
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मेरा प्रश्न डर से संबंधित है। मैं दो साल से जुड़ी हुई हूँ आपसे। और जीवन में पहले, सोलह साल पहले, मेरी छोटी बहन की डेथ हो गई थी सडन। तो उसके बाद मैंने अपना स्किल्ड-बेस्ड एजुकेशन कम्प्लीट किया और अपना काम शुरू किया, जॉब वग़ैरह सब किया। उसके पहले मैं बस एक हाउसवाइफ़ थी, घर और बच्चे, यही मेरा काम था।
और अभी छह साल पहले मेरे हज़बैंड की डेथ हो गई सडन। तो उसके बाद मतलब बाहरी संघर्ष, भीतरी संघर्ष, इसके बीच में भगवद्गीता और कठोपनिषद् जीवन में आए और उसकी खोज करते-करते मैं गीता-सत्रों से जुड़ गई। तो दोनों ही इंसिडेंट्स ऐसे थे कि संघर्ष मैंने बहुत किया, बाहर संघर्ष किया, भीतर भी संघर्ष। और बुरा परिणाम, अच्छा परिणाम, अच्छा परिणाम ये रहा कि मैंने अपने आप को आगे बढ़ाया। बुरा तो मतलब ये है कि खो दिया। लेकिन अब कभी सोचती हूँ वो बुरे परिणाम के बारे में तो बहुत डर लगता है, क्योंकि अभी भी हैं मेरे अपने, जिनसे मेरा स्नेह का रिश्ता है मेरा। तो वो डर जाता नहीं है मृत्यु का बिल्कुल भी, अपनों के लिए। और वो किसी के भी हाथ में नहीं है, क्योंकि सडन मैंने दो अपने खोए हैं। तो वो जो सडन चीज़ होती है, वो कभी-कभी बहुत हॉन्टेड करती है मुझे।
आचार्य प्रशांत: आपने अपने खोए भी हैं, आप जानती भी हैं कि मृत्यु किसी के हाथ में नहीं है। तो फिर सांत्वना या बहाने के लिए तो कोई जगह बचती ही नहीं न।
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल भी नहीं।
आचार्य प्रशांत: बचती ही नहीं, है न। ज़्यादातर लोगों से कहीं बेहतर आप जानती हैं जीवन का यथार्थ। तो फिर व्यक्ति क्या करे? जब पता है कि ये गाड़ी कभी भी रुक सकती है, तो क्या करे? जितना समय है, उसका गहरे से गहरा उपयोग।
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल मैं काम करती हूँ बहुत। शरीर भी साथ नहीं देता कभी-कभी, फिर भी बहुत मतलब मैंने अपनी एक संस्था शुरू की हुई है, उसमें मैंने गाँव में क्लासेस वग़ैरह शुरू किए हुए हैं, और पूरा काम मतलब देखती रहती हूँ। बहुत बिज़ी रखती हूँ ख़ुद को। और सत्र हैं, सब कुछ है, बुक-स्टॉल है, सब कुछ है। घर में भी वही माहौल है, बच्चे भी वही कर रहे हैं मतलब सत्रों से जुड़े हुए हैं तो। सब चीज़ ऐसा लगता है कि ठीक हो रही है। लेकिन ये जो डर रहता है, क्योंकि हर बार अब मेरे मतलब बच्चे ही हैं दोनों, आगे दोनों के सामने कुछ सोचती नहीं बिल्कुल भी। क्यों बेपरवाही नहीं आती मेरे?
आचार्य प्रशांत: हमें पता है कि समय सीमित है, कितना सीमित है ये नहीं जानते, पर सीमित है। आप जब डर रहे हैं उस समय, समय का क्या हो रहा है? आप जब डर रहे हैं, विचार भी समय माँगता है। आप जब डर रहे हैं तो क्या आपके डर के लिए घड़ी रुक जाती है सम्मान में?
प्रश्नकर्ता: नहीं। और वो तभी हावी होता है जब, मतलब शरीर से कुछ ज़्यादातर अभी थोड़ा सा हेल्थ-इशू चल रहा था, जो मैं घर में थी, तो उस टाइम में बहुत ज़्यादा होता है वो।
आचार्य प्रशांत: देखिए, मृत्यु डरावनी होती ही इसीलिए है क्योंकि वो एक अधूरी कहानी का अंत होती है। जब कोई अपना चला जाता है तो हम रोते हैं कि अभी सोचा था कि इनके साथ ये बातें करेंगे, नहीं कर पाए। अभी सोचा था इनको साथ लेकर वहाँ घूम आएँगे, नहीं घूम पाए। बहुत कुछ संभव था जो हो नहीं पाया, है न? कहानी अधूरी रहती है, इसीलिए मृत्यु डरावनी होती है। इसीलिए होती है न? कहानी अधूरी इसलिए रह जाती है क्योंकि समय सीमित होता है। और डर-डर के तो हम कहानी को और अधूरा रख रहे हैं, या नहीं? अगर हम जान गए कि मृत्यु का कष्ट है ही अधूरेपन में, कुछ अभी बाक़ी था पर काल ने मौका नहीं दिया, यही बात दुख देती है न? समय थोड़ा और मिल जाता तो अभी कितना कुछ और संभव हो पाता, यही बुरा लगता है न?
तो जब समय सीमित ही है तो मृत्यु को और कोई क्या जवाब दें हम इसके अलावा, कि समय का उच्चतम उपयोग करेंगे, इसके अलावा और क्या जवाब दें मृत्यु को? कहिए।
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: डर-डर के आप जिस बात से डर रहे हैं, उसे और करीब बुला लेते हैं। आप डर ही इस बात से रहे हो कि समय कम है और मृत्यु आएगी। हम सब इसी बात से डर रहे हैं, समय कम है, इसी बात का डर है। और जब आप डरते हो तो समय और व्यर्थ चला जाता है। घड़ी रुक तो नहीं जाती, समय और व्यर्थ चला जाता है।
ये बात अच्छे से समझिए, मौत रुलाती इसीलिए है क्योंकि कहानियाँ हमारी अधूरी रह जाती हैं। इससे और आपको स्पष्ट होगा कि क्यों जानने वालों ने जीवन-मुक्ति को महामृत्यु कहा है। उन्होंने कहा है कि अपनी कहानी पूरी कर डालो। कैसे? जो भीतर कहानीकार बैठा हुआ है, उसे उसकी मंज़िल तक पहुँचाओ, सारी कहानियाँ उसी के लिए हैं। मरने से पहले ही पूरे हो जाओ, अब मौत दुखदायी नहीं लगेगी।
मौत सबसे ज़्यादा उनके लिए दुखदायी होती है जिन्होंने सबसे अधूरा जीवन जिया होता है। इसीलिए जब कोई बुज़ुर्ग जाता है तो उतना दुख नहीं होता, कोई 95 में गया है तो बहुत दुख नहीं होगा। बल्कि कई जगहों पर तो परंपरा रहती है कि अगर कोई बहुत लंबी आयु जीकर मरा है तो उसकी विदाई का उत्सव मनाओ, क्योंकि वो पूरा जीकर जा रहा है। तो रोओ नहीं, ये बात उत्सव की है। और यही कोई जवान व्यक्ति चला जाता है, 25, 35 साल का तो हम कहते हैं अकाल-मृत्यु हो गई, और ज़्यादा बुरा लगता है। ज़्यादा बुरा क्यों लगता है? क्योंकि कहानी अधूरी रह गई। तो
मृत्यु नहीं डराती, कहानी का अधूरापन डराता है। मृत्यु तो उत्सव की बात भी हो सकती है अगर आपकी कहानी पूरी हो गई हो।
जिस मरने से जग डरे मेरो मन आनंद, कब मरिहों कब भेंटिहों, पूरन परमानंद।
~संत कबीर
मौत तो त्योहार जैसी भी हो सकती है अगर कहानी पूरी कर ली हो। कहानी पूरी करिए। यमराज आकर के मालूम है क्या ले जाते हैं? अधूरी कहानियाँ। शरीर तो मिट्टी हो जाता है, कैसे ले जाएँगे? कंज़र्वेशन ऑफ मास है भाई। आप जितने किलो के हो, जलने के बाद एक-एक ग्राम आपका पृथ्वी को और वायुमंडल को चला जाता है। यमराज उसको ले ही नहीं जा सकते। हैं! तो इतना बड़ा भैंसा किसलिए है? उस पर क्या जाता है फिर? वो लेकर के जाते हैं हमारी अधूरी कहानी। उसको ले जाते हैं, और उसी के लिए आप रोते हो, कहानी अधूरी रह गई। अभी कुछ बाक़ी था।
जो बाक़ी है, उसे बाक़ी मत रह जाने दो। जिनका बाक़ी नहीं रह जाता, वो 20, 25, 30, 35, 40 की उम्र में भी मस्त विदा होते हैं, क्योंकि यमराज के पास कुछ है ही नहीं ले जाने को। अधूरी हो कहानी तब न वो ले जाएँगे। कहानी है ही नहीं अधूरी। जो अधिकतम हम कर सकते थे हमने किया ही, कुछ हमने अधूरा छोड़ा ही नहीं।
विवेकानंद हों, जीसस हों, आचार्य शंकर हों या अभी हाल में भगत सिंह हों — ये कोई डर से थरथर काँपे थोड़ी होंगे कि मौत आ रही है। इनको डर से काँपने के लिए भी समय नहीं था, क्योंकि जो अधिकतम संभव था, ये उसको कर रहे थे। आ रही है बात समझ में? और जिसने ज़िंदगी सही नहीं जी, वो 80 में भी जाएगा, वो तो भी कलपेगा। वो कहेगा, अरे अगर बस एक-दो साल और मिल जाते तो दो-चार ज़िंदगियाँ और ख़राब कर लेते। बात आ रही है समझ में?
प्रश्नकर्ता: ज़िंदगी नहीं ख़राब करी। अभी जो सामने है, उनकी ज़िंदगी ख़राब नहीं कर रही हूँ। इसलिए आपसे जोड़ा हुआ है दोनों को। तो वो चिंता तो मिट गई है, बिल्कुल।
आचार्य प्रशांत: इसमें क्या है? (कप की ओर इंगित करते हुए)।
प्रश्नकर्ता: चाय।
आचार्य प्रशांत: चाय तो है। बाहर क्या है? (कप पर बनी हुई आकृति)।
प्रश्नकर्ता: नहीं दिख रहा है।
आचार्य प्रशांत: ये खोपड़ा है, ये कंकाल है। दिख रहा है? आई न मौज! तो मौत को मौज बना लीजिए। आप लोग तो उतना दूर बैठे हो, आपको तो साफ़-साफ़ दिख भी न रहा हो, यहाँ पर ये लेटा हुआ है। मैं इसको अपने पास रखता हूँ, ये मैं हूँ। ये मौज है मेरी, और इसमें सब बहुत अच्छे से लिखा हुआ है। देखिए, यहाँ से शुरू हो रहा है, तो यहाँ लिखा हुआ है, क्रेनियम। उसके बाद, मैंडिबल, फिर स्कैपुला, पूरा जितना वर्णन हो सकता है भीतर की सामग्री का। बेटा, थ्री-पीस पहन के खड़े हो, सब अंदर मामला साफ़ है। आ हा हा हा, बढ़िया!
प्रश्नकर्ता: आपके जैसे ही अकेले रहो तो अच्छा रहता है, सच में।
आचार्य प्रशांत: हाँ। ये देखिए, ये मैं हूँ (कप पर बने हुए कंकाल की ओर इंगित करते हैं)। मौज। ये क्या इससे, कौन बच सकता है इससे? ये हम हैं भाई। और इंसान की बड़ी से बड़ी समस्या ये रही है कि उसने सोचा है कि इससे किसी क़द्र बचा जा सकता है।
इजिप्ट में ममी बनाते थे। क्यों बनाते थे?
प्रश्नकर्ता: अगले जन्म के लिए।
आचार्य प्रशांत: हाँ। क्यों उसके शरीर को बचाकर रखते थे? प्रिज़र्व क्यों करते थे? वो कहते थे कि अभी ये दोबारा जन्म होगा, और जब इसकी रूह आएगी तो उसको शरीर नहीं मिला तो गड़बड़ हो जाएगी। तो शरीर बचाकर रखो ताकि जब रूह आए तो शरीर सलामत रहे।
क्या बचाकर रखना है? ये मिला है, इसका जो अधिकतम उपयोग कर सकते हो अभी कर डालो। और उसके शरीर से जितनी उसकी आँत-पुलाथी, जितने भीतर के अंग होते थे न, सब बाहर निकाल लेते थे क्योंकि वरना वो भीतर सड़ते। मौत के बाद भी अंदर बैक्टीरिया तो मौजूद ही है और मॉइस्चर भी मौजूद है, तो वो भीतर से सड़ा देगा, भले ही आपने बाहर से प्रिज़र्व कर दिया हो। तो भीतर से सब निकाल लेते थे।
भीतर बस पता है क्या छोड़ देते थे? दिल। क्योंकि वो अरमानों का अड्डा है। दिल छोड़ देते थे, बाक़ी सब निकाल लेते थे। और एक चीज़ निकाल लेते थे, भेजा (ब्रेन)। मालूम है क्या कहते थे? कहते थे, ये बहुत काम की चीज़ नहीं होती। ये होता है जब दिमाग से ज़्यादा दिल को महत्त्व देते हो। दिल छोड़ रखा है सब ममीज़ में, दिल मिलेगा, दिमाग नहीं मिलेगा।
भविष्य, कुछ है, अभी आगे कुछ है। आगे इतना बचाकर रखना है, बचाकर नहीं, आगे के लिए इतना टालकर रखना है कि ये जन्म भी काफ़ी नहीं पड़ रहा। मुझे अभी और पाँच-सात-पचास जन्म चाहिए दिल के अरमान पूरे करने के लिए। जीवात्मा, और किसलिए चाहिए जीवात्मा? इसीलिए तो चाहिए कि एक जन्म भी पूरा नहीं पड़ रहा, अभी पचास जन्म चाहिए अरमान निकालने के लिए। भाई, इसी जन्म में निकाल लो और मुक्त हो जाओ। "मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा।" मुक्त हो जाओ। और जिसके अभी ये अरमान नहीं निकल सकते, उसको तुम पचास जन्म दे दो तो भी नहीं। ऐसा भी नहीं कि पचास जन्म होते हैं, जब जीवात्मा ही नहीं है तो कहाँ से और कोई जन्म आ जाएगा।
इतनी सारी ममी उन्होंने बनाकर रख दीं कि इनका आगे जन्म होगा। हमने तो नहीं देखा कि आज तक कोई विदा हुई रूह वापस आकर के ममी में घुसी हो और ममी उठ के चलने-वलने लगी हो। हुआ है क्या? उन बेचारों ने बड़ी जान लगाई। दो-दो, तीन-तीन महीने लगते थे एक ममी तैयार करने में और बड़ा रुपया-पैसा लगता था (सोर्स: ब्रिटैनिका)।
और ममी अकेले नहीं जाती थी, बड़ा राजा मरा है तो उसके साथ उसकी सत्तर-अस्सी रानियाँ भी वहीं पर डाल दी जाती थीं। बोलते, “अकेले परेशान हो जाएँगे महाराज!” हाथी, घोड़ा, सब उसका, सब साथ में ही विदा करा दिया जाता था। क्यों? क्योंकि अभी अरमान बाक़ी हैं, अरमान बाक़ी हैं तो ये रानियाँ भी तो चाहिए। रानियाँ नहीं होंगी तो अरमान कैसे पूरे होंगे? अरमान बाक़ी हैं तो खाने-पीने की चीज़ें, हाथी, घोड़ा, तोप, तलवार, ये सब भी साथ में चाहिए। ये न हो तो अरमान कैसे पूरे होंगे?
आदमी को मौत कभी समझ में ही नहीं आई, क्योंकि आदमी को कभी समझ में ही नहीं आया कि ज़िंदा रहने के लिए कोई है ही नहीं। हम सोचते हैं, हमारे भीतर कोई है जो जी रहा है। हमें समझ में ही नहीं आया कि एक अपूर्णता मात्र है — अहंकार। और उसकी तकलीफ़ ये नहीं है कि उसके अरमान पूरे नहीं हो रहे, उसकी तकलीफ़ ये है कि वो सोचता है कि अरमानों के पूरा होने से वो पूरा हो जाएगा। इसी भयानक अज्ञान में इंसान ने न जाने क्या-क्या किया है।
वास्तव में हमारा पूरा इतिहास, मौत का इतिहास है। मौत का इतिहास क्यों बोल रहा हूँ? क्योंकि हमने ये माना है कि मरने के लिए कोई है। कौन है? उसका नाम हमने दिया है, जीवात्मा। कहते हैं, भीतर कोई है। कोई नहीं है, एक अपूर्णता मात्र है, मिथ्या। और वो भी सिर्फ़ इसलिए प्रतीत होती है, वो स्वयं को ही प्रतीत होती है, किसी और को नहीं। वो जो चीज़ है, वो अपने आप को ही प्रतीत होती है, तब तक ही होती है जब तक आप उसको ठीक से समझ न लो। ज़िंदगी उसी के लिए है, नहीं तो मौत जब भी आएगी बहुत रुलाकर ही जाएगी।
अरमान ऐसी चीज़ हैं, कभी पूरे नहीं होते। और भीतर जो बैठा है, उसको मान्यता देते रहोगे तो अरमानों को भी मान्यता देते ही रहोगे। आप इसलिए नहीं रोते हो कि कोई मर जाएगा, आप इसलिए रोते हो कि आपके अरमान पूरे हुए बिना कोई मर जाएगा। और इसीलिए हमेशा रोना पड़ेगा, क्योंकि अरमान कभी पूरे होने नहीं वाले।
इस पूरी बात का आप जो भीतरी अज्ञान रहा है मानवता का, उससे संबंध देख पा रहे हो? हम मानते हैं कि भीतर कोई है-कोई है, तो उसके अरमान भी हैं क्योंकि वो सदा अपूर्ण अनुभव करता है। और उसकी अपूर्णता नहीं जाने वाली, तुम कितने भी विषय उसको खिला-पिला दो। जब उसकी अपूर्णता नहीं जाएगी तो मरते वक़्त भी वो कैसा रहेगा? अपूर्ण, कुछ और मिल जाए! और जब वो अपूर्ण रहेगा तो रोएगा, और उसके आसपास वाले भी रोएँगे।
समय की घड़ी सिर्फ़ आपके लिए टिक-टिक कर रही है, काल और अहंकार एक ही चीज़ के दो नाम हैं। काल सिर्फ़ अहंकार के लिए है। और ज़िंदगी माने, समय।
ज़िंदगी है ही इसीलिए कि जब तक लग रहा है कि समय है, समय का ही सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर लो, समय के पार निकल जाओ।
बहुत रूखे तरीके से उसको ऐसे कहा गया है, कि जीते-जी मर जाओ। जीते-जी मर जाओ, क्योंकि हमारे लिए जीवित होने का मतलब ही होता है काल, समय। शरीर चलता रहे, भीतर जो भी चल रहा है उसका चलना बंद हो जाए। तो मृत्यु तो झूठ हो गया, मृत्यु तो चीज़ ही झूठी है।
हमने कहा, ये तो यहाँ खड़ा हुआ है (देह की ओर इंगित करते हुए)। इसका तो एक-एक ग्राम कहीं बाहर जा ही नहीं सकता। कहाँ जाएगा बाहर ब्रह्माण्ड के बताओ? तो शरीर तो मर ही नहीं सकता या मरेगा? शरीर का तो एक-एक एटम यहीं रहना है, तो शरीर तो मर नहीं सकता, ठीक? और वो, जिसको भीतर मानते थे कि वो भीतर बैठा है, फुर्र से उड़ गया, वैसा कुछ होता नहीं। तो मरा कौन? बजाओ ताली!
शरीर मर सकता नहीं, भीतर कोई बैठा नहीं, तो मरा कौन? कोई नहीं! तो बजाओ ताली, खेलो खेल! कोई कहीं नहीं जाने वाला, क्योंकि कोई जाने के लिए कहीं है ही नहीं। आप यहीं के हो, यहीं रहोगे। और यही जानने के लिए समय मिला है। समय का सदुपयोग यही है, जान लो कि मृत्यु का भय अनावश्यक है। उसके बाद खेलो, निडर होकर खेलो। और कौन-सा डर होता है जो आपको खेलने नहीं देता? मौत का ही तो डर होता है न? मौत हो सकती नहीं, खेलो।
“हरि मरे तो हम मरे, हमरी मरे बलाय।” हम नहीं मरते, भाग पगले, तू मरेगा। हम नहीं मरते। हम कहीं नहीं जाने वाले, न मरेंगे, न टरेंगे। यहीं डोलेंगे, भूत बनके नहीं, मिट्टी बनके, हवा बनके, फूल की तरह हवाओं में बिखरेंगे। कहीं नहीं जाने वाले। आ रही है बात समझ में?
एक बार निडर हो गए, अब मौज है न? कहानी पूरी हो गई, अब खेलते हैं। जब तक कहानी पूरी नहीं हुई, तनाव रहेगा। कहानी पूरी कर लो, बेफ़िक्र होकर के खेलो। तुम क्या मारोगे हमें? हम पहले ही मर गए। किस तरह मर गए? हमने देख लिया कि मरने के लिए कोई है ही नहीं, हम ऐसे मर गए। अब हम क्या करें मरने के बाद? खेलते हैं। द भूत ऐंड द भूतनी डान्सिंग टुगेदर, दोनों मरे हुए हैं और मरने के बाद बिल्कुल चल रही है।
ये देखो, दुनिया वाले कहेंगे, “प्रेत-लीला चल रही है। ये दोनों गुजर चुके हैं।” हाँ, गुजर चुके हैं, गुजर इस अर्थ में चुके हैं कि अतीत चले गए हैं, ट्रान्सेन्ड कर गए हैं। नदी नहीं खेलती है? हवा नहीं बहती है? पेड़ नहीं गाते हैं? बोलो, आपकी ही तो भाषा ऐसी बातें करती है न, कि नदी चली आ रही थी, सरपीली, इठलाती, लहराती, झूमती, और हवाएँ बह रही थीं, और पेड़ गीत गा रहे थे।
तो वैसे भी जिया जा सकता है, नदियों की तरह, पहाड़ों की तरह। वहाँ भी पूरा जीवन है, बस ‘ज़िंदा होने’ का दावा नहीं है। हम भी वहीं हैं, नदी हैं, पेड़ हैं, पहाड़ हैं। लेकिन हमने दावा कर दिया है कि हम ज़िंदा हैं, हमारे भीतर जीवात्मा है। जीवात्मा न उनके भीतर है, न तुम्हारे भीतर है। तुम भी उन्हीं की तरह हो जाओ। जैसे नदी बहती है, बहो। पानी कभी मरता है? पानी को मार के दिखाओ।
तो मौत तभी हट सकती है, जब पहले जान लो कि ज़िंदा होना जैसी कोई बात होती ही नहीं है। लहर हो बस एक प्रकृति की। ये लहर उठी है, ये वापस समुद्र में समा जाएगी। और समुद्र माने, मैं किसी बाहरी तत्व की बात नहीं कर रहा, मैं मिट्टी की बात कर रहा हूँ। मिट्टी से उठे हो मिट्टी हो जाओगे। और वो मिट्टी फिर अनगिनत लहरों के रूप में दोबारा सामने आ जाती है। लगातार यही काम कर रही है। एक क्षण को भी चैन से नहीं बैठ रहा है समुद्र। लगातार यही तो चल रहा है, अभी ऐसे बने हो, थोड़ी देर में कुछ और बन जाओगे, फिर कुछ और बन जाओगे, फिर कुछ और बन जाओगे।
और समय तुम्हें यही जानने के लिए मिला है, समय का सदुपयोग कर लो। और जान लिया जिसने, जैसे-जैसे वो जानता जाता है, वैसे-वैसे वो खेलने के लिए मुक्त होता जाता है।
अब जीवन निष्प्रयोजन हो जाता है, निष्काम हो जाता है। क्योंकि पाना क्या है? जो चीज़ पाने लायक थी, वो पा ली। पाने लायक क्या चीज़ थी? ये जानना कि हम ज़िंदा हैं ही नहीं।
हम उतने ही ज़िंदा हैं जितनी कि नदी ज़िंदा है, हम उतने ही ज़िंदा हैं जितनी कि हवाएँ ज़िंदा हैं, चाँद और सूरज ज़िंदा हैं। और अगर अपने आप को ज़िंदा बोलना है तो चाँद को, सूरज को, नदी को, पत्थर को, पहाड़ को, सबको ज़िंदा बोलो। वो भी ठीक है। क्योंकि हममें उनमें कोई अंतर नहीं है। अंतर बस दावे का है, हमारा दावा है कि हम ज़िंदा हैं और हमारे भीतर कुछ रूह आदि है। वो ऐसा कोई दावा नहीं करते बेचारे। बाक़ी वो भी अणु-परमाणु हैं, हम भी अणु-परमाणु हैं। वो भी मिट्टी से उठे, हम भी मिट्टी से उठे हैं। वो भी पंचभूत हैं, हम भी पंचभूत हैं। मर जाइए, मरने से डर नहीं लगेगा फिर।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी। नेक्स्ट टाइम होपफुली। कुछ पता नहीं अभी बहुत सारी बातें बाक़ी हैं।
आचार्य प्रशांत: इसके बारे में अब हम कुछ बातें करते हैं फिर (कंकाल की ओर इंगित करते हुए)। अभी इनको ठीक से आश्वस्ति हो नहीं रही है। इसके क्या-क्या अरमान थे, कौन बताएगा? इसे एक स्टार्टअप खोलनी थी, इसे फंडिंग रेज़ करनी थी, इसे अमेरिका में सैटल होना था, इसे दोस्तों की नज़रों में डूड बनना था।
प्रश्नकर्ता: एक ही अरमान था मेरा पता है, कि हमेशा कहती हूँ कि बहुत सारी कम्युनिटी में ऐसे फैमिली पूरी देखती हूँ न, कम्युनिटी में पूरी फैमिली जो कर रही हैं, मतलब बुकस्टॉल लगा रहे हैं और कर रहे हैं। तो ऐसा लगता था, अगर हज़्बैंड ज़िंदा होते तो हम चारों भी सत्र सुन रहे होते और आपको सुन रहे होते। ये लगता है, बाक़ी इतना कुछ नहीं।
आचार्य प्रशांत: अभी जो हैं, उनके साथ सुनिए।
प्रश्नकर्ता: अभी उनके साथ हैं, हाँ।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि वो भैंसे वाले भाईसाहब तो उनका कुछ पता नहीं। मैं ये नहीं कह रहा कि आपके साथ वालों को ले जाएँगे।
प्रश्नकर्ता: नहीं, बिल्कुल नहीं।
आचार्य प्रशांत: फिर उसके बाद दस ऐसे ही बजा करेंगे, साढे दस भी ऐसे ही बजा करेगा। पर स्क्रीन पर कुछ नहीं आएगा। तो जब तक है, तब तक सुन लीजिए।
प्रश्नकर्ता: ऐसा मत बोलिए, बिल्कुल भी।
आचार्य प्रशांत: इसमें ऐसी क्या बात है? भाई, इसके कुछ केमिकल नियम होते हैं। ये कोई सब्जेक्टिव भावना की चीज़ नहीं है, ये ऑब्जेक्टिव रूल्स ऑफ केमिस्ट्री हैं। हर बीतते सेल डिविज़न के साथ सेल्स करप्ट हो रही हैं। एजिंग हो रही है, पुल पर, ढाँचे पर जंग लग रहा है। जंग लगातार लग रहा है, लग रहा है, लग रहा है, लग रहा है, ढाँचा लगातार कमज़ोर हो रहा है। वो बाहर से वैसे ही दिखाई दे रहा है। एक दिन आएगा कि वो भरभरा के ढाँचा गिर पड़ेगा, क्योंकि जंग तो उसमें हमेशा से लग ही रही थी। ये नियम है, ये केमिस्ट्री है।
आप इसमें क्या, इसमें भावना क्यों बीच में ला रहे हो? ये भावना भी आएगी? हाइड्रोजन प्लस ऑक्सीजन = H₂O प्लस इमोशन्स। इमोशन्स टू बैलेंस द रिएक्शन। ये तो हमने कभी सुना नहीं कि केमिस्ट्री में बैलेंसिंग के लिए इमोशन भी लगता है साथ में। लगता है क्या? तो इसमें आप भावना कहाँ ला रहे हो बीच में? ये तो केमिस्ट्री है। तो इसमें ऐसी क्या बात है, कि नहीं-नहीं, आचार्य जी, आप कहीं नहीं जाएँगे। अरे, मैं आया ही नहीं कभी तो जाऊँगा कैसे?
न जाने कितने कंकालों से मिलकर बना हूँ मैं। सैकड़ों, हज़ारों, लाखों कंकाल, जब अपना छोटा-छोटा अंश देते हैं तो आप और मैं खड़े होते हैं। आप कंकाल बनने से क्या घबरा रहे हो, आपके एक ही शरीर में करोड़ों कंकाल बैठे हुए हैं। कितने कंकालों ने अपना-अपना हिस्सा दिया है, तब ये एक कंकाल खड़ा हुआ है। आप क्या घबरा रहे हो, कोई कहीं नहीं जाने वाला।
सोचो, वो भी रोए होंगे अपनी मौत पर, पर क्या वो मरे? वो तो आप बनकर खड़े हो गए न? वो आप बनकर खड़े हो गए कि नहीं हो गए? तो ऐसे ही आप भी कुछ और बनकर खड़े हो जाओगे। ऐसी क्या बात है?
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी।