प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। पिछले कुछ दिनों में मेरे जीवन में कुछ ऐसे पल आये जो कि बिलकुल एक्स्पेक्टेड (अपेक्षित) नहीं थे और वो मतलब तैयार नहीं थी मैं उस चीज़ के लिए। और आपके सान्निध्य में जब से हूँ तब से लगता था कि हाँ रोज़ परमात्मा को याद भी करती हूँ, महसूस भी करती हूँ उनको अपने करीब।
लेकिन उस वक्त जो दुख हुआ और जो पुकार उठी मन से, वो बहुत अलग तरह की थी कि बस जैसे कृष्ण इस वक्त सम्भाल लो फिर बाक़ी सब देख लेंगे आगे। और फिर उस वक्त जो कबीर साहब का एक दोहा है कि दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय। तो मुझे ये लगता था कि मैं तो सुख में भी सुमिरन रखती ही हूँ; परमात्मा को पास में।
लेकिन जो पुकार उस वक्त उठती है, जब हम बहुत गहरे दुख में होते है, वो बहुत ही अलग महसूस हुई। तो ये सुख में जो सुमिरन होता है वो क्या होता है कि परमात्मा को बिलकुल याद रखें, आत्मा के निकट अपनेआप को महसूस करें और वो दुख में ही क्यों इतना ज़्यादा महसूस हुआ एकदम से?
आचार्य: कुछ बात शारीरिक वृत्तियों की होती है, कुछ हमारा सामाजिक प्रशिक्षण ऐसा होता है कि दुख के विरुद्ध हम तत्काल खड़े हो जाते हैं। ऐसा लगता है कुछ ग़लत हो रहा है। और जब सुख का क्षण आता है तो उसको भोगने के लिए हम अपनी चेतना को और न्यून कर देते हैं।
कुछ तो बात इसमें शरीर की है और कुछ जो हमको शिक्षा मिलती है चारों ओर से देखते हैं, परवरिश होती है, उसका नतीजा है। दुख आते ही भीतर से जैसे विरोध का एक अलार्म बजता है। कुछ ग़लत हो रहा है, कुछ ग़लत हो रहा है। और जहाँ सुख मिलने लगता है वहाँ भीतर जितनी चेतना होती भी है, हम उसको सुला देते हैं।
आप थोड़ा विचार करिएगा अभी। कहीं सुख की बड़ी सम्भावना दिख रही हो, सामने ही उपस्थित हो कि अभी डूब जाओ इस चीज़ में, सुख मिल जाएगा। और वो जो सम्भावना हो, उसको लेकर के थोड़ा बहुत सन्देह भी हो रहा हो, आप आमतौर पर वो सन्देह व्यक्त करेंगे भी क्या? या उस सन्देह की आगे तक जाँच-पड़ताल करेंगे भी क्या?
सन्देह पर ही पर्दा गिरा देंगे क्योंकि सन्देह को यदि ज़्यादा तूल दिया तो क्या होगा? सुख से वंचित रह जाएँगे। तो भीतर से अगर कोई सन्देह, शुबहा, जिज्ञासा उठती भी होगी, दाल में कुछ काला लगता भी होगा, तो हम अपनी चेतना का शटर गिरा देंगे। हम कहेंगे, ‘ज़्यादा अगर पूछताछ करी, तो पूछताछ ही हाथ में रह जाएगी और सुख का मौका निकल जाएगा।
कोई आपका दोस्त हो और आप जानते हैं कि उसके पास बहुत रुपया-पैसा है नहीं या किसी और अभी वो समस्या में जूझ रहा है और एक दिन आप उसके घर पहुँचे और आप पायें वहाँ दावत हो रही है और आपको जहाँ तक पता था, उसके जीवन में कुछ ऐसा है ही नहीं कि वो दावत दे। तमाम तरह की नालायकियाँ उसकी हैं, असफलताएँ उसकी हैं और इसके अलावा उसके पास पैसा भी नहीं है अभी। पर आप भीतर घुसते हैं तो धूम मची हुई है।
ज़ोर-ज़ोर से बीट्स वाला संगीत चल रहा है। रोशनियाँ हैं और यार लोग अपना नाच गा रहे हैं। शराब भी छलक रही है और मदमाता बिलकुल भीतर माहौल। क्या आप जाकर के पहले अपने दोस्त को बाहर खींच कर लाएँगे और पूछेंगे कि बता ये सब क्यों है? बता तेरे पास पैसा कहाँ से आया ये सब करने का? ये सब करेंगे क्या? या भीतर जो पार्टी चल रही होगी, आप पाएँगे कि आप भी उसमें शरीक हो गये? जल्दी बताइए?
ये हमारा आन्तरिक प्रशिक्षण है। जहाँ सुख का मौका लग रहा हो, वहाँ चेतना को और बन्द कर दो क्योंकि चेतना जगी रही, तो सुख से चूक सकते हो। चेतना जगी रही तो सुख का क्या होगा कुछ निश्चित नहीं। समझ रहे हो?
नहीं तो ये बिलकुल सम्भव है, अपनेआप को ऐसा प्रशिक्षण देना कि जब सुख का मौका आये तो और सजग हो जाओ। लेकिन उसके लिए पहले इस ज्ञान में पैठना होगा कि सुख के पीछे ही कहीं वो छुपा बैठा होता है। कौन? दुख। तो ये इतनी भी शुभ बात नहीं है कि अचानक हँसी-ख़ुशी का, मनोरंजन का, भोग का, सुख का, प्रसन्नता का, कोई संयोग आन पड़ा है।
शायद ये उतनी भी शुभ बात नहीं है। पूरी जाँच-पड़ताल तो कर लें। हमें सुख से कोई समस्या नहीं भाई! पर सुख, सुख हो तो सही! सुख, सुख हो तो! और अगर कोई और ही चीज़ सुख का चेहरा पहनकर आ रही हो तो? तो गड़बड़ है न? आप भी सुख चाहते हैं हम भी सुख चाहते हैं, लेकिन हम ‘सुख’ चाहते हैं।
हम सुख रूपी दुख तो नहीं चाहते न? या चाहते हैं? लेकिन हम भीतर से इतने प्यासे होते हैं आनन्द के, वो मिल रहा नहीं होता कि आनन्द के विकल्प के तौर पर हम नकली सुख को भी स्वीकार कर लेते हैं। कोई बहुत प्यासा हो, बहुत प्यासा है। दो दिन से पानी नहीं पाया। वो गन्दा पानी भी पी जाएगा न? होता है कि नहीं?
अभी उस दिन मैं बता रहा था। नागपंचमी आ रही है; कि साँप दूध पी ही नहीं सकता क्योंकि साँप स्तनधारी नहीं है, तो दूध कहाँ से फिर उसके भोजन में आ जाएगा? साँप की माँ ने ही कभी उसको दूध नहीं पिलाया, वो दूध कैसे पी लेगा? लेकिन फिर भी आप पाते हैं कि वो दूध का प्याला रख देते हैं। वो पानी पी रहा होता है।
उसको इतना प्यासा रखा गया होता है, इतना प्यासा रखा गया होता है कि उसके सामने दूध भी आता है, तो वो ये कहता है कि ये पिचानवे प्रतिशत तो पानी ही है न; पी लूँ, प्यास बुझेगी। ये अलग बात है कि जब वो पी लेता है दूध, तो उससे उसका पेट ख़राब हो जाता है और उसकी मृत्यु भी हो सकती है।
क्योंकि दूध पचाने की साँप में क्षमता होती ही नहीं है। वैसे ही हम हैं। जो चीज़ हमें चाहिए उससे हम इतने वंचित रहे हैं और उसे पाने की हममें इतनी बेक़रारी, इतनी तड़प रही है; ये दोनों बातें एक साथ। हम उसको दिल से चाहते हैं बिलकुल, ये पहली बात। और दूसरी बात, मिलती वो हमको बिलकुल नहीं है।
उसी को मुक्ति कहते हैं, उसी को आनन्द कहते हैं, उसी को सत्य कहते हैं कि फिर उसी के विकल्प में अगर कोई हमें नकली चीज़ भी मिल जाती है, तो हम उसको स्वीकार कर लेते हैं। मज़बूरी में, बेचारगी, डेस्परेशन (बदहवासी)। समझ में आ रही है बात?
तो अब अगर सुख को स्वीकार करना है, तो ये ज़रूरी हो जाता है कि उसकी जाँच-पड़ताल न की जाए। तो आप कैसे करोगे सुमिरन? सुमिरन करने के लिए तो चेतना ऊँची होनी चाहिए न? और सुख अनिवार्यतः आपकी चेतना को गिरा देता है। ठीक-से-ठीक आदमी भी सुख के क्षण में बिलकुल बेढंगा हो जाता है। किसी ने कहा है कि अगर किसी मनुष्य से तुम नफ़रत नहीं करना चाहते, तो उसे उसके सुख के पलों में कभी देख मत लेना।
जिस मनुष्य को आपने देख लिया, उसके सुख के पल में, आपको उससे नफ़रत हो जाएगी। किसी से चाहते हो यदि कि प्रेम और रिश्ता बना रहे, तो उसको तब मत देख लेना जब वो सुख मना रहा हो। क्योंकि सुख के क्षण में हम बड़े कुरूप, बड़े विकृत हो जाते हैं। बेहोश हो जाते हैं।
ये अनायास ही नहीं है कि जब हम उत्सव मनाते हैं, तो जाम छलकाते हैं। उत्सव मनाने के लिए भी जाम छलकाना ज़रूरी है, नहीं तो हो नहीं पाएगा। सच्चाई को अलग रखो, अभी ज़रा सुख मनाओ। अब शादी-ब्याह ऐसे अवसरों पर देखो न; भले-से-भला आदमी भी वहाँ लुच्चा हो जाता है।
आप यहाँ बैठे हो अभी; वेदान्त महोत्सव। आजकल शादियाँ हो रही हैं कि नहीं हो रही हैं? नहीं हो रही हैं। मान लो हो रही हैं। सूक्ष्म रूप से तो प्रतिपल हो ही रही हैं। आप यहाँ से अभी उठकर जाऍंगे, कल आप अपने घर पहुँच जाएँगे। आप कल रात किसी ब्याह में जाइए, फिर अपना रूप देखिएगा।
और ख़ासतौर पर अगर उस ब्याह में आप जीजाजी हों तो। वही घोड़ी, वही अभद्रता, सड़क पर वही अश्लीलता। सुख मनाने के लिए वो सब ज़रूरी होता है। वहाँ पर बल्कि यदि कोई आदमी हो जो चैतन्य हो, जो सुमिरन में हो, तो वो किसी को सुहाएगा नहीं। सुख में आप सुमिरन करने लग जाइए, समाज आपका बहिष्कार कर देगा।
वहाँ घोड़ी के सामने सब नाच रहे हैं और ठीक तभी आपको सत्य का सुमिरन होने लगे। सबसे पहले तो आपको गधे पर बैठा देंगे। एक जगे हुए आदमी के लिए जगह कहाँ है हमारे उत्सवों में, हमारे आयोजनों में? उसको अलग कर दिया जाता है। वहाँ सब बेहोश लोग चाहिए।
और जो जितना बेहोश होता है उसकी माँग उतनी बढ़ जाती है न सुख के आयोजन में? धीर, गम्भीर, चैतन्य व्यक्ति को तो शायद बुलावा भी न आये; कहीं ये आकर रंग में भंग करेगा। सुमिरन करना शुरू कर देगा।
अब इससे आप ये भी समझिए कि हमारे सुखों की और हमारे उत्सवों की गुणवत्ता क्या होती है, अगर उनके रंग में राम से भंग पड़ जाता है तो। ये कौनसी जगहें होंगी और किस तरह के हमारे रिश्ते हैं कि दरकने लगते हैं अगर वहाँ पर सत्य का स्मरण कर लिया जाए तो? निश्चित रूप से उनमें झूठ की ही प्रबलता होगी।
क्योंकि सच से और सुमिरन से तो झूठ को ही ख़तरा पैदा होता है। तो मुश्किल नहीं है, बात सिर्फ़ प्रशिक्षण की है। अब बचपन से आपने यही सब देखा है। उल्टा प्रशिक्षण भी स्वयं को दिया जा सकता है कि जब इन्द्रियाँ बहुत उत्तेजित हो रही हों, जब लग रहा हो कुछ बहुत अच्छा हो रहा है, ठीक तभी थम जाओ।
बोलो, रुक, रुक, जाँच! इसलिए नहीं कि सुख से हमें विरोध है। हम तो कह रहे हैं, अध्यात्म है ही पूरा-का-पूरा आनन्द का शोध। अध्यात्म है ही इसीलिए कि आपको उच्चतम आनन्द मिले, बिलकुल भरपूर। लेकिन जिन्हें उच्चतम चाहिए होता है, वो ख़बरदार रहते हैं कि नीचे वाली किसी चीज़ में कहीं फँसकर न रह जाऍं। ठीक?
तो जब सुख सामने आये तो रुक और जाँच; ये क्या है? जाँचने के बाद भी माल ठीक निकला तो स्वीकार है पर बिना जाँचे कैसे ग्रहण कर लें? ये आपको स्वयं को सिखाना पड़ेगा और दोनों चीज़ें इसमें आपकी ख़िलाफ़त करेंगी। शरीर भी; क्योंकि शरीर सुखधर्मा होता है और जिस तरह के संस्कार ले लिये हैं अभी तक की उम्र में, वो भी।
लेकिन फिर भी रुकिए, जाँचिए। और प्रार्थना यही रहे कि जो उच्चतम है वो मिले। हम जाँच इसलिए नहीं रहे हैं कि हम ज़बरदस्ती सुख के हर मौक़े को दरकिनार करना चाहते हैं, ऐसी कोई मंशा नहीं। हम जाँच इसलिए रहे हैं क्योंकि हम खरा सुख चाहते हैं। अध्यात्म आपको खरा सुख देने के लिए है। उसी खरे सुख को आनन्द कहते हैं।
और जो झूठे सुख में फँस जाते हैं उनके लिए ज्ञानी हमें क्या सिखाते हैं? “झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।” ये झूठे ही सुख को, सुख मान रहा है पगला! और मन में मुदित हुआ जा रहा है, माने बड़ा प्रसन्न हुआ जा रहा है।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद। जगत चबैना काल का, कुछ मुख में, कुछ गोद।।
~ कबीर साहब
काल बैठा हुआ है पूरे जगत को अपनी गोद में लेकर। जैसे आप जब मूवी देखने जाते हो तो पॉपकार्न का टब अपनी गोद में रखकर बैठ जाते हो। जगत चबैना, वो चबा रहा है; कुछ उसके मुँह में है और कुछ उसकी गोद में है। कुछ है जिसको वो चबा चुका है और कुछ है जो चबने के लिए तैयार बैठे हैं। “फूले-फूले चुन लिये, काल हमारी बार।” कुछ थे जिनको चुन ही लिया और कुछ हैं जो अब चुने जाएँगे। लेकिन ये पार्टी कर रहे हैं। इन्हें कुछ नहीं पता।
“झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।” जो समझ नहीं पाये हैं ज्ञानियों को, उनको लगता है कि ज्ञान सुख के विरुद्ध जाता है, नहीं। ज्ञान सुख के नहीं, भ्रम के विरुद्ध जाता है, झूठे सुख के विरुद्ध जाता है। सच्चे सुख का तो अनुसंधान करना है, सच्चा सुख तो चाहिए-ही-चाहिए। जीवन इसीलिए है।
वरना काहे को जी रहे हैं? हर पल में अवसर है। उपनिषद् कहते हैं, सत्य: जिसका दूसरा नाम आनन्द है, उसका मुख एक स्वर्ण के आवरण से छुपा रहता है। तो आनन्द लगातार है लेकिन वो छुपा रहता है। उसका मुख अच्छादित है। किससे? स्वर्ण से। स्वर्ण माने क्या? जो मूल्यवान है नहीं पर लगता है। जिसकी कोई क़ीमत नहीं पर आप खूब जमाकर के अपने घर में रखते हो। जिसकी कोई क़ीमत नहीं पर आपने बहुत जमाकर के घर में रख लिया है, उसी के कारण आप आनन्द से वंचित हो।
जिसके पास जितना स्वर्ण होगा, स्वर्ण रूपक है यहाँ पर; स्वर्ण माने वही नहीं कि जो बाज़ार का सोना है। स्वर्ण माने हर वो चीज़ जो आपको मूल्यवान लगती है। तो उस सच्चे सुख को पाने के, ऐसे भी नहीं है कि अवसर दो साल में एक बार आते हैं, वो अवसर लगातार मिल जाएगा। और सच्चे सुख को पाने की प्रक्रिया नकारात्मक होती है। ठीक है?
आनन्द, मान लीजिए एक पात्र में है, अमृत पात्र है और उसके ऊपर कपड़ा ढका हुआ है वही, सुनहरा कपड़ा। तो जो कुछ उसमें है उसको पाने के लिए क्या करना होता है? उघाड़ना होता है। आनन्द को पाने के लिए यही करना होता है, उघाड़ने में ही आनन्द है। अनावृत करने में ही सत्य है। यही उपनिषदों की नेति-नेति की प्रक्रिया है, अनावृत करो, उघाड़ दो।
जो पंचकोषीय सीख देते हैं उपनिषद् हमको; वो भी तो यही कहती है। केन्द्र में आत्मा बैठी है और उसके ऊपर छाए हुए हैं कोष। उनको क्या करना है? हटाते चलो! उघाड़ते चलो! हटाओ! यही नेति-नेति है। हटाओ-हटाओ! उसके नीचे जाकर देखो न; थोड़ा विचार करो। जितना गहरे जाओगे, आनन्द उतना गहराएगा। समझ में आ रही है बात?
सुख सतह पर है, आनन्द गहराई पर है। सतही जीवन जीना है तो सुख पिपासु बने रहो। पहली बार तो सतही रहोगे और दूसरी बात सुख के साथ; पीछे-पीछे भी नहीं साथ अनिवार्यतः क्या चलता है? दुःख चलता है। बस उस समय पता नहीं चल रहा होता। उस समय नहीं पता होता।
होता वो उस समय भी है पर पता नहीं चल रहा होता। उसकी स्थूल अभिव्यक्ति काल में कुछ अन्तराल के बाद होती है उस समय नहीं पता चलता। आप कोई मूर्खतापूर्ण हरकत करें, कोई वायरस आप उठा लें और वायरस वगैरह उठाने के लिए अक्सर कुछ-न-कुछ बेवकूफ़ी करनी पड़ती है। कई बार संयोग भी होता है, पर कई बार अपनी मूर्खता होती है।
तो सुख के पल में आपने वायरस उठा लिया। और उस वक्त तो यही अनुभव हुआ कि सुख है, सुख है, सुख है! पर ठीक तब जब आप कह रहे थे सुख है, वायरस आपके भीतर पहुँच चुका था, तो दुख बन चुका था या नहीं? लेकिन उस वक्त आपको अनुभव? उसके सिम्टम्स , उसके लक्षण और प्रमाण आने शुरू होंगे, दस दिन बाद। या हो सकता है छ: महीने बाद या हो सकता है दो साल बाद।
दो साल तक आपको यही लगेगा बड़ा मज़ा मारा। दो साल तक यही लगेगा कि सुख-ही-सुख है। आपको नहीं पता कि भीतर दुख पहुँच चुका है। बीज आ चुका है और अब वो जड़ें जमा रहा है, सूक्ष्म है भीतर। अभी उसकी प्रतीति नहीं है। फिर एक दिन वो फूटेगा, जब फूटेगा तो आप कहेंगे, अरे! दुख आ गया।
इसीलिए बार-बार मैं कहा करता हूँ कि कर्मफल को कभी भविष्य में मत देखा करो। कर्म ही, कर्म फल है। जिस क्षण कर्म करते हो, उसी क्षण उसका फल मिल जाता है। हाँ, आपको पता बाद में चले, अलग बात है। तो इस उम्मीद में मत रह जाया करो कि आगे की, आगे देखेंगे। क्या देखोगे? जो होना था, वो हो चुका है।
अब आगे क्या देखोगे? आगे की, आगे नहीं देख सकते। आगे की बात करके जो अभी कर रहे हो, उसमें बेहोश नहीं बने रह सकते। आज की बेहोशी का उपचार कल में नहीं कर पाओगे। बेहोशी को किसी भी तरह का सहारा मत दो इसीलिए। अभी चेत जाओ! सुख का विरोध न करें पर सुख की जाँच-पड़ताल करना ज़रूर सीखें।
यही अर्थ है सुख में सुमिरन करने का। सुमिरन आप किसका करोगे? किसी छवि का, किसी नाम का? नहीं। सुमिरन का अर्थ ही यही होता है, सत्यनिष्ठा। हमारी निष्ठा सुख से ज़्यादा सत्य के लिए है। तो सुख भी आया है, तो हम उसकी सत्यता तलाशेंगे थोड़ा। जायज़ बात हैं न? हमारी निष्ठा सुख से ज़्यादा सत्य की तरफ़ है।
अब सत्य अपनेआप में कोई चीज़ तो होती नहीं। सत्य का कोई आकार वगैरह तो होता नहीं कि तुम उसको ठोक बजाकर देखो। तो सत्यता कहाँ तलाशी जाती है? जीवन के प्रतिपल के तथ्यों में ही। जो कुछ चल रहा है उसी के तथ्यों का उद्घाटन करना है। वहीं पर अनावृत करना है कि जो चीज़ जैसी लग रही है, वैसी है क्या? और पूछूॅंगा, जिज्ञासा करूँगा। वेदान्त की पूरी प्रक्रिया ही जिज्ञासा की है। प्रश्न पूछो! बताओ, बातचीत करेंगे।
उसके अलावा कुछ नहीं। इतने प्यारे इतने शुद्ध हैं उपनिषद्। शुरुआत होती है, कोई आडम्बर नहीं। कोई इधर-उधर की बात नहीं। पहले ही श्लोक से प्रश्न रखा हुआ है। हाँ, शान्तिपाठ होता है, शान्तिपाठ के बाद सीधे प्रश्न आ जाएगा। लो बात शुरू! कोई कहानी, कोई क़िस्सा, कोई मान्यता, कोई विश्वास, कोई बात नहीं इस तरह की।
हम आये हैं, बैठे हैं; हम इधर-उधर की बातें करने के लिए मज़ाक या गप करने के लिए नहीं मिले हैं। बोलो! बस सीधे। बताओ क्या बात है? बस। सत्यता, सत्यनिष्ठा। और किसी चीज़ में रुचि है ही नहीं हमारी। सत्यनिष्ठा। जो कुछ भी सामने आया है उसकी सत्यता को परखेंगे।
सुख की भी सत्यता को परख लेंगे। खरा निकला, गले लगा लेंगे। खरा नहीं निकला, आगे बढ़ जाएँगे। यही है सुमिरन करने का अर्थ। “सुख में सुमिरन सब करें।” परख लो बस। और हम ये नहीं कह रहे हैं कि मन में पहले से ही नकार बिठा लो। जब हमें कोई विश्वास, कोई मान्यता नहीं पकड़नी तो हम नकार को भी कोई ठोस मान्यता काहे को बना लें? हम नहीं कह रहे कि हम सुख को जाँचेंगे ही इस तरह से कि उसको खारिज अनिवार्य रूप से कर ही दें। न-न-न। हम जाँचेंगे और जाँच का जो भी परिणाम आएगा उसको नमन।
क्या पता सुख खरा ही हो? अभी तो हम कह रहे थे न कि सत्य की सम्भावना हर पल में है। क्या पता इसी पल में हो, सामने ही हो? माइंड (मन) जो अनुभव करता है जो अनुभोक्ता है, अनुभव करने वाला, उसकी भी सत्यता को परखना होता है।
मैं बोलता हूँ लोगों से कि ये जो तुम माँस, मुर्गा, मछली; बोलते हैं, टेस्ट (स्वाद) बहुत आता है। अब ये जो टेस्ट करने वाला है, इसकी सच्चाई की बात कौन करेगा? आपने तो मन को ही सच की कसौटी बना दिया। कि सच, सच है कि नहीं इसका प्रमाण पत्र मन देगा। ये तो बड़ी गड़बड़ बात हो गयी न? मन तो संस्कारों का पुतला है। आपने उसको यही सिखा दिया है कि माँस में स्वाद है, तो वो तो यही कहेगा कि माँस में ही स्वाद है।
वहीं टेस्ट है। अनुभव की बात नहीं है, ये अनुभव से आगे की चीज़ है। अनुभव पर फँस नहीं जाना। अनुभव पर फँसोगे तो सबसे बड़ी चीज़ तो सुख हो जाएगी। क्योंकि अनुभव को तो क्या चाहिए? सुख ही चाहिए। तो इस पर मत फँस जाइएगा।
सच्चाई को परखना बिलकुल अलग बात है। उसके लिए निष्ठा, कलेजा चाहिए। ‘जो भी चीज़ें देख रहा हूँ, मुझे अगर पता चल गया है अब कि दवाई लाभप्रद है तो टेस्ट की परवाह नहीं करूँगा। उससे मुझे अनुभव कैसा हो रहा है, नहीं जानना। परवाह ही नहीं कर रहे कि अनुभव कैसा हो रहा है, सुख है या दुख है।’
तथ्य यदि ये है कि इससे लाभ है, तो है। सत्यनिष्ठ मन ऐसा होता है। उसकी निष्ठा स्वाद नहीं सत्य के प्रति है। अन्तर समझ रहे हैं? और ये भूल अच्छा किया उठा दिया। ये भूल कोई न कर ले, मन को सच की कसौटी मत बना लीजिएगा कि जो चीज़ मन को भा रही है या मन को भली लग रही है या सच्ची लग रही है, वही तो चीज़ बढ़िया है!
मन कसौटी नहीं है। मन को कसौटी पर कसना है, मन स्वयं कैसे कसौटी हो जाएगा भाई? मैल को साबुन कब भाने लगा? क्या साबुन की अच्छाई या बुराई की कसौटी ये होगी कि उसमें मैल कितना है?
वो तो काटता है मैल को। मैल से आप पूछेंगे स्वाद कैसा लग रहा है साबुन का? तो बोलेगी, ‘जान जा रही है, अस्तित्व नष्ट हो रहा है मेरा।’ तो मन से मत पूछ लीजिएगा, मन कुछ नहीं बता पाएगा। कुछ और है भीतर मानसिक वृत्तियों के अलावा। विवेक की क्षमता। उससे पूछिएगा। अपने विवेक से।
अपनी वृत्तियों से मत पूछिएगा, वो अच्छी सलाहकार नहीं होती। अपने विवेक से पूछिएगा। अब ये कैसे पता करें कि वृत्ति बोली कि विवेक बोला? वो आप जानो, आपका झंझट है।
श्रोता: ये आज़मा कर ही पता चलता है?
आचार्य: हाँ, बिलकुल, क्यों नहीं। आज़माना पड़ता है, प्रयोग करना पड़ता है, धीरे-धीरे आगे बढ़ना पड़ता है। कई बार हो सकता है वृत्ति ही विवेक की भाषा बोलने लगे। तो क्या होगा? चोट खाओगे! धोखा होगा!
समझ जाओ कि गड़बड़ हुई थी। फिर आगे सीखो।
श्रोता: ये तो स्किल (प्रशिक्षण) हो गयी।
आचार्य: हाँ, स्किल हो गयी। कह सकते हो। इसीलिए बार-बार प्रशिक्षण शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ। ये भी एक कौशल है आन्तरिक। इसको विकसित करना पड़ता है।
प्र: तो इसमें हमको ये कैसे पता चलेगा कि ये जो चोट लगी है ये सत्य की चोट है, सुख की चोट है कि असत्य की चोट है?
आचार्य: देखो, सत्य चोट देता भी है, तो तुमको और निख़ार देता है और झूठ जो तुमको चोट देता है, वो चोट तुमको और चोटें खाने के लिए प्रेरित करती है। क्योंकि झूठ की चोट में भी सुख तो बैठा ही होता है। तुम कहते हो, सिर बहुत दर्द हो रहा है आज, हैंग ओवर है। पर रात में क़सम से मज़ा तो आ ही गया। कहते हो न?
सच की चोट तुमको बदल देती है, निख़ार देती है। झूठ की चोट तुमको और वैसे ही बनाये रहती है जो चोट खाने के लिए तत्पर रहे। और कैसी चोट? जिससे कोई सुधार नहीं होना है, जिससे बस विकार होना है। चोटें भी दो तरह की हो सकती हैं न; “अन्दर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।” सुना है? एक चोट वो होती है। वो सिखाने वाले की चोट होती है।
“गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।” तो एक चोट वो भी होती है कि आपको चोट मारी जा रही है ताकि आप कुछ बन जाओ। और एक चोट वो होती है कि जैसे चील-कौवे किसी का जिस्म नोच रहे हों। उसमें भी चोट है। जिसको नोच रहे हो उसको नोचने से तुमने उसका कौनसा कल्याण कर दिया?
बस तुम्हारे मज़े ज़रूर आ गये। और जितना तुम उसमें चोट देते जाओगे उतना चोट खाने वाला नष्ट होता जाएगा। चाहे वो तुम स्वयं को ही क्यों न दे रहे हो चोट। तो यही पूछो कि ये जो चोट मिली इससे मेरा क्या हुआ? वही आख़िरी कसौटी है। बहुत ईमानदारी से अपनेआप से पूछा करो, ‘क्या मैं आज कल से बेहतर इंसान हूँ?’ इसके अलावा कोई प्रश्न मायने रखता ही नहीं है।
जीवन का और उद्देश्य क्या है? उत्तरोत्तर प्रगति। हम सीखने के लिए पैदा होते हैं। हम बेहतर होने के लिए पैदा होते हैं। लर्निंग का ही दूसरा नाम मुक्ति है। और कोई उद्देश्य नहीं है जीवन का। आप कल जैसे थे उससे आपको आज एक बेहतर इंसान होना चाहिए। और बेहतरी के ही अन्तिम उत्कर्ष को, आख़िरी सोपान को मुक्ति कहते हैं। कि आप अब इतने बेहतर हो गये, इतने बेहतर हो गये कि अब बेहतर होने से भी मुक्ति मिल गयी।
अब और क्या बेहतर होओगे? जो बेहतर हो सकता था उसी को आपने गढ़-गढ़कर काट-काटकर, छेनी से उसको सुधार-सुधारकर इतना सुधारा कि वो मिट ही गया। अब बेहतरी की भी कोई सम्भावना नहीं बची। वो मुक्ति होती है फिर। लेकिन वो दूर की बात है।
तो साधारण प्रतिदिन के अर्थों में इतना कहना काफ़ी है कि सीखते चलो। रोज़ रात को अपनेआप से यही पूछो। कुछ सीखा? कुछ बेहतर हुआ? जो पुराने भ्रम, दोष आदि थे उनको आज थोड़ा पीछे छोड़ा? कमज़ोरियों को कुछ त्यागा? दुनिया कुछ बेहतर समझ में आ रही है? मन कुछ बली हुआ है पहले से?
आत्मा कुछ निख़रकर सामने आ रही है? एक ही प्रश्न है जिसको इन अलग-अलग तरीक़ों से पूछा जा सकता है। और ये हो रहा है अगर तो ज़िन्दगी सफल जा रही है। ये नहीं हो रहा, तो बस साँसें बजा रहे हो। समझ में आ रही है बात? साधारण है न बिलकुल?
प्र: पहले दिन आप बता रहे थे कि जैसे गीता पढ़कर कृष्ण हो जाना क्या इसी को ही बोलेंगे?
आचार्य: इतने आगे की क्यों बोलते हैं? सीधे कृष्ण हो जाना! गीता को पढ़ा, कोई श्लोक सामने आया; क्या उस श्लोक से आपको कुछ स्पष्टता मिली? मिली, तो बहुत है। कुछ भ्रम कटे? कुछ बातें जो आप पहले सही या सच सोचते थे, उन बातों में दोष दिखायी दिया? प्रक्रिया हमेशा हटाने मिटाने की होगी।
अभी हम कह रहे थे न अनावरण करना। और कोई तरीक़ा नहीं है बेहतर होने का। जैसे आप पहले थे, उसको अस्वीकार करना पड़ेगा। इसीलिए मैं कहता हूँ, अध्यात्म का दूसरा नाम ही त्याग है। किसका त्याग? अपना ही त्याग। आप जैसे पहले से रहे हो, आप उसको त्यागोगे नहीं, तो आप बेहतर कैसे बनोगे? त्याग यही है।
प्र: मेरा एक छोटा सा प्रश्न जो मैं पूछना चाह रहा था। तो मैंने एक पुस्तक पढ़ी और उसमें पेज खोला मैंने और उसमें मैंने पढ़ा कि जिसमें आपने उदाहरण दिया था। वाटर (पानी) और कोक का कि जो दिमाग है जिसको कोक समझ रहा है, मतलब पेप्सी समझ रहा है, वो मूलतः चाह उसकी पानी पीने की है, लेकिन क्योंकि उसे पता नहीं है, वो पेप्सी को ही पानी समझकर पी रहा है।
तो उससे बाहर आने के लिए आप उसको अपना मित्र बनाइए। उसको साथ लेकर चलिए। वो मैं समझ नहीं पाया वो वाला हिस्सा कि जिसमें मैं उसको मित्र भी बना रहा हूँ, लेकिन पानी उसके तल की बात नहीं है समझने की; कि ये पानी है या पेप्सी है।
आचार्य: मुझे ठीक-ठीक नहीं पता मैंने क्या उदाहरण दिया था। वास्तव में मुझे याद भी नहीं आ रहा कि मैंने कोक-पेप्सी की बात कभी करी, पर करी ज़रूर होगी। इतना बोलता हूँ, तो कभी बोल दिया होगा।
प्र: ईशावास्योपनिषद् में है या…
आचार्य: ऐसे अभी याद नहीं आएगा। लेकिन मैं उसमें जो मन से मित्रता की बात है, उस पर कुछ बोल सकता हूँ। मन से मित्रता का मतलब ये है कि सच्चे मित्र के धर्म को जानो। आप किसी के मित्र होते हो, तो आप उसको दो पल की ख़ुशी देना चाहोगे?
ऐसी ख़ुशी जो उसको भीतर से खा जाए या आप उसको एक दूर तक जाने वाली शुभता देना चाहोगे? वेदान्त हमें समझाता है कि श्रेय को चुनो, प्रेय की अपेक्षा। श्रेयता, प्रियता से ऊपर की है। शुभ, सुख से ऊपर का है और अक्सर ये दोनों साथ नहीं चलते। जिसमें तुम्हारे लिए अच्छाई है, वो अक्सर तुम्हें प्रिय नहीं होगा।
जहाँ शुभ है, अक्सर वहाँ सुख नहीं होगा। आप अपने घरों पर सुख लाभ लिखते हो? क्या लिखते हो? शुभ लाभ। वो परम्परा बड़ी महत्वपूर्ण है। अधिकांशतः मैं परम्पराओं के विरोध में ही; पर ये बड़ी सुन्दर बात है। ऐसी अर्थपूर्ण परम्पराएँ न सिर्फ़ जीवित रखी जानी चाहिए बल्कि उनका विस्तार होना चाहिए, आधुनिक रूपों में भी। शुभ लाभ।
शुभ में ही लाभ है, सुख में नहीं लाभ है। सुख में लाभ प्रतीत होता है, शुभ वास्तविक लाभ देता है। और जो शुभ को चुनना शुरू कर देता है, वो पाता है कि सुख उसके पीछे-पीछे आ गया अपनेआप। तो ऐसा भी नहीं है कि सुख से वंचित रह जाओगे।
शुभ को चुनोगे तो और ऊँचा सुख पाओगे। एक तीर से दो शिकार। और जो सुख को चुनते हैं वो शुभ को तो नहीं ही पाते क्योंकि उन्होंने शुभ को तो अस्वीकार कर दिया, वो सुख से भी वंचित रह जाते हैं। दोनों ओर से मारे गये न? दोनों ओर से मारे गये। सुख को चुनोगे, दोनों ओर से मारे जाओगे।
शुभ को अस्वीकारोगे और सुख से हाथ धोओगे। शुभ को चुन लो। सुख छोटी चीज़ है। वो बॅंधा हुआ पीछे आएगा। कॉम्बो। एक चीज़ लो, दूसरी मुफ़्त मिलेगी। ऊपर वाला भी बड़ा व्यापारी है। वो भी इस तरह के ऑफर चलाता है। सेल-सेल-सेल। हाँ, ये;
साईं मेरा बानिया, पल पल करे व्यापार। बिन दांडी बिन पालड़ा, तोले अखिल संसार।।
वो भी ऊपर बैठकर बनियागिरी ही कर रहा है। पूरा नाप-तोलकर देता है, लेता है। उसके हिसाब में कहीं कोई ग़लती नहीं। परफ़ेक्ट उसकी बैलेंसशीट, पीएनएल सब। आप सोच रहे होंगे कि कहीं कुछ कर दिया है ऊँच-नीच, उसका कोई लेखा-जोखा नहीं।
सब पूरी अकाउंटिंग है। और चतुर, एफिशिएंट (कुशल) वो इतना है कि ख़ुद नहीं करता, आपसे ही करा देता है। आप ही के भीतर बैठा है वो अकाउंटेंट बनकर। कहता है, “मैं क्यों बोझ लूँ अपने ऊपर? मैं तो अकर्ता हूँ भाई! मैं कुछ नहीं करूँगा। ये सब जो टहल रहे हैं, यही करें। तुम्हारा झंझट, तुम जानो!”