पात्रता का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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पात्रता का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: राजा जनक की पात्रता थी, इसके लिए ज्ञान ग्रहण कर पा रहे थे। पात्रता हो या ना हो, हो या हो जाये, इसके लिए क्या होना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: जो सवाल है, उसी में उत्तर है। आपने शब्द बड़ा चुन कर प्रयोग किया है न –- ‘पात्रता’। हिंदुस्तान में शिक्षत्व के लिए बिल्कुल मस्त शब्द चुना गया है –- ‘बर्तन’, ‘पात्र’ माने बर्तन; ये है पात्र। ये पात्र है, इसमें क्या खास है?

श्रोता १: एकदम खाली है।

वक्ता: बस यही है। ये पात्रता, ऐसा होना ही पात्रता है। ये पात्र है। बात वैसे तो संकेत में स्पष्ट ही हो गई होगी लेकिन पात्रता का मतलब और भी है। एक तो ये कि ‘खाली है’, दूसरा ये कि ‘चैतन्य भी है’; ग्रहण करने के लिए कोई मौजूद भी है। कृष्णमूर्ति इसको कहते हैं: ‘कॉन्शियसनेस विदआउट कंटेंट’ , चेतना है पर चेतना में भरी हुई सामग्री नहीं है, ये पात्रता हुई। वरना तो पात्र ये भी है, इसमें पात्रता नहीं है लेकिन। ये पात्र देखिये, इसके साथ क्या दिक्कत है? पात्र तो ये भी है।

तो दो बातें हैं: कॉन्शियसनेस चाहिए, ये चेतना हुई; मान लीजिये पर अन्दर का मसाला नहीं चाहिए, ये हुई पात्रता।

गहरी चेतना, बिना बोझ के। जैसे गाड़ी का इन्जन हो ५०० हॉर्स-पॉवर का, पर गाड़ी में वज़न ज़रा भी ना हो, तो अब वो गाड़ी कितनी रफ़्तार से भाग सकती है? तो तगड़ा इन्जन, गहरी चेतना, जो समझ सकती है, लेकिन उस चेतना पर बोझ नहीं है। काहे का बोझ?

श्रोता २: कंडीशनिंग।

वक्ता: वो कोई बोझ नहीं है। ख़ाली चेतना जो दौड़ने के लिए तैयार है, समझने की पूरी ताक़त, बिना बोझ के, ये हुई पात्रता। समझ रहें हैं?

श्रोता ३: सर, ये हमेशा विषय पर निर्भर करता है।

वक्ता: हमेशा नहीं।

श्रोता ३: क्योंकि हम लोग अभी अष्टावक्र पढ़ रहे थे, इतने सारे श्लोक में से, श्लोक जैसे याद ना हों पर कुछ आता है आपको समझ, बहुत-बहुत सूक्ष्म होता है, तो क्या इस पात्र में कुछ भरा या वो अभी भी खाली का खाली रह जाता है?

वक्ता: नहीं।

श्रोता ४: उसके हिसाब से तो कुछ भरना ही नहीं चाहिए।

वक्ता: अच्छा सवाल है: जो अष्टावक्र सब दे रहें हैं, उसमें कुछ भर गया, तो फ़िर तो बात ख़त्म हो जाएगी। स्थिति ऐसी बनी रहनी है कि जिसमें, इसमें, जो कुछ भी आये, ये उसको सोख ले। घड़ा हमेशा ठण्डा क्यों रहता है, जानते हैं?

श्रोता ३: पानी सोख लेता है।

वक्ता: और फ़िर जो घड़े में पानी है उसका हो क्या रहा है? वो आकाश में वापस जा रहा है, वो आकाश ही हो जा रहा है, समझ में आ रही है बात? प्लास्टिक का घड़ा नहीं है वो, तो ले रहा है पर संग्रहीत नहीं कर रहा; पकड़ कर नहीं बैठ गया। उसमें आ तो रहा है, और ऐसा भी नहीं है कि उसमें कोई छेद है तो बह जा रहा है; सोख रहा है, उसे पी गया, पी कर आकाश को वापस लौटा दिया। चित्त ऐसा हो, जिसमें जो कुछ भी आये चित्त उसे पी जाये। पी जाये और लौटा दे; पी कर भारी न हो जाये कि घड़े ने पानी पी लिया तो अब घड़ा भारी हो गया, नहीं, पी कर वापस लौटा दे।

श्रोता ४: पर हम तो भारी इसलिए हो जाते हैं क्योंकि सारी बातें हमारी स्मृति में चली जाती हैं।

वक्ता: आप शब्दों को पकड़ लेते हैं न। इसी को कहा गया है: *‘सार सार को गहि रहै ,* *थोथादेई उड़ाय ’*, जो कहा गया है उसका ‘सार’ पकड़ लो, शब्दों को उड़ा दो, वही थोथा है। और ‘सार’ जो होता है उसमें कोई वज़न नहीं होता। ‘सार’ तो बड़ा हल्का होता है; ‘सार’ तो कुछ होता ही नहीं। हम उल्टा करते हैं। ‘सार’ हमारी पकड़ में आता नहीं है, थोथे को हम संगृहित कर लेते हैं।

ये हुई ‘पात्रता’।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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सम्पादकीय टिप्पणी :

आचार्य प्रशांत द्वारा दिए गये बहुमूल्य व्याख्यान इन पुस्तकों में मौजूद हैं:

अमेज़न : http://tinyurl.com/Acharya-Prasha nt फ्लिप्कार्ट *: https://goo.gl/fS0zHf *

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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