प्रश्नकर्ता: दो चीज़ें मेरे साथ एकसाथ हो रही हैं। एक तरफ तो मन में बेचैनी है कि ज़िंदगी व्यर्थ न चली जाए, तो उस बेचैनी के कारण मैं कुछ सार्थक कर के दिखाना चाहता हूँ। पर जो कुछ करने निकलता हूँ उसमें सफलता माँगता हूँ और सफलता अगर नहीं मिलती तो मन और शरीर सो जाना चाहते हैं।
आचार्य प्रशांत: सफलता पर आज हमने बहुत बातें की उसमें से कुछ बातें दोहराए देता हूँ।
अध्यात्म में फल कर्म के उपरान्त नहीं होता। कर्म ही फल होता है। कर्म ही फल होता है और कर्ता ही कर्म होता है। इस बात पर बहुत-बहुत गौर करिएगा। कर्म के बाद नहीं फल है, कर्म ही फल है और कर्ता ही कर्म है, कर्ता और कर्म में भी कोई भेद नहीं है। तो कर्ता ही फल होता है।
आप कह रहे हैं कि आपको सफलता चाहिए, सफलता नहीं मिलती तो हताश होकर सोने की भावना आती है। आपको क्या पता कि सही फल क्या है? और आप सही फल किसके लिए चाह रहे हैं? अपनी ही भावना के लिए न? आप कह रहे हैं, "मैं तय करूँगा कि सही फल क्या है, मैं तय करूँगा कि उचित परिणाम क्या है, और अगर वो उचित परिणाम मिल गया तो मैं उत्साहित अनुभव करूँगा, और अगर वो उचित परिणाम नहीं मिला तो मैं काम-धाम छोड़कर के, प्रयत्न त्याग करके सोने चला जाऊँगा।" ऐसे नहीं होता।
याद रखा जाता है कि सूक्ष्म फल तो उसी समय तय हो गया जब आप सही कर्ता बने। और सही कर्ता होने का क्या अर्थ होता है? "मैं सारा कर्तत्व परमात्मा के हाथों में सौंप दूँ, वही सही कर्ता हो सकता है तो मैं उसी को कर्ता बन जाने दूँ।" और फिर जो सूक्ष्म अकर्ता हो गया वह स्थूल परिणामों की परवाह नहीं कर सकता। वह कहता है “जो सही होना था वह अब हो चुका है, आगे कुछ गलत हो नहीं सकता, आगे जो कुछ होगा वह सही ही है।”
सही राह पर गलत मंज़िल नहीं आ सकती। और यहाँ तो खेल कुछ ऐसा है कि राह और मंज़िल अलग-अलग भी नहीं होते। सही राह पर प्रतिपल सही मंज़िल खड़ी ही होती है। मंज़िल यहाँ राह के अंत में नहीं होती। मंज़िल यहाँ राह के आदि में भी होती है और मध्य में भी होती है। तो दुनियादारी के नक्शे अध्यात्म में नहीं चलते। यहाँ बस चला जाता है और यह देखा जाता है कि चलने वाला तो ठीक है न। अगर चलने वाला ठीक है तो मंज़िल इत्यादि कि परवाह मत करिए। मैं कह रहा हूँ कर्ता की परवाह करिए, जो चल रहा है उसकी परवाह करिए, क्योंकि कर्ता ही फल है। कर्ता बराबर कर्म और कर्म बराबर फल।
जो काम कर रहा है उसको देखिए। उसके इरादे क्या हैं, उसकी नीयत क्या है, वह पाना क्या चाहता है, उसको परखिए। यह मत देखिए कि उसको मिला क्या, यह पूछिए कि वह है कौन। अगर वह सही है तो उसे जो कुछ भी मिला है सही ही मिला है, फर्क नहीं पड़ता। और अगर वह सही नहीं है तो उसे अगर कुछ अच्छे-से-अच्छा भी मिल रहा है तो बुरे-से-बुरा है। मैं दोहरा रहा हूँ — यह मत पूछिए कि आपको मिला क्या, आप पूछिए कि आप हैं कौन।
कहाँ से सारे आपके कर्म उद्भूत हो रहे हैं? प्रेरणाएँ क्या हैं आपकी? मन का माहौल क्या है?
प्र२: मेरा मन बहुत जल्दी अशांत हो जाता है, तो मन को कैसे शांत किया जा सकता है?
आचार्य: इससे (चाय की प्याली से) प्यार है तुम्हें, कोई छीनकर ले जाएगा तो अशान्त हो जाओगे। इससे प्यार है, कोई छीन ले गया तो तुम अशान्त हो गए, क्योंकि तुम्हारी शांति आश्रित थी इसपर। तो यह छिना तो शांति भी छिन गई। शांति इसपर आश्रित थी न और यह तो छिन सकता है। इस तरह की कोई भी चीज़ छिन सकती है, जहाँ भी कोई चीज़ होगी उसे समय, संसार छीन सकते हैं। अब तुम्हारी शांति अगर इसपर आश्रित है तो इसके साथ-साथ शांति भी छिन जाएगी। शांति तुमने इसके अंदर डाल दी है। तुम कह रहे हो शांति तो इसी में रहती है, तो यह छिना तो साथ में? — भाई कप जाएगा तो कप के भीतर जो चीज़ है वह भी तो चली गई, चली गई न?
तुमने शांति को सीधे नहीं चाहा। तुमने शांति को चाहा ये प्याले के माध्यम से। तुमने कहा, "मुझे यह चाहिए और इसके भीतर शान्ति है।" एक दूसरा मन होता है जो सीधे-सीधे शान्ति को ही चाहता है, बताओ उससे शान्ति कैसे छीनोगे? कोई तुमसे क्या-क्या छीन सकता है? वह तुम्हारी टीशर्ट छीन सकता है, यह प्याला छीन सकता है, वह चश्मा छीन सकता है, बताओ कोई शान्ति कैसे छीन सकता है? शान्ति तो तुमसे कोई तभी छीन सकता है न जब तुमने शान्ति को जोड़ दिया हो अपनी टीशर्ट के साथ। तो फिर टीशर्ट छिनेगी तो साथ में शान्ति भी छिन जाएगी।
तुम एक काम करो तुम शान्ति को किसी चीज़ से जोड़ो ही मत। तुम कहो, "मुझे शान्ति से ही सीधा-सीधा प्यार है। परोक्ष प्यार नहीं है, सरल और प्रत्यक्ष प्यार है। सीधा। मुझे किससे प्यार है? शांति से। अब छीनकर दिखाओ!" जब छिनेगी नहीं तो गुस्सा भी नहीं आएगा। हम चीज़ों से प्यार करने लगते हैं और सोचते हैं चीज़ों से प्यार करेंगें तो शान्ति मिल जाएगी। और जो चीज़ों से प्यार करेगा वह भूल जाता है कि चीज़ तो चीज़ है, टूटेगी, खोएगी, छिनेगी।
अब इसमें चाय रखी हो, टूटा तो कप और बिखर गई चाय, यह तो गड़बड़ हो गई। चाय तो टूटी नहीं थी, टूटा क्या था? कप। और खो क्या दी? चाय। यह तो दो-तरफा नुकसान हो गया, कप तो गया, चाय भी गई। अब यह हो सकता है कप दो कौड़ी का हो और चाय करोड़ों की हो, पर तुमने चाय को आश्रित कर दिया कप पर। तो दो कौड़ी के कप के पीछे तुम करोड़ों की चाय भी गँवा दोगे न? और यहाँ तो बात चाय की नहीं अमृत की हो रही है, इसीलिए तो करोड़ों का है।
तुम दो कौड़ी की चीज़ों में अमृत भर डालते हो। दोनों को संबन्धित कर डालते हो। जिनमें आपस में कोई सम्बंध नहीं, उनमें तुम रिश्ता बैठा देते हो। कहते हो, "शांत मैं तब होऊँगा जब एक नया कप पा लूँगा।" और जब तक कप नहीं पाते तब तक बेचैनी चलती रहती है, चलती है कि नहीं? अब कप हो या कार हो बात तो एक है न? किसी ने कप में बैठा दिया है शान्ति को, किसी ने कार में बैठा दिया है शान्ति को। पर चीज़ तो चीज़ है, जैसे कप चीज़ है वैसे ही कार भी चीज़ है। जैसे कप छिन सकता है वैसे ही कार भी छिन सकती है।
सोचो, कार में तुम्हारी शान्ति बैठी थी, कोई कार चुरा ले गया और कार के साथ-साथ बेचारी शान्ति भी चोरी हो गई। अब सिर धुनो। कार का नुकसान तो छोटा है, उसमें बैठी थी तुम्हारी प्रियतमा, शान्ति। और जो चुराए ले जा रहा है उसे शान्ति से मतलब भी नहीं, वह तो अपनी तरफ से क्या चुरा रहा है? कार। पगले तो तुम थे जो तुमने कार में शान्ति बैठा दी।
चोर को भी शान्ति से मतलब नहीं है। दुनिया नहीं चाहती तुम्हारी शान्ति चुराना। दुनिया तो बस कप चाहती है और कार चाहती है, भूल तुम्हारी है, तुमने कप में क्यों शान्ति बैठाई? तुमने कार में क्यों शान्ति बैठाई? फिर जब कप टूटता है और कार खोती है तो शान्ति भी खो जाती है।
चुराने वाले पर भी कोई इलज़ाम मत रखना, उसने जान-बूझ कर तुम्हारी शान्ति नहीं हटाई है, उसपर गुस्सा मत करो। उसको तो छोटी सी चीज़ चाहिए, क्या? कप या कार। वो तो छोटी बातें हैं, उसको ले जाने देते, शान्ति बड़ी बात है वह नहीं खोती पर तुम्हारा गणित! तुम कहते हो शान्ति बराबर कार, शान्ति बराबर कप। तो फिर छोटी चीज़ खोती है उसके साथ बड़ी चीज़ भी खो जाती है।
जो चाहिए सीधे उससे प्यार करो। कोई माध्यम मत बनाओ बीच में। प्रेम में बिचोलिये अच्छे नहीं लगते। सोचो, किसी से तुम गले मिल रहे हो और बीच में एक और खड़ा हुआ है, कैसा लगेगा? किसी से गले मिल रहे हो और बीच में एक को खड़ा कर रखा है कि इसके माध्यम से गले मिलेंगे। यह तो बात गड़बड़ हो गई। कोई मिल जाए तुमको जो कहे कि गला मुझसे तभी मिलोगे जब एक खम्भे के इस तरफ हम हैं दूसरी तरफ तुम हो। बीच में खम्भा होना ज़रूरी है। यह तो गड़बड़ हो जाएगी न? बीच में किसी को नहीं रखते।
प्र३: अभी हमें पता चला है, बस अभी-अभी कि पुरानी जितनी सारी गड़बड़ियाँ हो रही थी उसके लिए हम ही दोषी थे और बड़ों ने हमें बताया है कि तुम्हारे भीतर परिपक्वता की और अण्डरस्टैंडिंग (बोध) की कमी है। बताइए कहाँ से लाएँ यह सबकुछ?
आचार्य: कहाँ से लाओगी? क्या इरादा है? जो अभी हो रहा है न उसको होने दो। बोध, परिपक्वता यह सब मौजूद होते हैं हमारे भीतर, सोए पड़े होते हैं। समझना।
तुम इस कमरे में हो और यहाँ अंधेरा है और तुम लेटे हुए हो, तुम भी सो रहे हो और यह बिजली भी सो रही है, बत्ती भी सो रही है, ठीक? और तुम्हें कोई आपत्ति नहीं, कमरे में अंधेरा है। फिर कुछ आहट होती है, तुम्हें कुछ खतरा लगता है तो तुम सोती हुई रौशनी को जगा देते हो। तुम जाते हो और बटन दबा देते हो। तो रौशनी सोते से जग पड़ी, उसको तुम कब जगाओगे? जब पहले तुम्हें खतरा महसूस हो।
तो ऐसे ही हमारे भीतर बोध होता है, परिपक्वता होती है, सत्य होता है। वह सब मौजूद होते हैं पर वह सोते रहते हैं, हमें उन्हें पुकारना पड़ता है। पर उन्हें पुकारोगे तो तब न जब पहले तुम्हें पता चले कि तुम खतरे में हो। जब पुकारते हो तो बटन दबाने की देर है पूरा कमरा रौशन हो जाता है और तुम्हें साफ दिख जाता है कि कौन है वहाँ पर। पहले तुम्हें लगे तो कि तुम खतरे में हो।
अगर तुम्हें लग ही नहीं रहा कि तुम खतरे में हो, जीवन व्यर्थ जा रहा है। जन्म ही खतरे में है। तो तुम रौशनी का आह्वाहन कभी नहीं करोगे। तुम उसे जगाओगे ही नहीं। संभावना पड़ी रहेगी रौशनी की और वह संभावना सोती रहेगी। साफ-साफ देखो कि क्या जीवन सार्थक बीत रहा है? पूछो अपने-आपसे कि निर्णयों में स्पष्टता है? चीज़ें समझ में आती हैं? सही-ग़लत का ज्ञान है? और अगर उत्तर ना में आए तो बटन दबा दो। रौशनी जलेगी, चीज़ें साफ दिखाई देने लेगेंगी। निर्णय लेने में मदद मिलेगी। उचित-अनुचित का बोध होगा।
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