सच वो जो कभी छोड़ के न जाए, जो जा सकता उसकी बस चिंता सताए || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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सच वो जो कभी छोड़ के न जाए, जो जा सकता उसकी बस चिंता सताए || आचार्य प्रशांत (2016)

आचार्य प्रशांत: समय को सच मानने का अर्थ है, उस सबको सच कह देना, जो समय में आया और समय में चला जाएगा। मतलब फिर यह जितने पदार्थ हैं, इन सबको सच कह देना। इसमें दिक़्क़त बस एक छोटी सी है कि यह कैसा असहाय सच है, जिसकी मौत हो जाती है। मृत्यु का जो प्रश्न है, वो हमारे सारे सचों को झूठ साबित कर देता है।

जिन्होंने सत्य शब्द कहा, उन्होंने सच को ऊँची-से-ऊँची परिभाषा दी। उन्होंने कहा, "’उससे’ नीचा जो कुछ भी है, हम उसे सच मानेंगे ही नहीं” और उनकी सच की परिभाषा थी, समझिएगा, सच की परिभाषा है यह: “सच वो, जिसकी मौत ना हो।"

जो मर गया, उसे हम सच नहीं मानते। अब तुम जिन भी चीज़ों को समय से जोड़ते हो। वो समय में आती हैं और समय में ही चली भी जाती हैं। क्या तुम्हें अपने इर्द-गिर्द कुछ भी ऐसा दिखता है, जो अमर है? बोलो? क्या तुम्हारी कल्पना में भी कुछ ऐसा है, जो अमर है? नहीं है न?

तो सत्य वो, जो ऊँचे-से-ऊँचा, सुंदर-से-सुंदर, खरे-से-खरा, और असली-से-असली है इसलिए सच सिर्फ़ उसको माना गया है जो धोखा नहीं दे देगा, जो पलक झपकते गायब नहीं हो जाएगा और पलक झपकाने की अवधि कुछ भी हो सकती है। हो सकता है कि सहस्त्रों, वर्षों उसे पलक झपकने में लगते हों। निर्भर करता है, किसकी पलक है! तो जो पलक झपकते गायब हो जाए, जो आज है कल नहीं, उसे तुम सच मानते हो क्या? अपने आम अनुभवों से भी बताओ? उसको तो तुम यही कहते हो कि भ्रम था, धोखा था। हमें लगा और फिर देखा तो पाया नहीं। भासित हुआ और उस पर यकीन किया तो धोखा खाया। कुछ यदि ऐसा है तो उसे सच कहोगे? तो इसलिए समय में जो कुछ है, उसे सत्य नहीं माना गया है। इसलिए संसार, समय दोनों सत्य की छाया माने गए, सत्य का फैलाव माने गए पर प्रत्यक्ष रूप से उन्हें सत्य का दर्ज़ा नहीं दिया गया।

बहुत तगड़ा मन रहा होगा, जिसने सत्य की इतनी कड़ी बल्कि कहिए इतनी संकीर्ण परिभाषा दी। संकीर्ण से मेरा आशय है: ऐसी परिभाषा, जिसकी कसौटी पर कुछ ख़रा ही ना उतर रहा हो। संकीर्ण उस अर्थ में, जिस अर्थ में कबीर कहते हैं कि ‘प्रभु का मार्ग खांडे की धार है’। तो खांडे की धार जितना संकीर्ण, संकरा। समझ रहे हो न? कि उस पर कुछ रखा ही नहीं जा सकता, कुछ टिकेगा ही नहीं। तुम्हारा मन का, जो भी कुछ है वो खड्ग की धार पर टिकेगा ही नहीं न, गिर जाएगा। तो सत्य की भी इतनी ही संकीर्ण परिभाषा दी गई है कि तुम जो कुछ भी सोचते हो, वो उस पर टिकेगा नहीं क्योंकि तुम जो कुछ भी सोचते हो, वो द्वैत में होता है न।

क्या कहा है कबीर ने-‘प्रेमगली अति साँकरी’। प्रेमगली को सत्यगली कह लो। प्रेम सत्य एक है। ‘तामें दो ना समाई’, दो माने द्वैत। सारी सोच द्वैत में होती है इसलिए जो तुमने सोचा, वो कभी सत्य नहीं हो सकता। वहाँ एक के लिए ही बमुश्किल जगह है। एक भी नहीं चल पाता, दो कैसे चलेंगे?

तो अगर आप हल्के आदमी हैं, अगर आप समझौतावादी हैं, तो आप कहेंगे, "कोई बात नहीं, मौसम बदलते रहते हैं, हम तो फिर भी उन्हें सच मानते हैं। कोई बात नहीं, प्रेम आज था कल नहीं है। हम तब भी उसे सच मानते हैं।" और एक दूसरा मन होता है, ज़िद्दी, जो पूरे से नीचे पर समझौता नहीं करता। जो उच्चतम से नीचे पर राज़ी नहीं होता, वो कहता है कि, "लूँगा तो पूरा लूँगा। माँग हमारी पूरे की है। या तो कुछ ऐसा दे दो, जो कभी नष्ट ही ना हो, कुछ ऐसा दे दो, जो अमृत हो, नहीं तो तुम जो दे रहे हो, वो मेरे किसी काम का नहीं बल्कि वो मेरा कष्ट ही और बढ़ाएगा क्योंकि मुझे पता होगा कि वो किसी भी दिन चला जाएगा; गायब हो जाएगा। मैं दिन रात इसी आशंका में जीऊँगा कि क्या पता कब वो, जिसे मैंने सच माना है, वो नष्ट हो जाए। तो ऐसे किसी के साथ हम दिल लगाएँगे ही नहीं, जिसके जाने की आशंका हो।"

"हम उसे सत्य मानेंगे ही नहीं, जो हमारा साथ छोड़ सकता हो। सत्य बस उसे मानेंगे, जो है तो है", और जब कुछ ऐसा मिला, जो है तो है, जो अब जा ही नहीं सकता, तब तुम्हें फिर चैन मिलता है, तब तुम्हें विश्राम मिलता है। तब तुम कहते हो, "अब मैं सो सकता हूँ क्योंकि यह जो मिला है, अब यह खो नहीं सकता। क्योंकि वो खो नहीं सकता, इसलिए अब हम चैन से सो सकते हैं।" जब तक जो मिला है, वो अगर खो सकता है, तब तो तुम उसकी चौकीदारी ही करते रहोगे। और तुम्हारी लाख चौकीदारियों के बावज़ूद भी एक दिन उसे विलुप्त हो जाना है। सो कर उठोगे और पाओगे गायब।

सत्य उनके लिए नहीं है, जो खिलौने से मन बहला लेते हैं।

सत्य उनके लिए नहीं है, जो हल्के-फुल्के बहानों से राज़ी हो जाते हैं।

सत्य उनके लिए है, जो कहते हैं, "या तो पूरा, नहीं तो नहीं चाहिए।"

जो बोल देता है "नहीं चाहिए", उसे मिल जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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