माता-पिता का ऋण कैसे चुकाएँ?

Acharya Prashant

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माता-पिता का ऋण कैसे चुकाएँ?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या माँ-बाप से पैसे लेना अनुचित है?

आचार्य प्रशांत: जब नीयत साफ़ होती है न तो तुम कहते हो कि ठीक है ले रहे हैं, पर खा नहीं जाएँगे। फिर कोई तुम्हारी ज़िंदगी पर राज़ नहीं कर सकता। कोई राज़ तब करता है तुम्हारी ज़िंदगी पर जब तुम्हारी नीयत ही ख़राब होती है। जब तुम्हारा लेने का नहीं, लेते ही रहने का इरादा होता है। ‘इतनी बड़ी कोठी बापूजी की, किसके लिए है? इतना बड़ा बैंक बैलेंस बापूजी का किसके लिए है?’

जब ये पता होता है न कि ये तो कुछ दिनों की बात है, साल-दो साल फ़ीस ले लेंगे उसके बाद हमें पता है कि अपने पाँव पर खड़ा होना है। उसके बाद हमारा बिलकुल भी इरादा नहीं है लेते रहने का। लेते रहने का तो छोड़ो, हम लौटाएँगे भी। लौटा और देंगे। तब मन पर कोई दबाव अनुभव नहीं होता। तब मन पर ज़रा भी दबाव अनुभव नहीं होता। पर जब नीयत ही ये होती है कि ज़िंदगी भर ही लेते रहना है तब हर किस्म का दबाव अनुभव होता है।

और एक बात और याद रखना। ज़िंदगी भर लेते रहने की अगर नीयत है तो ये रिश्ता भी बड़ा फिर, शोषण का रिश्ता है। कि हम देख ही इस तरह से रहे हैं घरवालों को कि बढ़िया, घर में एटीएम लगा हुआ है। जैसे उसमें फ़ादर मैडमैन था वैसे यहाँ फ़ादर कैशमैन है। वहाँ भी तो वो घर में कोने पर ही बैठा रहता था। सोचो घर में कोने पर एक एटीएम मशीन लगी हुई है। और उसका पासवर्ड क्या है? डिलू (डीआइएलयू)। डैडी, आईलवयू (पिताजी मैं आपसे प्यार करता हूँ)। उसमें डालो डीआइएलयू, उसमें से पैसे वापस आते हैं।

श्रोतागण: एक टी-शर्ट भी आता है, उसमें लिखा होता है माइ डैड इज़ ऐन एटीएम (मेरे पिता एटीएम हैं)।

आचार्य प्रशांत: ‘डीलू-डीलू’। अब ये कोई प्रेम की बात है डैडी से? कि जाकर बटन दबा रहे हो और तुम्हें पता है पासवर्ड। जाकर दो चार-बार बोलेंगे, डैडी, डैडी, डैडी। डैडी पैसे निकाल ही देंगे। और न निकालें तों?

प्रश्नकर्ता: कभी लौटाने की बात करो तो बहुत ऑफ़ेन्डिंग (अपमानजनक) हो जाता है उनके लिए कि ये क्या कह दिया। मैं सोचती हूँ उनकी आवश्यकता और ज़्यादा मज़बूत है। मोर दैन व्हॉट वी आर (जो हम हैं उससे ज़्यादा)।

आचार्य प्रशांत: द रीपेमेंट इज़ एक्सेपेक्टेड नॉट इन कैश बट इन काइंड (वापसी नकद राशि में नहीं अपेक्षित होती बल्कि उदारता के रूप में होती है)।

कैश (नकद) तो बहुत छोटी चीज़ होती है। मुझे समूचा इंसान चाहिए, सिर्फ़ उसका पैसा नहीं। तुम सस्ते में निपट जाना चाहते हो पैसा देके निपट जाना चाहते हो? तुम इतने में ही मुक्त हो जाना चाहते हो कि पैसा लौटा दिया। ‘मुझे पैसा नहीं तुम्हारी समूची ज़िंदगी चाहिए। तुम्हारे एक-एक पल पर, एक-एक निर्णय पर अख्तियार चाहिए। ये तो बड़े सस्ते में छूट गए तुम कि हमने तुमपर बीस लाख खर्च किए थे, तुमने तीस लाख लौटा दिए। ये तो बड़े सस्ते में छूट गए। इतने सस्ते में नहीं छोड़ेंगे। तुम्हारी एक-एक साँस चाहिए।’

और ये कहानी देखो, बात ऐसा नहीं है कि माँ-बाप की है। आप जैसे इंसान हो आप वैसे ही माँ-बाप भी तो बनोगे न। आपकी जब हर हरकत में हानि-लाभ, प्रॉफ़िट एंड लॉस है तो आपके रिश्तों में भी तो वहीं घुसा हुआ होगा। जब आप हर काम नफ़ा नुकसान देखकर करते हो, आपने बच्चा पैदा भी यही देखकर किया था कि प्रॉफ़िट है कि लॉस है, क्या ये नहीं जानते हो? पूरी प्लानिंग के साथ ही तो बच्चे पैदा किए जाते हैं, अब प्लानिंग फ़ेल हो जाए तो ये अलग बात है लेकिन अपनी ओर से तो प्लानिंग पूरी की जाती है। लड़की ज़्यादा होने लग जाए तो उसको मार भी देते हैं। दो हो गई है तीसरी आ रही है तो उसको मार दो।

जब बच्चे पैदा ही प्रॉफ़िट-लॉस से किए गए थे तो उनकी ज़िंदगी में फिर प्रॉफ़िट-लॉस नहीं देखा जाएगा कि इससे मुझे क्या प्रॉफ़िट, क्या लॉस हो रहा है। इन्हीं की बात नहीं है तुम भी ऐसा ही करोगे। अगर तुम्हारा मन भी प्रॉफ़िट-लॉस वाला रहा तो तुम भी इसी हिसाब से बच्चे पैदा करोगे। जिसका ही मन ऐसा है उसकी पूरी ज़िंदगी ऐसी ही चलेगी।

इस ट्रांसैक्शन (लेन-देन) में हिस्सा लेकर तुम किसी का भला नहीं कर रहे। ये जो गंदा ट्रांसैक्शन है न प्रॉफ़िट एंड लॉस (लाभ और हानि) लेना-देना, इसमें हिस्सा लेकर अपना तो नुकसान कर ही रहे हो, ये मत सोचना कि उनका कोई फ़ायदा कर रहे हो। कई बार तुम्हारे मन में बड़े भले-भले विचार आते हैं कि उनका दिल रखने के लिए ही हम इसमें ज़रा पार्ट ले लेते हैं। और तुम्हें इस तरह के तर्क दिए जाएँगे कि हाँ-हाँ हमें पता है बात ग़लत है पर किसी का दिल रखने के लिए तो कुछ किया जा सकता है न। ये मैं भी जानती हूँ कि ये बात गलत है बट जस्ट टू नॉट टू हर्ट समबडी (लेकिन केवल किसी को आहत न करने के लिए)। ‘थोड़ा करने में क्या बुराई है?’ बहुत बड़ी बुराई है।

उसकी हर्ट बचाकर के तुम उसको नर्क दे रहे हो। ये आर्गुमेंट (तर्क) सुने हैं, ‘हाँ हमें पता है बात गलत है लेकिन किसी का दिल रखने के लिए ही कर लेते हैं।’ *ट्रुथ इज़ ट्रुथ एंड व्हाटएवर बी द रिज़ल्ट ऑफ़ ट्रुथ इज़ द राइट रिज़ल्ट।* (सत्य, सत्य है और जो भी सत्य का परिणाम होगा वो सही परिणाम होगा)।

उल्टा मत चला करो कि रिज़ल्ट (परिणाम) तुमने पहले सोच लिया और फिर कह रहे हो कि इस रिज़ल्ट तक कैसे पहुँचे। न, रिज़ल्ट नहीं पहले सोचा जाता। *ट्रुथ इज़ ट्रुथ, मूव इंटू इट एंड देन व्हाटएवर बी द रिज़ल्ट दैट इज़ ए गुड रिज़ल्ट।* दैट इज़ द डेफ़िनिशन ऑफ ए गुड रिज़ल्ट। *द रिज़ल्ट दैट कम्स फ़्रॉम ए ट्रुथफुल ऐक्शन इज़ ए गुड रिज़ल्ट* (सत्य, सत्य है, इसमें अन्दर जाओ और उसके बाद जो भी परिणाम होगा वो एक अच्छा परिणाम होगा। यही अच्छे परिणाम की परिभाषा है। वह परिणाम जो सच्चे कार्य से आता है एक अच्छा परिणाम है)

अब ट्रुथफ़ुल ऐक्शन (सच्चाई के कार्य) का रिज़ल्ट अगर ये है कि कोई बुरा मान रहा है इट इज़ ए वेरी गुड रिज़ल्ट। ह्वाय? बिकॉज़ इट केम फ़्रॉम ए ट्रुथफुल ऐक्शन। फोकस ऑन द ऐक्शन, नॉट ऑन द रिज़ल्ट (यह एक बहुत अच्छा परिणाम है। क्यों? क्योंकि वो एक सच्चे कार्य से आता है। कार्य पर केंद्रित रहिए, परिणाम पर नहीं)।

और देखना तुम कि तुम्हारे पास ट्रुथ के विरूद्ध जो भी तर्क होंगे उन सबमें रिज़ल्ट की बात होगी। तुम कहोगे, अगर हमने ऐसा कर दिया तो क्या होगा? तुम रिज़ल्ट की बात पहले कर रहे होगे। रिज़ल्ट की बात करना ट्रुथ से बचने का बड़ा बढ़िया बहाना है। तुम रिज़ल्ट की बात ही मत करो। जो होगा देखा जाएगा। तुम वो करो जो सच्चाई की माँग है। और ये जो पूरा गेम है लाइफ़ (जीवन) का इसके तरीके़ बड़े अजीब हैं। ट्रुथ पर चल रहे हो तो सबका भला होगा। पेरेन्ट्स का भी भला उसी में होना है। हो सकता है हर्ट होने में ही उनकी भलाई हो।

लिज़ारस घर छोड़कर भाग गया, कल मैं कह रहा था न। हो सकता है मैरी और मार्था की इसी में भलाई हो। मदर को कोई और चीज़ जगा नहीं सकती थी, पर लिजा़रस घर छोड़कर भागा है ये घटना हो सकता है माँ को जगा दे। तो तुम सच पर चलो नतीजा क्या आएगा वो सच को देखने दो। सच खुद नतीजे की परवाह कर लेगा। तुम मत सोचना कि अरे ये न हो जाए, वो न हो जाए, ऐसा न हो जाए, वैसा न हो जाए। जो भी हो जाएगा ठीक ही होगा। उसमें कोई पछताने की बात नहीं है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, माँ-बाप के ऋण को सीधे मना कर देने में और ऋण को ज़िंदगी भर चुकाते रहने के बीच का रास्ता क्या हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: निर्भर करता है कि कौन बात कर रहा है। जो पूरी तरीके से मटीरियलिस्टिक (भौतिकवादी) आदमी है वो इस डेट (कर्ज़) को पूरा रिपे (भुगतान) नहीं कर सकता। क्योंकि जो पूरी तरह मटीरियलिस्टिक आदमी है वो अपने आपको क्या देखता है?

श्रोतागण: मटेरियल (पदार्थ)।

आचार्य प्रशांत: शरीर। और शरीर किससे आया है?

श्रोतागण: माँ-बाप से।

आचार्य प्रशांत: तो आप ज़िंदगी भर भी रिपे (चुका) नहीं सकते हो न, क्योंकि आप जो हो वही माँ-बाप से आया है। मटीरियलिस्टिक आदमी ही जीवन भर उऋण नहीं हो पाएगा। वो कभी भी इस ऋण से मुक्त नहीं हो पाएगा क्योंकि वो अपने आप को शरीर जानता है और शरीर तो उन्हीं से आया है। आध्यात्मिक आदमी ही है जो इस ऋण से मुक्त हो सकता है। शरीर तो आया है उनसे तो शरीर का जो ऋण है वो तो तुम्हें चुकाना भी चाहिए। और चुकाकर के उससे मुक्त हो जाना चाहिए। पर तुम्हारे लिए ये समझना बहुत ज़रूरी है कि तुम जो वास्तव में हो वो किसी माँ-बाप से नहीं आए हो। तुम सचमुच जो हो वो किसी माँ-बाप से नहीं आए हो। हाँ, शरीर आया है उनसे और इस बात के लिए अनुग्रह होना चाहिए। और शरीर के लालन, पालन-पोषण पर उन्होंने समय दिया है, ऊर्जा दी है, परवाह की है आत्मीयता दी है।

इंसान होने का तकाज़ा है कि तुम इस बात को खयाल में रखो। लेकिन अगर अपनेआप को सिर्फ़ शरीर जानोगे तो फिर वो ज़िंदगी भर नहीं मुक्त हो पाओगे। न तुम मुक्त हो पाओगे, न अपने बच्चों को मुक्त होने दोगे। तुम यही अपेक्षा अपने बच्चों से करोगे, ‘बेटा, तू जो कुछ है हम ही से आया है न। शरीर तो हम ही ने दिया है तुझे। तो अब तू ज़िंदगी भर के लिए हमारा बन गया, डमरू। हम बजाएँगे।’ दुनिया के किसी भी ऋण से मुक्त होने के लिए ज़रूरी है कि तुम जानो कि तुम दुनिया के नहीं हो। तुम अपनेआप को जितना दुनिया का समझोगे उतना ज़्यादा दुनिया के कर्ज़ तले दबे रहोगे।

प्रश्नकर्ता: साधना जो है, उसे साधने की बात की जाती है। यही है कि पहले अपनेआप को देखकर आप अपने सेल्फ़ की तरफ़ मूव ऑन करें (आगे बढ़ें)। उसके बाद ...

आचार्य प्रशांत: साधना शब्द का अर्थ सिर्फ़ इतना ही है कि जोड़ना। जोड़ने की बात तभी आती है जब पहले कुछ टूट गया हो। तो कुछ है जो असधा है, जो सधा नहीं है, जो सधा नहीं है, उसको ही साधना पड़ता है। जो टूट गया है उसको जोड़ना पड़ता है, यही है साधना।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, यदि कोई अपनी आत्म-छवि के लिए निरंतर बाहर वालों पर निर्भर है, तो क्या यह भी किसी तरह का ऋण है?

आचार्य प्रशांत: पूरी पहचान ही उनसे ले रखी है, इसीलिए दबे हुए हो। कोई कर्ज़दार हो जिसको दिख रहा हो कि उसके पास कर्ज़ लौटाने का कोई तरीका नहीं है और उसके सामने जब तकाज़ा करने वाला आता हो तो उसकी क्या हालत होती है? तुम्हें पता है कि तुम एक ऐसे ऋण में हो जो खत्म हो ही नहीं सकता, इतना बड़ा है। तुम्हारे रेशे-रेशे में घुसा हुआ है वो डेट (ऋण)। तो जिससे तुमने लिया है वो सामने आ जाए तो तुम्हारी क्या हालत होगी? जल्दी बोलो।

श्रोतागण: आत्महत्या।

आचार्य प्रशांत: यही हालत होती है तुम्हारी जब दुनिया तुम्हारे सामने आती है। डर जाते हो। तुम्हारे पास जो कुछ है वो तुमने दुनिया से ही ले रखा है। तो दुनिया जब सामने खड़ी होती है तो तुम्हारी हवा संट हो जाती है बिलकुल।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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