प्रश्नकर्ता: यदि मुझे ही साहब (भगवान) का पता नहीं है, तो मैं दूसरों को कैसे बताऊँगा?
आचार्य प्रशांत: कहा है कि मुझे ही जब पता नहीं है कि साहब कहाँ हैं तो किसी को क्या दिखाऊँ। गौतम ने कहा कि दूसरे को दिखने चलते हैं तो उसकी अपनी ज़िद होती है, अपने आग्रह होते हैं। और इतना सुनिश्चित तो मैं भी नहीं हूँ कि अपनी बात उसके ऊपर आरोपित ही कर दूँ, चढ़ ही बैठूँ। तो फिर मैं छोड़ ही देता हूँ, कि भाई तुम अपनी मर्ज़ी करो, हमें हमारी राह चलने दो। मैंने ठीक समझा आप दोनों की बात?
देखो, मैंने बोला कि दूसरे को द्वार तब दिखाना जब पहले तुम्हें द्वार का स्वयं कुछ पता हो। मैं आभारी हूँ — आप लोगों ने ये सवाल पूछा, इस सवाल के माध्यम से मुझे अपनी बात को आगे बढ़ने का मौका मिल रहा है। हम सब चूँकि परस्पर रूप से जुड़े हुए हैं, इसीलिए साहब तक एकाकी यात्रा हो भी नहीं पाती। साहब तक जाने के लिए बहुत बार ये आवश्यक हो जाता है कि दूसरे के साथ ही जाओ। साथ हमारा तथ्य है, क्योंकि हम सब एक भी हैं और संबंधित भी हैं। कई बार साहब की ओर अगला कदम तुम ले तब पाओगे जब दूसरे को रास्ता दिखाओगे।
आज से 15 साल पहले जब मैंने पढ़ाना शुरू किया तो किसी ने मुझसे पूछा था “पढ़ना क्यों चाहते हो?” मैंने कहा “क्योंकि सीखना चाहता हूँ। दूसरों को रास्ता दिखाऊँगा तो मुझे भी रास्ता ज़रा और साफ़ दिखेगा।” कई बार अपनी मदद करने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा होता है दूसरे की मदद करना। दूसरे को तुम रास्ता दिखाने चलते हो, दूसरे को तुम कुछ बात सुधाने चलते हो और वो विरोध करता है, तर्क देता है।
उसके तर्कों को तुम दूसरे का व्यक्तिगत तर्क मत मान लेना, न उसका विरोध उसका व्यक्तिगत विरोध है। क्योंकि हम सब के मन एक हैं, इसलिए दूसरे का कुतर्क तुम्हारा भी कुतर्क है। दूसरा साहिब की ओर जाने के विरूद्ध जो विरोध दे रहा है, वो विरोध तुम्हारे मन में भी मौजूद है साहिब की ओर जाने के प्रति। मूल अहम् ग्रंथि तो एक ही होती है न?
दूसरे की बात सुनोगे, तुम्हें अपने चित्त का कुछ पता चल जाएगा। दूसरे की बाधाएँ देखोगे तुम्हें अपनी बाधाओं का पता चल जाएगा। इसीलिए जब दूसरे की मदद करोगे कि वो अपनी बाधाओं को लाँघे, तो तुम वास्तव में अपनी भी मदद कर रहे हो। बात समझ में आ रही है?
इसी तरीक़े से कई बार लोगों ने मुझसे पूछा कि आप इतना बोलते हैं, बोलते ही जाते हैं। आपको कैसे पता कि किसी का कोई फ़ायदा होता भी है या नहीं? मैंने कहा “होता हो, न होता हो, मुझे तो होता है? मुझे अपना पता है।” क्योंकि जब मैं बोलता हूँ तो तुम ही थोड़े ही सुन रहे हो? मैं भी तो सुन रहा हूँ। जिस तरीक़े से आप शायद पहली बार सुनते हैं मेरी कोई बात — मैं भी तो पहली बार अपनी ही बात सुनता हूँ। मैं न बोलता तो मुझे भी पता न चलता उस बात का। और अगर उस बात से मेरी मदद हो पाई तो मैं आश्वस्त हूँ कि आपकी भी मदद हो रही होगी। तो ले-देकर आपकी मदद करने की प्रक्रिया में किसकी मदद हो गई? मेरी मदद हो गई।
‘परमार्थ बहुत बड़ा स्वार्थ है’। स्वार्थी होकर तुम एक सीमा से ज़्यादा अपना स्वार्थ पूरा भी नहीं कर पाओगे। और अगर तुम्हें अपने स्वार्थ की वास्तव में फ़िक्र हो तो परमार्थी हो जाना। तुम चाहोगे कि तुम्हारा भला हो, थोड़ा बहुत भला होगा, बहुत सीमित और जो सीमित है वही कष्ट देता है। तो अपना भला करने की प्रक्रिया में अपने आप को कष्ट और दे लोगे। सीमित सुख को ही तो दुख बोलते हैं। और एक सीमा से ज़्यादा अगर अपना भला करना चाहो तो परमार्थ करो, दूसरे का भला करो, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा, तुम्हारा भला हो जाएगा। तुम चाह भी नहीं रहे हो कि तुम्हारा भला हो, और चुपके-चुपके हो गया। तुम्हें पता भी नहीं चला, तुम आगे बढ़ गए। बात आ रही है समझ में?
इंतज़ार मत करिएगा कि जिस दिन मुझे शत प्रतिशत स्पष्टता हासिल हो जाएगी, ओ साथी! उस दिन मैं तुझे राह दिखाने आऊंगा। क्योंकि शत प्रतिशत स्पष्टता कभी हासिल होने नहीं वाली। और दूसरा अगर कोई आपको उलाहना दे, ताने मारे कि अभी तुम्हें ही क्या पता है जो हमें बताने आए हो। तो भी विनम्रता के साथ सर झुका कर कहिएगा कि बात तो तूने बिल्कुल ठीक कही पता तो हमें वास्तव में कुछ नहीं है, इसीलिए तो तेरे पास आएँ हैं, तू भी चल हम भी चलते हैं पता करते हैं। साथ-साथ पता करेंग, बड़ा आनंद रहेगा। न तुम जानो न हम, चलो फिर साथ सनम। अब ये बात मज़ेदार है।
तो ये कह के रुक मत जाना कि अभी जब ख़ुद ही नहीं पता तो क्या बताएँ। मुझे क्या पता है? मैं सोचने लग जाऊँ कि मुझे क्या पता है कि मैं बताऊँगा, तो फिर तो मैं कभी इस द्वार के भीतर ही न आऊँ, मैं बहार खड़ा हो कर सोचूँ कि पता क्या-क्या है और अंशु से कहूँ “अंशु सिलेबस क्या था?” और कोई भी सवाल आउट ऑफ़ सिलेबस नहीं होना चाहिए। पहले से ही बता दो आज सवाल क्या आने वाले हैं और दो दिन दो, पहले तैयारी करेंगे। आधे सवाल तो ख़ारिज करेंगे कि ये तो पाठ्यक्रम से बहार के हैं, ये क्या पूछ दिया?
पर हमें तो पता है कि हम कुछ जानते नहीं। आपके सामने आकर बैठ जाते हैं, आप कुछ पूछते हो, बोल देते हैं। जो बोलते हैं, वो जैसे आप सुनते हो वैसे ही हम सुन लेते हैं। इंतज़ार थोड़े ही करता रहूँगा कि कोई परम दिवस आएगा, जब मैं स्वर्ग पर चढ़ के वहाँ से उपदेश दूँगा। कोई ऐसा परम दिवस आना नहीं है, न कोई स्वर्गारोहण होना है। जैसे आप वैसे हम,आपके सामने बैठ के बात-चीत हो जाती है, और परस्पर लाभ भी हो जाता है — कुछ आपका, कुछ हमारा। आ रही है बात समझ में? ऐसे ही होता है।
ये बहुत बड़ा बहाना बन जाता है, ‘कि अभी ठीक-ठीक जानते नहीं हैं, अभी ज्ञान हमारा किताबी है, जब बिल्कुल ठीक जान जाएँगे, तब अध्यात्म की ओर बढ़ेंगे। अध्यात्म को तो तुम ठीक-ठीक जानते नहीं तो तुमने सिद्धान्त बता दिया कि ठीक-ठीक नहीं जानते, इसलिए अध्यात्म की तरफ़ नहीं जा रहे। वो जो पकौड़ा चबा रहे हो उसे ठीक-ठीक जानते हो? और नहीं जानते तो खाया काहे? जब राम की बात आती है तो कह देते हो “अभी राम को हम ठीक-ठीक जानते नहीं, तो राम की दिशा कैसे बढ़ जाएँ?”
पकौड़ा? पकौड़ा जानते हो? बताओ कौन सा तेल है उसमें? बताओ कौन-कौन से कीड़े पड़े हैं उसमें?
तब तो भका-भक चबा गए, तब वो सिद्धांत छुपा दिया कि जब तक जानेंगे नहीं तब तक करेंगे नहीं। और जब अध्यात्म की बात आई तब अचानक तुम्हारी ईमानदारी जग जाती है। तब तुम कहते हो “आचार्य जी हम आपको बताई देते हैं, शत प्रतिशत स्पष्टता होनी चाहिए।” अभी पूछ दूँ, जिस कंपनी में काम करते हो उसमें कौन-कौन शेयर होल्डर हैं, तुम्हें यही न पता हो। नाम भी उनके पता हों तो पूछ दूँ — बताना उनकी शेयर होल्डिंग कितनी-कितनी है? तो बगलें झाँकोगे।
तब तो नहीं कहते कि दफ़्तर तब तक नहीं जाएँगे जब तक बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स का और शेयर होल्डर्स का पूरा नहीं पता चल जाता। है पूरा पता? वहाँ पहुँच जाते हो, रोज़ सुबह झोला टाँग के। मंदिर जाते वक़्त कहते हो “अभी पूरा पता नहीं है। ये हनुमान का मामला क्या था? बात साफ़ होनी चाहिए, हम अंधविश्वासी नहीं हैं।” अगर बिना पूरा पता किए मंदिर तक गए तो अंधविश्वासी कहलाएँगे। मैं पूछ रहा हूँ, तुम पूरी बात पता करके दफ़्तर जाते हो?
जिन लोगों ने आयोजित विवाह किए थे — बीवी के बारे में पूरा पता किया था? या शौहर के बारे में? पूरा तो तुम्हें आज तक पता नहीं चला, तो घर काहे को जाते हो? वहाँ बोलते हो “अब ये देखिए — कृष्ण ने राधा से शादी क्यों नहीं की? इसीलिए तो हमारी भक्ति नहीं जगती। इतने दिनों तक उसके साथ झूले झूले, शादी नहीं की? ये बात कुछ ठीक नहीं लगती हमको। और जब तक पूरी बात नहीं पता चलेगी — अब पूरी बात तुम जानते हो पता चल नहीं सकती, न वृन्दावन, न मथुरा, न यमुना, न झूला, न दैहिक कृष्ण, न दैहिक राधा, कौन है?" पूरी बात पता चलने का ख़तरा ही नहीं है तुम्हें। तो तुम सुरक्षित हो। अब कभी अध्यात्म की ओर जाना नहीं पड़ेगा, कभी अहंकार को मिटाना नहीं पड़ेगा। समझ रहे हो?
कुछ पूरा नहीं पता चलता। परम सत्य कोई ज्ञान की बात होती है कि पता चलेगा, वो भी पूरा? तुमको ये धारणा दे किसने दी कि अध्यात्म ज्ञान की बात होती है? ‘पता चलेगा’ क्या पता चलेगा? कोई चीज़ होगी — पता चलेगी। कोई बात है? कोई कहानी है? कैसे पता चलेगी? क्या पता चलेगा? मुझे क्या पता है? मैं फिर पूछ रहा हूँ — बताओ मुझे क्या पता है? और जो पता है वो दो कौड़ी का है। वो अधिक-से-अधिक उदाहरण देने के काम आता है, वो अधिक से अधिक वाक्य निर्माण के काम आता है। वो ऊपरी चीज़ है, आत्मा नहीं है।
ज्ञान को टटोलोगे तो मरते दम तक भी यही पाओगे कि ज्ञान अपूर्ण है क्योंकि ज्ञान तो पूर्ण हो ही नहीं सकता।
तो इस फ़िराक़ में मत रहना कि ज्ञान को पूर्ण कर लेंगे। पूर्ण ज्ञान जैसी कोई चीज़ नहीं होती। प्रेम होता है, आशिक़ी होती है — कि नहीं पता है, ज्ञान नहीं है कि दरिया कितना गहरा है पर कूद पड़े। प्रेम हो तो बात करो, यहाँ ज्ञान वग़ैरह का कोई हिसाब नहीं।
“खुसरो दरिया प्रेम का…” याद है? अरे! पता करना।
“खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी वा की धार,” आगे नहीं बताऊँगा, लालच आ रहा है पर तुम पता करना।