निकटवर्ती को ही हाथ बढ़ा कर सहारा दिया जा सकता है || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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निकटवर्ती को ही हाथ बढ़ा कर सहारा दिया जा सकता है || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: मैं क्या पूछूँ समझ में नहीं आ रहा है पता नहीं क्यूँ।

वक्ता: दसवीं कक्षा की गणित की चल रही हो क्लास और उसमें बढ़िया पढ़ाया जा रहा है टॉपिक, क्वाड्रैटिक इक़ुएशन मान लो। वहाँ बिठा दो पाँचवी के बच्चे को, जिसको अभी लीनियर इक़ुएशन ही नहीं पता, तो वो कुछ पूछ सकता है क्या? पूछने के लिए तुमको विषय वस्तु के आस-पास तो होना चाहिए न? तुम यदि थोड़ा सा पीछे हो किसी से, तो हाथ बढ़ा के उसको पकड़ सकते हो। देखा है कभी? जा रहे होते हैं ट्रक-टेम्पो — बिहार में बहुत होता है — पीछे से साइकिल वाले पकड़ लेते हैं उनको हाथ से, और वो चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं। अब साइकिल भी चल रही है 30-40 की स्पीड से पर उसके लिए ज़रूरी क्या है? उसके लिए ज़रूरी क्या है? उसके लिए ज़रूरी ये है कि साथ वो लगा हो। जब साथ वो लगा है तो हाथ बढ़ा के पकड़ लिया। अब कोई पीछे छूट गया, बहुत पीछे छूट गया वो हाथ बढ़ाएगा तो क्या पाएगा? जो साथ लगा हुआ था यदि वो हाथ बढ़ाएगा तो उसकी गति उतनी ही हो जाएगी जितनी टेम्पो की। पर जो छूट गया पीछे अब वो हाथ बढ़ाएगा भी तो क्या पाएगा?

संवाद हो सके इसके लिए ये तो ज़रूरी होता है न कि कहने वाला और सुनने वाला, माहौल और तुम करीब-करीब एक तल पर हो। जहाँ सफ़ाई है, वहाँ सफाई का काम है विस्तार लेना, वो आगे बढ़ती चली जाती है और जहाँ सफाई नहीं है, उसका काम है और संकुचित होते चले जाना। वो अपने आप में ही सिमटती चली जाती है। दूरियाँ बढ़ती चली जाती हैं और एक समय के बाद किसी भी तरह का संपर्क, कोई संवाद असंभव हो जाता है। यही वजह है कि आम-आदमी की ग्रंथों में कोई रुचि होती ही नहीं और उसको पकड़ कर के बैठा दो, ‘‘लो पढ़ो। ये शास्त्र हैं, इन्हें पढ़ो’’ तो भी उसे कुछ समझ नहीं आता जबकि शास्त्रों की भाषा भी सरल, बात भी सीधी लेकिन फिर भी उसे कुछ समझ नहीं आता। समझ में इसीलिए नहीं आता क्यूँकी दुनिया अलग हो चुकी हैं। कैसे समझोगे अब? शास्त्रों की दुनिया अलग है वो किसी और मन से कहे जा रहे हैं और आम आदमी की दुनिया अलग है। शास्त्र जिन शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं, वो आम-आदमी के लिए वैध ही नहीं हैं।

वो कह रहे हैं ‘सरलता’ और सरलता तुम्हें पता ही नहीं, तुम भूल ही गए, एकदम भूल ही गए कि सरलता क्या होती है तो वो सरलता-सरलता कहते रह जाएँगे और तुम कहते रह जाओगे समझ में नहीं आ रहा है। समझ में आने के लिए सरलता शब्द तुम्हारे भीतर प्रतिध्वनित भी तो होना चाहिए। शास्त्र कहते रह जाएँगे सुन्दरता और सुन्दरता तुम्हारे जीवन से जा चुकी है। शास्त्र कहें सुन्दरता और तुम समझ पाओ कि वो क्या कह रहे हैं इसके लिए तुम्हें सुन्दरता का कुछ बोध भी तो होना चाहिए! वही तुम देखो ये जो आम लेखक होते हैं, जो किस्से-कहानियाँ लिखते हैं, उपन्यास लेखक, कथा लेखक, ये खूब क्लिष्ट भाषा में लिखेंगे। इनकी प्रसिद्धि कुछ हद तक निर्भर ही इसी बात पर करती है कि इनकी भाषा तुरूह कितनी है लेकिन ये समझ में आ जाते हैं लोगों को। ये समझ में आ जाते हैं लोगों को। लोग बैठे होंगे, पढ़ रहे होंगे इनको कि जिन्हें अंग्रेजी नहीं भी आती होगी वो भी अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ रहे होंगे और खूब समझ रहे होंगे। हो सकता है कि एक वाक्य, एक पैरा जितना लम्बा हो पर वो फिर भी उसे बैठ के पढ़ रहे होंगे और उन्हें समझ में भी आ रहे होंगे और किसे समझ में आ रहे होंगे? उसे भी समझ में आ रहे होंगे जिसे अंग्रेजी समझ में नहीं आती! अंग्रेजी समझ में नहीं आती पर उपन्यास समझ में आ रहा है और वो झूठ नहीं बोल रहा, उसे वाकई समझ में आ रहा है। उसे कैसे समझ में आ रहा है? उसे समझ में आ रहा है कि भाषा न समझ में आ रही हो, अंग्रेजी न समझ में आ रही हो, वाक्य न समझ में आ रहा हो, लेकिन लिखने वाले का मन समझ में आ रहा है। तुम्हें आती होगी भाषा खूब, तुम होगे संस्कृत के बड़े विद्वान लेकिन मन से तो तुम मेरे ही जैसे हो। तो तुम जो भी लिखोगे, मैं जानता हूँ क्या लिखोगे। तुम जो भी लिखोगे जानता हूँ कि क्या लिखोगे तो आ गया समझ में।

अब दूसरी ओर तुम उठाओ कोई उपनिषद्, दो शब्द लिखे हैं ‘प्रज्ञानं ब्रह्म‘। दोनों बड़े सरल शब्द हैं और ये अभी-अभी महाशय उपन्यास पढ़ रहे थे जो उन्हें खूब समझ में आ रहा था। इतना मोटा उपन्यास, खूब समझ में आ रहा था उनको! जबकि उसकी भाषा भी ऐसी जो इनके लिए एक विदेशी भाषा है। यहाँ बस इतना ही लिखा हुआ है कि प्रज्ञान ही ब्रह्म है और मान लो ये हिंदी भाषी हैं। प्रज्ञान ही ब्रह्म है भी नहीं, प्रज्ञान ब्रह्म है। तीन शब्द, साफ़ साफ़ दिख गया कि क्या लिखा है पर समझ में नहीं आएगा। वहाँ समझ में इसलिए आ रहा था क्यूँकी लिखने वाले का मन और तुम्हारा मन एक ही तल पर थे, भले ही भाषा एक तल पर न हो। लिखने वाले का मन और तुम्हारा मन एक ही तल पर थे, भाषा अलग-अलग तल पर है तो भी तुम्हें पता है कि क्या बोलोगे। जो बोलोगे वही तो बोलोगे जैसे तुम हो और जैसे हम हैं। अब यहाँ कहा ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ दो सरल से शब्द हैं लेकिन तुम्हें न तो कुछ प्रज्ञान का पता, न ब्रह्म से तुम्हारा कोई परिचय, तो तुम्हें कैसे समझ में आएगा कि क्या कह दिया गया? और ऐसा नहीं कि बात कुछ बड़ी ख़ुफ़िया है कि तुम्हें आ नहीं सकती समझ में। बात तो यही है कि, ‘’प्रज्ञानं बह्म’’ पर समझ के बताओ। समझ के बताओ।

मन का फ़ासला है, मन बहुत दूर हो गया है न – ‘तेरा मेरा मनवा, कैसे एक होई रे’। मन इतनी दूर हो गए हैं, अब यहाँ से एक शब्द भी कहा जाएगा तो तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। यहाँ से इतना भी कह दिया जाएगा कि आओ तो तुम जानोगे ही नहीं कि क्या कह दिया गया। अब कहा तो यही गया है कि आओ, ध्वनि वही है आ-ओ पर अगर तुम्हें आओ समझ में आ सकता तो तुम्हें ॐ भी समझ में आ सकता। एक ही तो शब्द हैं, ‘ॐ’ आ जाता समझ में। ‘ॐ’ नहीं समझ में आता, बड़ी मुश्किल हो जाती है ॐ समझने में। हो जाती है कि नहीं हो जाती है? बड़े जटिल किस्म का कोई वार्तालाप चल रहा होगा, कोई चर्चा चल रही होगी वो तुम्हें खूब समझ में आ रही होगी, विषय हो सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति, उस पर विवाद चल रहा है। तुम्हें खूब समझ में आ रहा होगा या तुम कोई कंप्यूटर प्रोग्राम लिख रहे हो उसमें एक लाख लाइन हैं कोड की, बड़ी साधारण सी बात है एक लाख तो बड़ा छोटा सा आँकड़ा है, दस-दस लाख लाइन वाले होते हैं, वो तुम्हें खूब समझ में आ रहा होगा। आ जाता है कि नहीं आ जाता है? आता है कि नहीं आता है? ॐ नहीं समझ में आता। ये क्या बात हुई भाई? ॐ नहीं समझ में आता। तुम साहित्य के छात्र हो और तुम शोध कर रहे हो किसी इतने मोटे ग्रंथ पर। शब्द-शब्द-शब्द और तुम शोध कर भी डालोगे और कोई तुम्हारे ही जैसा होगा जो तुम्हारे शोध को स्वीकृति भी दे देगा वो कहेगा, ‘’ठीक, तुमने जो शोध किया, वो बिलकुल ठीक। आज से तुम डिग्री धारी कहलाओगे।’’ ॐ तब भी समझ में नहीं आया तो इन्हें क्या समझ में आया?

ये जो इतने शब्द इन्होनें कहे कि हमने समझे, उन्हें क्या समझ में आया? ये जो तुमने ख़ुद इतना कुछ लिख डाला वो क्या है? वो वाक-चातुर्य है और क्या है! तुम्हें कुछ समझ में आया क्या? समझ में कुछ आ सके, उसके लिए बड़ा खाली और बड़ा सरल मन चाहिए, बड़ी निर्मलता चाहिए। जटिलता कभी समझी नहीं जाती, जटिलता सिर्फ खाँचों में फिट की जाती है, वो फिट हो जाती है। इसी लिए जटिलता से हमें कोई आपत्ति नहीं होती। मन भी हमारे जटिल हैं न, जटिल मन जटिलता को देखता है कहता है, ‘’हाँ, जानता हूँ मैं इसको। इसी के साथ तो खाता, बैठता, उठता, सोता हूँ। जानता हूँ मैं इसको।’’ जटिल मन सरलता को देखता है तो आँखें चौंधिया जाती हैं। कहता है ये नई चीज़ क्या आ गई सामने? अब क्या करें?

तुम्हारे साथ खड़ा हो कर के कोई खूब बातें कर रहा हो जिनमें मक्कारी है, जिनमें दोहराव-छिपाव है, जिनमें लेन-देन है, गणित है; तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। तुम सरलता, सहजता से उसके साथ खड़े रहोगे और तुम्हारे सामने कोई खड़ा हो जाए जो न कुछ हिसाब कर रहा है, जिसकी न कुछ बोलने में रुचि है, वो बस एक निर्दोष बच्चे की तरह तुम्हें देख रहा है। तुम्हारे पसीने छूट जाएँगे। कभी-कभी ऐसा हो जाता है, गुज़रे होगे ऐसे अनुभव से। तुम बोल रहे हो बहुत कुछ, उसे बोलने में कोई रुचि नहीं। वास्तव में उसे तुम्हारा बोलना समझ में नहीं आ रहा है। वो तो किसी अबोध पशु की तरह तुम्हें देख रहा है एक टक आँखों में। तुम हिल जाओगे, रूह काँप जाएगी, तुम वहाँ खड़े नहीं रह सकते। तुम कोई बहाना बना के सटक लोगे वहाँ से और यदि भाग नहीं सकते तो हो सकता है थोड़ी देर में चिल्ला दो कि, ‘’मेरा अपमान करना बंद करो। साफ़ आँखों से मेरी ओर देखना बंद करो मुझे ऐसा लग रहा है कि कोई मुझे नग्न देख रहा है, बर्दाश्त नहीं होता।’’ देखा है लोग मिलते हैं उनके लिए कितना ज़रूरी हो जाता है, आपस में बातें करना? आमने-सामने बैठे हों, बातें न कर रहे हों तो जान सूख जाएगी उनकी और अगर बातें नहीं कर रहे होंगे तो उनका अपने आप से कोई संवाद चल रहा होगा, आत्म-संवाद, अपने-आप से बातें कर रहे होंगे।

ठीक है दो बैठे हैं आमने-सामने, वो अपनी-अपनी दुनिया में मग्न हैं। देखा होगा। उसकी बाहरी अभिव्यक्ति कभी-कभी ऐसे होती है कि दो लोग बैठे हैं आमने-सामने और दोनों अपने फ़ोन के साथ व्यस्त हैं और फ़ोन मान लो नहीं है हाथ में, तो अपनी-अपनी कल्पनाओं में व्यस्त हो सकते हैं पर न फ़ोन हो, न कल्पनाएँ हों और दो आमने-सामने हों और बात न कर रहे हों तो प्राण थरथरा जाते हैं। ज़रूरी हो जाता है कि कुछ बोला जाए, जटिलता लाई जाए, झूठ-झूठ लाए जाएँ। सन्नाटा सरल होता है। समझ में नहीं आता। इतना सरल होता है मौन, कि उसका कोई अर्थ नहीं कर सकते। जटिल व्यक्ति के लिए बड़ी से बड़ी सज़ा ये होती है कि उसकी आँखों में झाँक दो। वो तिलमिला जाता है। हो सकता है वो बहुत कुछ बोल गया हो तुमसे, तुम चुप रहो और बस देख दो उसकी ओर। इस बात को तरकीब की तरह इस्तेमाल मत कर लेना पर यदि ये वास्तव में होता है कि कोई खूब बोल गया तुमसे और तुम मौन रह कर के बस देख लेते हो उसको तो प्राण काँप जाते हैं। कुछ नहीं कहा, धमकी नहीं दी, गाली नहीं दी पर सज़ा मिल गई और तुम पूछो कि क्या नहीं समझ में आया तो बता पाना बड़ा मुश्किल हो जाएगा।

पूछो प्रज्ञान नहीं समझ में आया? ‘प्रज्ञान’ का अर्थ है उच्चतम ज्ञान।

ज्ञान जो ज्ञान को काटे, ज्ञान जो ज्ञान का खोखलापन सिद्ध कर दे, वो प्रज्ञान है

और ब्रह्म जिसमें तुम स्थापित हो, समस्त पूर्णता, ये सब होना और न होना, यही ब्रह्म है। कोई बाहर की बात नहीं, अन्दर-बाहर सब ब्रह्म। नहीं समझ में आया? पर आपको भौतिकी के जटिल फोर्मुले तो इतनी जल्दी समझ में आ जाते थे। ये ज़रा सी बात क्यूँ ना समझ में आई? ये क्यूँ नहीं समझ में आती? क्यूँकी तुम्हें कभी कुछ समझ में आया ही नहीं। ये दुनिया भर के जितने तथाकथित विद्वान हैं जिनका दावा है कि उन्हें बड़ी समझदारी है, उन्हें क्या कुछ समझ में आता है? कबीर ने कहा था ‘ढाई आखर प्रेम का’। साहब कर रहे हैं साहित्य में पी.एच.डी और वो ऐसे अनपढ़ हैं कि ढाई अक्षर नहीं पता उन्हें। ढाई अक्षर नहीं पता, ग्रंथ लिख डाले हैं, खूब छपे हैं। कोई पूछेगा परिचय, ‘’बोलेंगे 18 किताबें।’’ ढाई अक्षर तो पता नहीं तुमको, बाकी सब पता है। ऐसा तो नहीं कि कोई अन्धरूनी साज़िश है? ये ढाई अक्षर, फिर डेढ़ अक्षर, फिर आधा अक्षर और फिर मौन न समझ में आ सके इसीलिए अपने आप को व्यर्थ की सूचनाओं से और शब्दों से भरते हो। मौन से बचने की खातिर अपने ही विरुद्ध षड्यंत्र रचते हो। प्रेम से बचना है तो रोमांटिक नावेल पढ़ते हो। क्यूँ पढ़ते हो? और फिर इतनी कहानियाँ पढने के बाद किसी दिन प्रेम तुम्हें स्पर्श कर जाए और तुम्हारे ह्रदय में ज़रा भी कंपन न हो तो क्या ताज्जुब है इसमें? प्रेम सामने खड़ा होगा तुम्हारे, तत्पर होगा गले मिलने के लिए और तुम श्रृंगार रस की किसी लम्बी कविता में व्यस्त होगे।

प्रेम न चीखता है, न चिल्लाता है न बहुत ज़ोर से अपने होने का एहसास दिलाता है, वो तो बड़ी सूक्ष्म बात है जैसे कि तुम बैठे हुए हो खुले में और मग्न हो अखबार पढने में और तुम्हें पता भी नहीं चल रहा है कि हल्की-हल्की धूप तुम्हारे पाँव पर पड़ रही है वो अपना एहसास नहीं करा रही है। जैसे कि पता भी नहीं चल रहा कि हल्की-हल्की हवा तुम्हारे बालों को सहला रही है, वो अपना एहसास नहीं करा रही है। तुम अगर अपने शब्दों और किताबों के साथ व्यस्त रहना चाहते हो तो, रह सकते हो और फिर हम कहते हैं कि जीवन क्यूँ आनंद से सूना है, प्रेम से खाली है। खाली कहाँ है? तुम देखो कि कितना भरा हुआ है। इतना भरा होने के बाद तुम में क्या शक्ति बचेगी कुछ अनुभव करने की? तुमने खाया हो अभी-अभी बिलकुल चटपटा, ज़ायकेदार खाना और तुम्हारा मुँह मसालों से, मिर्च से, तेल से अभी भी जल रहा है। तुम्हारी नाक़ में अभी भी गंध बसी हुई है खाने की। उस समय तुमको दे दिया जाए कोई साधारण सा फल कि ज़रा खाना इसको। तुमसे पूछा जाए कि इसका स्वाद क्या है? तुम कहोगे कोई स्वाद नहीं, स्वाद है ही नहीं। तुम्हारी जीभ के तंतु अपनी क्षमता खो चुके हैं। जटिल में जीते-जीते सरल का एहसास होना ही बंद हो गया है।

तुम्हारी हालत कुछ ऐसी है कि तुम किसी सुन्दर पहाड़ी नदी के किनारे हो और हो तुम सामाजिक किस्म के जंतु तो वहाँ पर भी तुम दुनिया भर के जूते, कपड़े, लत्ते, शाल, मफ़लर पचास तरह के आवरण ओढ़ के खड़े हो और वहाँ तुम देखते हो कि मस्तों की टोली है एक और छपा-छप, वो नंगी नहा रही है। कोई हँस रहा है, कोई तैर रहा है, कोई चुप चाप मौन बैठा है पर एक बात सब में साझी है कि कपड़े किसी ने नहीं पकड़ रखे। नदी किनारे कपड़ों जैसी बात ही मूर्खतापूर्ण है। और तुम सब को देख रहे हो, ‘’अच्छा! ये हैं सब’’ और तुमसे कोई कहता है कि, ‘’आओ, कूदो तुम भी’’ और तुम कहते हो, ‘’पर वो वाले कपड़े तो मेरे पास हैं ही नहीं।’’ तुम कहते हो कि, ‘’वो वर्दी जो इन सब ने धारण कर रखी है! भाई, इतने सारे लोग एक से ही दिख रहे हैं।’’ तुम कहते हो, ‘’ये जो इन्होनें सबने जो यूनिफार्म पहन रखी है वो हमारे पास है ही नहीं हम कैसे कूदें?’’ पहली बात तो ये कि इतने कपड़े पहनते-पहनते तुम्हें अब अपने देह की ही स्मृति छूट गयी है। तुम भूल गए हो कि कपड़ों के नीचे भी तुम कुछ हो और दूसरी बात ये कि अब तुम्हारे सामने कोई नग्न देह आता भी है तो तुम्हें लगता है ये एक नए किस्म का कपड़ा है जो इसने पहन रखा है।

तुम ये नहीं कहते कि ये शरीर है। तुम कहते हो, ‘’अच्छा! ये किसी नए डिज़ाइन का कपड़ा है।’’ और अब तुम हैरान हो, परेशान हो कि, ‘’कुछ समझ में नहीं आ रहा है’’ कि, ‘’ये वाली पोशाक कहाँ से मिलेगी। अब ये सब तो बड़े चतुर लोग लगते हैं। हाँ देखो, लगता है एक ही बाज़ार से खरीदा है। हर साइज़ का मिलता है, मोटे ने भी वही पहन रखा है, पतले ने भी वही पहन रखा है। पुरुषों ने, स्त्रियों ने सब ने वही पहन रखा है। मैं ही बेवक़ूफ़ रह गया, इतने कपड़े खरीद लिए, पर वो वाली ड्रेस नहीं मिली मुझे कभी।’’ कहाँ से ला के दें तुमको वो पोशाक? और फिर सवाल तुम्हारा यही होगा कि, ‘’समझ में नहीं आ रहा है कि वो कहाँ से पाएँ?’’ समझ में नहीं आ रहा है कि, ‘’हममें कमी क्या रह गई।’’ कमी तुममें कहाँ है? अपने वज़न बराबर तुम आवरण ओढ़े हुए हो। कमी कहाँ है? तुम तो बहुत ज़्यादा-ज़्यादा हो। कम होने के लिए तैयार कहाँ हो?

अभी भी चेत जाओ। अभी तो बस इतना कह रहे हो कि मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या पूछूँ। जिन ढर्रों पर चल रहे हो, अगर वो जम गए, पक्के हो गए तो वो दिन दूर नहीं है जब तुम कहोगे कि, ‘’पूछने लायक कुछ है नहीं क्या पूछूँ।’’ अभी तो कह रहे हो मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि क्या पूछूँ। कम से कम थोड़ी ज़िम्मेदारी ले रहे हो, कम से कम ज़रा सा एहसास शेष है कि तुम्हें समझ में नहीं आ रहा है। जल्दी ही वो स्थिति भी आ जाएगी जब तुम ये नहीं कहोगे कि तम्हें समझ में नहीं आ रहा है, तुम कहोगे, ‘’यहाँ कुछ है नहीं बात करने लायक, मैं क्या बात करूँ? ये मूर्ख मंडली बैठी है इसमें मुँह खोलना अपमान है मेरा, मैं इसलिए नहीं बोलता।’’ चेत जाओ। किसी व्यक्ति को जानना हो तो कोई जटिल सवाल मत पूछो। जानना हो कि किसी व्यक्ति में कितनी गहराई है और कितना जीवन है तो उससे कोई जटिल सवाल मत पूछो, कोई बड़ी बात मत करो। बड़ी बातों को तो हम पानी की तरह पी चुके हैं, खूब ज्ञान इकट्ठा कर रखा है। पूछोगे वो ऊलीच देगा। उससे छोटी बातें पूछो। यही कारण है कि बच्चों से बड़े अक्सर घबराते हैं, वो छोटी बात पूछते हैं। किसी को मापना हो, परखना हो तो उससे छोटी बातें पूछो। उससे पूछो प्रेम। कोई और इधर उधर की बात नहीं। तुम उससे कहोगे, ‘’विवाह के मनोविज्ञान पर शोध ग्रंथ लिख दो,’’ वो तुरंत लिख देगा। वो दुनिया भर के सारे सिद्धांत तोते की तरह तुम्हारे सामने गा देगा। पर तुम उससे कहो, ‘’प्रेम बताओ, ढाई आखर बताओ’’ और इधर-उधर की बात करने न दो बोलो, ‘’न, बस प्रेम।’’ फिर देखो कैसे साँस रूकती है उसकी। उसको ऐसा लगेगा कि जैसे तुमने गला पकड़ लिया। ‘’न, बस प्रेम। हम बड़ी बातों पर बात करना ही नहीं चाहते। हमें तो छोटी बातों पर बात करनी है।’’

कोई नेता खड़ा हो तुम्हारे सामने और दे ले अपना पूरा व्याख्यान और उसके बाद उससे बस इतना पूछो, ‘’मस्त हो?’’ और देखो कितना बिफ़रता है कि नाजायज़ सवाल पूछ लिया तुमने, ये नहीं पूछना चाहिए था। छोटी बातें पूछा करो। छोटे बच्चे पूछ लेते हैं। पापा उसको स्कूल से घर लेकर जा रहे होंगे, पूछ लेगा, ‘’उसी घर जा रहे हैं क्या?’’ उसके लिए ये जायज़ सवाल है वो कह रहा है स्कूल से ले कर के उस अपने घर तक हज़ारों घर पड़ते हैं। ‘’हम किसी और घर में क्यूँ नहीं घुस जाते?’’ पिताजी को ये संभावना ही कभी नहीं आती, और ये घटना घटी थी मेरे सामने। उसने यही पूछा कि, ‘’उसी घर जा रहे हैं क्या?’’ तो वो देख रहा है कि इधर भी घर की पातें, उधर भी घरों की कतारें तो वो पूछ रहा है कि, ‘’इसी घर क्यूँ जाना है? ये सब भी तो घर हैं, इनमें क्यूँ नहीं घुस जाना है?’’ सरल सा सवाल है। राष्ट्रपतियों से पूछोगे, नोबेल पदक धारियों से पूछोगे तो या तो वो इस सवाल की ऐसे अवहेलना कर देंगे कि, ‘’ये तो ज्ञान लेने काबिल ही नहीं है,’’ या वो तुम्हें ऐसे देखेंगे कि किस मूर्ख से पाला पड़ गया है। और यदि ज़रा सी इमानदारी बची होगी तो कह देंगे कि, ‘’मेरे बूते से बाहर का सवाल पूछ लिया तुमने। असली सवाल मत पूछा करो। नकली सवाल-जवाब कर लो।’’

सरल ही कसौटी है।

दुनिया तुम्हें सिखाती है कि तुम कुछ बने तब, जब तुम्हें जटिल होना आया। दुनिया ने तुम्हें जो भी कुछ सिखाया है, उसने तुम्हें जटिलता की ओर अग्रसर किया है पर जीवन में तुम कुछ तब हुए जब तुमने अपनी सरलता पुनः प्राप्त की। बड़ा अंतर है। समाज तुम्हें कुछ तब मानेगा, जब तुम खूब जटिल हो जाओगे पर जीवन तुम्हें कुछ तब ही मानेगा जब तुम एक दम सरल हो जाओगे। फिर ॐ भी समझ में आएगा, प्रेम भी समझ में आएगा, प्रज्ञान भी समझ में आएगा और ब्रह्म भी समझ में आएगा। तुम कहोगे ये, ‘’ये तो बच्चों वाली बात है।’’ ब्रह्म तो है ही वास्तव में बच्चों वाली बात। ब्रह्म कोई ज्ञानियों वाली बात है? एक ज्ञानी दिखा दो जिसे ब्रह्म समझ में आता हो। बच्चों को आता है। कर लेना कोशिश, बाहर वो मुर्गा घूम रहा है उससे पूछ लेना ब्रह्म। वो जता देगा कि उसे आता है, तुम्हें ही नहीं आता। गिलहरियाँ हैं, खरगोश हैं यहाँ तक कि छोटे-छोटे कीड़े हैं उनसे तुम पूछो उन्हें पता है। प्रेम भी पता है, प्रज्ञान भी पता है। कोई ग्रंथ नहीं है उनके पास पर उन्हें पता है। सीखना हो तो उनसे सीख लेना, किलो के भाव वाले ग्रंथों पर मत जाना।

एक ज्ञानी जी थे वो बताया करते थे, ‘’साड़े अट्ठारह किलो किताबें लिखी हैं।’’ हमारा अंशु (श्रोता को इंगित करते हुए) भी एक किताब को आधार बना के उस पर शोध कर रहा है तो किलो के भाव से नापता है। कितना हो गया? अभी 600 ग्राम और बचता है और बाहर बैठा है वो ज़रा सा पतंगा, चार ग्राम का, उसे प्रेम पता है। उसे बेवक़ूफ़ नहीं बना पाओगे तुम। ज्ञानियों को बेवक़ूफ़ बनाना बड़ा आसान होता है, बच्चे को नहीं बना पाते हैं हम। देखा है? वो पकड़ लेते हैं। तुम हँस रहे होगे उसके सामने खूब वो तुम्हें एक टक देख रहा होगा। उसे पता है, खुश तो नहीं हो, आनंद तो नहीं है तो हँस क्यूँ रहे हो? उसे दिख जाएगा। दुनिया को बना लोगे खूब बेवक़ूफ़, बच्चे को नहीं बना पाओगे और वो तुम्हारी इज्ज़त और उतार देगा।

जिन लोगों को प्रभावित करने के लिए हँस रहे हो, उन्हीं के सामने पूछ देगा, ‘’मम्मी, मूड ख़राब है क्या?’’ और फिर अपनी शक्ल देखना। राजा की कहानी सुनी है न? रथ पे नंगा अपनी शोभा यात्रा निकाल रहा था नगर से। अब पूरा नगर तालियाँ दे रहा था कि वाह! राजा के नए वस्त्र कितने सुन्दर हैं। फिर एक बच्चा बोलता है, ‘‘नंगा।’’ ये बात उसने बहुत साहस जुटा के नहीं कही थी, बच्चों को बहुत ज़्यादा साहस चाहिए नहीं होता है। सहजता की बात है कि, ‘’ये तो मेरे जैसा है। मैं भी ऐसे ही दिन रात घूमता हूँ नंगा। ये भी वैसे ही घूम रहा है। अंतर यह है कि ये अपनी शोभा दिखा रहा है, मैं नंगा घूमता हूँ तो मुझे कच्छा दे देते हो।’’ तुम्हारे लिए तो भला ये ही है कि उन लोगों से बचो जो बच्चों जैसे हों, बड़ी बुरी हालत कर देते हैं वो। उनके आगे कुछ चलती ही नहीं तुम्हारी। जैसे कि तुम एक मुर्गे के सामने खड़े हो जाओ और तुम बताओ कि, ‘’मैं अट्ठारह देशों में जा चूका हूँ, आठ किताबें प्रकाशित कर चूका हूँ, दस लाख लोग मुझे जानते हैं, इतनी मेरी दौलत है, इतनी मेरी शौहरत है’’ और जब तुम सब कुछ बता लो तो वो बोले कुक-डू-कू (मुर्गे की आवाज़ निकलते हुए)। कहीं के नहीं रहे तुम। पूरी इज्ज़त उतर गई, कहीं के नहीं बचे। किसको शक्ल दिखाओगे अब? मुर्गे तक पर कोई असर नहीं पड़ा तुम्हारे जीवन भर के श्रम का। ऐसा व्यर्थ जीवन। एक मुर्गा तक महत्त्व नहीं दे रहा तुमको और तुम मुर्गे के सामने अपनी बड़ी गाड़ी ले आ कर के दिखा दो कि वो तुम को कुछ मानने लग जाए। हमारा वाला तो नहीं मानता।

कबीर बार-बार बोलते हैं कि, ‘’अपने देस वापस आओ, अपने देस वापस आओ।’’ जब वो देस कहते हैं तो उनका आशय भारत से नहीं है पर वो बार बार बोलते हैं- ‘सो देस हमारा।’ प्रेम जानता है, बहुत बार देखा है मैंने, प्रेम समझता है, खूब समझता है। आँखें समझता है। तुम कुत्स भावना ले कर के उसके सामने जाओगे, तुम्हारे निकट नहीं आएगा, भागता है।

बहुत बोलते हो। वो नहीं किसी का अभिनन्दन करता है कि, ‘’आचार्य प्रशांत अन्दर आ रहे हैं तो खड़े हो जाओ, ये और वो।’’ उसकी जब मर्ज़ी हुई आया, थोड़ी देर बैठा फिर चला जाएगा। तुम्हें उसे कुछ देर और बैठाना हो तो तुम्हें मित्रता करनी होगी उसके साथ। उसके सर पर हाथ फ़ेरो, गोदी में बिठा लो। उसे बातें-वातें नहीं समझ में आती बहुत। तुम्हारी दौलत नहीं समझ में आती। तुम होगे कहीं के अरबपति तुम उसके सर पे हाथ फेरोगे तो तुमसे दोस्ती करेगा, नहीं तो नहीं करेगा। तुम होगे बहुत बड़े ज्ञानी, यहाँ चल रही होगी बड़ी ज्ञान की बातें, रिकॉर्डिंग , ग्रंथों के श्लोक उसे नहीं समझ में आता। ‘’खरा माल हो तो बताओ।’’ माल का वर्णन नहीं चाहिए, माल चाहिए, माल। ‘’तुम माल के बारे में बताते रहते हो, माल बताओ कहाँ है, माल। नाम मत बताओ, गाँव ले चलो, नाम नहीं गाँव।’’ तो बस ऐसे ही हैं वो खरगोश।

एक दफ़े अपना बोध शिविर चल रहा था आप में से भी कुछ लोग उसमें रहे होंगे, याद है? किसी ग्रंथ पे मैं बोल रहा था और मेरे और कैमरे के बीच में आ कर के कुत्ता खड़ा हो गया। वो पूँछ हिला रहा है, प्रेम में पूँछ हिला रहा है। मैंने हटाने की ज़रूरत नहीं समझी। मुझे काटने नहीं आया था, आप पर भौंकने नहीं आया था, उसने हमारी सभा लगी देखी उसमें शामिल होंने आया था। पूँछ हिला रहा था और चर्चा भी प्रेम की हो रही है। जहाँ प्रेम की बात हो रही हो, वहाँ एक प्रेमी जन सम्मिलित होने आया हो उसे कैसे हटा दें? तो कुछ देर तक तो आलम ये था कि उसकी आप रिकॉर्डिंग देखिए तो कुछ देर तक तो स्क्रीन पर मैं नज़र ही नहीं आऊँगा, सिर्फ एक पूँछ है। फिर वो अपना कुछ देर बगल में बैठा और फिर चला गया। बोला, ‘’ये ज्यादा व्यस्त लोग हैं। इनके पास अभी असली चीज़ के लिए समय नहीं है।’’

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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