आचार्य प्रशांत: करुणा पिल्लापुरकर का प्रश्न है। ये कह रही हैं कि एक मेरे एक गुरुजी हैं, मैं उनको बहुत मानती हूँ और उन्होंने न कोई ग्रन्थ पढ़ा है और न ही वो किसी ग्रन्थ या किताब को पढ़ने के लिए हम सब लोगों को कहते हैं, लेकिन आप बार-बार कहते हैं कि ग्रन्थ पढ़ने चाहिए। तो मुझे ये बताइए कि जिसने भी, अब इनके शब्द हैं, ‘जिसने भी जगत में पहले ग्रन्थ की रचना की, उसको कहाँ से ज्ञान समझ में आ गया? निश्चित रूप से तो उसने कुछ पढ़ा ही नहीं था।‘
ठीक है?
करुणा कह रही हैं कि आचार्य प्रशांत बार-बार बोलते हैं कि उपनिषदों को पढ़ो, गीता को पढ़ो, वेदान्त को पढ़ो, लेकिन इनके कोई गुरुजी हैं वो कहते हैं, ‘नहीं-नहीं! कुछ पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, ज्ञान सारा यहाँ है, यहाँ-यहाँ (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए)
तो कह रही हैं कि अगर पढ़ना इतना ही ज़रूरी है तो जिन्होंने पहले ग्रन्थों की रचना की, मान लीजिए जिन्होंने उपनिषदों की रचना की, उनको कैसे सबकुछ समझ में आ गया।
बात रोचक है इसको समझेंगे बहुत बढ़िया तरीक़े से, तो करुणा क्या कह रही हैं? करुणा कह रही हैं कि मैं वैसी हूँ, मैं उसके जैसी हूँ जिसने उपनिषद् की रचना की या जिसने वेद की रचना की, क्योंकि उसने तो किसी और को सुना नहीं था।
जब वो रचना कर सकता था उपनिषद् की, बिना किसी और को पढ़े या सुने, तो मुझे भी कुछ पढ़ने या सुनने कि ज़रूरत क्या है? आपने ये क्यों नहीं कहा करुणा कि जिसने उपनिषद् की रचना की अगर वो ये मानता होता कि कुछ पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, तो उपनिषद् की रचना ही क्यों करता? इस बात को आप बिलकुल दबा जाएँगी।
जिसने उपनिषद् की रचना की अगर वो ये मानता होता कि किसी को कुछ पढ़ने कि ज़रूरत नहीं है तो वो उपनिषद् कि रचना क्यों करता? ये सौ, दो-सौ, ढाई-सौ उपनिषद् रचे क्यों गये? और ये उन्होंने ही रचे, जिन्होंने कुछ पढ़ा नहीं था पहले, मैं बिलकुल सहमत हूँ।
बिलकुल रहा होगा कोई पहला ऋषि, जिसका कोई गुरु नहीं था। बिलकुल रहा होगा कोई पहला कवि, कोई लेखक, जिसने कभी कोई ग्रन्थ , कोई किताब पढ़ी नहीं थी, बिलकुल मानता हूँ। लेकिन अगर आप उस व्यक्ति का उदाहरण ले ही रहे हो, माने आप उस व्यक्ति को इतनी मान्यता दे ही रहे हो तो आप ये भी तो देखो कि वो व्यक्ति कह क्या रहा है। वो व्यक्ति ये कह रहा है कि भाई, मुझे किसी ग्रन्थ को पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ी लेकिन मुझे अच्छे से मालूम है कि तुम्हें पड़ेगी, तो तुम्हारे लिए मैं ये ग्रन्थ छोड़कर जा रहा हूँ।’
तो आप कहेंगे कि नहीं, नहीं, नहीं, ये तो वो आदमी ठीक नहीं कह रहा। अगर वो आदमी ये बात ठीक नहीं कह रहा तो उसका उदाहरण क्यों ले रहे हो? आप उसका उदाहरण लेकर के ही मुझे ये साबित कर रहे हो कि जब उसने कोई किताब नहीं पढ़ी, तो मैं क्यों पढ़ूँ? आप उसका उदाहरण ले रहे हो, माने आपने उसे स्वीकार कर लिया, मान्यता दे दी न आपने उसको? जब आपने उसको स्वीकार कर लिया तो फिर वो आपको जो सीख दे रहा है, उस सीख को भी स्वीकार करो न और वो सीख उसने किस चीज़ में लिख छोड़ी है? — अपनी किताब में। वो किताब क्या उसने अपने पढ़ने के लिए लिखी है? वो किताब उसने तुम्हारे लिए लिख छोड़ी है।
तुम कह रहे हो, ‘नहीं, हम उससे इतना तो सीखेंगे कि कोई किताब उसने नहीं पढ़ी पर हम उससे ये नहीं सीखेंगे कि उसने हमारे पढ़ने के लिए किताब लिखी है।‘ ये क्या दोगलापन है? मैं बताता हूँ, ये दोगलापन नहीं है — ये सिर्फ़ अहंकार है। ये बैठा है गुरु (दायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए) और ये रहा शिष्य (बायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए), ठीक? ये कौन ( दायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए) — गुरु। ये रहा — शिष्य (बायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए), हो सकता है कि ये गुरु ऐसा हो जिसने कभी कोई किताब न पढ़ी हो, लेकिन वो भी बस पहला ही गुरु होता है। वास्तव में तो पहले गुरु को आत्मा कहते हैं, उसके बाद तो जितने हुए उन्होंने किसी-न-किसी से सीखा ज़रूर है। पर चलो मैंने तुम्हारी बात, तुम्हारा मन रखने के लिए ये भी मान ली कि ये कोई ऐसा गुरु है, जिसने कभी किसी से कुछ नहीं सीखा, जिसने कभी कोई किताब नहीं पढ़ी और ये है (बायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए)? शिष्य। अब अगर गुरु है तो गुरु कहेगा, ‘मैंने कोई किताब नहीं पढ़ी लेकिन मैं किताब लिख रहा हूँ शिष्य की ख़ातिर’ और अगर शिष्य है तो शिष्य कहेगा, ‘साहब! किताब तो मुझे पढ़नी ही होगी क्योंकि गुरु ने मुझे दी है।’
करुणा आप देख रही हैं कि आप इन दोनों में से क्या बनना चाह रही हैं? आप ये (दायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए) तो बनना चाह ही नहीं रही क्योंकि ये व्यक्ति तो किताब के महत्व को स्वीकार करता है, ये व्यक्ति कह रहा है कि मेरा भाग्य ऐसा नहीं था कि मुझे कोई किताब मिले क्योंकि मुझसे पहले कोई हुआ ही नहीं लेकिन अपने से पीछे वालों की सहायता के लिए मैं किताब लिखूँगा तो ये व्यक्ति (दायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए) तो किताब के महत्व को स्वीकार करता है, करता है न ? गुरु। ये शिष्य है (बायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए) और ये शिष्य गुरु के सामने ही खड़ा है ये गुरु कि लिखी किताब पड़ेगा ही पड़ेगा, बल्कि ये तो गुरु से जीवन्त किताब पढ़ रहा है। गुरु इसे किताब बताता जा रहा है उसी किताब का नाम उपनिषद् होता जा रहा है। तो ये भी (दायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए) किताब के महत्व को स्वीकार कर रहा है।
न आप ये (बायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए) हैं करुणा न आप ये (दायें हाथ में पकड़ी कलम दिखाते हुए) हैं करुणा, आप बताऊँ कौन है? एक दूसरा भी शिष्य है, वो नालायक शिष्य है। उसमे आलस बहुत है, वो भागा हुआ है और उसमे अहंकार बहुत है। वो कह रहा है, ‘पढ़ूँगा-लिखूँगा कुछ नहीं लेकिन मानूँगा मैं अपने आप को गुरु के बराबर।’ मैं कहूँगा, ‘जी, जब इन्होंने कोई किताब नहीं पढ़ी तो हम क्यों पढ़ें।’ ये तुम्हारा अहंकार है कि अजी साहब! जब जो पहला ऋषि था उसने कोई किताब नहीं पढ़ी, तो हम क्यों पढ़े। तुम हो पहले ऋषि के बराबर? तुम्हारी हैसियत है?
सही बात तो ये है कि न तुम उस पहले ऋषि के बराबर हो, न तुम्हारे मन में उस पहले ऋषि के लिए सम्मान है क्योंकि अगर तुम्हारे मन में उसके लिए सम्मान होता तो तुम उसकी लिखी किताब पढ़ते। तुम ये कैसे कह देते कि उसने कुछ भी कहा होगा हम उसे पढ़ना नहीं चाहते।
कृष्ण ने कही होगी गीता, हमें नहीं पढ़नी गीता। ये कृष्ण का बड़े-से-बड़ा अपमान है और ये अपमान तुम इसलिए करे जा रहे हो क्योंकि आज ऐसे गुरु पैदा हो गये हैं, मीडिया (संचार माध्यम) गुरु, पब्लिसिटी (प्रचार) गुरु, महागुरु जो खुलेआम कहते हैं कि साहब! हमने न गीता पढ़ी है, न वेद पढ़ी है, न तुम्हें पढ़ने की ज़रूरत है और तुम तो चाहते ही यही थे क्योंकि पढ़ ली तुमने गीता तो तुम्हारा अहंकार टूटेगा, पढ़ ली तुमने गीता तो तुम जो मिथ्या धारणाएँ लेकर चल रहे हो चकनाचूर होंगी।
तो तुम्हारे लिए बड़े मज़े की चीज़ हुई कि तुम्हें मिल गया है एक ऐसा ही झूठा गुरु जो तुमसे कह रहा है, ‘नहीं! गीता-वीता पढ़ने की क्या ज़रूरत क्या रखी है, सारा ज्ञान तो यहाँ (सीने की ओर इशारा करते हुए) पर है।’ सारा ज्ञान यहाँ (सीने की ओर इशारा करते हुए) होता है लेकिन जिनका होता है, वो लोग अलग थे। ज़मीन पर आ जाओ और अपनी असलियत को स्वीकार करो। हर व्यक्ति पहला ऋषि नहीं हो सकता और इसीलिए ऋषियों ने किताबें लिख छोड़ी, उन्हें पता था कि हर आदमी हमारे जैसा नहीं हो सकता तो तुम्हारी सहायता के लिए, वो किताबें लिख गए।
होते होंगे कुछ लोग ऐसे, उदाहरण के लिए, जिन्हें कोविड के विरुद्ध किसी वैक्सीन (टीका) की ज़रूरत नहीं है।दुनिया में ऐसे लोग हैं जानते हो? उनकी अपनी इम्युनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता) ऐसी है कि उन्हें कोविड लगता नहीं। दुनिया की आबादी का एक वर्ग ऐसा है जिन्हें कोविड लग ही नहीं सकता, उनकी अपनी इम्युनिटी ऐसी है। तुम्हारी ऐसी है क्या? जब तुम्हारी ऐसी नहीं है, तो तुम तो टीका लगवाओगे न। या तुम ये कहोगे कि देखो उसने टीका नहीं लगवाया जब उसे किसी टीके की ज़रूरत नहीं, तो हम टीका क्यों लगवाएँ। अरे! उसे नहीं होगी, तुम्हें है और तुम अलग हो, स्वीकार करो।
एक दिन तुम्हें एक झूठा सिद्धान्त पढ़ा दिया है कि सब आदमी बराबर होते हैं, सब आदमी बराबर होते हैं। अगर उसने अपनेआप कर लिया, तो मैं भी अपनेआप कर लूँगा। नहीं, सब आदमी बराबर नहीं होते, कुछ को होती है ज़रूरत कोविड के टीके की और कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें नहीं होती। तुम कहोगे कि ये तो शारीरिक बात है, मानसिक तल पर तो सब बराबर होते हैं। नहीं, मानसिक तल पर भी सब बराबर नहीं होते, ये जो तुम्हारा सिद्धान्त है समता का, ये बिलकुल झूठा है। ज़मीन पर जाकर के जाँचो, क्या वाक़ई मानसिक तल पर सब लोग बराबर हैं। हाँ, सम्भावना के तल पर सब बराबर हैं, आत्मा के तल पर सब बराबर हैं लेकिन जीवन के यथार्थ के तल पर सब बराबर बिलकुल भी नहीं हैं।
समझ में आ रही है बात?
तो ये बिलकुल मत कहो कि ऊँचे-से-ऊँचे के लिए जो सम्भव था, वो हमारे लिए भी तो सम्भव है। तुम्हारे लिए सम्भव हो सकता है, अगर तुम सही राह चलो और वो सही राह किताबों से हो कर जाती है और ये बहुत विचित्र सी बात है देखो, जो लोग कहते हैं कि किताबों की कोई ज़रूरत नहीं, वो अपनी किताब लिखे जा रहे हैं। वो अपनी किताबों में ही ये कहते हैं, ‘कोई किताब मत पढ़ लेना।‘
ले-देकर तुम्हें दिख नहीं रहा वो क्या कह रहे हैं, वो कह रहे है, ‘मुझे सुनो, पीछे वालों को मत सुन लेना क्योंकि पीछे वालों को सुन लिया तो दिख जाएगा कि मैं चोर हूँ।‘
अगर किसी कृष्ण को तुमने पढ़ लिया तो दिख जाएगा कि मैं तो हूँ चोर! और वही फ़लसफ़ा आप हमें बताने के लिए आ गयी हैं यहाँ पर कि आप कहते हैं कि किताबें पढ़ो लेकिन फ़लाने ने तो कोई किताब पढ़ी नहीं थी। तुम उस फ़लाने के बराबर हो? तुम्हारा इतना चढ़ गया है अहंकार? कह रहे हैं, ‘वो कृष्ण ने गीता बोली थी तो कृष्ण ने गीता तो खुद ही बोली थी न किसी और से पूछकर तो नहीं, तुम कृष्ण हो गईं? तुम्हारी ज़िन्दगी में, गौर से देखो तुम कृष्ण हो?
लेकिन अहंकार की यही बात है न वो एकदम चने के झाड़ पर चढ़कर बैठता है कि मैं भी कृष्ण हूँ। जैसे कृष्ण गीता बता सकते थे, वैसे ही मैं भी कुछ भी बता दूँगा।
वो और, और, और लिख रखा है। पहला नाम तो लिखा है रामकृष्ण परमहंस का। कि रामकृष्ण परमहंस भी तो पढ़े-लिखे नहीं थे। रामकृष्ण परमहंस पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन किताब पढ़ने के लिए अक्षर ज्ञान होना ज़रूरी नहीं है। रामकृष्ण परमहंस दर्जनों लोगों के पास जाकर के शिक्षा ग्रहण करके आये थे, वो उन्होंने किताबें ही पढ़ी ठीक वैसे ही जैसे कि तुम ऑडियो बुक्स (श्रव्य पुस्तक) सुनते हो न, तो वो तुम सुन रहे हो, तो वो बुक नहीं हुई क्या? आजकल ऑडियो बुक चलती है न जहाँ पर किताब तुम सुन लेते हो। तो कुछ लोग किताब पढ़ते हैं, कुछ लोग किताब सुनते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने बहुत-बहुत सारा बोध साहित्य सुना था, सुना था बैठकर के और गुरुओं के चरणों में बैठकर के सुना था, गुरुओं को खोज-खोजकर सुना था।
बुद्ध ने भी तुम्हें क्या लगता है बारह साल जंगलों में क्या करा था? एक के बाद एक गुरुओं के आश्रमों में ही भटकते रहे थे। वो सुन ही रहे थे, पढ़ भी रहे होंगे, अब इस चीज़ का हमें कोई वर्णन, वृत्य, रिकॉर्ड (अभिलेख) मिलता नहीं, तो हम जानते नहीं हैं। फिर लिखाई उस ज़माने में उतनी आसान नहीं थी, जितनी आज है। पर वो भी किसी और की बात सुन ही रहे थे, समझ ही रहे थे, चाहे किताब के माध्यम से, चाहे श्रवण के माध्यम से। आज जब किताब उपलब्ध है, तब किताब न पढ़ना और किताब न पढ़ने के पक्ष में ऊल-जलूल तर्क देना, ये सिर्फ़ अहंकार दर्शाता है और ये विनाश का लक्षण है। मेरी प्रार्थना है आपसे, कि बचिए।