क्या भगवान है? भगवान की दुनिया में इतना दुख-दर्द क्यों? || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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क्या भगवान है? भगवान की दुनिया में इतना दुख-दर्द क्यों? || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्ते। वीडियो पर एक कमेंट है। उससे एक प्रश्न है। नाम तो नहीं लिखा है, इनके अकाउंट का नाम है ब्रेनिएक गेमर।

प्रश्न है, आचार्य जी, आपके बहुत सारे वीडियो में मैनें देखा कि आप जीवन के प्रति काफ़ी नकारात्मक सोच रखते हैं। आपने एक वीडियो में कहा कि जन्म लेना हमारी सबसे बड़ी ग़लती है। अगर ऐसा है तो यह इतना बुरा संसार ईश्वर ने बनाया ही क्यों?

आचार्य प्रशांत: किसी ईश्वर ने, गेमर साहब, संसार नही बनाया है। ये बच्चों की कहानियाँ हैं। सबसे पहले इससे बाहर आइए।

छोटा बच्चा पूछता है, 'जे किन्ने बनाया?' (हाथ में कप उठाते हुए) तो मम्मा क्या बोलती है? मम्मा बोलती है, 'जे शॉप (दुकान) वाले भैया ने बनाया।' क्योंकि शॉप के पीछे कोई फैक्ट्री भी होगी, अब ये तो मम्मा कैसे समझाये उसको, बबुए को। तो बस इतना बोल देती है कि जे बनाया शॉप वाले भैया ने। ठीक है? तो पूछता है, 'जे किन्ने बनाया?' अच्छा, फिर अगर बहुत ज़्यादा वो आत्म निरीक्षण वाला बबुआ है तो कहता है, 'जे किन्ने बनाया?' (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) तो मम्मा कह देती है, 'हमने बनाया।' ऐसे ही बात आगे-आगे बढ़ती रहती है। तो बुबुआ फिर पूछ लेता है, 'जे सब किन्ने बनाया?' तो मम्मा क्या बोल देती है, 'भगवान जी ने बनाया।'

ये बच्चों वाली बातें हैं न कि जैसे हर चीज़ को कोई बनाता है, वैसे ही इस दुनिया को भी किसी ने बनाया होगा। अध्यात्म बच्चों के लिए नहीं है। तो ये भगवान जी ने दुनिया बनायी, इस बात से ज़रा ऊपर बढ़ो, आगे बढ़ो।

अध्यात्म इससे नहीं शुरू करता, 'जे किन्ने बनाया।' अध्यात्म पहले पूछता है, 'क्या ये है भी?' यदि है तो किसके लिए है? ये चीज़ दिखाई पड़ रही है, मैं इसको देख रहा हूँ, मेरा-इसका रिश्ता क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये मुझसे है, मैं इससे हूँ? इसके बनाने का सवाल तो बाद में पैदा होता है न। पहले इसकी हस्ती को लेकर ही सवाल उठाना चाहता हूँ। क्या ये वास्तव में है? इसके होने का प्रमाण बताओ। इसके होने का प्रमाण क्या? मेरी इंद्रियाँ बस। मेरी इंद्रियाँ बस।

तो कहते हैं कि नहीं, इसके होने का प्रमाण ये है कि यहाँ पर ये बैठे हुए हैं, ये सब भी बोल रहे हैं कि ये है। मैं कह रहा हूँ, इस बात का भी क्या प्रमाण है कि ये भी हैं। तो बोले, इनके होने का प्रमाण भी बस मेरी इंद्रियाँ हैं। तो ले-देकर के चाहे मैं प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करूँ या इनके माध्यम से इसको प्रमाणित करूँ, प्रमाणित तो मेरी इंद्रियाँ ही कर रही हैं न। प्रमाणित तो मेरी इंद्रियाँ ही कर रही हैं। तो फिर मैं इसकी बात बाद में करूँगा, पहले मैं बात करूँगा अपनी व्यवस्था की। क्योंकि किसी भी चीज़ के बारे में पूछना कि जे किन्ने बनाया, इसमें सबसे पहले आता है 'जे'। तो 'जे' है क्या, पहले ये बात न करें क्या?

अध्यात्म ये बात करता है। और फिर साफ़ दिखाई पड़ता है कि जो कुछ भी आप देख रहे हो, अनुभव कर रहे हो, उसमें आपका बड़े-से-बड़ा योगदान है। कुछ योगदान शारीरिक तल पर है और शारीरिक तल से ज़्यादा बड़ा योगदान मानसिक तल पर है।

उदाहरण के लिए, ये (तौलिया) आपको सबको दिख रहा है न, शारीरिक आँखों से अपनी। शारीरिक आँखों से अपनी सबको ये दिख रहा होगा। मानसिक तल पर आप सबके लिए इसका अर्थ एकदम अलग-अलग है। अभी आपसे कहूँ, एक प्रयोग करूँ कि ये क्या है, लिखो। आप देखिएगा कितनी भिन्नताएँ होंगी। एक ज़रा सी चीज़ है, तौलिया। लेकिन मैं आपसे कहूँ, लिखो इसका अर्थ क्या है तुम्हारे लिए। क्योंकि अर्थ तो मन करता है।

आँखें अधिक-से-अधिक तथ्य देख सकती हैं न, सामने तौलिया रखा है। तौलिया माने क्या, ये तो मन बताता है। और बिना अर्थ के आप चलते नहीं। आपको इतने से कभी संतुष्टि नहीं मिलेगी कि ये तौलिया रखा है। प्रमाण ये है कि हम हर चीज़ को नाम देना चाहते हैं। नाम का मतलब ही होता है अर्थ। आपको कुछ मिल जाए जिसका कुछ नाम न हो या आप नाम जानते न हों तो आप तत्काल सबसे पहले क्या पूछते हो? एक छोटा बच्चा भी आपको दिख जाता है तो तुरंत उसकी मम्मा से क्या पूछते हो?

वो कुत्ता लेकर घूम रही है, तुरंत क्या पूछोगे? 'नाम क्या है, नाम नहीं तो ब्रीड (प्रजाति) क्या है?' नाम ही तो पूछ रहे हो। ये नाम की जो भूख है, ये क्या बताती है? कि आप वस्तु से ज़्यादा वस्तु के अर्थ में रुचि रखते हो।

ये अर्थ का मतलब समझते हो? लाभ। अर्थ का दूसरा मतलब होता है लाभ। तो वस्तु क्या है, भाड़ में गयी बात। उसका मेरे लिए अर्थ क्या? उससे मुझे लाभ क्या है? हम सीधे-सीधे ऐसा सोचते नहीं कि हमें क्या मिल जाएगा, पर फिर भी तौलिया हमारे लिए एक शारीरिक से ज़्यादा एक मानसिक वस्तु है। और मानसिक तल पर अभी आप सब इसका अर्थ लिखोगे, तो अर्थ सब अलग-अलग लिखोगे। तो फिर यानी ये दुनिया जैसी भी है, ये मुझे अनुभव जो कुछ भी हो रहे हैं, वो निर्भर किसपर करता है? जब इस तौलिये का अर्थ आप पर निर्भर करता है तो, ब्रेनियक गेमर, इस पूरी दुनिया का ही अर्थ किसपर निर्भर करता है? आप पर निर्भर करता है।

तो फिर ये दुनिया बनायी किसने, भगवान जी ने या तुमने ख़ुद? दुनिया अगर बहुत बुरी दिख रही है, बुरा दिखना भी एक अर्थ है न? भाई, यहाँ पर ऐसे चाय गिर गयी। ये तो आपने एक घटना का अर्थ निकाला न कि कुछ बुरा हुआ। वरना तो सिर्फ़ घटना है। चाय थी, चाय गिर गयी। मैं यहाँ बैठा हूँ, बैठे-बैठे मुझे हृदयाघात हो जाए, मैं मर जाऊँ। सिर्फ़ घटना घटी है। भौतिक तल पर सिर्फ़ एक घटना घटी है। वो बुरा हुआ ये तो आपका मन बोलेगा। मन बोलेगा न?

तो आपको अगर लग रहा है कि ये दुनिया बहुत बुरी है, जैसा कि आपने अपने कमेंट में लिखा है, तो वो दुनिया बुरी बनायी किसने? वो दुनिया बुरी है किसके लिए? साहब, आपके लिए है। तो ये जो सवाल है जिसको बहुत गहरा सवाल बता करके पेश किया जाता है कि भगवान अगर इतना ही अच्छा है, अगर इतना ही करुणावान है तो दुनिया इतनी बुरी क्यों है, इसके दो जवाब हैं। दोनो में से एक भी समझ गए तो सही हो जाओगे।

पहली बात तो कोई भगवान नहीं है जिसने दुनिया बनायी हो। हम पहले तो ये तय करते हैं कि ये दुनिया चीज़ क्या है, किसके लिए है। जब आप कहते हो कि दुनिया है ही तो ये बहुत अहंकार की बात है। ये अहंकार की बात क्यों है? आप कह रहे हो, 'ये है ही, ये है ही।' क्यों है ये? 'हम कह रहे हैं न। हमें दिख रहा है तो होगा, ज़रूर होगा।' तुम्हें कैसे पता वो है ही? क्या प्रमाण है तुम्हारे पास कि दुनिया है ही?

चलो, हम ये भी मान लेते हैं कि दुनिया तुम्हारे लिए है। ठीक है, इस पर आ जाओ कि दुनिया जैसी भी है तुम्हारे लिए है। कष्ट का अनुभव भी हो रहा है दुनिया से, तो किसको हो रहा है? तुमको हो रहा है। तो हमें बात तुम्हारी करनी है कि तुम्हारी दुनिया में इतना कष्ट क्यों है। ये दुनिया जैसी भी हो गयी है, इसकी जवाबदेही हमारी है, किसी और की नहीं है।

अध्यात्म में ये कहीं नहीं आता कि दुनिया किसी भगवान या गॉड (ईश्वर) ने बनायी है। अध्यात्म में ट्रूथ (सत्य) होता है, गॉड नहीं। अंतर समझ लेना। जो तुम्हारी पॉप स्पिरिचुअलिटी (आधुनिक अध्यात्म) होती है उसमें ब्रह्म के लिए कोई स्थान नहीं है, उसमें भगवान के लिए स्थान है। वो पॉप कल्चर (संस्कृति) है, पॉप रिलीजन (धर्म) है। उसमें तुम भगवान-भगवान करते रहते हो। अध्यात्म में 'ब्रह्म' चलता है, सत्य है, आत्म। और वो बिलकुल अलग है। ब्रह्म में और भगवान में, भाई, कोई समानता नहीं है। समझ में आ रही है बात?

तो जो तुम चलाते हो अपनी पॉप स्पिरिचुअलिटी, उसमें दुनिया के ख़राब होने का ठीकरा किसके सिर फोड़ देते हो?

श्रोता: भगवान पर।

आचार्य और अध्यात्म कहता है ज़िम्मेदारी लो। जो कुछ है तुम्हारी वजह से है, तुम हो। सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी वजह से। तुम्हें जो भी अनुभव हो रहे हैं उसका उत्तरदायित्व तुम पर है। तुम कहाँ चले गए कि 'हे ईश्वर तेरी दुनिया में इतना पाप बढ़ गया है, तू कुछ करता क्यों नहीं?'

दुनिया ही तुम्हारी रची हुई है। ईश्वर ने दुनिया नहीं रची है। यहाँ पर ईश्वर से मेरा आशय ब्रह्म है। उससे अगर कुछ उठा भी है, उत्पन्न भी हुआ है, तो वो मुक्ति भर है। ब्रह्म का ही दूसरा नाम क्या है? मुक्ति।

उस मुक्ति का इस्तेमाल करके अगर तुम एक सड़ी हुई दुनिया रच रहे हो तो ये ज़िम्मेदारी ब्रह्म की तो नहीं है न, किसकी है? तुम्हारी है। उसी मुक्ति का इस्तेमाल करके तुम अपनेआप को ब्रह्म की जगह अहम् समझ रहे हो, तो ये ज़िम्मेदारी तुम्हारी है न, ब्रह्म की तो नहीं है न। उसी मुक्ति का अर्थ होता है कि तुम्हारे पास सदैव ये विकल्प है कि तुम अपनेआप को अहम् मानना छोड़ दो। और ये कितनी खुशखबरी है, कि नहीं है!

ये आपने तय करा है कि आपकी दुनिया सड़ी-गली रहेगी, तो आप ये तय कर सकते हो कि दुनिया बेहतर भी हो सकती है। ये आपने तय करा है कि आप अपने को छोटा और बँधा हुआ अहम् मानते हैं। जब आपने तय करा है, तो आपके पास फिर ये ताक़त है कि आप अपनेआप को मुक्त भी कर सकते हो। समझ में आ रही है बात?

इन बाल-कथाओं से अब बाज आ जाओ कि कोई ईश्वर है और वो कहीं बैठा हुआ है। फिर आज से कुछ हज़ार साल पहले ईश्वर ने ऊबकर के कहा कि चलो दुनिया बनाएँगे और फिर उसने एक हाथ से ऐसे करा और एक हाथ से ऐसे करा और दुनिया रच दी (हाथों को बारी-बारी से ऊपर की तरफ़ उठाते हुए)। पहले आदमी बनाया, फिर औरत बना दी। ये सब कहानियाँ उन लोगों के लिए हैं जो इन कहानियों से आगे कुछ समझ ही नहीं सकते। ये बाल मन के लिए रची गयीं बाल कथाएँ हैं। अध्यात्म इन कथाओं से कोई सम्बन्ध नहीं रखता। अध्यात्म कहता है आत्म जिज्ञासा, आत्म निरीक्षण।

ये सारी कहानियाँ भी किसके लिए हैं? मेरे लिए। भगवान की बात भी कौन कर रहा है? मैं कर रहा हूँ। तो भगवान भी बाद में आते हैं, पहले तो मैं आया न। ये सवाल भी पूछ कौन रहा है कि भगवान जी ऐसा क्यों कर रहे हो? मैं कर रहा हूँ।

तो भगवान से भी पहले कौन है? मैं हूँ। दुनिया बुरी क्यों है? दुनिया का अनुभव भी किसको हो रहा है? मुझे। बुरा भी किसको लग रहा है? मुझे। तो सबसे पहले कौन है, बाबा? सबसे पहले तो मैं हूँ न। तो पहले मैं अपनी बात करूँगा। और अपनी बात करो तो पता चलता है कि न ईश्वर, न भगवान, न ब्रह्म; वहाँ अंदर बैठा हुआ है सड़ा-गला अहम्। उस सड़े-गले अहम् पर तुम जिज्ञासा का जितना प्रकाश डालते हो वो उतना मिटने लगता है। वही मुक्ति है, वही समाधान है, वही ज्ञान है।

और क्या बोल रहे थे, 'जीवन के प्रति नकारात्मक सोच रखते हो?' तो क्या करें, तुम जिन उपद्रवों में फँसे हुए हो उन्हें नकारें नहीं? मैं जीवन के प्रति नकारात्मक सोच नहीं रखता। मैं बेवकूफ़ी के प्रति नकार रखता हूँ। अब तुम्हारा जीवन ही ऊपर से नीचे तक बेवकूफ़ी है तो मैं क्या करूँ!

मैने कहा है कि जहाँ गंदगी है उसकी सफ़ाई होनी चाहिए। मैं कहूँ, जहाँ गंदगी है वहाँ सफ़ाई होनी चाहिए और तभी ब्रेनिएक गेमर उछलकर कहें कि आप तो मुझे धमकी दे रहे हो कि तुझे पूरा ही साफ़ कर दूँगा। इसका मतलब क्या है? कि तुम ख़ुद जानते हो कि तुम ऊपर से नीचे तक गंदे हो। अब मैं कह रहा हूँ कि मुझे गंदगी को नकारना है। जीवन में, इंसान के भीतर, पूरी दुनिया के भीतर की गंदगी को नकारना है। और तुम कह रहे हो कि आप तो नकारात्मक सोच रखते हो। तो तुम ख़ुद ही डरे हुए हो न। जानते हो कि तुम्हारे भीतर सबकुछ ही ऐसा है जिसको साफ़ किया जाना ज़रूरी है।

मुझे मौका दो तुम्हें साफ़ करने का। फ़ालतू के कॉमेंट्स करने से बाज आओ। अभी पहली एकाध-दो बार किया होगा तो इन लोगों ने सवाल पूछ दिया। ऐसे ही लगे रहोगे तो ब्लॉक कर दिये जाओगे। इससे अच्छा सामने आओ, बैठो, बात करो। इसी में भलाई है तुम्हारी। वरना ऐसे ही बचपने वाली बातें करते रहोगे, 'आप नकारात्मक बातें करते हैं। भगवान जी ने जे क्या कर दियो?'

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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