवश्यकता क्या है प्रेम की, मुक्ति की? दो-चार इधर-उधर की बातें कर के आप गहन तृप्ति का अनुभव करते हो। ऐसा नहीं है कि आपका मन आपको कचोटता नहीं है। कचोटता है, पर जब कचोटता है तो आपने उसके लिए बड़ी झूठी दवाईयाँ खोज रखी हैं।
प्रश्नकर्ता: और वो आसानी से उपलब्ध भी हैं।
आचार्य: आप टी.वी. खोल कर बैठ जाएँगे ताकि आपको अपनी ओर ना देखना पड़े। लोग घण्टों टी.वी. देखते हैं। आप अपना फ़ोन उठा कर बैठ जाएँगे। अपने मन से ना पूछना पड़े कि तू कितने अन्धकार में है इसलिए दूसरे की ओर देखना शुरू कर दो। किसी का फ़ोन-नंबर डायल कर दो। लोग घण्टों बातें करते हैं, नशा है। प्रेम की कमी है तो अपने आप को और व्यर्थ के धंधों में उलझा लो। अपने आप को बौद्धिक स्तर पर कहीं जोड़ लो, राजनीति की ख़बरों में रस लेना शुरू कर दो, शेयर मार्किट के उतार-चढ़ाव, इन सभी बातों से अपने आप को भर लो। और ये सब क्यों कर रहे हो? क्योंकि जीवन में प्रेम नहीं है।
लेकिन माया का खेल मज़ेदार है। “माया तो ठगनी बड़ी, ठगत फ़िरत सब देस।” शेयर के भाव में उछाल आता है डेढ़ प्रतिशत का और उससे आपको लगता है कि मेरी ज़िन्दगी आज पूरी भर गई। आप नहीं जानते हो कि आपका आँगन सूना का सूना ही है। आप दूसरे के घर में जाते हो और वहाँ पर आतिशबाज़ियाँ छोड़ कर सोचते हो कि आपको कुछ मिल गया। आप दूसरे के घर की व्यर्थ चर्चाओं में शामिल होकर सोचते हो कि आपको भी जीवन में कुछ उपलब्धि हो गई। आपको नहीं दिख रहा है कि आपका अपना घर सूना का सूना ही है। और आपको ये दुनिया-भर के प्रपंचों का आकर्षण ही इसलिए है क्योंकि आप बेईमान हो, क्योंकि आप अपनी ओर नहीं देखना चाहते और आप कमज़ोर हो। आप एक मिथ्या जीवन जी रहे हो और वही जीने का आपका इरादा है। बस, ज़रूरत क्या है?
कष्ट, सत्य की वेदना, जो बड़े सौभाग्यशाली होते हैं, उनको ही उठती है। भूलिएगा नहीं कि वेदना और वेद शब्द का मूल एक है- ‘विद्’। और विद्या का भी वही मूल है। विद्या के साथ है वेदना। बिना वेदना के विद्या नहीं। तो महा-अभागे वो हैं जिनको वेदना उठती ही नहीं अपने जीवन को देख कर। या जब उनको कुछ अपनी वेदना की झलक मिलती है तो कहते हैं कि चलो कपड़े खरीद लेते हैं बाज़ार से। वो कपड़े खरीद कर खुश हो जाते हैं। नहीं दिखता उनको कि रसहीन, प्रेमहीन, मुक्तिहीन जीवन है और फ़र्नीचर , बर्तन और कपड़े खरीद कर तुम्हारा कुछ नहीं होगा, व्यर्थ गया जीवन। पर वेदना उठती ही नहीं।
परम की ऊँची-से-ऊँची अनुकम्पा होती है जिन्हें वो वेदना उठे।
आम आदमी को ऐसी कोई वेदना नहीं उठती, वो मस्त है। वो खुश है, ठीक है वो। अकसर उसके साथ प्रयत्न करना भी व्यर्थ ही है। वो वैसा ही है जैसा चिड़ियों ने बन्दर को बोला था कि भाई घोंसला बना लेते तुम भी, घर बना लेते तुम भी तो यूँ न भीगते। और ऐसा सुनते ही क्या किया था बन्दर ने?
प्र: उनका घोंसला भी तोड़ दिया।
आचार्य: जो इस तरीके के लोग हैं, वो दीवारें पेन्ट करा कर सोचते हैं कि घर बन गया। जिनका घर सूना है, जिनका घर ज़हर बराबर है, वो क्या समाधान निकालते हैं? घर में पेन्ट करा लो। नहीं दिख रहा कि घर में प्रेम की एक बूँद नहीं है, पेन्ट से क्या होगा। पर मज़ेदार है माया, ‘प्रेम’ का विकल्प है ‘पेन्ट ’। हिंसा-ही-हिंसा भरी हुई है जीवन में, पर दिखता भी नहीं। ठीक है, कुछ यहाँ हो नहीं सकता। ऐसों के लिए ही कबीर ने कहा है-
कबिरा तेरी झोंपड़ी, गल कटियन के पास।
जैसी करनी, वैसी भरनी, काहे भया उदास।।
वो अपना भुगतेंगे, अपने किए का भुगतेंगे। तू अपने आप को बचा। ये तो गलकटिये हैं। ये तो अपना करा भुगतेंगे ही, तू अपनी जान बचा कर रख। जैसी करनी, वैसी भरनी। तू इनका कर्म-फल नहीं काट पाएगा। जिन्होंने जीवन ही झूठा जिया है, तू उनका कर्म-फल नहीं काट पाएगा। प्रार्थना ही की जा सकती है। अपना जीवन सत्य में रहे, अपना जीवन प्रेम में रहे, ऐसा ही जिया जा सकता है।
प्र: परन्तु ऐसा भी बताया गया है कि खाली दिमाग, शैतान का घर होता है। तो हमेशा उसको व्यस्त रखना चाहिए।
आचार्य: इससे आपको ये भी स्पष्ट होना चाहिए कि सिर्फ़ इसलिए कि कोई बात परम्परा ने आपको थमा दी है, मुहावरे के तौर पर, लोकोक्ति के तौर पर, तो उसको मान ही ना लें, कि देखो बड़े ज़माने से ये बात कही जाती है, खाली दिमाग शैतान का घर, तो मान लेते हैं। बहुत झूठी बात है ये। बिलकुल ही झूठी बात है। वहाँ ज़ेन गुरु समझा-समझा कर थक गए कि मन को खाली करो, और यहाँ आपको बताया जा रहा है कि खाली दिमाग शैतान का घर है।
भरा दिमाग है शैतान का घर। और हज़ारों इस तरह की बातें, मुहावरे हैं। सही बात तो ये है कि खाली हो जाएँ, थोड़ा स्थिर हो जाएँ तो बड़ी बेचैनी उठेगी। ज़रा-सा अगर रुक कर जीवन को देखें और परखें कि ये चल क्या रहा है, तो ऐसा ताप उठेगा कि उसमें सारे संस्कार जल जाएँगे। पर हम उस ताप को उठने नहीं देते इसलिए ज़रूरी है भागते रहना, इसलिए ज़रूरी है मन को व्यस्त रखना। मौन का क्षण उपलब्ध ना हो जाए किसी भी तरीके से। मुहँ चलता रहे, रेडियो चलता रहे, टी.वी. चलता रहे, विचार चलते रहें। क्योंकि मौन अगर आ गया तो यथार्थ दिख जाएगा।
‘जैसा मैं जिया हूँ, वो यथार्थ तो बड़ा ही कुरूप है। देखते नहीं बनेगा उसकी ओर, इसलिए कुछ करते रहो, व्यस्त रखो’।