कृपा, लीला और हुक्म में क्या अंतर है? || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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कृपा, लीला और हुक्म में क्या अंतर है? || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: लीला और कृपा में संबंध क्या है? और जपुजी साहिब में ‘हुक्म’ शब्द का बहुत बार प्रयोग हुआ है| ये शब्द क्या है?

श्रोता १: ‘हुक्म’ शब्द से मुझे ये समझ आया है कि ‘उसकी’ इच्छा; पर अगर मुझे इसे और आगे लेकर जाना है तो कैसे लेकर जाऊं?

वक्ता: लीला, कृपा, हुक्म, तीनों एक हैं| अंतर बस ये है कि देखनेवाला मन कहाँ पर स्थित है| मन कष्ट में था, पीड़ा पा रहा था और पाता है कि पीड़ा से मुक्ति मिल गयी है, बिना किसी कारण, अपने प्रयत्नों के फलस्वरूप नहीं, बस मुक्ति मिल गयी है| और वैसी मुक्ति भी नहीं, जैसी वो चाहता था| अचानक एहसास हो रहा है कि ये तो जो चाहते थे उससे कहीं आगे की बात है| तो वो इसको ‘कृपा’ बोलेगा| कृपा में भाव ऐसा है कि जैसे मनचाहा मिल गया हो, पर वास्तव में अगर मनचाहा कुछ मिला हो तो वो कृपा कहलाई नहीं जा सकती| उसको आप इच्छापूर्ति का नाम दे दीजिये, पर वो कृपा नहीं है| वास्तव में जब कृपा होगी तो बड़ी संभावना इसी की है कि मन उससे सहमत नहीं होगा; मन उसको स्वीकार नहीं करेगा| मन को मन की ही दिशा में आगे ले जाये कृपा, ऐसा बहुत हुआ ही नहीं| कृपा जिन रूपों में आयेगी, वो रूप आपको पसंद आयेंगे ही नहीं| इसलिए कृपा में ये भाव होते हुए भी कि जैसे मनोकामना पूरी हुई हो, कृपा शब्द के प्रयोग में बड़ा सावधान होना चाहिए क्योंकि कामनाओं के पूरा होने का नाम कृपा नहीं है| कृपा, कृपा ही है; इसका एहसास भी बड़े विचित्र तरीके से होगा| ये मत समझिये कि आपने मिठाई माँगी और मिल गयी तो आप कहें कि प्रभु-कृपा हो गयी| ये प्रभु-कृपा नहीं है, ये इच्छापूर्ति है| कृपा तो ऐसी है कि जैसे माँगा कुछ और, मिल कुछ ऐसा गया जिसको माँगने का आपको विचार भी नहीं आ सकता था| कृपा तो ऐसी है कि आप दो रुपये माँगने गये थे और करोड़ों मिल गये| और वो करोड़ों भी किसी ऐसे आयाम में है जो मन के परे है| दो रूपये और करोड़ रुपये भी जब बोलते हैं तो आयाम एक है| क्या आयाम है? रूपया! ऐसा कुछ, जो गिना जा सकता है| तो दो रुपये और करोड़ रुपये की तुलना भी की जा सकती है|

कृपा का अर्थ है कुछ ऐसा मिल गया जो अमूल्य है, जो किसी और आयाम में ही है, जो माँगने के आगे है| कृपा का अर्थ है कि कुछ ऐसा मिला कि माँगने की आवश्यकता ही खत्म हो गयी| भिखारी होने का भाव ही जाता रहा, वो कृपा है| कृपा का आप कोई कारण नहीं पायेंगे| वो अकस्मात् होती है या उसके कारण हैं भी तो हमसे आगे के हैं|

श्रोता २: ‘हमसे आगे के’ का मतलब?

वक्ता: आप माँगने कुछ निकलते हैं और मिल कुछ और जाता है| आपको जो मिल गया है क्या उसका कारण ये है कि आप उसको माँगने निकले थे? तो आपसे आगे का कारण है|

आप गये थे बाज़ार कपड़े लेने, मिठाई लेने, पैसे कमाने, इच्छायें ये सब की थीं, और आकर्षित हो गये किसी फूल की तरफ| प्रयोजन ये था ही नहीं बाज़ार जाने का कि फूल की तरफ जाना है| गए थे आप लड़ने के लिए कि मार दूँगा, कुछ कर दूँगा, पर रास्ते में दिख गया कोई बच्चा, या संध्या का डूबता हुआ सूरज, और बिल्कुल शांत हो कर बैठ गये| आपके निकलने का प्रोयोजन ये नहीं था कि शांत हो कर बैठना है| आप निकले तो इसलिए थे कि आज किसी को मार ही दूँगा| ये कृपा है, ये आपकी कामना पूर्ति नहीं है| कृपा का अर्थ ये नहीं है कि मैं मारने निकला हूँ तो और ज्यादा सुविधा से मार दूँ|

मन का ताप शांत होता है कृपा से, तो मन भी समझ जाता है कि कुछ बहुत बेशकीमती मिल गया है और इस कारण वो ‘कृपा’ शब्द का प्रयोग करता है| कृपा में अनुग्रह का भाव है| जहाँ आप कहते हैं कि कृपा हुई तो उसका मतलब है अनुकंपा हुई| ये इसी कारण है कि मन को शांति मिली| मन को इच्छित वस्तु नहीं मिली, मन को शांति मिल गयी| कृपा का अर्थ ये नहीं है कि जो मुझे चाहिए था वो मिल गया| कृपा का अर्थ है जो चाहतों में समाता भी नहीं है, वो मिल गया| मन शीतल हुआ, मन शांत हुआ, इस कारण वो हाथ जोड़ कर कहता है कि कृपा हुई|

जो आपने दूसरा शब्द बोला था ‘लीला’, उसके पीछे भी तत्व वही है जो कृपा में है, पर शब्द को प्रयोग करने वाला मन दूसरा है| लीला का अर्थ है खेल| जब मन को दिखने लग जाये कि ये सब कुछ जो हो रहा है, ये ऐसे खेल का हिस्सा है जिसमें नियम-कायदे चलते ही नहीं, ये ऐसे चुटकले की तरह है जो सतह-सतह पर बिल्कुल ही अर्थहीन है, एक मजाक है ये सब कुछ| हम इसको जिन कारणों में बंधा पाते हैं, वो सारे कारण नकली हैं और जहाँ उन कारणों की जाँच-पड़ताल की जाये तो कहेंगे कि ‘अरे! ये हम क्या अपने आप को धोखा दे रहे थे कि ये इस वजह से होता है’| हर वजह अधूरी है, हर वजह कहीं पर जाकर रुक जा रही है| ये सब कुछ जो हमें इतना गंभीर लगता है, इतना महत्वपूर्ण लगता है, वो सब कुछ नहीं है, एक खेल ही चल रहा है, तो आप उसको नाम देते हो ‘लीला’| पर तत्व उसमें ठीक वही है जो कृपा में है|

कृपा कहा क्योंकि मन शांत हुआ, लीला कहा क्योंकि मन खुद उसमें शामिल हो गया, पर जाना ‘उसी’ को है, समझा ‘उसी’ को है| जब उससे कुछ पा गये तो कहा, ‘तुम्हारी कृपा’ और जब उसके खेल का हिस्सा बन गये तो कहा, ‘तुम्हारी लीला’ और दोनों अकारण हैं| उससे जो पाया वो भी अकारण है और उसके जो खेल चल रहे हैं, वो भी अकारण हैं| अंतर दोनों में कुछ नहीं है|

जो तीसरा आपने शब्द इस्तेमाल किया है ‘हुक्म’, वो भी वही है| जब मन में समर्पण का भाव आ गया, जब मन सेवक समान हो गया, जब मन अपने आप को उसकी पत्नी या उसका दास ही मानने लग गया, सूफियों को देखेंगे तो वो अपने आप को पत्नी रूप में देखते हैं, कबीर को देखेंगे तो वो जीवन भर अपने आप को दास कबीर बोलते रहे|

श्रोता २: गुरु ग्रंथ साहब में ‘खसम’ कहा है|

वक्ता: बार-बार| जब उसी के प्रति जिसकी कृपा है, और जिसकी लीला है, जब उसी के प्रति समर्पण है का भाव आ गया तो कहना शुरू कर देते हैं कि ये सब कुछ जो हो रहा है, उसका ‘हुक्म’ है| वही जो हो रहा है, आप कभी उसको लीला बोलते हो, कभी आप उसको कृपा बोलते हो और कभी आप उसको उसका हुक्म बोलते हो| अंतर कुछ नहीं है, अंतर बस देखने वाले मन की दृष्टि में है|

श्रोता ३: अवस्था में!

वक्ता: आप कहाँ पर खड़े हो! आप दुःख में थे और आप शांत हो गये तो आप कहोगे कि ये उसकी कृपा है| मन मस्त हो गया है बिल्कुल और खेलने लग गया है, डूब गया है, तो आप कहोगे कि ये उसकी लीला है| और मन समर्पित हो गया है बिल्कुल, अहंकार को छोड़कर अस्तित्व के सामने, नमन में आ गया है, तो आप कहोगे कि ये उसका हुक्म है कि आ रही है उसकी आवाज़, अनहद की गूंज और हम उसका पालन कर रहे हैं| हम तो कुछ हैं ही नहीं| हुक्म आता है, हुक्म बजा लाते हैं| हमारा अपना क्या है?

तीनों में ही इशारा एक ओर ही है और याद रखना जो हुक्म है, आप उसका भी कारण ढूंढने नहीं जाते, आप वहाँ पर अपना कर्ता-भाव नहीं लगाते| आप नहीं कहते कि मैं विश्लेषण करके हुक्म मानूँगा| हुक्म का अर्थ ही यही है कि कहा तुमने और हमने माना और हम होते कौन हैं ये पूछने वाले कि ये क्यों आज्ञा है तुम्हारी|

अरे! तुम्हारी लीला अकारण, हम कब समझ पाये? तुम जब देते हो कृपा अकारण, हम कब समझ पाये? तुम्हारा हुक्म भी उतना ही अकारण, हम कब समझ पायेंगे| और जिसका कारण मिल जाये वो न लीला है, न हुक्म है, न कृपा है; वो मन की कोई चाल है| याद रखियेगा उसकी लीला मन को अक्सर मज़ाक नहीं लगेगी, एक डरावनी कहानी भी लग सकती है| उसकी कृपा भी विचित्र रूप लेकर आती है| मन जिसको अपनी बर्बादी समझता हो, वो उसकी कृपा हो सकती है| उसका हुक्म बड़ा दिल दहलाने वाला हो सकता है| मन विरोध में खड़ा होगा, मन को क्यों अच्छा लगेगा? पर फिर इसके लिए कोई सूरमा चाहिए|

कबीर कहते हैं:-

भक्ति करे कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोए ||

आप निर्णय लेते हैं, आप किसका निर्णय कहते हैं? वो है…

श्रोता ३: मेरा!

वक्ता: वो जब आप ‘मेरा’ कहते हैं, तो वो किसका निर्णय होता है?

श्रोता ४: मन का!

वक्ता: मन का होता है ना! जीवन जीने का एक तरीका वो भी होता है जहाँ पर आप निर्णय नहीं ले रहे होते, जहाँ पर आपकी दावेदारी नहीं है| तो फिर वो किसका जीवन हुआ? वो निर्णय किसका हुआ? आप ये तो नहीं कहेंगे कि ये मेरा है| फिर इतना ही कहा जाता है कि ये किसी और का हुक्म है| किसका है? हम नहीं जानते| किसी और का हुक्म है|

श्रोता ४: आज्ञा है?

वक्ता: आज्ञा भी नहीं है| ऐसा नहीं है कि कोई मालिक बैठा है जो आज्ञा दे रहा है| वो तो अस्तित्व की पुकार है, वो तो एक सहज तरीका है चलने का|

श्रोता ५: इसको किसी उदाहरण से बता सकते हैं?

वक्ता: अभी जो हो रहा है, लगातार जो होता रहता है| उदाहरण क्या देना उसका? हवा की तरह है, लगातार मौज़ूद है| आप जो सवाल पूछ रहे हो हुक्म ही है किसी का| हम यहाँ पर बैठे हैं, कृपा ही है| यही उदाहरण है|

श्रोता १: कृपा, जब दुखी मन शांत हो गया|

श्रोता २: कृपा होने के लिए मन का दुखी होना ज़रूरी है क्या?

वक्ता: मन तभी कृपा कहेगा जब दुखी होगा, अन्यथा मन उसे कृपा नहीं कहेगा|

श्रोता १: फिर मन उसे लीला कह सकता है|

वक्ता: हाँ, फिर मन लीला कहेगा|

श्रोता १: और जब मन प्रसन्न है तो वो खेल का भागीदार हो जायेगा|

श्रोता ३: दुखी मन जब वो जो चाह रहा है, इच्छायें जो हैं, वो मिल नहीं रही हैं और उसको चोट पहुँच रही है, वो अवस्था दुःख वाली अवस्था है और उसके बाद जो उपलब्धि होती है, वो है कृपा|

वक्ता: मैं परेशान हूँ, सभी परेशान हैं और मैंने लाख कोशिश कर ली हैं अपनी परेशानी से मुक्त होने की, हम सब वही कोशिश कर रहे हैं| हर कोशिश का कारण एक ही होता है| हर कोशिश का उद्देश्य एक ही होता है| क्या?

श्रोता ३: इस कुदरत के चक्र से बाहर आना|

वक्ता: नहीं, मन में जो चल रहा है वो शांत हो जाये| कोई समस्या है, उससे मुक्त हो जाऊँ| सारी कोशिश आप इसीलिए तो करते हो ना? हर कोशिश के पीछे उदेश्य तो यही है|

श्रोता ४: कारण का निवारण|

वक्ता: परेशानी का निवारण| आपने लाख कोशिशें कर लीं हैं पर परेशानी तो जा नहीं रही| एक-एक कोशिश असफल होती है या कुछ समय के लिए सफल होती प्रतीत होती है पर कुछ समय बाद परेशानी दुबारा खड़ी हो जाती है| फिर वही दौड़ शुरू हो जाती है कि परेशानी को दूर करो| और यदि आप पायें कि बिना आपके करे, बिना आपकी पात्रता के, बिना आपकी योग्यता के, अचानक आप शांत ही हो गये, तो इसको आप क्या कहेंगे?

सभी श्रोता(एक स्वर में): कृपा|

वक्ता: फिर इसे कृपा कहता है मन और शांत होने के उपरांत एक नमन का भाव होता है| दौड़ तो अब बची ही नहीं| अब तक परेशानी थी तो दौड़ थी,खूब दौड़ रहे थे कि कुछ पाना है| अब दौड़ तो गयी, पर आप निष्क्रिय होकर तो नहीं बैठ जाओगे, जीवन अभी भी चलेगा| अब जो क्रिया होगी वो लीला की भाँति होगी| आप कहोगे कि हम कुछ पाने के लिए दौड़ नहीं रहे| हाथ-पाँव अब भी चल रहे हैं, पर ऐसे चल रहे हैं, जैसे नाच रहे हों| पहले हाथ-पाँव ऐसे चलते थे, जैसे दौड़ रहे हों| हाथ-पाँव अब भी चलते हैं, जीवन अब भी चलता है, क्रियायें अब भी हैं| पर वो कैसी क्रियायें हैं? जैसे नाचा जा रहा है, और ये लीला है|

श्रोता ३: पहले शर्म थी और अब मौज है|

वक्ता: अब एक डर नहीं है, अधूरेपन का लगातार एक भाव नहीं है कि मैं अधूरा हूँ और ज़िन्दगी में कुछ पा लेना है| जब अहंकार गिरता है तो यही कहता है कि अपने से बड़ा कुछ मिल गया और अब उसका हुक्म मान रहा हूँ| तो ‘हुक्म’ शब्द का प्रयोग ऐसा मन कर रहा है जिसका अहंकार गिर गया है, समर्पित है| ये एक भक्त का मन है|

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हे तु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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