प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम आपको। मेरा पहला शिविर है, देहरादून से आया हूँ मैं और चार महीने से सुन रहा हूँ मैं आपके वीडियो। काफ़ी अच्छा लग रहा है। एक प्रश्न चल रहा है मन में कि मानसिक पर्यावरण पर तो आपने बहुत कुछ बोला है कि मन ख़राब होता है, कुछ भी ख़राब होता है। लेकिन जो बाकी दूसरे पर्यावरण से काफ़ी नुक़सान हो रहा है। जैसे प्लास्टिक हो गया, पानी का बहुत मिसयूज़ (दुरुपयोग) होता है, पेड़ों की बहुत कटाई होती है। और आपके इतने फ़ॉलोवर्स हैं, तो मैसेज़ आप इस बारे में थोड़ा अगर दें तो।
आचार्य: इस पर भी बोला हैं, खूब बोला है। आपने शायद सुना नहीं होगा। खूब बोला है। मैं फिर बोल देता हूँ, अच्छा हुआ आपने प्रश्न उठाया।
देखिये, हम बाहर जो कर रहे हैं न, वो हमारे भीतरी माहौल का ही एक प्रतिबिंब होता है। भीतर जो हैं, वो छुपा रह जाता है। हम कह देते हैं, “हम बड़े साफ़ लोग हैं।“ क्यों? मुँह साफ़ है हाथ साफ़ है, कपड़े साफ़ है, हम कह देते हैं हम साफ़ लोग हैं। हम लोग हैं बड़े गंदे, बहुत ही गंदे, घिनौने लोग हैं हम। और हमारा वही घिनौनापन फिर उस प्लास्टिक में दिखाई देता है। कटे हुए पेड़ों के ठुठों में दिखाई देता है। वो जो बाहर हैं, वो कहाँ से आया? वो हमारे भीतर से आया न?
अब इसी शहर (ऋषिकेश) को लीजिये। ये शहर वो शहर है ही नहीं जिसे मैं दस साल से जानता हूँ। हर तरह की गंदगी, हवा तक अशुद्ध हो गई है। बोलने के लिए तो बहुत, बहुत, बहुत कुछ है। दिन-रात देखता ही हूँ। आप यहाँ से जाइए, वहाँ रास्ते में शराब का एक ठेका पड़ेगा और उसके बगल में कई टन गंदे प्लास्टिक का ढ़ेर दिखाई देगा आपको, गंदे। और वो सरकारी है। सरकार ने वहाँ पर कचराघर-सा बनाया है। जहाँ कचराघर बनाया हैं, वहाँ पहले एक नदी बहती थी। वो नदी अब नहीं बहती। नदी का तल भर दिखाई देता है, पानी वहाँ एकदम नहीं है, वहाँ कचराघर बना है। उसको आप देखेंगे, आप अवाक़ रह जाएँगे — ये क्या है?
मुझे मालूम है न वो कहाँ से आया है। वो आया है एक धार्मिक जगह को एक मनोरंज़न की, पर्यटन की जगह बना देने से। ये जो पूरा एक़्सप्रेस-वे बन गया है अब, जिसने दिल्ली से यहाँ तक का रास्ता चार घंटे का कर दिया हैं। दिल्ली का सारा कचरा उठकर यहाँ आ गया है।
कचरा नहीं रुकेगा, जब तक इंसान नहीं सुधरेगा। और जब मैं कहता हूँ इंसान नहीं सुधरेगा, तो मैं सौ प्रतिशत आबादी को सुधारने का सपना लेकर नहीं चल रहा हूँ। वो कभी नहीं हो पाएगा। इतिहास में कभी नहीं हुआ। हमारी रचना ऐसी नहीं है कि सौ में से सौ प्रतिशत लोग कभी सुधर जाये। ऐसा सतयुग में नहीं हुआ, अब क्या होगा? सतयुग से मेरा आशय है कि किसी भी काल्पनिक युग में नहीं हुआ, अब क्या होगा!
मैं बस चाहता हूँ कि शून्य दश्मलव एक प्रतिशत लोग, एक प्रतिशत लोग, इतने लोग जाग जाये, तो काम बन जाएगा। क्योंकि जो जगेगा वो स्वयं ही वो बल इक़ट्ठा करेगा जिससे बाकी निन्यानबे प्रतिशत लोगों को सही दिशा में निर्दिष्ट किया जा सके। क्योंकि ये निन्यानबे प्रतिशत लोग जो सारी गंदगी के ज़िम्मेदार हैं, ये कोई बड़े होशमंद लोग थोड़े ही हैं। ये किसी भी चीज़ को लेकर अडिग नहीं रह सकते। इनका कोई भी आग्रह नहीं है। ये कुछ नहीं जानते, न कुछ चाहते हैं, ये बस मज़े करना चाहते हैं। ये तो पेड़ से टूटे पीले पत्ते की तरह हैं —ज़िधर हवा होगी, उधर को बह निकलेंगे।
मुझे वो लोग चाहिए जो हवाओं का रुख़ तय कर सकें, सिर्फ़ एक प्रतिशत वैसे लोग चाहिए। बाकी निन्यानबे प्रतिशत लोग ख़ुद ही पीछे-पीछे आ जाएँगे। उनमें कभी वैसे भी कोई चेतना रही नहीं है। उनका तो काम रहा है बल के पीछे-पीछे चल देना। और इतिहास कभी भीड़ों ने नहीं तय करा। आप मानव ज़ाति के इतिहास को देखेंगे तो लोग रहे हैं, कुछ विशिष्ट लोग जिन्होंने सब कुछ करा है। बाकी सब तो उनके पीछे-पीछे हुआ है। और उनके पीछे भी जो भीड़ें चली है, ऐसा थोड़े ही है कि वो उनको कुछ समझती थी या कुछ था। उनके पास बल था इसलिए पीछे-पीछे चल दिए।
तो मुझे ये लोग चाहिए — हज़ार में से एक, सौ में से एक, इतना काफ़ी है। इतने में हो जाएगा, सारी सफ़ाई हो जाएगी।
जब तक प्लास्टिक सस्ता है, उसका इस्तेमाल होगा। प्लास्टिक सस्ता है और इंसान में लालच है आप कैसे रोकोगे? एक ही तरीक़ा है — नियम बने, क़ानून बने और वो बन जाएगा। उसके बिना आप सोचें की आप लोगों में एक ज़ागृति का संचार करेंगे, अवेयरनैस क़ैंपेंन वगैरह चलाये। अच्छी बात है, उससे बस कुछ होता नहीं। आप वृक्षारोपण अभियान चला सकते हैं। लोग जाकर पौधे लगा देते हैं थोड़े बहुत और अपने पाप के बोझ से स्वयं को आज़ाद कर लेते है कि हमने कुछ पौधे लगा दिए।
पहली बात तो जो लगाए गए हैं वो बहुत-बहुत कम है। दूसरी बात, जो लगाये गए हैं, वो दो महीने में मर जाते हैं। तो इन सब से काम नहीं होने का है। आप सोचें कि एक-एक आदमी जाग जाए तब दुनिया बदलेगी, तो दुनिया फ़िर बदलने से रही।
हमें शेर लोग चाहिए जो सबसे आगे बढ़कर दहाड़े, जो नेतृत्व दे पाये। तब बनेगा काम। नहीं तो फ़िर हम सब अपनेआप को खुश करने के लिए इस तरह से कर सकते हैं कि चलो सब लोग अपने-अपने मोहल्ले में सफ़ाई करो और रविवार को सुबह एक घंटा हम सब सफ़ाई किया करेंगे, कर लीजिये। उसकी फ़ोटो ख़ींचकर फ़ेसबुक पर डाल दीजिये, अच्छा लगेगा कि हम भी स्वच्छता अभियान में भागीदार हो गए; देखो हम अच्छे आदमी हैं; हम भी सज़ग नागरिक हैं। बड़ा अच्छा लगता है, होता उससे कुछ नहीं।
बाहरी स्वच्छता आंतरिक स्वच्छता की छाया है। और वैसी आंतरिक स्वच्छता मैं कह रहा हूँ बस एक प्रतिशत लोगों में आ जाये, बाक़ी निन्यानबे प्रतिशत अपनेआप ठीक हो जाएँगे।
हम इतने तो मज़बूर हो गए, हम तब भी कोई नियम-क़ानून कहाँ बना रहे हैं, मुझे बताइए? पेरिस, क़ोपेनहेगन। अभी मालूम है भारत ने क्या वचन दिया हैं? कार्बन न्यूट्रल होंगे 2070 तक। 2070 तक कुछ बचेगा? कार्बन न्यूट्रल होंगे?
ये सब इसलिए है क्योंकि हम आम आदमी का मुँह देखते हैं। हम कहते हैं कि नेता लोग इसमें कुछ करके दिखाएंगे। नेता किसके गुलाम हैं? नेता बहुमत के गुलाम हैं। बहुमत किनका है? बहुमत बेहोश लोगों का है। तो इसीलिए दुनियाभर के नेता मिलते हैं और वो चाहे प्लास्टिक का मुद्दा हो, चाहे पर्यावरण का मुद्दा हो, चाहे क़्लाइमेट-चेंज़ का हो — वो आपस में मिलते हैं, वहाँ अपना कुछ गप-शप करके वापस आ जाते हैं। ज़नतंत्र है न भाई!
कोई सशक़्त आदमी चाहिए जो ख़तरा उठाने को तैयार हो, जो बहुमत के विरुद्ध जाने को तैयार हो, जो बहुमत को अपने पीछे-पीछे चलाने को तैयार हो, जो कड़े निर्णय लेने को तैयार हो। ऐसे लोग जिनकी कमज़ोर नज़रें बस यही गिनती रहती है कि कितने लोग मेरे साथ हैं, कितने लोग ख़िलाफ़ हैं — ऐसों से कुछ नहीं होने का।
किसी देश में कुछ नहीं होगा। कौनसा देश कोई भी सार्थक काम कर पा रहा है इस दिशा में? और ये सारे मुद्दे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं — पेड़, पौधों, पशुओं की प्रज़ातियों का विलुप्त होना; मछलियों की प्रज़ातियों का विलुप्त होना; सागरों में प्लास्टिक का भरना; हमारे लहू में प्लास्टिक का पहुँच जाना। सिर्फ ग्रीन-हाउस गैसें ही नहीं, और भी गैसें हैं। सल्फ़र की गैसें, नाइट्रोज़न की गैसें, इनका हवा में पहुँच जाना। धूल, धुएँ का हवा में पहुँच जाना, एसपीएम (निलंबित कण पदार्थ) का बढ़ जाना, ज़नसंख्या का बढ़ जाना।
ये सब एक-दूसरे से जुड़ी हुई चीज़ें है और इन सबके मूल में कौन बैठा हैं? आम आदमी। आम आदमी की क़रतूत है यह सबकुछ। और उस आम आदमी को आप बहुत ज़गा नहीं सकते। हाँ, आप एक ऐसा बल पैदा कर सकते हो जिसके पीछे-पीछे वो आम आदमी चलने लगे। भई हम ये भी कह दें कि जो बड़े-बड़े इंडस्ट्रियल मैन्युफैक़्चर्स (औद्योगिक निर्माता) है, वो करते हैं प्रदूषण। तो वो जो कुछ भी बनाते हैं, उसका उपभोक़्ता कौन हैं? वो किसके लिए बनाते हैं? ख़ुद ही बनाकर ख़ा जाते हैं? कौन है उसका उपभोक़्ता?
श्रोतागण: आम आदमी।
आचार्य: ये आम आदमी है जो फ़ैलाता ही ज़ा रहा हैं, फ़ैलाता ही ज़ा रहा है। और खाता ही जा रहा हैं, खाता ही जा रहा है। और इसी आम आदमी का एक बड़ा रूप हमें उनमें देखने को मिलता है जो तथाकथित समृद्ध वर्ग है, वो भी तो आम आदमी हैं। चालीस साल पहले साधारण मध्यमवर्गीय लोग थे, अब उनको आर्थिक सफ़लता मिल गई है तो वो अब अरबपति हो गए हैं। वो भी हैं लेकिन दिल से आम आदमी ही, उनकी सारी हरक़तें आम आदमियों वाली है, बस पैसा उनके पास ज़्यादा है।
तो ये जो आम आदमी है और उसका आम मन और आम संस्कृति है, ये हैं असली गुनहगार। इसको तोड़ना है। और ये टूटेगा तभी जब सशक़्त उदाहरण सामने रखा जाएगा। कुछ लोग होंगे जो चीज़ को समझ जाएँगे इसलिए बदल जाएँगे। ज़्यादातर लोग तो वही होंगे जो पीछे-पीछे चलकर बदलेंगे।
प्र: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपको कुछ डेढ़-दो साल से फ़ॉलो कर रहा हूँ और आपसे मेरा पहला परिचय बहुत साल पहले हुआ था जब आप मेरे क़ॉलेज में आये थे — टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में, सन् 2011 में। मैं सोशल इंटरप्राइज़ चलाता हूँ और वेस्ट मैनेज़मेंट में काम करता हूँ और वेस्ट मैनेज़मेंट हम लोगों के लिए सिर्फ़ कचरा नहीं है। उनके साथ जो लोग काम करते हैं, जो कचरा चुनने वाले लोग हैं, जो इन्फ़ॅार्मल वर्क़फ़ोर्स है, वो भी हमारे लिए बहुत इम्पोर्टेन्ट है। तो हमारी एक प्रॉब्लम है कि जैसे हम लोग दस साल से कंपनी चला रहे हैं, और काफ़ी काम कर चुके हैं। तो अभी जैसे-जैसे बड़ी होती जा रही है कंपनी, हमें और एफ़िशिएंट (कारगर) लोगों की भी ज़रूरत होती है। और दूसरी तरफ़ ऐसे लोग भी चाहिए होते हैं कि जो वो विज़न के साथ एलाइन्ड हो। तो इसका मिक़्स बहुत मुश्किल है। हम लोग पहले विज़न एलाइन्ड लोग लेते थे, जो एफ़िशिएंट नहीं निक़लते। अभी ज़्यादा एफ़िशिएंट लोग लेते हैं लेकिन उनको विज़न में एलाइन करना बहुत दिक्क़त की बात होती है, तो इसको कैसे करें?
और एक लास्ट वाला कि जो गंगा तट पर हम लोग सुबह देखा करते हैं, मुझे, उधर जो प्लास्टिक गिरे रहते हैं, बहुत तकलीफ़ होती है। तो मैं चाहूँगा कि कुछ क़्लीनअप ड्राइव्स हो। और मैं कुछ अगर कर सकता हूँ तो बहुत अच्छा रहेगा, धन्यवाद।
आचार्य: समस्या तो आएगी और इसका कोई निश्चित समाधान नहीं होता। इसका समाधान यही होता है कि जो सधा हुआ आदमी हैं, ‘मिशन एलाइन्ड’ जिसको आप कह रहे हैं, उसको उत्पादक बनाया जाये। और जो आपने एफ़िशिएंट वर्क़र लिया है, उसको मिशन से एलाइन करा जाये। इन दोनों में ज़्यादा आसान होता है मिशन एलाइन आदमी को एफ़िशिएंट बनाना, क्योंकि उसके पास अब एफ़िशिएंट बनने की वजह है। उसको मिशन से कुछ लगाव है न? तो वो मिशन की ख़ातिर एफ़िशिएंट बनना चाहेगा।
दूसरी बात, ऐसा व्यक्ति रुकेगा आपके साथ क्योंकि वो सही कारण से आया है आपके पास। जो दूसरी तरफ वाला व्यक्ति है, जो एफ़िशिएंट है, वो आते ही आपको लाभ देना शुरू कर देगा। लेकिन उसके साथ आप बहुत गहराई तक नहीं जा पाएंगे और बहुत दूर तक नहीं जा पाएंगे। क्योंकि वो तो आया है अपनी एफ़िशिएंसी बेचने, जैसा कि ज़्यादातर प्रोफ़ेशनल्स करते हैं। अपने ‘सीवी’ पर लिखते हैं — देखो, मैं कितना एफ़िशिएंट हूँ और मुझे इन चीज़ों का नॉलेज़ है और मैं अपनी एफ़िशिएंसी और अपनी नॉलेज़ नीलाम कर रहा हूँ। आओ, आओ, आओ बोली लग रही है। जो सबसे ऊँचा ख़रीददार होगा, वो ले जाएगा।
जो एम्प्लॉई-मार्क़ेट है, वो ऐसे ही तो ऑपरेट करती है। उसको तो कोई और आकर ख़रीद ले जाएगा। उसके पास आपके पास टिकने की कोई वजह नहीं है। लेकिन कई बार ऐसे लोग भी ज़रूरी होते हैं। वो जितने दिन भी आपके पास रहेंगे, काम करते रहेंगे। बस उनके साथ आप भविष्य नहीं बना सकते। तो ज़्यादा अच्छा तो यही है कि सही लोगों को लिया जाए और उनको विकसित किया जाए। यद्यपि यह हमेशा नहीं हो सकता, ये भी मैं समझता हूँ। कई बार बाज़ार से लोगों को उठाना पड़ता है।
दूसरी बात, जो आपने कहा कि फिर गंगा तट पर कचरा बहुत है और सफ़ाई के लिए ड्राइव चलानी चाहिए। हाँ, बिलकुल चलानी चाहिये। अतीत में हम एक बार चला भी चुके हैं और उसमें आप अगर कोई सहयोग कर सकते हैं तो हम बेशक कर सकते हैं, अगले एक-दो दिन में भी कुछ कर सकते हैं। तो उसके लिए आप संस्था में बात करिए किसी से। और बहुत अच्छा रहेगा सुबह-सुबह का वक़्त रहता है, सफ़ाई कर ही दी जाये।