समाज द्वारा संस्कारित मन निजता से अनछुआ || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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समाज द्वारा संस्कारित मन निजता से अनछुआ || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: ये बात बिल्कुल ठीक है कि आदमी से आदमी का संबंध होता है और उसी का नाम समाज है| पर असल में ऐसा होता कहाँ है? मैं और आप मिलते हैं, तो हम व्यक्तियों की तरह कहाँ मिलते हैं? मैं होता हूँ, आप होते हैं और समाज होता है| हम ये समझ ही नहीं पाते हैं कि मैं और आप ही हैं| उसमें समाज जैसा कुछ है ही नहीं| पर वो सिर्फ़ उनके लिए है, जो वास्तव में, इंडिविजुअल ही हों| जो वास्तव में इंडिविजुअल ही हों|

जो इन्फ्लुएंसड (संस्कारित) मशीन हैं, वहाँ पर दो नहीं, तीन चीजें हो जाती हैं | मशीन से मशीन मिलती है, तो वहाँ पर दो इकाइयाँ नहीं हैं, वहाँ पर तीन इकाइयाँ हो जाती हैं| इंडिविजुअल से इंडिविजुअल मिले तो सिर्फ़ दो इकाइयाँ रहेंगी| पर जब मशीन से मशीन मिलती है तो तीन हो जाती हैं|ये तीसरी इकाई क्या है? ये तीसरी इकाई है, उन दोनों का मालिक| उसको आप जो भी बोलना चाहें, बोल दीजिये|

रमण महर्षि उसी की ओर इशारा कर रहे हैं| जब बार-बार कह रहे हैं कि “सोसाइटी की इम्पोर्टेंस है” तो वो बार-बार कह रहे हैं कि हम और तुम तो ठीक हैं, पर हमारा मालिक भी तो है| और वो मालिक के रूप में किसी इंटेलिजेंस (बोध) की बात नहीं कर रहे हैं| वो कंडीशनिंग की बात कर रहे हैं कि “हम और तुम और साथ में जो तीसरी बैठी है, उसकी भी तो बात करो| वो जो कंडीशनिंग है|”

जब दो इंडिविजुअल्स मिलते हैं तो सिर्फ़ दो लोग होते हैं| मैं मिला तुमसे तो मैं हूँ और तुम हो| पर हम ऐसे नहीं मिलते| हम मिलते हैं – मैं मिला तुमसे और साथ में धर्म भी बैठा हुआ है, साथ में हमारा अतीत भी बैठा हुआ है| साथ में ये बैठा हुआ है कि तुम कैसे आर्थिक पृष्ठभूमि से हो और मैं कहाँ से हूँ|

श्रोता: उम्मीदें|

वक्ता: सबकुछ| बहुत कुछ है जो साथ में बैठा हुआ है| उम्मीदें तो तुम फ़िर भी एक बार कह दो कि “भाई मेरी मर्ज़ी है, रखूँ न रखूँ”| पर तुम देखो ना, मालिक कितने बैठे हुए हैं| तुम किसी से मिलते हो, क्या उससे कभी भी व्यक्ति की तरह मिलते हो? और वही बात यहाँ कही गयी है| अब ये भोलापन है कि समझ में भी नहीं आ रहा कि क्या कह दिया| पर जो बात बोली है, वो सौ टका सही है हमारे संदर्भ में| हम ऐसे ही मिलते हैं किसी से|

तुम जब किसी से मिलते हो, तो उससे व्यक्ति की तरह कहाँ मिलते हो| तुम उससे ऐसे मिलते हो कि “ये तो मेरा भाई है, कि पति है, कि यार है, या कोई अनजाना है, या माँ है”| आदमी और आदमी कहाँ मिल पाते हैं? एक आदमी होता है और दूसरा आदमी होता है, और इन दोनों से बहुत ज़्यादा ताक़तवर एक समाज, एक मालिक बैठा होता है| जो इस बात को फ़ैसला कर रहा होता है कि ये दोनों आपस में कैसे सम्बंधित होंगे| तो जो संबंध हैं, वो दो व्यक्तियों के बीच में तो कभी होते ही नहीं हैं| वो तो दो धारणाओं के बीच में होते हैं, दो मशीनों के बीच में होते हैं| दो मशीन आपस में पूर्व-निर्धारित तरीके से कोई संबंध स्थापित कर लेती हैं| निश्चित रूप से ये इंडिविजुएल्टी तो नहीं है| और इसी बात को आप समाज की महत्ता बोलते हो, और समाज का आविष्कार भी इसीलिए हुआ है|

जिस आदमी ने कभी भी समझा है – और ये समझ का पहला पायदान है, ये कोई बहुत ऊँची बात नहीं हो रही है – उसने हमेशा ये जाना है कि समाज कुछ होता नहीं| सनातन धर्म बोलता है कि “अहम् विश्वं” | आप तो सिर्फ़ समाज की बात कर रहे हैं, सनातन धर्म तो कहता है कि “विश्व भी कुछ होता नहीं”| “अहम् एव सर्वम – मैं ही सब कुछ हूँ”| उसको समाज कहीं नहीं दिखायी पड़ता है| समाज कल्पना है, एब्सट्रेक्नश | समझने वाला पहली चीज़ यही समझता है कि व्यक्ति होता है, चेतना होती है| समाज की कौन-सी चेतना होती है? समाज में चेतना होती है? समाज में चेतना होती है क्या? व्यक्ति है वास्तविक और मूलभूत| और समाज है, पूरे तरीके से काल्पनिक| उसी को आगे बढ़ाकर कह दिया गया है कि विश्व भी काल्पनिक ही है| तुम ही हो, बाकी सब काल्पनिक है, बाकी सब काल्पनिक है| लेकिन जिसने समाज को बड़ा समझ लिया, अब उसके लिए उसका होना काल्पनिक हो जाता है| अब समाज सत्य है उसके लिए और उसका होना काल्पनिक है|

श्रोता: पेंटर को लग रहा है कि उसकी पेंटिंग सच्ची है|

वक्ता: पेंटिंग सच्ची है और अब उसे उस पेंटिंग के अनुसार अपना जीवन बिताना है| समझने का यह पहला सूत्र है, ये एकदम गाँठ बाँध लो, जितनी गहराई से इसको देख सकते हो, पूरी जान लगाकर समझो इसको – समाज नहीं है, दुनिया भी नहीं है – तुम हो | और इसीलिए संबंध इतनी ज़रूरी चीज़ है| मेरे संबंध मेरे होने पर निर्भर कर रहे हैं या किसी मालिक के निर्देशों पर? किसी मालिक ने बता दिया है कि अब तुम्हारी उम्र हो गयी है तो ये सब कर लो| किसी मालिक ने बता दिया है कि जीवन इस-इस तरीके से जिया जाना चाहिए| पूरी दुनिया, छोटे-से-छोटा व्यक्ति भी तुम्हारा मालिक बनकर बैठा हुआ है| तुम्हारा ‘अपना’ कुछ है नहीं, सब बाहर से सीख रहे हो लगातार|

दूसरों को देखते हो और जो प्रतिक्रिया उठती है, उसको तुम ‘अपना’ बोलने लग जाते हो| तो वो तुम्हारी कैसे हो सकती है? वो भी पूरे तरीके से बाहरी है| प्रतिक्रिया क्या उठनी चाहिए, ये भी तुमने बाहर से ही सीखा है| अब ये दोनों बड़ी मज़ेदार बात हैं| प्रोत्साहन (स्टिमुलस ) भी बाहर से आ रहा है और जो अभिकारक (रिएक्टंट ) है, वो भी बाहरी ही है| तुम ये भी नहीं कह सकते कि स्टिमुलस बाहर से आया, पर मेरे भीतर का कुछ था जिसने प्रतिक्रिया (रिएक्ट ) की| बुद्ध यही बात समझाते-समझाते मर गए कि तुम्हारे भीतर ऐसा कुछ है ही नहीं| ‘अनत्ता’ इसी का नाम है कि तुम नहीं हो | तुम नहीं हो | जिसको भी तुम अपना समझते हो, वो तुम्हारा नहीं हैं| ‘*नो-सेल्फ*‘ यही है, और कुछ नहीं है ‘नो-सेल्फ’ – तुम नहीं हो| जिस किसी को भी तुमने अपना माना है, वो तुम नहीं हो, वो बाहरी ही है, वो सामाजिक है| और बाहरी होने का अर्थ यही है कि वो सामाजिक है| समाज ने तुम्हारे भीतर बैठा दिया है|

श्रोता: उदाहरण के लिए, अभी दो साल की लड़की से मिली| तो वो जिनको माँ-बाप बोल रही है, वो असली में माँ-बाप नहीं हैं| उसको ये बताया नहीं गया है|जब वो पैदा हुई उसी समय उसे ले गए थे और उसको अपना नाम दे दिया| और ये बात बस उसकी असली माँ को ही पता है|

वक्ता: आप मेरे ख्याल से चूक कर रहे हो| अगर उसको बता दिया जाये कि उसके तथाकथित असली माँ-बाप कौन हैं, तो क्या वो कंडीशनिंग नहीं होगी?

श्रोता: वो भी वही होगी|

वक्ता: तो क्या फ़र्क पड़ता है? एक छोटा बच्चा है दो साल का, उसको आप ये बोलो कि “ये हैं जीवन में तुम्हारे महानुभाव” या ये बोलो कि “वो हैं तुम्हारे महानुभाव”| फ़र्क क्या पड़ता है? लेकिन देखिये, चूक देखिये हमारी, हमने कहा असली नहीं है, तो यहाँ असली से क्या अर्थ है हमारा?

मालिक बदलते रहें, इससे क्या ग़ुलामी बदल जाती है? मालिकों के बदलने से क्या ग़ुलामी बदल जाती है? फैक्टर ऑफ़ कंडीशनिंग के बदलने से, क्या फैक्ट ऑफ़ कंडीशनिंग बदल जाएगा? फैक्टर ऑफ़ कंडीशनिंग बदल गया, पहले ये मुझे कंडीशन कर रहा था, अब कुछ और कर रहा है| इससे क्या फैक्ट ऑफ़ कंडीशनिंग बदल सकता है? ड्राईवर के बदलने से, क्या गाड़ी बदल जाएगी? वो तो अभी भी किसी और के निर्देश पर चल रही है, किसी और के|

श्रोता: सर, ये चीज़ें बहुत क्लियर हो जाती हैं कि इंसान हैं, इंडिविजुअल हैं और समाज है| सबका रिश्ता समझ में आ जाता है| पर अंत में ये पता चलता है कि समाज हमारे लिए नेसेसरी ईविल (आवश्यक बुराई) है|

वक्ता: किसके लिए आवश्यक है?

श्रोता: इंडिविजुअल के लिए|

वक्ता: कैसे? वो इंडिविजुअल क्या है? वो कैसा इंडिविजुअल है, जिसके लिए तुम कह रहे हो कि समाज जरुरी है?

इंडिविजुअल के लिए कुछ भी आवश्यक नहीं होता, उसकी इंडिविजुएलिटी के अलावा| तो जिसको तुम बोल रहे हो कि जिसके लिए आवश्यक बुराई है, वो ख़ुद एक सामाजिक उत्पाद है| सिर्फ़ एक सामाजिक उत्पाद के लिए समाज एक आवश्यक बुराई है| इंडिविजुअल के लिए नहीं है, न आवश्यक, न बुराई| तो अभी जो बोल रहा है, वो सामाजिक उत्पाद बोल रहा है, इंडिविजुअल नहीं बोल रहा|

जैसे हमारे छात्र कई बार आते हैं, उनके लिए माँ-बाप भगवान के समान होते हैं| सिखाया किसने? माँ-बाप ने ही| तब तो बड़ी गड़बड़ हो गयी| समाज बड़ा आवश्यक है, सिखाया किसने? समाज ने ही| तो ये कौन बोल रहा है? सामाजिक उत्पाद बोल रहा है| और कौन बोल रहा है? जो सामाजिक उत्पाद न हो, वो ये बोलेगा क्यूँ?

श्रोता: तो सर इसका विकल्प क्या है?

वक्ता: विकल्प बहुत जल्दी न पूछें| पहले विकल्प हटाइए, फ़िर देखिये, वाक्य में क्या बचता है| ये न पूछिये कि “विकल्प क्या है?” पूछिये, “क्या है?” पहले देखिये कि है क्या| विकल्प अपनेआप निकल के आ जायेगा| ये वैसी ही बात है कि “बीमारी का विकल्प क्या है? बीमारी का क्या विकल्प है? बीमारी का क्या विकल्प होता है? स्वास्थ्य | ये मत देखिये कि विकल्प क्या है, ये देखिये कि अभी स्थिति क्या है हमारी| पहला कदम था – एक प्रत्यक्ष एहसास कि “मैं पकड़ा गया हूँ, पीड़ा में और कंडिशन्ड (संस्कारित) हूँ”| विकल्प की तलाश हमें बहुत जल्दी रहती है| और विकल्प की तलाश और कुछ नहीं करेगी, बस यही करेगी कि जैसे-ही मैं विकल्प बताऊँगा, आप तुरंत तुलना करेंगे कि “मेरी वर्तमान स्थिति और इस विकल्प में क्या नफ़ा-नुक़सान बैठ रहा है”| थोड़ा इधर से लो, थोड़ा उधर से लो, और अच्छा-सा, बढ़िया गुलदस्ता तैयार कर लो, जिसमें गेंदा भी हो, गुलाब भी| ‘बेस्ट ऑफ़ ऑल द वर्ल्डस’| बड़ी दिक्कत है, मन देखिये ऐसे ही करता है|

श्रोता: मेरे ख्याल से उसका जो कहना था कि इंडिविजुअल का मन कभी टुकड़ों में नहीं होता| मन तो टुकड़ों में है और समाज एक टुकड़ा है| पर अगर आप एक इंडिविजुअल हैं, तो आपका मन फ़्रैगमेन्ट्स (टुकड़ों) में रहेगा ही नहीं|

वक्ता: वास्तव में, ये जो ‘समाज’ शब्द है, हर चीज़ अपने में शामिल कर लेता है| वो भीतर से हज़ारों टुकड़ों में हो सकता है| सामाजिक का मतलब ही है – दूसरे| जो भी मन में है, असल में बाहर से आया हुआ है| समाज का मतलब ही है टुकड़े, क्योंकि वो दूसरे भी कभी एक नहीं होते| आपको पता भी नहीं है कि इन फ़िल्मों ने आपके दिमाग में कितना कुछ भर दिया है| आप हँस लेते हो किसी बेवकूफ़ी की फिल्म पर, आपको नहीं पता होता कि साथ-ही-साथ वो आपको कंडीशन्ड कर गयी है| अपना काम कर गयी है वो| अपना काम कर गयी है| आपको नहीं पता होता कि आप जिन दोस्तों-यारों की शादियाँ अटेंड कर रहे होते हो, आप भले ही वहाँ जाकर हँस लो, पर असल में आप दुःख को आमन्त्रण दे रहे हो| और ऐसे कई लोग होतें हैं, जिनको बड़ा शौक होता है दोस्त-यारों की शादियाँ अटेंड करने का| कोटा भागेंगे, आगरा, मथुरा, चंडीगढ़ और सब जगह जा-जाकर वो शादियाँ अटेंड करेंगे और उन्हें नहीं पता कि वो ज़हर पी रहे हैं, उन्हें नहीं पता| उनके पास और चीज़ों के लिए समय हो न हो, यहाँ (अद्वैत-स्थल ) तक आने में उन्हें बड़ी दिक्कत हो जाती है, पर कोटा जाकर शादी अटेंड ज़रूर कर आएँगे| उन्हें नहीं पता कि वो दिन-रात ज़हर ही पी रहे हैं|

तुम कहाँ होकर आ रहे हो? (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए)

(व्यंग्य कसते हुए) या शेख़, अपनी-अपनी देख| इस हमाम में, सब नंगे हैं|

श्रोता: सर, वो जो आप सामाजिक उत्पाद के बारे में बोल रहे हैं, उसी सन्दर्भ में एक लाइन कही गयी है कि “*द इंडिविजुअल हु इज़ नॉट ए मेम्बर ऑफ़ द सोसाइटी इज़ आइदर अ बीस्ट और गॉड*“| (जो इंडिविजुअल समाज का हिस्सा नहीं है, या तो वो जानवर है, या भगवान)

वक्ता: किसने कही है बेटा?

(सभी श्रोता हँसते हैं)

सोसाइटी ने ही तो कही है| तुम कब कुछ कहोगे? अपना भी कुछ है?

श्रोता: ये संस्कारित आदमी का वक्तव्य है|

वक्ता: तो जो संस्कारित है वो इंडिविजुअल के बारे में कैसे कुछ बोलेगा कि “आइदर अ बीस्ट और गॉड”| हमें तो ये भी नहीं पता कि जानवर क्या है और भगवान क्या| हम बातें कैसी कर रहे हैं? भगवान की हमारी परिकल्पना भी हमें समाज द्वारा प्रदान की गयी है| हमने सोख लिया है बस| देख रहे हो मामला कितना गोल है|

श्रोता: सर, पूरी बात अंत में इस पर आ जाती है कि ‘वाॅट शुड बी’ एंड ‘वाॅट इज़’ (‘क्या होना चाहिए’ और ‘क्या है’) |

वक्ता : ‘शुड बी’ फाॅर हूम ? ‘होना चाहिए’ किसके लिए? क्या होना चाहिए? जब तक ये मूलभूत सवाल नहीं करोगे, तब तक परेशानी रहेगी| तुम्हारे शुड्स इस पर निर्भर करते हैं कि तुम हो कौन| मैं छात्र हूँ, तो मुझे क्या होना चाहिए? सफ़ल| मैं एक आज्ञाकारी बेटा हूँ, तो मुझे क्या होना चाहिए? तुम कौन हो? जो तुम अपनेआप को परिभाषित करोगे उसी अनुसार तुम्हारे जीवन में वरीयतायें बन जानी हैं| जो तुम्हारी अपनी परिभाषा होगी कि “मैं ये हूँ”, उसी के अनुसार जीवन में तुम अपना एक पदक्रम बना लोगे| ये मेरी वरीयतायें हैं| तो ये किसके लिए ‘*शुड*‘ की बात कर रहे हो?

किसके लिए? अब रमण की आत्मा यहाँ आस-पास घूम रही होगी, उन्हें मज़ा आ गया होगा| वो गाने लग गए होंगे, ‘कोहम’, ‘हु ऍम आई?’ (मैं कौन हूँ?)|

ये तुम्हारे सामने से खुलती हुई दो राहें नहीं हैं कि ‘वाॅट शुड बी’ एंड ‘वाॅट इज़’| अभी ये तुमने ऐसे कहा कि जैसे हम यहाँ पर बैठकर जैसे किसी सिद्धांत की चर्चा कर रहे हों| हम यहाँ बैठकर किसी सिद्धांत की चर्चा नहीं कर रहे हैं कि अभी ऐसा है और आइडिअलि (आदर्श रूप में) होना ऐसा चाहिए| हम यहाँ आइडिअल्स की चर्चा नहीं कर रहे हैं| तुम्हारे मन में जो मॉडल बन रहा है ना, वो ये है कि “मैं किसी दोराहे पर खड़ा हूँ| एक राह इधर को फूट रही है और एक उधर जा रही है (हाथों से दो दिशाओं का इशारा करते हुए) | एक ‘इज़’ है और एक ‘शुड बी’ है| तो कौन-सी ज़्यादा ठीक है? और दोनों में क्या कुछ तुलनात्मक अध्ययन कर लें?”

यहाँ मामला कुछ और ही है| यहाँ बात उन दो राहों की नहीं हो रही है| यहाँ बात उस राही की हो रही है| क्योंकि राही जैसा होगा, उस अनुसार से राह तो अपनी वो चुन ही लेगा| एक रास्ता होता है ना –

“एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा

मैं कहाँ जाऊँ, होता नहीं फ़ैसला|”

तो तुम जो हो, उसके हिसाब से तुम देख लोगे कि उसके घर की ओर जाना है या मयक़दे की ओर जाना है| तुम हो क्या, पहले ये तो देखो ना! कंडिशन्ड उत्पाद, सामाजिक उत्पाद? या फ़िर कुछ और?

करना क्या है? ये कभी महत्वपूर्ण सवाल था ही नहीं, कभी नहीं| ‘कौन कर रहा है?’, यही असली सवाल है| कर्म का जो प्रश्न है, वही बड़ा महत्वहीन होता है| ये सवाल ही न पूछो कि ‘क्या करें?’ लेकिन यही हम पहला सवाल पूछते हैं| सबसे ज़्यादा सुविधापूर्ण सवाल यही होता है| “बुद्धि का इस्तेमाल करने को न बोलें, बस ये बता दें कि क्या करें?” कभी ये प्रश्न मत पूछना| खुद से भी नहीं| बड़ा ही बेवकूफ़ी वाला प्रश्न है, ‘क्या करें?’ जैसे कह रहे थे ना कि एक आदमी आया कि ‘जस्ट लीड अस’| वो यही था कि “छोड़ो यार, सब बातें-वातें, ये बताओ कि करें क्या? काम खत्म करो, सोल्यूशन बताओ”| अब दिक्कत क्या है कि ये वो ‘*सोल्यूशन*‘ है, जो अपने कंटेनर को भी विगलित कर देता है| तो ये सोल्यूशन तुम्हें दें भी तो कैसे दें? किसमें दें? जिसमें भी डालेंगे ये सोल्यूशन, ये उसको ही विगलित कर देगा|

बड़ी दिक्कत है, मरना पड़ेगा और मरना कोई चाहता नहीं|

~ ‘बोध सत्र’ पर आधारित | स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं |

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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