प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, केदारनाथ की चढ़ाई के दौरान घोड़ों और खच्चरों ऊपर हो रहे अत्याचार को देखकर मेरा मन बहुत ही विचलित हुआ है। यह बात मेरे विचार के परे है कि कैसे कोई किसी प्राणी के साथ ऐसी क्रूरता कर सकता है। कृपया इस विषय पर मार्गदर्शन दें।
आचार्य प्रशांत: एक घोड़ा मरा पड़ा था।
श्रोता: उसको देख कर मैं वहीं हिल गयी थी।
आचार्य: उसको देखने के बाद भी अगर कोई घोड़े, खच्चर का प्रयोग कर रहा है, शोषण कर रहा है, तो क्या तीर्थ कर रहा है! आप जिनके यहाँ आये हैं उनका दूसरा नाम है महादेव, पशुपति। वो सब पशुओं के बड़े प्यारे हैं। सब पशुओं के बड़े प्यारे हैं। साँप, नाग तो गले में डाले रहते हैं। एक भी घोड़ा, खच्चर ऐसा नहीं था जिसके शरीर पर ज़ख्म न हों। कौन है ये तीर्थयात्री, कैसा इसका तीर्थ है, बताइए?
तीर्थ माने शांति की ओर बढ़ना। शांति और करुणा साथ-साथ चलते हैं। करुणा नहीं तो कैसी तीर्थ यात्रा? जवान जवान लोग दूसरे इंसानों की पीठ पर चढ़कर आ रहे हैं। मैं वृद्धों की बात समझ सकता हूँ एक बार को। कोई बिल्कुल वृद्ध है, असहाय है या कोई अपंग है, या कोई छोटा बच्चा है, समझा जा सकता है कि वो किसी और के ऊपर चढ़कर आए। ठीक है। पंद्रह साल वाले, बीस साल वाले, पच्चीस साल वाले, पैंतीस साल वाले, ये लोग अगर दूसरे की पीठ पर चढ़कर आ रहे हैं तो ये कौनसी तीर्थयात्रा है?
श्रोता: एक तो मोटे-मोटे लोग, और ऊपर से बैग साथ में!
आचार्य: ये तीर्थयात्री ही कौनसा है! फ़िर तो यात्रा पूरी बाहर की हो गई न? जबकि तीर्थ का वास्तविक अर्थ है, हमने कहा, मन का आत्मा की ओर बढ़ना। मन आत्मा की ओर नहीं बढ़ रहा है तो शरीर को पहाड़ के ऊपर चढ़ा देने से क्या मिल जाना है? इसका मतलब ये थाड़े था कि शरीर को पहाड़ के ऊपर डाल दिया।
मन को आत्मा की ओर बढ़ना है। और उसमें, उसको संघर्ष करना पड़ता है, तकलीफ़ें झेलनी पड़ती हैं। उन तकलीफों को झेलना तीर्थ में केंद्रीय बात होती है कि हम ये सब तकलीफ़ें झेल के आगे बढ़ेंगे। और उन तकलीफ़ों को झेलते वक़्त वो भी होता है, जो आपने कहा, कि तथ्य सामने आता है अपने विषय में, जो कल्पना, धारणा होती है टूटती है। सब सोचते हैं यही कि अभी तो हम!
श्रोता: जवान-जवान लोग।
आचार्य: और कुछ कर ही डालेंगे!
अरे, आपकी ही नहीं टूटी, कल मेरी भी टूटी।
(श्रोतागण हँसते हैं)
कल आख़िरी के पाँच-सात किलोमीटर मेरे पीछे इंजन लगा था एक। तो मैं चल रहा हूँ और पीछे से एक आदमी धक्का दिये जा रहा है।
श्रोता: सेम हियर (मेरे साथ भी ऐसा ही था)।
आचार्य: ये बातें दिख जाएँ तो अच्छा है न! और जब थोड़ी विषम या आपद स्थिति आती है, तो आपको अपनी वृत्तियों का पता चलता है। जानते-बूझते कौन पशु पर अत्याचार करना चाहेगा? पर सब के पास तर्क़ होता है न, कि अभी हालत इतनी ख़राब है कि हमें घोड़े पर चढ़ना पड़ेगा! अगर आप मजबूरी का तर्क़ देकर घोड़े पर चढ़ जा रहे हो, तो फ़िर तो आपकी मजबूरी आपसे न जाने क्या-क्या करवा डालेगी!
हर आदमी जो माया का ग्रास बना, हर आदमी जिसने पाप को चुना, उसके पास मजबूरी का ही तो तर्क़ होता है, न? कि ‘हम चाहते नहीं थे पर मजबूरी के कारण करना पड़ा!' तो अगर आप यहाँ पर भी मजबूरी का तर्क़ देकर किसी आदमी पर चढ़ जाते हो या किसी पशु पर चढ़ जाते हो तो फ़िर, ज़िंदगी में भी आप मजबूरी का तर्क़ देकर ना जाने क्या-क्या करोगे! और मजबूरी का तो कोई अंत नहीं। आप मजबूरी का तर्क देकर बड़े से बड़ा गुनाह कर सकते हो कि ‘मैं मजबूर था इसलिए मुझे करना पड़ा'।
अपनी मजबूरी के के विरुद्ध ही तो संघर्ष करना पड़ता है न? आत्मा तो मजबूर होती नहीं, सारी मजबूरियाँ किसकी होती हैं? अहंकार की ही होती हैं। उन्हीं के ख़िलाफ़ तो संघर्ष करना होता है कि मजबूरी लग रही है, कोई बात नहीं।
अब मैं ज़बरदस्ती के नायकत्व की, हीरोइज़्म की बात नहीं कर रहा हूँ। आपके पाँव में गठिया ही है अगर, या अस्सी साल की उम्र है अगर आपकी, और फ़िर आप कहते हैं किसी से कि मुझे उठा कर ले चलो, तो ये बात थोड़ी जायज़ मालूम पड़ती है। चार साल या दस साल का बच्चा है, उसको भी अगर एक सीमा के बाद सहारा देना पड़े, शारीरिक रूप से, तो ये बात भी जायज़ मालूम पड़ती है।
अपनी मजबूरियों को हमें लेकिन बड़ी साफ़ और कठोर नज़र से परखना पड़ेगा कि हमारी मजबूरियाँ वास्तव में मजबूरियाँ हैं या वो हमारा चुनाव है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस मजबूरी के होते हुए भी मैं सही चुनाव कर सकता था, पर मैंने मजबूरी का बहाना बना लिया!
प्र२: नमस्कार! मैं इसी मुद्दे से सम्बंधित कुछ कहना चाहता हूँ। जो जानवर के ऊपर हम बैठ के आ रहे हैं, क्या इसके लिए, किसी भी तरह, एक बेहतर जीवन हो सकता था? हम बैठ कर आए, उदाहरण के लिए, तो कम-से-कम जानवर के साथ चार और लोगों ने रोटी खायी।
आचार्य: जिस जानवर के ऊपर आप बैठते नहीं, जो घूम रहा है जंगल में, क्या वो रोटी नहीं पाता है? पहली बात।
प्र२: इट्स अ पोनी, इट इज़ ओनली मेड फॉर (वो एक खच्चर है, उसे बनाया ही उपयोग के लिए गया है)।
आचार्य: सो यू मेक इट टू एक्सप्लोइट इट (तो उसका शोषण करने के लिए ही उसे पैदा करते हैं!) जैसे कि आप कृत्रिम तरीक़े से मुर्गा, मुर्गी बनाते हैं, अंडे बनाते हैं, उन्हें खाने के लिए ही। शोषण है न, ये सीधा-सादा? और फ़िर आपने उसे बनाया चाहे स्वयं हो, एक बार उसमें जीवन आ गया, उसके बाद वो मुक्ति का पात्र है। जीवन उसमें किस कारण से आया, किस वजह से आया, ये बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है।
किसी बालक का जन्म अगर बलात्कार से भी हुआ है तो भी वो बालक सब अधिकार रखता है और मुक्ति का पात्र है, है न? इसी तरीक़े से, चाहे आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन (कृत्रिम गर्भाधान) से आप किसी जानवर को पैदा करें, चाहे पोल्ट्री फॉर्म में उसको पैदा करें, लेकिन वो पैदा हो गया है तो मुक्ति का पात्र है।
पहली बात तो आपको उसे पैदा करना नहीं चाहिए था, क्योंकि आपने पैदा ही किया है उसको सिर्फ़ उसका शोषण करने के लिए। और भूलिएगा नहीं, अस्तित्व में एक भी पशु ऐसा नहीं है जो इंसान के पास फ़रियाद लेकर आता हो कि तुम हमें रोटी दो। आप जिसको रोटी देते हैं, उसको एक रोटी देकर उसका खून निकाल लेते हैं। ये रोटी नहीं, ज़हर है।
प्र२: मैं इस बात से भी सहमत हूँ। लेकिन ये समझने में असमर्थ हूँ कि उस पशु का कोई अन्य बेहतर भविष्य क्या हो सकता था? क्योंकि वो तो हमें नहीं उठा रहा होता तो उसका कोई सामान उठाकर इधर-से-उधर ले जाता।
आचार्य: वो अगर आपको नहीं उठा रहा होता तो वो होता ही नहीं न! आपको उठाने के लिए ही तो वो पैदा किया गया है, अन्यथा वो होता ही नहीं। और जब पैदा हो गया है, तो अब आप उसके साथ शोषण नहीं कर सकते। अगर आपको अपना सामान उठवाने की हवस न होती, तो क्या उस टट्टू, उस खच्चर को पैदा किया जाता? वो तो ज़बरदस्ती पैदा किया गया है।
आपको गाय का दूध पीना है इसलिए बछड़ा ज़बरदस्ती पैदा किया जाता है। मुर्गी खानी है इसीलिए मुर्गी और अंडे ज़बरदस्ती पैदा किये जाते हैं। वो तो पैदा होना चाह ही नहीं रहे थे। उनका तो प्राकृतिक जन्म-मरण का चक्र है।
जंगल में जाइए, वहाँ आपको कोई पशु-पक्षी, कीट-पतंगा, छोटे-से-छोटा, बड़े-से-बड़ा कोई प्राणी मिलता है क्या जो कह रहा हो कि इंसान हमें रोटी दे? सब अपने-अपने तरीक़े से जीना जानते हैं न? पर हम इस तरीक़े का तर्क़ ख़ूब देते हैं। ये तर्क़ मैंने बहुत सुना है कि अगर गाय का दूध नहीं निकाला तो गाय को बड़ा कष्ट हो जाएगा! तो फ़िर जंगल में जो गाय-भैंस होती हैं तो वो तो कष्ट से मर ही जाती होंगी, क्योंकि इंसान उनका दूध नहीं निकाल रहा!
और तर्क़ आते हैं, कहते हैं कि ‘अगर ये मुर्गे अगर हमने खाये नहीं, तो देखा है कितने मुर्गे हैं पूरी दुनिया में! पूरी दुनिया पर यही छा जाएँगे। तो इनको खाना ज़रूरी है ताकि दुनिया पर ये छा न जाएँ।' पागल! वो तो पैदा होना ही नहीं चाह रहे थे। पहले तो तुम उन्हें ज़बरदस्ती पैदा करते हो—और बड़ी अमानवीय स्थितियों में पैदा करते हो—उसके बाद तुम तर्क़ देते हो कि ‘अब ये पैदा हो गये तो इन्हें खाना ज़रूरी है। नहीं तो, ये दुनिया पर छा जायेंगे'!
कौनसा पशु है जो दुनिया पर छा जाता है? एक ही पशु है जो दुनिया पर छाया हुआ है। उसको ही खा लो। उसका नाम है इंसान।
(श्रोतागण हँसते हैं)
और उस एक पशु को अगर तुम खा लो, तो दुनिया की एक-एक प्रजाति, एक-एक स्पिशी उत्सव मनायेगी। अरबों प्रजातियाँ हैं पशु-पक्षियों, प्राणियों की इस धरती पर, और वो सब-की-सब त्रस्त हैं बस एक प्रजाति से, जिसका नाम है मनुष्य! दुनिया की हर समस्या का एक ही समाधान है। मनुष्य को कम कर दो, दुनिया ठीक हो जाएगी।
प्र२: इन बाइबल इट्स रिटेन – गॉड हैज़ क्रीएटेड एवरीथिंग ऑन द अर्थ फॉर द कंज़म्प्शन ऑफ़ मैन (बाइबल में लिखा है कि ईश्वर ने पृथ्वी पर सबकुछ मानव के उपभोग के लिए बनाया है)।
आचार्य: नॉट ‘फॉर द कंज़म्प्शन’,‘फॉर मैन'। नाउ, दीज़ आर टू वेरी डिफरेंट स्टेटमेंट्स! यू आर फॉर मी, वुड आई कन्ज़्यूम यू? (‘मानव के उपभोग' के लिए नहीं, ‘मानव के लिए'। अब ये दो बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं।
प्र२: इन ए वे (एक तरह से)।
आचार्य: नो, मस्ट आई कन्ज्य़ूम यू? व्हाई आर यू हियर इन दिस कैंप? (आप मेरे लिए हैं; क्या मुझे आपका उपभोग करना चाहिए? आप यहाँ इस कैंप में क्यों हैं?)
प्र२: टू कन्ज्य़ूम यू (आपका उपभोग/ करने के लिए)।
आचार्य: नॉट कंज़म्प्शन इन द सेंस ऑफ डेस्ट्रॉयिंग द अदर (उपभोग दूसरे को बर्बाद करने के अर्थ में नहीं)। आप बात समझिए। आप इस शिविर में आये हैं, आप मेरे लिए आये हैं; आप केदारनाथ आये हैं, आप शिव के लिए आये हैं। वो आपका शोषण करेंगे या आपको उठायेंगे? उठाएंगे न?
तो जब बाइबल—और क़ुरान में भी ऐसा ज़िक्र है—जब वो कहते हैं कि मालिक ने सब पशु-पक्षियों, प्राणियों की रचना की तुम्हारे लिए; ‘तुम्हारे' से आशय ‘मनुष्य' के लिए, तो उसका अर्थ ये थोड़े है कि तुम्हारे खाने के लिए। उसका अर्थ है कि उनको तुम्हें सौंपा गया है एक ज़िम्मेदारी की तरह। और ज़िम्मेदारी ये है कि तुम्हारे पास वो बुद्धि है जो उनको ख़त्म कर सकती है। तुम्हारी ज़िम्मेदारी है अपनी बुद्धि को शुद्ध रखना। नहीं तो तुम जब चाहो उनका नाश कर सकते हो। हाँ, ये एक बात है कि उनके नाश के साथ तुम्हारा भी नाश हो जाएगा।
जब आप बाइबल या क़ुरान का हवाला दें, तो उसमें आपको ये भी तो पढ़ना पड़ेगा न कि बार-बार कहा गया है कि ‘एक-एक प्राणी जो जी रहा है, वो मुझे उतना ही प्रिय है जितना मैन (व्यक्ति), जितना इंसान’।
प्र२: इट वॉज़ ओनली द मैन ह्विच वॉज़ क्रीएटेड इन द रिफ़्लेक्शन ऑफ गॉड; नाॅट अदर एनिमल्स (ये लिखा हुआ है कि सिर्फ़ मनुष्य ही परमात्मा की छवि अनुसार बनाया गया है, कोई भी और जीव नहीं) ।
आचार्य: ठीक, ठीक। तो क्या हो गया? अगर हम ये भी मान लें कि मनुष्य की चेतना बाकी जानवरों की चेतना से श्रेष्ठ है, तो इससे मनुष्य के ऊपर हिंसा का अधिकार आ जाता है या करुणा का दायित्व आ जाता है? सोच कर बताइयेगा। अगर आप ये भी कहें कि ओनली मैन वॉज क्रीएटेड इन द इमेज ऑफ़ गॉड; देन मैन हैज़ ओनस टु बी गॉडली, एन्ड नो अदर एनिमल हैज़ द ओनस टू बी गॉडली, ह्विच मीन्स एनिमल हैज़ द राईट टू किल मैन, बट मैन हैज़ नो राईट टू किल एनिमल; बिकॉज़ मैन इज़ सपोज़्ड टू बी गॉडली, मैन इज़ द क्रिएचर इन द इमेज ऑफ़ गॉड। लॉयन इज़ नॉट क्रिएचर इन द इमेज ऑफ़ गॉड। सो लॉयन कैन बी अ लॉयन (अगर आप ये भी कहें कि सिर्फ़ मानव ईश्वर की छवि के रूप में पैदा हुआ था, तो मनुष्य के पास दैवीय होने का अधिकार है और अन्य किसी भी जानवर के पास दैवीय होने का अधिकार नहीं। इसका ये मतलब हुआ कि जानवर के पास मनुष्य को मारने का अधिकार है, लेकिन मनुष्य के पास जानवर को मारने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि मनुष्य को दैवीय समझा गया है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो ईश्वर की छवि के रूप में है, शेर ऐसा प्राणी नहीं है जो ईश्वर की छवि के रूप में हो इसलिए शेर एक ‘शेर’ हो सकता है)।
पर आदमी के ऊपर पूरा दायित्व है, कि वो चूँकि ईश्वर जैसा ही है तो ईश्वर जैसा ही जिये। वही बाइबल भी तो कहती है न कि वो करुणानिधान है? उसमें सबके प्रति प्रेम और दया और करुणा है? और मनुष्य अगर ईश्वर की छवि में निर्मित है, तो फ़िर मनुष्य में भी वही गुण होने चाहिए न जो ईश्वर में है । ईश्वर में क्या गुण हैं?
श्रोतागण: वह करुणावान है।
आचार्य: तुम्हीं तो कहते हो कि ईश्वर करुणामयी है, तो तुम्हें भी करुणामयी होना पड़ेगा न?
प्र३: आचार्य जी, जो हमने टट्टू के साथ किया, उसको पैदा करके उसका शोषण करने के लिए; क्या वही बात लागू है बच्चों पर जो बच्चे पैदा होते हैं?
आचार्य: मन तो एक ही है न! अगर तुम कंजम्प्शन (उपभोग) के लिए एक टट्टू को पैदा कर सकते हो, तो तुम कंजम्प्शन के लिए अपने घर में बच्चे भी पैदा कर सकते हो; और करते हो। ग़ौर से देखो तो इंसान का टट्टू के प्रति जो रवैया है, मिलता-जुलता रवैया उसका सबके प्रति होता है।
टट्टू को भी इंसान मार थोड़ी डाल रहा है। जो उसका मालिक है, वो उसको दवा भी दिलवाता होगा, खाना भी देता होगा। उस टट्टू के ऊपर अगर कोई आक्रमण कर दे तो टट्टू को बचाता भी होगा। उस टट्टू को कोई चुरा कर ले जाने लगे तो ये भी कहता होगा – ‘ये मेरा टट्टू है'। यही काम हम अपने सभी रिश्तों में करते हैं। खाना देते हैं, पानी देते हैं, दवा देते हैं, छत देते हैं; उसको कोई ले जाने लगे तो सुरक्षा करते हैं, बचाते हैं। लेकिन ये सब हम किसलिए करते हैं? ताकि उसका?
श्रोता: शोषण कर सकें।
आचार्य: शोषण कर सकें। जब कर्म करने वाला केंद्र एक ही है, तो फ़िर जितने कर्म किये जा रहे हैं, उन सब में तुम भावना एक-सी ही पाओगे।
जब तक टट्टू, टट्टू के मालिक के अनुसार चल रहा है, वो कहेगा,“आहा! शाबाश! बढ़िया! बढ़िया! बढ़िया! चल! चल! चल!" ये काम हम अपने रिश्तो में नहीं करते क्या? जब तक हमारे रिश्तेदार हमारे ही हिसाब से चल रहे हैं, हम कहते हैं?
श्रोता: बढ़िया।
आचार्य: बढ़िया! बढ़िया! और जैसे ही टट्टू थोड़ा दायें-बायें हुआ, पड़ी उसको डंडी – पटाक! यही काम हम अपने रिश्तेदारों और बच्चों के साथ नहीं करते क्या? खिलाओ-पिलाओ टट्टू को और बड़ा हो जाये और कमा कर ना दे तुम्हें, तो तुम्हें कैसा लगता है? कैसा लगता है? टट्टू छोटा-सा पैदा किया, पूरी प्लानिंग के साथ पैदा किया जैसा घरों में होता है, और उसको खिलाया-पिलाया और वो बड़ा हो गया। और अब उसकी उम्र आ गयी है कि वो तुम्हें कमा-कमा कर दे और वो नहीं दे रहा, अड़ियल टट्टू! तो कैसा लगता है?
श्रोता: क्यों पैदा किया!
आचार्य: क्यों पैदा किया तुझे! गाली भी देंगे, सब करेंगे। और फ़िर, उसे निकाल देंगे। यही काम क्या हम अपने?
श्रोतागण: बच्चों के साथ करते हैं।
आचार्य: बच्चों के साथ नहीं करते? तो शोषण करने वाले मन को सज़ा ये मिलती है कि वो शोषक ही बन जाता है। अब वो जो करेगा और जिसके साथ करेगा, शोषण ही करेगा। वो घर वालों का भी शोषण करेगा, वो अपना भी शोषण करेगा, अपने एम्प्लाइ़ज़ का शोषण करेगा। वो दुनिया में जिस चीज़ को देख सकता है—एक पौधे को देखेगा, पौधे का शोषण कर लेगा। वो दूसरे ग्रहों को देखेगा, उसके मन में एक ही विचार आएगा – हाऊ टू एक्सप्लोइट दैट प्लेनेट (उस ग्रह का कैसे शोषण करें)? ‘एक्सप्लोइट’ (शोषण)! जो लोग व्यापार से परिचित हैं, वो लोग जानते हैं एक्सप्लोइट शब्द कितना! ‘वी आर एंटरिंग ए न्यू मार्केट स्पेस—हाऊ टू? (हम एक नए बाज़ार की दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं—कैसे?)
श्रोतागण: एक्सप्लोइट (शोषण करना है)।
आचार्य: ये ‘एक्सप्लोइट' शब्द बहुत महत्वपूर्ण हो जाएगा जीवन में।
प्र२: व्हाट अबाउट पेट्स? शुड वी हैव देम ऑर नॉट? (क्या हम पालतू जानवर रख सकते हैं अपने पास?)
आचार्य: डिपेंड्स ऑन हु वाँट्स टू हैव हिम एंड फॉर व्हाट रीज़न। व्हाट इज़ द रिलेशनशिप? (यह निर्भर करता है कि उसे कौन रखना चाहता है और किस वजह से। संबंध क्या है?)।
प्र२: वो मेरे दोस्त की तरह हैं।
आचार्य: वन्डरफुल! वन्डरफुल! ऐज़ लॉन्ग ऐज़ दे आर विद यू इन अ म्यूचुअल बॉन्ड ऑफ़ फ्रेंडशिप—वंडरफुल! इफ़ यू कम टू ‘बोधस्थल', यू विल फाइंड मेनी एनिमल्स देयर (बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया! जब तक उनके साथ पारस्परिक मित्रता का रिश्ता है, बहुत बढ़िया है। यदि आप बोधस्थल आयें तो आप कई सारे जानवर पायेंगे)।
प्र२: कैन आई ब्रिंग माई पेट्स? (क्या मैं बोधस्थल में अपने पालतू जानवर ला सकता हूँ?)
आचार्य: श्योर (बिल्कुल)। वास्तव में ऐसा होता है। कभी-कभी लोग आते हैं और अपने पालतू जानवरों को छोड़ देते हैं, और हम उनकी देखभाल करते हैं।) पर एक चीज़ वहाँ पक्की है। एक्सेप्ट फॉर रीज़न्स ऑफ फिजिकल सिक्योरिटी, वी डु नॉट लीच देम (हम उन्हें उनकी शारीरिक सुरक्षा के लिए ही बाँधते हैं, अन्यथा नहीं)।
प्र२: मैं भी अपने पालतू कुत्ते को नहीं बाँधता हूँ।
आचार्य: हमारे यहाँ पर कोऽहम, सोऽहम थे; जीतू मुर्गा था—इतना बड़ा मुर्गा (श्रोतागण हँसते हैं)—चला गया वो!
प्र२: देसी मुर्गा?
आचार्य: हाँ, देसी मुर्गा। मैं गाड़ी चला रहा था और वो मेरी गाड़ी के सामने आ गया था। वो कसाई की दुकान से भागा और ठीक मेरी गाड़ी के सामने आ गया। तो मैंने ज़िंदगी में पहली बार मुर्गा ख़रीदा।
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र२: मैंने मांस खाना छोड़ दिया जब एक दिन मैंने आँखों के सामने जानवर कटते हुए देख लिया।
अचार्य: हाँ। चलता आ रहा था। कसाई की दुकान से छूट के; शायद वो काटने वाला था, या कुछ था। वो वहाँ से भाग कर बिलकुल गाड़ी के सामने आ गया। तो उसको मैं खरीद के लाया। वो दो-तीन साल साथ रहा। तो ये कोऽहम्, सोऽहम्—कोऽहम् अब नहीं है, सोऽहम् है—इनको आज तक कभी पट्टा थोड़े-ही बाँधा! कई बार ये हफ़्ते-हफ़्ते भर गायब रहते हैं। पता भी नहीं चलता। कहाँ हैं, नहीं पता। फ़िर अपने आप लौट आते हैं।
प्र२: मैं भी ऐसा ही करता हूँ।
आचार्य: हाँ, ये फ़िर ठीक है, फ़िर ठीक है। फ़िर तो कोई नहीं कह सकता कि कौन किसका पालतू है!
(श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: अब बराबर की बात है।
प्र२: बहुत बार तो वो आपको संभाल रहे होते हैं।
आचार्य: हाँ। ये ठीक है। पर और भी तरीक़े होते हैं पेट्स के (पालतू जानवरों के)। चिड़िया पिंजरे में टांग के लटका दी है।
प्र२: एक्वेरियम।
आचार्य: एक्वेरियम—ये बड़ी, बड़ी क्रूरता की चीज़ है। चिड़िया की तो दुर्गति देख करके पत्थर-दिल आदमी भी पसीज जाये। उसके पास पंख है और इतना बड़ा पिंजड़ा कुल (हाथ से छोटे से पिंजरे का संकेत देते हुए)!