मिलिए इस इंसान से - इसपर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हुआ है (चौंक जाएँगे!) || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)

Acharya Prashant

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मिलिए इस इंसान से - इसपर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हुआ है (चौंक जाएँगे!) || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, जो सोसाइटी (समाज) के द्वारा हमारे ऊपर कंडीशनिंग (अनुकूलन) करी गयी है, गलत मूल्यों को हमारे अंदर बैठा दिया गया है। लेकिन मुझे एक चीज़ समझ में नहीं आती है कि यह सोशल (सामाजिक) कंडीशनिंग इतनी बुरी तरह कैसे हम पर हावी होती चली गयी? अगर हम पहले के युगों से अपने को कंपेयर (तुलना) करें, अगर सोशल कंडीशनिंग देखें तो वह बढ़ती चली जा रही है और मतलब हम लेस् फ्री (कम मुक्त) होते जा रहे हैं पहले से। तो…

आचार्य प्रशांत: बैठिए। तो सवाल पूछा है कि 'यह सारी सोशल कंडीशनिंग आ कहाँ से गयी?' हम जंगल से निकले हैं तो फिजिकल कंडीशनिंग (शारीरिक अनुकूलन) तो समझ में आती है। हम जानवर हैं, तो जो फिजिकल टेंडेंसीज़ (शारीरिक वृत्तियॉं) हैं उसका मामला तो सीधा है। वही जानवर में पायी जाती है, वही हममें पायी जाती है। तो यह सोशल कंडीशनिंग कहाँ से आ गयी? यह सोशल कंडीशनिंग वास्तव में हमारी कोशिश है उस फिजिकल कंडीशनिंग को हटाने की।

हर तरह की सोशल कंडीशनिंग , ऐसे समझ लीजिए कि एक तरह की शिक्षा होती है, शिक्षा। आप कहते हो न, ‛हम बच्चों को संस्कार देते हैं।' आप वह संस्कार उनको क्यों देते हो? संस्कार होते हैं वृत्ति का प्रतिकार करने के लिए। कौनसी वृत्ति? वही जो जंगल की वृत्ति है हमारी।

तो इसलिए बच्चे को संस्कार बताए गये हैं ताकि उसमें जो कुछ जंगली है उसको हटाया जा सके। और बच्चे को इंसान ही नहीं, दैवीय, डिवाइन् बनाया जा सके। यह जो संस्कार हैं, इनका उद्देश्य तो यह है कि यह आपकी फिजिकल कंडीशनिंग को हटा सकें। जो हमें संस्कार दिये जाते हैं, जो शिक्षा दी जाती है बच्चे को या जो उस पर प्रभाव डाले जाते हैं — सीख, नसीहत यह सब चलता है — वह आदर्श रूप में, आइडीअलि सिद्धान्त रूप में तो इसलिए है ताकि बच्चा जानवर से इंसान बन सके। तो ऐसे समझ लो कि फिजिकल जो कंडीशनिंग है, जो हमारी शारीरिक वृत्तियाँ हैं वह एक तरह की बीमारी है जो जन्म से ही लगी होती है। वह क्या हैं? बीमारी जो हमें जन्म से ही लगी होती है।

बच्चा पैदा ही होता है वह बीमारियाँ लेकर। कौनसी बीमारी लेकर? अज्ञान, भ्रम, मोह। यह सब बीमारियाँ लेकर ही तो बच्चा पैदा होता है न; सिखानी तो नहीं पड़ती। बच्चे को मोह सिखाना पड़ेगा क्या? बच्चे को अज्ञान सिखाना पड़ेगा क्या? या लालच या डर बच्चे को सिखाने पड़ेंगे? यह तो वह लेकर पैदा होता है। तो यह बीमारी वह लेकर पैदा हुआ। तो फिर जानने वालों ने कहा कि साहब इन बीमारियों के साथ तो यह अच्छी ज़िन्दगी नहीं जी पाएगा, तो यह बीमारी हटानी है। यह बीमारी हटाने के लिए उसको दवाई दी जाएगी। वह दवाई क्या है? शिक्षा और संस्कार।

शिक्षा और संस्कार वह दवाई हैं जो दिए जाते हैं ताकि आप अपनी जैविक वृत्तियों, फिजिकल कंडीशनिंग से मुक्त हो पाओ। लेकिन अगर दवाई देने वाला और दवाई बनाने वाला एकदम नासमझ है तो दवाई से क्या होगा? दवाई से यह होगा कि पहले एक बीमारी थी फिजिकल कंडीशनिंग , अब दूसरी बीमारी लग जाएगी सोशल कंडीशनिंग। यहाँ से आती है।

तो सोशल कंडीशनिंग इज जस्ट् द मिसडायरेक्टेड, मिस्प्लेस्ड एंड फेल्ड् अटेम्प्ट् टू क्योर् फिजिकल कंडीशनिंग (सामाजिक अनुकूलन केवल गलत तरीक़े का एक असफल प्रयास है शारीरिक अनुकूलन को ठीक करने का)।

फिजिकल कंडीशनिंग को ही ठीक करने के लिए जो दवाई दी गयी, वह दवाई उल्टी पड़ गयी। पहले एक बेड़ी थी, उस बेड़ी को काटने के लिए जो उपाय किया गया वह उपाय उल्टा पड़ गया। दो बेड़ियाँ बन गयीं। या पहले एक गाँठ थी, उस गाँठ को सुलझाने की जो कोशिश है किसी नादान द्वारा करी गयी तो एक की जगह दो गाँठ हो गयीं। यह सोशल कंडीशनिंग है।

मनुष्य अकेला होता है जिसको पसंद नहीं होता है जानवर होना। बाक़ी और नहीं कोई जानवर है जिसे नहीं पसंद हो जानवर होना। सब जानवर, जानवर रहते हुए तृप्त रहते हैं, हैं न? मनुष्य ऐसा अकेला है, जिसको बोल दो जानवर तो गाली जैसी बात हो जाती है। मनुष्य अकेला है जो जानवर तो है पर उसकी चेतना चिल्लाती है कि मुझे जानवर रहना नहीं है। मुझे आज़ाद होना है, अपनी पशुता से ही आज़ाद होना है मुझको। ठीक है? तो इस कारण मनुष्य अकेला है जिसमें शिक्षा होती है।

मनुष्य का समाज अकेला ऐसा समाज है जिसमें शिक्षा का प्रावधान होता है, जिसमें शिक्षा बड़ी मूलभूत चीज़ होती है। लेकिन वह शिक्षा वही दे सकते हैं जो खुद जागृत लोग हों। ठीक वैसे जैसे कि सर्जरी (शल्य-क्रिया) वही कर सकता है जिसको सर्जरी आती हो। गाँठ वही सुलझा सकता है जिसको सुलझाना आता हो। उसी तरीक़े से शिक्षा, परवरिश, संस्कार यह दे पाना बहुत महीन काम है। यह वही दे सकते हैं जिनको बड़ी महारत हासिल हो, जो खुद बहुत सुलझे हुए लोग हों। लेकिन हमारे समाज ने गड़बड़ कर दी।

गड़बड़ क्या कर दी?

चूँकि हम जानवर हैं इसीलिए हमको यह लगा कि बच्चे की ज़िन्दगी में सबसे बड़ा योगदान तो या सबसे बड़ा स्थान तो उसके शारीरिक माँ-बाप का होता है। अब आप जंगल मे देखोगे तो जंगल में जो बच्चा होता है उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण कौन होते हैं? शारीरिक माँ-बाप ही। शारीरिक माँ-बाप में भी माँ। माँ, अधिकतर माँ ही।

तो यह चीज़ जंगल की है कि बच्चे के लिए सबसे ज़रूरी कौन है? जंगल में हर बच्चे के लिए सबसे ज़रूरी कौन होता है? और वही चीज़ हमने जंगल से बाहर शहर पर भी लगा दी। तो हमने कहा शहर में भी जो बच्चा पैदा होगा उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण माँ है। अब माँ शारीरिक रूप से महत्वपूर्ण हो सकती है पर संस्कार का और शिक्षा का दारोमदार तुमने माँ पर क्यों डाल दिया है? क्योंकि वह माँ खुद ही सुलझी हुई नहीं है तो अब माँ जो संस्कार देगी और जो पूरा परिवार जो संस्कार देगा वह कैसे होंगे?

जंगल में कुनबे का महत्व होता है न? देखो आप हाथियों में एक बच्चा पैदा हो तो उसकी माँ तो उसकी देखभाल करती ही है। पाँच-सात और हाथी होते हैं जो उसको घेर कर चलते हैं, छोटे से हाथी को। तो यह रिश्तेदारी का महत्व कहाँ होता है?

प्र: जंगल में।

आचार्य: पर हमने रिश्तेदारी का महत्व शहर में भी लगा दिया। जबकि शहर में आने की कुल वज़ह ही यही थी कि हम जंगल पीछे छोड़ना चाहते थे। पर हम जंगल पीछे नहीं छोड़ पाये। जंगल की रिश्तेदारियाँ हम शहर में भी लेकर आ गये। तो बच्चे को संस्कार देने का हमने पूरा ठेका किसको दे दिया? चाचा, ताऊ, बुआ, फूफी, मासी, मामी, काका, मामा, माँ-बाप तो हैं ही और दादा-दादी और नाना-नानी। यह कर दी न हमने हाथियों के झुण्ड वाली बात! तो इसलिए फिर बच्चे को जो संस्कार मिले वह उल्टे-पुल्टे मिले।

शिक्षा, संस्कार, परवरिश, सिर्फ़ कोई बहुत सुलझा हुआ विवेकपूर्ण ज्ञानी ही दे सकता है। लेकिन हमने कह दिया यह तो छोटी चीज़ है, कोई भी दे देगा। यह कोई भी दे देगा। यह गड़बड़ बात हो गयी न। बस हो गया!

आप स्कूलों में देखो, सबसे कम तनख़्वाह किन क्लासेज (कक्षाओं) की टीचर्स (अध्यापकों) की होती है?

प्र: छोटे क्लास की, फाउंडेशन (आधार)….

आचार्य: फाउंडेशन और प्राइमरी (प्राथमिक)।

ये क्या कर डाला हमने? जो सबसे महत्व का काम है वह करने के लिए हमने सबसे सस्ते लोग रख लिये। (आचार्य जी हँसते हैं) जो सबसे महत्व का काम है क्योंकि बच्चे की जो साइकोलॉजिकल कंडीशनिंग (मनोवैज्ञानिक अनुकूलन) पाँच-सात साल की उम्र तक हो जाती है, वह बड़ी गाढ़ी हो जाती है; फिर आगे उसको बदलना बहुत मुश्किल होता है। और स्कूलों में सबसे जो कैजुअली (संयोग से, लापरवाही से) रखा जाता है, वह प्राइमरी के शिक्षकों को रखा जाता है। मैं प्राइमरी के शिक्षकों का सम्मान करता हूँ। कोई मुझ पर दावा न ठोक दे मान-हानि का, पर जो तथ्य है उसे बता रहा हूँ।

आप यहाँ बैठी हुई हैं (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए), और आप स्कूल चलाती हैं; आप बारहवीं का टीचर जब हायर् (भाड़े पर रखना) करते होंगे तो एक नज़र से करते होंगे और कक्षा दो का टीचर जब आप हायर् करते होंगे तो दूसरी नज़र से करते होंगे। हाँ या न?

प्र२: हाँ।

आचार्य: आप दोनों की श्रेष्ठता, गुणवत्ता भी अलग-अलग तरीक़े से देखते होंगे और दोनों की सैलरीज़ (वेतन) भी बहुत अलग होती होंगी। तो यह हो गयी है गलती और इन सब चीज़ों से आती है सोशल कंडीशनिंग। कि पहले तो बच्चे को संस्कार दे रहे हैं चाचा-चाची, ताऊ, माँ-बाप जिनके अपने ही संस्कार एकदम गड़बड़ हैं। जो लोग ख़ुद सुलझे हुए नहीं हैं वह बच्चे को तो और उलझाएँगे ही न। उसमें सबसे पहले माँ-बाप आते हैं।

लेकिन हमने बहुत बड़ा स्थान दे दिया है। 'अरे माँ-बाप हैं! अरे आप कौन होते हैं बोलने वाले? उसके माँ-बाप हैं न। उनका बच्चा है, वह जैसा चाहेंगे करेंगे।'

दस-बीस साल पहले जब मैं और विद्रोही हुआ करता था तो टोक देता था। कहता था इस बच्चे के साथ जो कर रहे हो, नहीं करने दूँगा। तो यही मुझे सुनने को मिलता था; बोलते थे तुम कौन होते हो बोलने वाले? उनका बच्चा है और उसके माँ-बाप हैं वो। भई यह उनका अपना पर्सनल (व्यक्तिगत), प्राइवेट मैटर (निज़ी मामला) है, वह जो चाहेंगे करेंगे।

यह बात जंगल की है कि नहीं?

यह बात जंगल की है न कि उसका है न। हथिनी का बच्चा हथिनी देखेगी। हथिनी का बच्चा हिरणी नहीं देख सकती। यही है न। तो संस्कार दे रहे हैं यह सब काका-काकी और शिक्षा दे रहे हैं प्राइमरी के टीचर्स। यही सोशल कंडीशनिंग है। और साथ-ही-साथ आ गया है टीवी और मोबाइल और वहाँ जो गुल खिल रहे हैं सो अलग। तो इस तरह से होता है आदमी बर्बाद।

भीतर ट्यूमर हो गया है; सर्जरी करके उसको निकालना बहुत ऊँची बात है। पर जो सर्जन (शल्य-चिकित्सक) सर्जरी की विद्या में पढ़ा-लिखा ही नहीं है, उसको तुमने कैसे हक़ दे दिया कि जा और पेट फाड़ दे?

यह माँ-बाप हैं, इन्हें पैदा करना आता है और पैदा करना कोई बड़ी बात नहीं होती है। जानवर भी पैदा कर लेते हैं। चार महीने का होता है खरगोश, वह पैदा करना शुरू कर देता है। पैदा करने में कौन सा तुमने बड़ा तीर चला दिया? लेकिन पैदा करा नहीं कि अरे! वह उसके माँ-बाप हैं। माँ-बाप हैं तो क्या माने? कोई भी हो सकता है माँ-बाप; उसमें ऐसी क्या बात हो गई? तो माँ बाप, माँ-बाप पहले गुरु होते हैं न! कान से खून निकल जाये यह बात सुनके कि माँ-बाप पहले गुरु होते हैं।

माँ-बाप गुरु होते हैं? यह निब्बा-निब्बी पैदा करके बैठ गये; अब यह गुरु भी हो गये! यह गुरु भी हो गये। कैसे हो गये? वासना ने उबाल खाया। बच्चा पैदा कर दिया। तो तुमने इतना श्रेष्ठ, इतना ऊँचा, इतना आध्यात्मिक काम करा है यह, कि इसके एवज़ में आपको गुरु की उपाधि से सम्मानित किया जाता है। सचमुच! गुरु हो गये!

और माँ-बाप तो माँ-बाप हैं। पूरा कुनबा फिर आ करके उसको यह सिखा रहा है, वह सिखा रहा है। उससे यह बात कर रहा है, वह बात कर रहा है। क्या होगा उसका? कुछ नहीं, ख़तम।

सबसे ज़्यादा महत्व दिया जाता फाउंडेशन और प्राइमरी के टीचर्स को, अगर हम थोड़ा भी समझदार होते, एक समाज के नाते। पर क्या होता है ― छोटे बच्चों की क्लासेज़ (कक्षाएँ) शुरू होती हैं आठ-नौ बजे से और एक बजे ख़तम हो जाती हैं। तो जानते हो स्कूलों में क्या किया जाता है? उनमें कौनसी टीचर्स (शिक्षक) रखी जाती हैं? वह लगभग पार्ट टाइम (अंशकालिक) ही हैं, कहने को फुल टाइम (पूर्णकालिक) होती हैं। वह ज़्यादातर लेडीज़ (महिलाएँ) होती हैं जो वहाँ पर बस ऐसे ही कैजुअली (संयोग से), पार्ट टाइम आ जाती हैं सज-बज के। आप कभी प्राइमरी में जाकर देखिएगा।

और मैं सब टीचरों पर आक्षेप नहीं कर रहा। कोई बुरा न माने। सौ में से एकाध-दो बहुत सिंसियर (ईमानदार), गंभीर, जेनुइन (सच्चे) टीचर्स भी होते होंगे। मैं उनका सम्मान करता हूँ; मैं उनके बारे में कुछ नहीं कह रहा। पर आप ज़्यादातर जाकर देखिए न, एक ट्वेल्थ (बारहवीं) का टीचर हो, एक टेंथ (दसवीं) की टीचर हो और एक नर्सरी, केजी की टीचर हो; इनमें आप अंतर ही देख लीजिएगा जा करके। फिर आप पूछिएगा कि यह कितने ख़ौफ़ की बात है कि हमने अपने नन्हे-मुन्नों को कैसी लड़कियों को सौंप दिया है।

वह सब ऐसी ही होती हैं — बाईस, चौबीस, छब्बीस, अट्ठाईस साल की होती हैं। उनकी नई-नवेली शादी हुई होती है, घर में कुछ करने को नहीं होता। तो वह कहती हैं ― ठीक है, आठ से एक की जॉब (नौकरी) कर लेते हैं। इट्स अ काइंड ऑफ़ लो पेड् पार्ट टाइम जॉब (यह एक प्रकार की कम वेतन वाली अंशकालिक नौकरी है)। एक्सेप्शन्स विल् बी देअर् (अपवाद होंगे)। मैं फिर से कह रहा हूँ बुरा मत मानिएगा अगर आप एक्सेप्शन्स (अपवाद) में हैं तो। पर जो ज़्यादातर होता है वह बता रहा हूँ।

फिर और आगे बढ़ोगे, पूछोगे सोशल कंडीशनिंग कहाँ से आती है। जो हमारी टेक्स्ट् बुक्स (पाठ्य पुस्तकें) होती हैं, ऐसे ही थोड़ी है कि टीचर अकेली उत्तरदायी है। टीचर तो टेक्स्ट् बुक पढ़ाती है। वह टेक्स्ट् बुक टीचर ने थोड़े ही लिखी है। वह टेक्स्ट् बुक्स जहाँ से आ रही हैं, वह लोग भी कोई बहुत समझदार नहीं हैं। अभी देख लो न, टेक्स्ट बुक्स के साथ क्या किया जा रहा है। वह उसमें से — आज हम अभी डार्विन की बात कर रहे थे — डार्विनियन इवोल्यूशन (डार्विन द्वारा प्रतिपादित परिवर्तन और विकास की क्रमिक प्रक्रिया) ही हटा देना चाहते हैं। कह रहे हैं मत बताओ।

बच्चों को यह नहीं बताओगे तो उनको यह पता चलेगा सोशल मीडिया से कि इंसान सीधे आसमान से टपका है। भगवान ने इंसान को रचा और सीधे नीचे भेज दिया। फिर तो यही विकल्प बचता है न। अगर हमारा इवोल्यूशन नहीं हुआ है तो फिर तो हमको किसी ईश्वर ने ऐसे ही रच करके, ऐसे जैसे अभी हैं, ऐसे ही हमें उतार दिया है ज़मीन पर। यह होती है कंडीशनिंग कि बच्चों को ज्ञान से वंचित कर दो।

और जो टेक्स्ट् बुक्स होती हैं, अदरवाइज़् (अन्यथा) भी, उनमें इतनी विचित्र बातें कई बार होती हैं जो बच्चे के विकास में सहायक कहाँ से होंगी।

देखो, समझो; हम प्रेमी लोग नहीं हैं। हम गड़बड़, स्वार्थी लोग हैं। आपको पता है बच्चा क्या होता है हमारे लिए? बच्चा हमारे लिए एक फ्यूचर ऐसेट् (भविष्य की संपत्ति) होता है। वह माँ-बाप के लिए वह चीज़ होता है जो भविष्य में उन्हें कुछ ला करके देगा। और समाज के लिए वह चीज़ होता है जो उन्हें मनचाही वस्तु बनाकर देगा। उदाहरण के लिए बच्चा होता है, माँ-बाप भी चाहते हैं इसको प्रोफेशनल कोर्स (व्यावसायिक पाठ्यक्रम) में डालेंगे जहाँ प्लेसमेंट (चयन) हो जाए। प्रोफेशनल कोर्स का क्या मतलब होगा?

मान लीजिए आपका समाज ऐसा है जिसको टोपियों की बहुत ज़रूरत है। काहे की? टोपियों की। तो कोर्स चलेगा। सबसे जो हॉट (लोकप्रिय) और डिमांड (माँग) में कोर्स रहेगा, वह होगा बीटेक इन टोपी इंजीनियरिंग (टोपी इंजीनियरिंग में बी टेक)।

(श्रोतागण हँसते हैं)

यही रहेगा न। भई आप कंप्यूटर इंजीनियरिंग में इसलिए तो भागते नहीं हो कि कंप्यूटर आपको देवस्वरूप लगता है। आप कंप्यूटर साइंस इसलिए लेते हो न क्योंकि उसमें नौकरी अच्छी लगती है। बात सीधी है। कल को कहीं और नौकरी अच्छी लगने लग जाए, वही डिपार्टमेंट (विभाग) हॉट हो जाएगा, उसमें सीटें नहीं मिलेंगी। कल को हो सकता है बायोटेक (जैव प्रौद्योगिकी) चमक जाए, कुछ और आगे आ जाए, सेरेमिक (चीनी मिट्टी) आगे आ जाए, मेटलर्जी (धातु उद्योग) आगे आ जाए, कोई भरोसा नहीं है, नये-नये तरीक़े के। कालचक्र है उसमें कुछ भी आगे बढ़ता रहता है बीच-बीच में। तो समाज को जिन चीज़ों की हवस होती है उन्हीं चीज़ों की इंडस्ट्री (उद्योग) में प्लेसमेंट ज़्यादा होती है, ठीक। सही बोल रहा हूँ?

अब सोशल मीडिया की हवस है, तो एआईएमएल (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एंड मशीन लर्निंग); यह कितने हॉट हो गए हैं, इसमें प्लेसमेंट मिल जाए इसके लिए लोग कॉलेज के अलावा अलग से कोर्स करते हैं। करते हैं न? मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग सिर्फ़ सोशल मीडिया में है। उदाहरण देकर बताया बस। ठीक है?

तो समाज के लिए बच्चा वह रिसोर्स (संसाधन) है जो किसी ऐसी इंडस्ट्री में जाएगा जिस इंडस्ट्री से समाज का स्वार्थ पूरा होता है। समाज को टोपियाँ चाहिए, माँ-बाप तुरंत बच्चे का एडमिशन (प्रवेश) टोपी इंजीनियरिंग में करा देंगे। तो बच्चे ने टोपी इंजीनियरिंग कर ली। क्योंकि समाज को क्या चाहिए था? समाज को लत लगी हुई थी टोपियों की। तो बच्चे ने करी टोपी इंजीनियरिंग। अब देखो इसमें क्या हुआ है?

समाज को मिल गयीं टोपियाँ। क्योंकि बच्चा अब कहीं प्लेस (नियुक्त) हो गया है जा करके। कुछ भी; है न? ‛लाखा लाल एंड संस टोपी वाला।' अब यहाँ उसका प्लेसमेंट हो गया। ठीक है। अब यहाँ प्लेसमेंट हो गया, पैकेज लग गया। तब उसका प्लेसमेंट हो गया टोपी इंजीनियरिंग करके तो समाज को टोपियाँ मिलने लगी न, क्योंकि अब वह टोपी की इंडस्ट्री में गया है तो टोपियाँ बनाएगा। तो समाज को मिलने लगी टोपियाँ। अब वह पैसा कमाएगा तो माँ-बाप को मिलने लग गये पैसे। बच्चे को क्या मिला?

समाज बच्चे को एक ऐसेट की तरह यूज़ (उपयोग) करता है। यह जो हमारे स्कूल-कॉलेज हैं, यह प्रोडक्शन फैक्ट्रीज़ (उत्पादन कारखानें) हैं। यह वेंडर्स (विक्रेता) हैं, फैक्ट्री भी नहीं, यह वेंडर्स हैं। यह सप्लायर्स (आपूर्तिकर्ता) हैं। यह समाज की नीड् (आवश्यकता) को पूरा करने वाले वेंडर्स हैं। प्लेसमेंट सेल और क्या होती है? प्लेसमेंट सेल क्या होती है कि समाज आये अपनी ज़रूरत बताए और प्लेसमेंट सेल कहेगा ― यह रहे न दो मुर्गे; यह लो, यह मैकेनिकल के दो।

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये दो मैकेनिकल के। वह आते हैं, कहते हैं घटिया माल बनाया है, बिक नहीं रहा। कोई बात नहीं; यह लो, यह मार्केटिंग एण्ड सेल्स् से तीन।

(श्रोतागण हँसते हैं)

समझ में आ रही है बात? तो समाज अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए शिक्षा व्यवस्था चलाता है। वह शिक्षा व्यवस्था इसलिए नहीं होती है कि बच्चे का विकास होगा। वह शिक्षा व्यवस्था इसलिए होती है ताकि उससे निकल कर बच्चा वह काम करे जिससे समाज के स्वार्थ पूरे होते हैं।

शिक्षा व्यवस्था बच्चे के विकास के लिए नहीं है। शिक्षा व्यवस्था बच्चे को उस काम की ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) देने के लिए है जिस काम से समाज के स्वार्थ पूरे हों। समाज को टोपियाँ चाहिए; पूरा सिलेबस (पाठ्यक्रम) भर जाएगा टोपी-टोपी-टोपी सिखाने से। आज अगर समाज ऐसा हो जाए कि टोपियाँ चाहिए तो कक्षा दो से लेकर पीएचडी तक सिर्फ़ टोपी सिखायी जाएगी उसको। आ रही है बात समझ में?

समाज को टोपियाँ मिल गयीं, माँ-बाप को पैसा मिल गया। बच्चे को बर्बादी मिल गयी। हम ऐसे लोग हैं।

आ रही है बात समझ में?

अब एक (आचार्य जी हाथ से असेंब्ली लाइन् का इशारा करते हुए) असेंब्ली लाइन् (समानुक्रम उत्पादन) की कल्पना करो। उसमें रॉ मैटेरियल्स सप्लायर (कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता) हैं माँ-बाप और यह जो लाइन (पंक्ति) है, यह एजुकेशन सिस्टम (शिक्षा व्यवस्था) है। लंबी लाइन, एजुकेशन सिस्टम; दूसरी क्लास, चौथी क्लास, छठी क्लास, दसवीं क्लास, बारहवीं क्लास, ग्रैजुएशन (स्नातक), पोस्ट ग्रैजुएशन (परास्नातक), फ़लाना। यह पूरी असेंबली लाइन , क्या है ये? यह शिक्षा व्यवस्था है। उसमें रॉ मैटेरियल कौन सप्लाई कर रहा है? माँ-बाप। और वहाँ दूसरे एंड् (छोर) पर पर्चेज़र (ख़रीददार) कौन है? समाज। यह है कुल ढाँचा। अब बताओ सोशल कंडीशनिंग न हो तो क्या हो?

आप देख पा रहे हो? एक फ़ैक्ट्री देखिए। उस फ़ैक्ट्री के पिछवाड़े रॉ मैटेरियल सप्लायर कौन है? माँ-बाप। और उस फैक्ट्री के अगवाड़े कलेक्शन (संग्रह) के लिए, पर्चेज़ (खरीदने) के लिए किसका ट्रक खड़ा हुआ है? समाज का। और उस फैक्ट्री में घुस रहे हैं छोटे बच्चे। उनको बिलकुल ऐसा कर दिया जा रहा है कि अब वह समाज की हवस पूरी कर सकें। और फिर यहाँ से उनको निकाला जा रहा है और फिर समाज उनका उपयोग कर ले रहा है। यह शिक्षा व्यवस्था है।

आ रही है बात समझ में?

कहिए।

प्र: यह चीज़ शायद हमारे वैदिक काल के शुरुआती ऋषियों ने समझी होगी तो आश्रम का जो प्रावधान किया, बच्चे वहाँ पर जाकर आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा ट्रेन (प्रशिक्षित) किये जाते थे। भेजे जाते थे हर सोशल स्ट्रेटा (समाज के सभी वर्गों) से और वहाँ पर जो उसकी जैसे रुझान हो, जैसे वह ज़्यादा अच्छा जिसमें करता था, उसको उसमें प्रोफेशन (व्यवसाय) में भेजते थे। तो यह तो उस समय का था, वह बाद में बिगड़ गया; जैसे भी आज हम इस स्थिति में पहुँचे हैं। लेकिन अभी कोई विकल्प इसका क्या है हमारे पास? अगर हम बच्चों को, यह जो अभी असेंबली लाइन वाले स्कूल्स हैं, इसमें न भेजें तो हम कहाँ भेजें फिर? मतलब कोई सूझता नहीं है रास्ता। पता होते हुए भी भेजना पड़ता है बस। थोड़ी विवशता सी भी महसूस होती है।

आचार्य: देखिए अगर आप बिलकुल तात्कालिक कदम पूछेंगे क्या लेना चाहिए, तो वह तो यही है कि वहाँ तो आपको भेजना ही पड़ेगा। उसके साथ-साथ कहीं और भी भेजिए। अभी तो जो मेन् स्ट्रीम एजुकेशन सिस्टम (मुख्यधारा की शिक्षा प्रणाली) है उसका कोई सस्टेनबल् (टिकाऊ) विकल्प दिख नहीं रहा।

यह ज़रूर कर सकते हैं कि सिर्फ़ बच्चा वही न पढ़े जो उसको सीबीएससी या आईबी पढ़ाना चाहते हैं। वह कुछ और भी पढ़े उसके साथ। जो उन्होंने निर्धारित करी हैं चीज़ें टोपी वालों ने, सिर्फ़ वही न पढ़े बच्चा, बच्चा उसके अलावा वह चीज़ें पढ़े जिससे उसका विकास होता हो। अभी तो इतना ही हो सकता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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