प्रश्नकर्ता: आचार्य जी जब किसी का जन्म होता है तो उसका उत्सव मनाया जाता है, मृत्यु का उत्सव क्यों नहीं मनाया जाता?
आचार्य प्रशांत: ज़बरदस्ती की बात कि कोई मरता है तो उत्सव क्यों नहीं मनाते। क्यों मने उत्सव भाई! मैं नहीं कह रहा हूँ कि कोई मरे तो तुम छाती पीटकर रोने लग जाओ, पर उत्सव भी काहे को मनाओगे, बात क्या है, या बस प्रचलन है, फैशन है। एक चीज़ है, जो उत्सव की अधिकारी होती है क्या? मुक्ति। मृत्यु से मुक्ति मिल गयी है क्या? अगर नहीं मिल गयी है, तो उत्सव किस बात का मना रहे हो? जितनी बड़ी बेवकूफ़ी है मृत्यु पर छाती पीटकर रोना उतनी ही बड़ी बेवकूफ़ी है मृत्यु का उत्सव मनाना।
मुक्ति मिली होती और तुम नाच उठते तो समझ में आता। मृत्यु माने मुक्ति तो नहीं, तो कैसा नाचना? एक बेवकूफ़ी का विरोध करने के लिए दूसरी नहीं शुरू कर देनी चाहिए। जान लो कि क्या घटना घटी। हाँ, देह थी, अब चैतन्य नहीं रही और ये बात दुख की हो भी सकती है। और अगर बात दुख की है तो झूठ-मूठ नाटक करके दुख को छुपाओ मत।
अगर कोई मर गया है बिना मुक्ति को प्राप्त हुए तो ये बात दुख की निस्सन्देह है अगर किसी के साथ जी रहे थे तुम, और तुम्हारे साथी की मृत्यु हो गयी बिना सम्बन्ध के पूर्ण हुए तो ये बात दुख की निस्सन्देह है। तुम्हें अफ़सोस व्यक्त करना चाहिए कि रिश्ता जिस ऊँचाई तक पहुँच सकता था। जो समभावना थी इस रिश्ते की वहां तक ये रिश्ता पहुँच नहीं पाया। बात अधूरी रह गयी। रो लो थोड़ा सा, रोना ठीक है, झूठ-मूठ का उत्सव मत मनाओ।
कुछ शुभ हुआ हो तो उत्सव मनाओ। जो गया है वो पूरा जीकर नहीं गया, जो गया है उससे तुम्हारा रिश्ता अभी अधूरा सा ही रह गया, कुछ जिया, कुछ अनजिया। ये बात तो निसन्देह खेद की है न? और वो दुख तुममें उठना चाहिए। तुम्हें उस दुख को स्वीकार करना चाहिए। तुम्हें मानना होगा कि गलती हुई है। मानोगे ही नहीं कि गलती हुई है तो उस गलती को दोहराते रहोगे। गलती न मानने की यही तो सज़ा है, गलती नहीं मानोगे तो गलती को दोहराते रहोगे। मान लो कि रिश्ता अधूरा ही मर गया। मानना पड़ेगा। एक रिश्ते में अगर ये मान लोगे कि कमी रह गयी, चूक हो गयी, रिश्ता अधूरा ही मर गया तो हो सकता है कि अपने बाकी रिश्तों को बचा लो, नहीं तो वही भूल दोहराओगे, वही दुख बार-बार पाओगे।
मृत्यु दुखद तो है ही भाई! इसीलिए नहीं दुखद है कि किसी का शरीर मिट गया इसलिए दुखद है कि शरीर रहते जो सम्भावना थी, वो उच्चतम सम्भावना परिणीत नहीं हुई। उच्चतम सम्भावना उस जीव ने पायी नहीं इसलिए मृत्यु दुख की बात है। जिन्होंने वो उच्चतम सम्भावना हासिल कर ली हो उनकी मृत्यु पर ज़रूर तुम उत्सव मना सकते हो। तब कह सकते हो कि इन्होंने वास्तव में जीवन जिया। पर उस स्थिति में भी मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ, हो कोई जिसने जीवन में मुक्ति पा ली हो तो उत्सव किस दिन मनाओगे, जिस दिन उसने मुक्ति पायी या जिस दिन उसने मृत्यु पायी? जब मुक्ति पायी न, तो उसके जीवन का उत्सव मनाओ न, क्योंकि उसकी मुक्ति तो लगातार थी उसके जीवन का उत्सव मनाओ अगर वो मरा है तो इससे तो जगत को क्षति ही हुई है न। क्या क्षति हुई है? कि जितने दिन जी रहा था उतने दिन उसने मुक्ति पायी भी थी, और दूसरों को भी वो मुक्ति दे पा रहा था क्योंकि जो मुक्त होता है वो दूसरों की मुक्ति में भी सहायक होता है। अब ऐसा व्यक्ति अगर मरे तो उत्सव की क्या बात हुई भाई? उसकी मुक्ति का उत्सव मनाना भी है तो कब मनाओगे? उसके जीवनकाल में मनाओगे न। जिस दिन वो मरा है उस दिन तो क्षति हुई है न। क्या क्षति हुई है? कि अब वो दूसरों की कोई मदद नहीं कर पाएगा। तुम्हारी तो क्षति हो गयी।
जब तक वो जी रहा था स्वयं भी मुक्त था तुम्हें भी मुक्ति की ओर अग्रसर कर रहा था अब वो मरा तो तुम्हारी तो मदद नहीं कर पाएगा न, तो उत्सव किस बात का मना रहे हो? तो अगर कोई बद्ध पुरुष मरा, अगर कोई बन्धनों में ही मर गया तो भी ये उत्सव मनाने की बात नहीं है कि बन्धनों में ही था और मर गया। ये तो दुख की बात है और अगर कोई मुक्त होकर मरा तो भी ये उत्सव मनाने की बात नहीं है, क्योंकि अगर और ज्यादा जीता तो दुनिया के और काम आता। तो ये उत्सव मनाने का क्या खेल है फिर?
दोहराये दे रहा हूँ मूलसूत्र — उत्सव की अधिकारी सिर्फ़ मुक्ति है। मुक्ति का उत्सव मनाओ जो कुछ भी मुक्ति के साथ जुड़ा हुआ हो उसका उत्सव मनाओ और जो कुछ भी मुक्ति को बाधित करता हो, मुक्ति के खिलाफ़ हो, उसका उत्सव मत मनाने लग जाना, उल्टी गंगा मत बहाने लग जाना।
हाँ, मृत्यु किसी की भी हो,कभी भी हो, कैसी भी हो, उसके प्रति तुम्हारी दृष्टि बोध की होनी चाहिए, दुख भी हो तो वो दुख बोध से उठे। बोध से भी दुख उठता है, मोह से नहीं। एक दुख होता है इस बात का कि अगर ये ज़िन्दा रहते तो जगत का और कल्याण करते। ये बोध जनित दुख है और एक दुख ये होता है कि मेरा पति मर गया। हाय मेरा पति मर गया ये मोह जनित दुख है दुख तुम्हें उठे भी तो बोधजनित दुख हो, दुख मोहजनित न हो।
समझ में आ रही है न बात?
सन्त भी रोते हैं वो भी दुख का अनुभव करते हैं, पर उनका दुख आता है बोध से, और संसार का दुख आता है मोह से। इसी तरह मृत्यु पर भी तुम्हें दुख उठे लेकिन वो दुख आये बोध से, मोह से नहीं।
“सुखिया सब संसार है खायै अरू सोवै दुखिया दास कबीर है जागै अरू रोवै।”
कबीर साहब को भी दुख होता है पर वो दुख बोध से आया है, “जागै अरू रोवै।” जागरण से रुदन आया है। तुम्हें भी दुख आये पर वो दुख बोध से आये, मोह से नहीं आये। आमतौर पर जब किसी मरने वाले के लिए तुम रोते हो तो मोहवश रोते हो। मोहवश रोना व्यर्थ है।