प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं एक आध्यात्मिक संस्था से पहले से ही जुड़ा हुआ हूँ, और मैं आपके साथ भी जुड़ा रहना चाहता हूँ। क्या ये सम्भव है कि मैं एकसाथ दो गुरू रख सकता हूँ?
आचार्य प्रशांत: इसी सवाल को आप और आगे बढ़ाएँगे तो आपको ये भी पूछना पड़ेगा फिर कि मैं जो काम करता हूँ, वो कर सकता हूँ क्या; मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ रह सकता हूँ क्या; मैं जिन लोगों से बातचीत करता हूँ, कर सकता हूँ क्या। वो तो सब चलता ही रहेगा, तो उसको आप चाहकर भी रोक नहीं सकते हैं। हाँ, ये ज़रूर है कि अगर आप जैसे सुन रहे हैं, समझ रहे हैं, उससे यदि जीवन में स्पष्टता आयी, तो जो चीज़ें जीवन में नहीं रहनी चाहिए, वो अपनेआप विदा होंगी।
भई! आपके जीवन में ऐसा थोड़े ही है कि दो-तीन आध्यात्मिक संस्थाएँ ही मौजूद हैं, आपके जीवन में पता नहीं क्या-क्या मौजूद है, चौबीसों घंटे कुछ-न-कुछ मौजूद ही है आपके जीवन में। उसमें से बहुत कुछ है जो विदा होना चाहिए, और बहुत कुछ नया है जो आना चाहिए। अगर सत्संग में बल होगा, तो वो सबकुछ जो विदा होना चाहिए, विदा होगा और नवीन का आगमन भी होगा।
भई! आपके कपड़े पर आपको एक दाग दिखायी देता है, तो आप उसको धुलने के लिए डाल देते हैं। जब आप उसको धुलने के लिए डाल देते हैं, तो वही एक दाग साफ़ होता है या जितनी गन्दगी होती है, सब साफ़ हो जाती है? तो अध्यात्म अगर वास्तविक है, तो वो कोई एक विशिष्ट दाग ही नहीं साफ़ करेगा, जितनी गन्दगी है, सब साफ़ कर देगा।
आप तो अभी बस ये पूछ रहे हैं कि वो एक ख़ास मौजूदगी जो मेरे जीवन में है किसी संस्था की, वो बनी रहेगी, नहीं बनी रहेगी। अगर वो वस्त्र की निर्मलता जैसी है, कपड़े की सफ़ेदी जैसी है, तो बनी रहेगी। कितनी भी सफ़ाई कर लो, वस्त्र की शुभ्रता थोड़े ही मिट जाती है, या मिट जाती है? सफ़ेद कुर्ता साफ़ करोगे तो काला थोड़े ही हो जाएगा!
तो जिस संस्था की आप बात कर रहे हो, अगर वो धवल निर्मलता जैसी है आपके जीवन में, तो वो बनी रहेगी, और अगर उसकी मौजूदगी आपके जीवन में दाग-धब्बे जैसी है, तो उसको मिटना पड़ेगा। और एक ही दाग-धब्बा नहीं मिटेगा, मैं कह रहा हूँ, ‘जितने दाग-धब्बे हैं, सब मिटेंगे।’ आप एक को लेकर क्यों सवाल कर रहे हो?
जब आग से गुज़रता है, तो कचरा जल जाता है और सोना निखर जाता है। वास्तविक अध्यात्म तो आग है, उससे जब आपका जीवन गुज़रेगा, तो जीवन में जो कुछ सोने जैसा है, वो और निखर जाएगा, और जीवन में जो कुछ कचरे जैसा है, वो राख हो जाएगा। तो बहुत पूछने-ताछ्ने की ज़रूरत ही नहीं है, कि जीवन में ये रखूँ कि न रखूँ, फ़लानी चीज़ के साथ आगे बढूँ कि न बढूँ। आप जो कुछ पकड़े हुए हो, आप सब पकड़े रहो, और सबकुछ पकड़े-पकड़े आप अध्यात्म की आग से गुज़र जाओ। सबकुछ पकड़े-पकड़े अध्यात्म की आग से गुज़र जाओ। अब जो कुछ बचने लायक़ होगा, वो बच जाएगा और आभावान हो जाएगा, और जो मिटने लायक़ होगा, वो भस्म हो जाएगा। सोच-विचार की ज़रूरत ही नहीं।
मोम के बुत हों और हो संगमरमर, तो अन्तर पता करना बहुत मुश्किल थोड़े ही होता है, थोड़ी आँच दिखानी पड़ती है। थोड़ी आँच दिखाओ, माहौल ज़रा गरमा दो, मोम पिघलना शुरू हो जाता है।
प्र२: आचार्य जी, यहाँ से जाने के बाद अपने परिवार के लोगों को या अन्य परिजनों को अध्यात्म के बारे में कैसे समझाऊँ? वो इतनी सरलता से बात को नहीं समझना चाहते हैं और विरोध करते हैं।
आचार्य: सबको क्यों समझाना है बेटा? अभी भी यहाँ पर सत्र चल रहा है, तो जो लोग सड़क पर घूम रहे हैं, हम उनसे बात कर रहे हैं क्या? तुम लोग भी बाहर गये थे, बीच पर गये थे, तो जो लोग आपस में सुनने को तैयार थे, इच्छुक थे, उनसे ही तो बात कर रहे थे न। जो लोग अपना मौज-मस्ती, राग-रंग में व्यस्त थे, उनसे थोड़े ही तुम बात कर रहे थे, या कर रहे थे?
उनसे तो तुम्हारे औपचारिक सम्बन्ध रहेंगे; कोई दुश्मनी भी नहीं है उनसे, पर कोई आत्मीय या घनिष्ठ नाता भी नहीं है। घनिष्ठ नाते तो सच की बुनियाद पर ही बनते हैं। जो सच सुनने को राज़ी नहीं है, उससे कैसे घनिष्ठता बनाओगे? उसके साथ तो थोड़ा प्रयत्न कर सकते हो, पर अभी अगर उसकी मंशा ही नहीं है सुनने की, तो तुम कर क्या लोगे। तुम्हारे सारे प्रयत्न व्यर्थ ही जाने हैं। तुम बस प्रार्थना कर सकते हो और प्रतीक्षा। पूरे जगत के लिए प्रर्थना करो कि सबमें मुमुक्षा उठे, और प्रतीक्षा करो कि जब आत्म-जिज्ञासा दूसरे लोगों में उठेगी, तब तुम उनका साथ देने के लिए, सहारा देने के लिए तैयार रहोगे।
अक्सर जब तुम कहते हो कि तुम आध्यात्मिक बातें दूसरों में बाँटना चाहते हो या आध्यात्मिक अनुभव दूसरों के साथ साझा करना चाहते हो, तो वास्तव में जो बात होती है, वो क्या होती है, ये सुनो। वास्तव में बात ये होती है कि तुम दूसरों से डरे हुए हो, इसलिए दूसरों की अनुमति लेना चाहते हो। तुम एक साझी राय बनाना चाहते हो, तुम एक कन्सेंसस खड़ा करना चाहते हो, क्योंकि अकेले अध्यात्म की दिशा में आगे बढ़ने में तुम्हें डर लगता है।
तो पाँच दोस्तों का तुम्हारा अगर एक गुट है, और तुम इस सत्संग से वापस जाओगे, तो तुम बड़ी जान लगाओगे कि बाक़ी चार भी, जो कुछ तुमने जाना-समझा है और जिस तरह के तुम्हें अनुभव हुए हैं, वो उन अनुभवों को सम्मान देने लगें, वो तुम्हारी बातों से सहमत होने लगें। ऐसा अगर तुम इसलिए कर रहे हो, क्योंकि तुम्हें उन चार से प्रेम है, तो एक बात होती; पर बात यहाँ आमतौर पर प्रेम की नहीं होती है, बात ये होती है कि तुम अकेले आगे बढ़ने से डरते हो।
तो तुम चाहते हो कि पाँचों में एक साझी राय क़ायम हो जाए, पाँचों एक मिले-जुले निष्कर्ष पर पहुँच जाएँ कि अध्यात्म ठीक चीज़ है, जिससे कि तुम अध्यात्म में भी आगे बढ़ सको और तुम्हें बाक़ी चार की संगति भी न छोड़नी पड़े। और बाक़ी चार समझने से रहे, वो कुछ मानने को तैयार नहीं होते। तो नतीजा ये निकलता है कि उन चार को तो तुम छोड़ोगे नहीं, अध्यात्म को ज़रूर छोड़ दोगे।
सबसे पहले तुम अपने लिए तो ये निश्चित कर लो कि कुछ हो जाए, तुम सच्ची राह नहीं छोड़ने वाले, फिर तुम जाओ दूसरों को समझाने। यहाँ तो तुम दूसरों को समझाने जाते ही इसीलिए हो ताकि दूसरों की अनुमति तुम्हें मिल जाए, तो फिर तुम भी अध्यात्म की तरफ़ बढ़ सको। और दूसरों की जब अनुमति-सहमति नहीं मिलती है, तो तुम भी मन मसोसकर खड़े रह जाते हो।
कि जैसे घर के बच्चे को पिक्चर देखने जाना है, पर दादा जी की अनुमति नहीं मिल रही है, तो वो ये नहीं कर रहा है कि निकल ही जाए और देख ही आये पिक्चर , वो अपनी पूरी ऊर्जा लगा रहा है दादा जी को मनाने में। बात पिक्चर की थी तब तक तो फिर भी ठीक था, पर यही सिद्धान्त तुम अध्यात्म पर भी लगा देते हो, कि जब सर्वसम्मति बनेगी, तब हम अध्यात्म की ओर बढ़ेंगे।
सत्य की ओर सर्वसम्मति से नहीं बढ़ा जाता।
दूसरों को समझाओ, पर इस शर्त के साथ नहीं कि अगर तुम नहीं समझे तो हम भी रुक जाएँगे। तुम कहो, ‘हम तो जा ही रहे हैं, और हम तुम्हें समझा इसलिए रहे हैं कि तुम भी साथ चलो; पर तुम साथ चलो चाहे न चलो, हमारा जाना तो पक्का है। हाँ, प्रेम के नाते, मित्रता के नाते हम ये चाहेंगे कि तुम भी साथ चलो, पर अगर तुम साथ नहीं भी चलोगे तो हम तो जाएँगे। हम जाएँगे, लेकिन हमें दुख होगा अगर हम अकेले जाएँगे तो। चाहते हम यही हैं कि सब साथ जाएँ, तो तुम भी साथ चलो। पर तुम न जाकर हमें नहीं रोक पाओगे, हम तो जाएँगे ही जाएँगे।’ समझ में आ रही है बात? वीटो (मना या अस्वीकृत करने का अधिकार) का हक़ किसी को मत दे देना।
प्र३: आचार्य जी, मन का स्वरूप क्या है? मन है क्या?
आचार्य: मन वो है जिसमें ये पूरापन तुम्हें प्रतीत हो रहा है। ये शब्द, ये विचार, ये भावनाएँ, ये निष्कर्ष, ये सब मन है। तुम पूछ रहे हो मन का क्या स्वरूप है — जितने रूप हैं, वो मन में हैं, यही मन का स्वरूप है। बिना रूपों के मन कहाँ! और मन का तुम पूछो कि अपना क्या रूप है — मन का अपना कोई रूप नहीं है, जितने रूप उसमें डोल रहे हैं, तैर रहे हैं, वही मन का रूप है।
अपना क्या रूप है, स्वरूप क्या है मन का? कुछ नहीं, शून्यता, आत्मा कह लो। मन का स्वरूप आत्मा है। हाँ, मन के रूप अनन्त हैं। स्वरूप कुछ नहीं है, रूप अनन्त हैं। उन सब रूपों को हटा दो तो मन बचता ही नहीं है।
प्र३: आचार्य जी, जब मन नहीं बचता है, तब क्या बचता है?
आचार्य: जब मन नहीं बचेगा, तो ये सवाल भी नहीं बचेगा। जब मन नहीं बचेगा, तो ये सवाल बचेगा? तो क्या बचता है? कुछ ऐसा जहाँ न कोई सवाल होता है, न कोई जवाब होता है।
प्र४: आचार्य जी, अध्यात्म के रास्ते में बुद्धि कितनी उपयोगी है?
आचार्य: बुद्धि तुम्हारा उपकरण है, बुद्धि का उपयोग करते हो। अध्यात्म के शिखर तक जाने के लिए बुद्धि भी उपयोगी है, एक ही रास्ता नहीं है। बुद्धि का रास्ता है, अन्य भी रास्ते हैं। तो बुद्धि की तीव्रता अपनेआप में न लाभप्रद है, न हानिप्रद, वो निर्भर इस पर करता है कि तुम बुद्धि का उपयोग कैसे करते हो।
प्र५: आचार्य जी, उचित कर्म पता करने का क्या तरीक़ा है?
आचार्य: तरीक़ा तो प्रयोग का ही है। और प्रयोग में ये भी शामिल है कि तुम दूसरों द्वारा किये गए प्रयोगों से भी सीख लो। ख़ुद जानो, समझो, परीक्षण करो, और जिन्होंने जिन्दगी में परीक्षण किये हुए हैं, उनकी संगत करो, उनसे सलाह लो। तुम्हें भले ही ये न पता हो कि उच्चतम काम कौनसा है, जिन दस कामों का तुम्हें अनुभव या अन्दाज़ा है, कम-से-कम उनमें तो जानते हो न कि तुलनात्मक रूप से ऊँचे-से-ऊँचा कौनसा है।
दुनिया में कितने तरह के काम सम्भव हो सकते हैं, उनका तुम्हें नहीं पता। तुम्हें कौनसे काम में शान्ति मिल जाएगी, इसका भी तुम्हें नहीं पता। पर आठ-दस-बीस तरीक़े के कामों का तो तुम्हें अपने व्यक्तिगत सन्दर्भ में अनुभव भी है, अनुमान भी है। है न? कम-से-कम उनमें जो ऊँचे-से-ऊँचा हो, उसको चुनो और फिर आगे बढ़ो।
जो तुम्हारी व्यक्तिगत स्थिति है, आगे का रास्ता वहीं से मिलेगा तुमको। और अगर बैठे-बैठे प्रतीक्षा ही करते रहोगे कि ईश-प्रेरणा हो, आकाशवाणी हो, और मुझे पता चलेगा कि मेरे लिए ख़ासतौर पर विधाता ने कौनसा काम निर्मित किया है, तो फिर प्रतीक्षा ही करते रह जाओगे। जो भी कर रहे हो, जहाँ भी हो, वहाँ पर ही देखो कि जितना मुझे पता है, जितनी मेरी सीमित जानकारी है, उसमें कौनसा उच्चतम काम है जो मैं कर सकता हूँ। और ये प्रश्न लगातार पूछते रहो, ताकि कहीं पर भी तुम जमकर खड़े न हो जाओ। फिर और आगे का काम ढूँढो, फिर और आगे का काम ढूँढो। जैसे-जैसे काम आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे तुम्हारी आन्तरिक प्रगति भी हो रही है, वैसे-वैसे तुम्हारा आध्यात्मिक उत्थान भी हो रहा है। शुरुआत तत्काल करो।