प्रश्नकर्ता: आप दुनिया को जगाने का इतना महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, बहुत धन्यवाद इसके लिए। अभी एक प्रश्न कैंसर पर आया। इसका एक प्रमुख कारण तंबाकू भी है। आज की परिस्थितियाँ देखकर मन विचलित हो उठता है।
और जैसे हम सबको पता है कि शराब बेचने वाली कंपनियाँ सोडे का और जो तंबाकू बेचने वाली कंपनियाँ हैं, पान मसाले का एड (प्रचार) करती हैं। उस प्रचार में भी कंपनियों ने जो प्रमुख देश के प्रमुख अभिनेता हैं, उनको ब्रांड एम्बेसडर (ट्रेंडमार्क राजदूत) बनाया हुआ है। जो आम जनता है उन्हें भी ये सीधे-सीधे पता है कि मूर्ख बनाया जा रहा है। फिर भी कोई गुस्सा नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं।
तो क्या ऐसे समाज में परिवर्तन लाना सम्भव है? ऐसा प्रतीत होता है जैसे समाज में झूठ के साथ गठबंधन ही कर लिया हो। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: समाज ने उनसे गठबंधन नहीं कर लिया,वो समाज ही हैं। वो समाज ही हैं। गठबंधन की कोई बात नहीं है। तंबाकू, पान-मसाला, खैनी, गुटखा बेचने वालों को नागरिक सम्मान, पदमश्री ये आसमान से थोड़े ही टपके हैं, समाज ने ही तो दिये हैं। धर्म को पूरी तरह भ्रष्ट करने वालों को घोर अंधविश्वास फैलाने वालों को पद्मभूषण, पद्म विभूषण, असमान ने थोड़े ही दिये हैं, समाज ने ही तो दिये हैं।
तो ये समाज ही ऐसा है, जो स्वयं भ्रष्ट है और भ्रष्ट लोगों को ही सिर पर चढ़ाकर बैठना चाहता है। इसमें आपके लिए सीख बस इतनी है कि इन सम्मानों को आप सम्मान देना छोड़ दीजिए। उनका नाम है नागरिक सम्मान, उनमें बस नाम का ही सम्मान रहने दीजिए। उनमें कुछ भी सम्माननीय नहीं है।
देखिए, हमारी बड़ी इच्छा रहती है ये मानने की कि हम ठीक हैं, या थोड़े बेहतर हैं दूसरों से। और ग़लतियाँ दूसरे लोग कर रहे है, या समाज कर रहा है, या व्यवस्था कर रही है। समाज हम हैं, व्यवस्था हमारी है, नेता हमने चुने हैं, अभिनेताओं की पिक्चरों के टिकट हम लेते हैं। आप उनकी फ़िल्में चलाते हैं, उन्हें पदमश्री मिल जाता है। फिर वो जाकर के गुटका बेचते हैं।
हमारे लिए मनोरंजन बहुत बड़ी बात है। तो जो लोग मनोरंजन करते हैं वही हमारे लिए सबकुछ जाते हैं ,भारत रत्न भी दे देते हैं हम उनको। उनको बोल देते हैं सदी के महानायक हैं ये। और कर क्या रहे हैं? खैनी, खैनी, खैनी, खैनी, खैनी, खैनी। आपके बच्चों को तंबाकू चटा रहे हैं। आप उनको महानायक बता रहे हैं। ये सबकुछ जो हमारे आस-पास हो रहा है वो हमारे भीतर की स्थिति का ही प्रतिबिंब है। हम भीतर से जैसे हैं वैसे ही बाहर सबकुछ चल रहा है।
सम्मान और सत्ता जिन हाथों में है वो हमारे ही हाथ हैं। किसी बाहरी व्यक्ति को क्या दोष देना! कुछ हम बुरे हैं, कुछ हम बेहोश हैं। कुछ तो बात ये है कि हम सीधे-ही-सीधे बुरे हैं, हम जानते-बूझते बुरे हैं। और कुछ बुराई हमारी ऐसी है जो जानते-बूझते नहीं होती हमसे, बेहोशी में हो जाती है। फिर जब उसका परिणाम सामने आता है तो हम चौंकते हैं, हम कहते हैं, 'अरे! ये हो रहा है! ये हो रहा है!'
वो करतूत हमारी ही है। बस वो करतूत हमने नींद में करी है, बेहोशी में; तो हमें पता नहीं लगता कि हमारी है। अच्छा, एक बात बताइए अगर ये गुटका-खैनी बेचते हैं, तो लोग कैसे होंगे? सोचिए।
और इनके पास पैसे की कमी तो है नहीं, पर इनमें से कोई कुछ कर रहा है, कोई कुछ कर रहा है और इनकी कुल करतूतें कैसी हैं वो बिल्कुल जग-जाहिर हैं। तो ये लोग कैसे होंगे, आप समझ ही लीजिए।
जब ये लोग इस तरह के हैं, इनका पूरा वातावरण इस तरीक़े का है तो वो पूरी इंडस्ट्री ही किस माहौल की होगी, ये भी समझ लीजिए। ठीक है? तो वहाँ से जो उत्पाद आते होंगे वो अनिवार्यत: किस तरह के होते होंगे, ये भी समझ लीजिए।
लेकिन हम इस बात को तो बुरा बोल देंगे कि किसी ने गुटके का विज्ञापन करा, ये बोलते हुए हमें ज़रा समस्या हो जाएगी कि वहाँ से जो कुछ भी निकलकर आ रहा है वो सब गुटके ही जैसा है। क्यों? क्योंकि हमें भी तो पिक्चर देखनी होती है न। ज़िंदगी में और कुछ तो है नहीं, तो लग जाता है टीवी और नेटफ्लिक्स और एमेजॉन उसमें जो भी चल रहा है,या सिनेमा हॉल भी जाना है, जो भी है। शुक्रवार को कुछ भी रिलीज़ हुआ हो, जाकर बैठ जाना है वहाँ पर।
वो जो आप फ़िल्म देख रहे हैं उसी से गुटका निकल रहा है। ये बात आप नहीं समझेंगे बेहोशी में। ये सम्बन्ध आपको स्पष्ट दिखाई ही नहीं दे रहा है। वो फ़िल्म ही गुटका है। इनमें से आधों के तो अपराधियों से गहरे सम्बंध हैं।
अभी आज-ही-कल में किसी अभिनेत्री के यहाँ छापा-वापा पड़ा, कुछ रक़म ज़ब्त हुई है क्योंकि किसी ज़बर्दस्त अपराधी से उसके सम्बंध थे और उसी अपराधी ने उसको ये सब माल दे रखा था। लेकिन वही अभी स्क्रीन पर आकर आईटम नंबर कर देगी आप नाचना शुरू कर देंगे। तब आपको समझ में ही नहीं आएगा कि यहाँ मामला अंडर वर्ल्ड का चल रहा है।
कोई वजह है न, कि कन्नड़ और तेलुगु फ़िल्में ज़्यादा चलने लग गयी हैं ये गुटकेबाज़ों की फ़िल्मों से। उनकी इंडस्ट्री फिर भी बेहतर है, बॉलीवुड से। कुछ काम ऐसे हैं जो वहाँ नहीं होते।
अपने आस-पास जब भी कुछ ऐसा होता देखिए जो आपको साफ़-साफ़ दिख रहा है ग़लत है, अपनेआप से पूछा करिए मैंने ऐसा क्या करा है जो ये हुआ। ये अनुशासन पकड़ लीजिए। सड़क पर गड्ढा देखिए, अपनेआप से पूछिए मैंने ऐसा क्या करा जो ये हुआ।
ये अनुशासन कष्टप्रद होता है क्योंकि हमारी प्राकृतिक वृत्ति होती है कह देने की कि किसी और ने करा है। दुनिया गंदी है; देखो, ये गड्ढा पैदा कर दिया और इस गड्ढे से मुझे तकलीफ़ हो रही है। दुनिया के लोग ग़लत हैं, मैं अच्छा हूँ।
आप उल्टा अनुशासन पकड़िए। कहीं कुछ भी देखिए, पूछा करिए, 'मैंने क्या करा है जो ये हो रहा है'। और अगर आप ईमानदार हैं, तो इस प्रश्न का आपको जवाब मिलेगा। और इस प्रश्न का सार्थक जवाब है। क्योंकि जो हो रहा है बाहर वो करा तो हम ही ने है।
दो तरीक़े से करते हैं हम बाहर जो कुछ हो रहा होता है। एक, तमाम तरह का अधर्म और भ्रष्टाचार करके; और दूसरा, बाहर जो अधर्म और भ्रष्टाचार है उस पर मौन और शांत रहकर। इसलिए मुझे ये जो आध्यात्मिक शांति है इससे बड़ी समस्या है।
जहाँ आपको आवाज़ उठानी चाहिए, जहाँ भिड़ जाना चाहिए वहाँ आप कहते हो—'हा! हा! अरे! ये तो बालक-बुद्धि दुनिया है, माया का प्रपंच हैं; करते रहते हैं। हम तो जीवन मुक्त हैं, हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है'। फिर आपको झटका लग जाता है जब आपके ही घर का पिंटु सुड़कता पाया जाता है। अब कहाँ गयी जीवन मुक्ति? अब कहाँ गयी शांति?
आध्यात्मिक व्यक्ति को एक सक्रिय सांसारिक कार्यकर्ता होना ही पड़ेगा। चुप रहकर, हाशिए से मूक दर्शक बने रहकर देखने की कोई गुंजाइश नहीं है। जिस तरीक़े से हो सके, जितने ज़्यादा तरीक़ों से और तीव्रता से हो सके, उठिए, आगे बढिए, धनुष उठाइए।
आपका आध्यात्मिक मौन और झूठी शांति बहुत भारी पड़ रहे हैं। थोड़ा विचित्र लगेगा क्योंकि कभी करा नहीं, पर करना पड़ेगा। न करने में स्वार्थ है, न करने में इज़्ज़त भी है न!
कुछ भी हो रहा हो उल्टा-पुल्टा, उसको ठीक करने चलो तो मेहनत भी लगती है, समय भी लगता है, पैसा भी लगता है; कौन लगाए? दूसरी बात, जो उल्टा-पुल्टा कर रहे होते हैं वो तो ग़लीच लोग होते हैं, उनसे जाकर भिड़ोगे तो बेइज़्ज़ती भी होती है, बेइज़्ज़ती कौन बर्दाश्त करे?
बेइज़्ज़ती होना सीखिए, सम्मान बहुत बड़ा बोझ होता है। तैयार रहिए गालियाँ खाने को, बेइज़्ज़त हो जाने को। हो ही नहीं सकता कि कोई अच्छा काम करने चलो और चोट न पड़े, गालियाँ न पड़े, सम्मान न छिने। हो ही नहीं सकता।
आज के समय में सम्मान तो उन्हीं को मिलेगा जो इस सड़ी-गली व्यवस्था को चलाए रहने में सहयोगी हैं। उन्हीं को मिलेगा सम्मान। सही काम करोगे तो चोट और अपमान ही मिलेंगे। सहो न! इतना काफी नहीं है क्या कि काम सही है?
आप कौन सी शांति ला लोगे, बाबा! कृष्ण युद्ध नहीं रुकवा पाए, आप रुकवा लोगे? हमारा कहना है, 'नहीं! देखो, लड़ाई-झगड़ा अच्छी बात नहीं है। थोड़ा मैच्योर (परिपक्व) होकर सोचना चाहिए। देखिए, कोई बीच का रास्ता निकाल लेते हैं।' कृष्ण तो निकाल नहीं पाए आप कृष्ण से ऊपर के हो?
जब धर्म और अधर्म आमने-सामने खड़े हों तो कौन-सा बीच का रास्ता निकालोगे? लेकिन नहीं। एक पक्ष की तरफ़ पूरी तरह आकर के निष्ठा दिखाने में हमारी जान जाती है। बड़ा डर लगता है। तो हम कहते हैं, 'कुछ बीच का रास्ता निकल आए। देखिए, कुछ सुलह-संधि कर लें। फिर पूछ रहा हूँ, कृष्ण ने करा ली थी? तो आप कहाँ की तोप हो?
बात ये नहीं है कि आपको सुलह-संधि बड़ी प्यारी है। बात बस इतनी है कि दिल से कमज़ोर हैं हम। हिम्मत नहीं है कि गीता की सुनें और उठा ही लें हाथ में। हिम्मत नहीं है। तो हम ऐसे बनते हैं जैसे हम बड़े शांतिप्रिय लोग हैं, कबूतर उड़ाते हैं छत पर खड़े होकर। ये कबूतर-बाज़ी! इससे तर जाओगे?