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संस्कार किसलिए होते हैं? क्या संस्कार से अहंकार कटता है? || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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संस्कार किसलिए होते हैं? क्या संस्कार से अहंकार कटता है? || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: भगवान श्री प्रणाम। अपनी तरफ़ देखता हूँ, तो समझ में तो आ रहा है कि कंडिशनिंग (संस्कारों) से अहम् का निर्माण है, अगर इसको, कुछ-कुछ हल्की सी झलक भी आने लगी है कि मानसिक स्तर पर नहीं हूँ।

आचार्य प्रशांत: कंडिशनिंग से अहम् का निर्माण नहीं है, कंडिशनिंग से अहम् की साम्रगी है। अहम् के हाथ में जो कुछ है, अहम् के टोकरे में जो कुछ है, वो संस्कारों से बनता है। लेकिन अहम् का होना तो जन्मगत है। जिस क्षण अहम् को लगा ‘मैं हूँ’, उस क्षण वो निर्मित हुआ।

उसका जो निर्मित होना है, वो बड़ी मायावी चीज़ है। कुछ नहीं पता, वो कैसे निर्मित हुआ है। बस उसको ही लगता है वो है। दुनिया ने उसे नहीं निर्मित करा। नहीं तो हम पूरा जो दोष है, किस पर ड़ाल देंगे?

प्र: दुनिया पर।

आचार्य: हाँ, दुनिया ने उसे निर्मित नहीं किया। दुनिया नें बस उसके खाली टोकरी में सामग्री ड़ाल दी है। ‘अच्छा ठीक है, तू ये भी है, तू ये भी है, तू ये भी है। पर ‘तू है’ — मुझे दुनिया ये नहीं जतला सकती कि ‘मैं हूँ’। पर दुनिया मुझे ये ज़रूर जता सकती है कि मैं ‘कुछ’ हूँ । ‘मैं हूँ’, ये तो मैं ही बोलता हूँ, पर ‘मैं महान हूँ,’ ये मुझे दुनिया बोल सकती है, ‘ मैं निकृष्ट हूँ’, ये मुझे दुनिया बोल सकती है। ये कर सकती है दुनिया।

प्र: तो जो आगे चर्चा चल रही थी कि शरीर से उठा है वो अहम्, उसी का चाहे ‘बेटा’ कह दें, उसी से जुड़ा हुआ है, तो ‘स्त्री’ भी हो गया, तो जो मैं समझ रहा हूँ, तो ये शरीर भी प्रक्रिया है? (आचार्य जी ‘हाँ’ में सिर हिलाते हैं) मतलब है नहीं ये? (आचार्य जी ‘नहीं’ में सिर हिलाते हैं) ये चीज़।

आचार्य: वो तो हमनें दावा करना होता है कि ‘हम हैं’ और ‘हम हैं’ — ये तो नहीं बोलेंगे कि हम झूठ हैं। तो हम बोलना चाहतें हैं कि ‘हम’ सच है। सच के साथ एक बात जुड़ी होती है — नित्यता। और नित्यता का संसार में जो सबसे क़रीबी शब्द होता है, वो होता है — निरन्तरता। नित्यता निरन्तरता नहीं है। नित्यता समय से बाहर की बात है और निरन्तरता समय की बात है। लेकिन समय के भीतर, संसार के भीतर नित्यता का पड़ोसी निरन्तरता होती है। तो अहम अपने-आप को निरन्तर रखना चाहता है ताकि ये कहे सके कि वो है, सच है। अपने-आप को निरन्तर बोलने के लिए उसको ये मानना पड़ता है कि ये शरीर भी है। एक कॉन्टिन्यूअस थिंग है। जबकि प्रकृति में जो कुछ भी है, वो एक प्रक्रिया मात्र होता है, थिंग्स, वस्तुएँ नहीं होती हैं। इसलिए ज्ञानियों ने वस्तु बस किसको बोला है?

प्र: सत्य को। आत्मा को।

आचार्य: सत्य को। वस्तु तो बस वही है। ये सब तो प्रक्रियाएँ हैं बस। जो लगातार समय में बदल रहीं है, जो चल रहा है लगातार। जो चले, उसको चीज़ नहीं बोलते, उसको प्रक्रिया बोलते हैं न।

जो लगातार बदलता रहे, उसको चीज़ कैसे बोलेंगे? ये कुछ है (हाथ में मग को दिखाते हुए) और लगातार बदल रहा है, तो बताइए मैं इसको क्या बोलूँ ये क्या है?

प्र: प्रक्रिया है, प्रोसेस है।

आचार्य: भई, आपके सामने ये टीवी स्क्रीन है, इस पर एक स्ट्रीम आ रही है नम्बर्स की, एक धारा आ रही है अंकों की , इकतीस, तीन, छः-सौ-बारह, एक-सौ-तेरह ऐसे करके नम्बर कट-कट-कट जा रहें हैं, एक धारा तो है पर उसमें जो अंक है, वो लगातार बदल रहा है। आप से कोई पूछे, ‘स्क्रीन पर क्या है?’ तो आप क्या बता पाओगे? आप जो भी बताओगे, वो ग़लत होगा क्योंकि जितनी देर में आपने बताया, वो बदल जाएगा।

वैसे ही संसार की सारी चीज़ें हैं। जितनी देर में मैं इसकी बात करूँगा, उतनी देर में ये बदल गया, तो बताओ ये चीज़ है ही कहाँ? कोई चीज़ हो, इसके लिए वो एक-आध मिनट तो स्थायी हो, यहाँ एक मिनट को भी कुछ स्थायी नहीं है, तो हम कैसे कहें कि कोई चीज़ है? वैसे ही शरीर है, वो भी बदल रहा है

प्र: इसका मतलब अहम् जो नहीं है, अपने को बचाने के लिए प्रक्रिया से जुड़ गया है?

आचार्य: अहम् ने अपने झूठ को सच साबित करने के लिए, प्रकृति जैसी नहीं है, उसको वैसा देखने की कोशिश करता है। उदाहरण के लिए मुझे घोषित करना है कि मैं दुनिया का सबसे अमीर आदमी हूँ, तो मेरी एक पुरानी खटारा, पचाड़ा एम्बेसेडर पड़ी होगी, मैं उसकी रंगाई-पुताई करके उस पर लोगो लगवा दूँगा ‘रोल्स रॉयस’ का। अगर मुझे अपना झूठ क़ायम रखना है, तो मुझे ‘जो मेरा है’, उसका झूठ भी क़ायम रखना होगा।

नहीं समझे? क्योंकि मेरी पहचान ही किससे है?, जो मेरे कटोरे में है। मुझे अपना झूठ अगर बचाना है, अहम् को अपना झूठ बचाना है, तो ‘मम’ का झूठ भी क़ायम रखना होगा। तो मैं जो ये एम्बेसेडर है, उसको मैं कहूँगा, ‘ये एम्बेसेडर थोड़े ही है, रोल्स रॉयस है।’

बहुत सारे ऑटो वाले, थ्रीह्विलर वाले ये करतें हैं, वो अपने थ्रीह्विलर के पीछे मर्सिडीज का लोगो लगा देते हैं। उसके पीछे मनोविज्ञान है, उसको समझना पड़ेगा। मुझे अपना झूठ बचाना है, तो जो मेरी चीज़ है, उसका झूठ... बात समझ रहें हैं न?

अब पत्नी को आप बोलें ‘रानी,’ आप जान नहीं रहे, आप क्या करना चाहते हो?

प्र: राजा बनना चाहते हो।

आचार्य: आप राजा बनना चाहते हो। (श्रोतागण हँसते हैं) सोचो तो, वरना क्यों होता कि सब तरफ़ ऐसा ही होता है। हिन्दू होगा , तो उसे ‘रानी’ बोलेगा, मुसलमान होगा, तो बोलेगा ‘बेगम।’ अब वो एकदम फटेहाल है पर बोल रहा है, ‘बेगम।’ वो ‘बेगम’ क्यों बोल रहा है? ‘हम बादशाह हैं।’ वो रानी है, तभी तो हम राजा होंगे।

तो हमें कुछ सच दिखाई नहीं देता प्रकृति का, यथार्थ हम देख ही नहीं पाते। क्यों कि प्रकृति का यथार्थ देखने के लिए, जैसा कृष्ण बोलते हैं, ‘निर्मल इंद्रिय’ होना ज़रूरी है। हमें भीतर झूठ बचाकर रखना है, इसलिए बाहर हम झूठ की लीपा-पोती करते हैं।

प्र: एक अभी चर्चा चल रही थी कि एंड्स एंड मिंस — ‘लक्ष्य और साधन’ अलग-अलग हैं, लेकिन अभी मैं कृष्णमूर्ति साहब को पढ़ता हूँ, तो वो कहीं-कहीं कहतें हैं, ’मिंस एंड एंड्स आर वन। वह्न यू विल नो मिंस एंड एंड्स आर वन .... (साधन और लक्ष्य एक ही हैं। जब तुम ये जानोगे कि साधन और लक्ष्य एक ही हैं तो...)

आचार्य: वो वाली बात सन्तों ने भी बोली है। उसका आशय ये होता है कि इतना गहरा सर्मपण हो लक्ष्य को कि लक्ष्य ही रास्ता बन जाए। उसको ऐसे समझाया जाता है कि आप बिल्कुल अन्धेरे में हैं, बिल्कुल अन्धेरे में हैं, सागर में हैं और आपको दूर कहीं लाईट हाउस दिखाई दे गया, आपको कुछ और नहीं दिख रहा है, बस वो वहाँ ऊँची चमकती हुई रोशनी दिख रही है, वो जो रोशनी है, वही आपका लक्ष्य है, और वही जो रोशनी है, वही अब आपका रास्ता भी बनेगी न। आपका रास्ता क्या है? वो जो रोशनी से आप तक की सीधी रेखा है और वही सागर को भी आलोकित कर रही है, वो सीधी रेखा। वहाँ रोशनी है, तो उतने हिस्से में उसी सीधी रेख में सागर भी आपके लिए प्रकाशित हो जाएगा। तो जो लक्ष्य है, वही मार्ग भी बन गया। वो जो लक्ष्य है, वही मार्ग भी बन गया।

ये उस स्थिति में है, जब लक्ष्य से आपको अनन्य प्रेम हो जाए, कुछ और दिखाई ही न दे। साध्य से ऐसा प्रेम हो जाए कि आपको साधन भी दिखाई न दे। आप कहो, ‘साधन भी अगर साध्य स्वयं बनता है, तो स्वीकार है।’ अनन्यता है। साध्य के अतिरिक्त हमें और कोई अब दिखाई देता ही नहीं, तो साधन भी किसको बनना पड़ेगा?

प्र: साध्य को।

आचार्य: साध्य को ही बनना पड़ेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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