
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जो मेरी मान्यताएँ, जो मेरी उम्मीदें हैं, वही मेरे दुख का कारण है। सर, पिछले लगभग तीन साल हो रहे हैं आपको सुनते हुए, आपकी वीडियोज़ देखते हुए। जब मैंने आपको सुनना शुरू किया था, उस टाइम पर दुख ज़्यादा बढ़ा हुआ था। डिप्रेशन सा काइंड ऑफ़ सिचुएशन थी। क्योंकि मेरे अंदर उम्मीदें बहुत ज़्यादा थीं और मुझे सामने वाले से इतनी ज़्यादा उम्मीदें रहती थीं कि मुझे लगता था कि मेरी जो एक्सपेक्टेशन है, वो तो बहुत ऑब्वियस है। सामने वाला समझ क्यों नहीं रहा है? तो वो बहुत ज़्यादा ट्रबल मेरे लिए भी हो जाता था, सामने वाले के लिए भी हो जाता था। कई-कई दिनों तक अपसेट ही माइंड रहता था।
आपको सुनने के बाद चेंजेस आए। अभी तीन साल में काफ़ी चेंजेस आए हैं पॉज़िटिव, मन अंदर से मज़बूत हुआ है और एक्सपेक्टेशन कम हुई है। लेकिन अभी भी अंदर कोई बैठा हुआ है जो ट्वेंटी फोर क्रॉस सेवन बुरा मानने को रेडी रहता है। मतलब कि उस हर एक कन्वर्सेशन से हम बचने की कोशिश करते हैं, जिसमें मुझे लगता है कि आर्ग्युमेंट हो जाएगा या झगड़ा हो जाएगा, मुझे सामना करना पड़ जाएगा किसी का। तो उस सिचुएशन में बसते हैं और दैट इज़ द रीज़न कि मुझे ऐसा लग रहा है, कि अभी जो मेरी तीन साल आपको सुनने के बाद जो मेरी प्रोग्रेस होनी चाहिए, वो अभी तक हो नहीं रही है। मतलब आगे का जो मेरा रास्ता है, वो रुक रहा है, जो मेरी जो एक्सपेक्टेशंस हैं उसकी वजह से।
आचार्य प्रशांत: उम्मीद हमारी कल्पना है सामने वाले को लेकर, कामना है, और उसकी जो प्रकृति है, वो उसका फैक्ट है, तथ्य है। ये नियम बहुत सीधा-सा है, पर हम इसको मानना नहीं चाहते कि कुछ भी और कोई भी दुनिया में आपकी उम्मीदों के हिसाब से नहीं, अपनी प्रकृति के हिसाब से चलेगा। कोई भी व्यवहार आपकी उम्मीद के अनुसार नहीं करने वाला, वो व्यवहार अपनी प्रकृति के अनुसार करने वाला है।
आपकी बहुत रुचि ही है सामने वाले के व्यवहार में, तो उसकी प्रकृति को पढ़िए निष्काम होकर। जिससे बहुत आप रिश्ता, आसक्ति, कामना जोड़ लोगे, आप उसको पढ़ नहीं पाओगे। थोड़ा-सा दूर हटकर किसी की प्रकृति को पढ़िए, उससे उसके आगामी व्यवहार का भी पता लग सकता है। लेकिन हम ये नहीं देखते कि उसकी प्रकृति क्या है, हम ये देखते हैं कि हमारी चाहत क्या है। हम सोचते हैं, हमारी जैसी चाहत है, ये सामने वाला व्यक्ति वैसा व्यवहार करे। वो आपकी चाहत के हिसाब से नहीं चलने वाला, वो अपने कॉन्स्टिट्यूशन, अपनी प्रकृति के हिसाब से चलने वाला है। आप चाहते रहो कुछ भी, कुछ भी चाहते रहो।
कई बार जब बस संयोगवश उसका व्यवहार आपकी कामना से अनुकूल बैठ जाता है, तो आप कहते हो, “देखा, इसने मेरी कामनाएँ पूरी करीं।” उसने आपकी कामनाएँ नहीं पूरी करी हैं। ये ऐसे ही हो गया है बस, कि जैसे वो जो लूडो वाली गोटी होती है, मैं अभी उछालूँ और आप कहें छह आना चाहिए और छह आ भी जाए। अरे, पाँच बार, दस बार, पन्द्रह बार उछालोगे, तो ये तो प्रोबेबिलिटी का नियम है कि दो-तीन बार छह आ ही जाएगा। और अगर ज़्यादा उछालोगे, मान लो छह सौ बार उछाल दिया, तो लगभग सौ बार छह आ ही जाएगा।
ये कोई मेरी कामना नहीं पूरी कर रही गोटी, वो क्या कर रही है? वो अपना नियम निभा रही है। और मैं कहूँ छह सौ में से सौ बार न, अगर इश्क़ है हम में वफ़ा निभानी है, तो छह सौ में से सौ बार ला के दिखा छह। और, वो ला गई! और मैं कह रहा हूँ, आ इधर आ तू (गले लगाने का इशारा करते हुए)। लैला है तू लैला, गोटी नहीं है, लैला है मेरी।
अगर कभी संयोग से आपकी कामना पूरी भी हो जाती है तो वही है वो बस, संयोग है। पर हम ये नहीं कहते संयोग से कामना पूरी हुई है। हम क्या कहते हैं?
प्रश्नकर्ता: प्यार है।
आचार्य प्रशांत: “ये तो मेरे प्यार की ताक़त है जिसने पत्थर को मोम बना दिया।”
बंदर याद है? आपने उसको गोद में बैठा लिया। माय बेबी। आप उसको खिला रहे हो। आप उससे बात भी कर रहे हो और आप उससे कह रहे हो, “बेबी, ये ज़्यादा स्वीट है न?” और वो ऐसे-ऐसे भी कर रहा है (हाँ में सिर हिलाते हुए)। और आपको क्या लग रहा है? ये तो मुझसे बात कर रहा है, ये तो मुझे समझ रहा है। बहुत लोगों को लगता है कि उनके पेट्स उनसे बात करते हैं। सबको ही लगता है, मैंने सब कुछ ही पाला हुआ है, मुझे भी लगता है। मैं आप ही के जैसा हूँ। मैंने खरगोश पाले हुए हैं, मैंने मुर्गा पाला, मैंने कुत्ता पाला, अब गाय भी पाल ली। और क्या-क्या पाला है भाई हमने?
श्रोता: हम लोगों को।
आचार्य प्रशांत: तो हमेशा यही लगता है कि ये बिल्कुल बात ही कर रहे हैं और हमारी ही कामनाओं का पालन भी कर रहे हैं। अब एक चिड़िया, वो सामने पेड़ पर रहती है वो। ठीक है? मैं सबको बोलता हूँ, ये न अभी रुक जाओ, शाम होने दो, आती है मुझसे मिलने आती है। वो मुझसे मिलने नहीं आती थी, पता चला घोंसला था उसका वहाँ। मैं सोच रहा हूँ कि मैंने इसको थोड़ा दाना-पानी दे दिया है, तो इसको प्यार हो गया है मुझसे। तो रोज़ शाम को हमारी डेट होती है। बाद में एक दिन ऐसे ही देख रहा हूँ, ये तो घोंसला है इसका। घोंसले के ख़ातिर आती है। वो अपनी प्रकृति का पालन कर रही है। चिड़िया है तो घोंसला बनाएगी, घोंसला बनाएगी तो शाम को आएगी।
और मैं क्या मान रहा हूँ? मेरे लिए आई है, मेरे लिए, 'अहंकार,' मेरे लिए। समझ में आ रही है न बात? अब वो माय बेबी, वो आपसे कर रहा। फटाक से उसने चांटा मार दिया बंदर ने। और बंदर ये खूब करते हैं। अभी-अभी तो किसी ने कम्युनिटी पर डाल भी दिया। वो लंगूर है, बैठा है और जब सब खा-पी लिया तो जाते हुए एक चांटा मार के गया।
उसने चांटा मारा ही ये सिखाने के लिए कि तुम्हारे प्यार में नहीं खा रहा था, अपने पेट के लिए खा रहा था। खिलाया तो खिलाया, उम्मीद काहे पाली? खिला रहे हो तो निष्काम होकर खिला दो। ये उम्मीद क्यों कर रहे हो कि लंगूर समझ रहा है और एहसान भी मानेगा? काहे को? आ रही है बात समझ में?
करुणा में अज्ञान की और धोखे की गुंजाइश नहीं होती। वहाँ अच्छे से पता होता है उसकी प्रकृति क्या है। फिर भी उसकी सहायता कर देते हैं।
वो बिच्छू याद है न? वो बिच्छू है और वो डूब रहा है। भिक्षु तब भी हाथ बढ़ाकर उसको बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। उसको हाथ बढ़ाया, निकालने की कोशिश की। पानी में है वो। वो हाथ, बिच्छू ने डंक मार दिया, फिर और डूबने लगा क्योंकि दर्द हुआ, उसने हाथ-वात झटका। फिर दोबारा हाथ डाला, बिच्छू ने फिर डंक मार दिया और डूबने लगा बिच्छू। तो एक दूसरा पूछ रहा, बोल रहा है, वो तुम्हें डंक मार रहा है और तुम तब भी बचा रहे हो? तो क्या बोला वो? बोला, वो अपनी प्रकृति का ही तो पालन कर रहा है, उसको दोष कैसे दूँ? बिच्छू है तो डंक नहीं मारेगा तो क्या करेगा? ये करुणा होती है। उम्मीद नहीं थी कि बिच्छू है, तुम ऐसे बढ़ाओगे तो फूल रख देगा तुम्हारे हाथ में, कि आप मुझे बचाने आए, अब आप बताइए।
वो हमारी सारी कहानियाँ भी तो ऐसे ही होती हैं, कि मछली बाहर मर रही थी, तड़प रही थी रेत पर, तो आप गए आपने मछली को उठाकर पानी में डाल दिया। पानी में डालते ही वो मत्स्य-कन्या बन गई और बोली, अब मेरा चुंबन लो तो तुम राजकुमार बन जाओगे और फिर हम दोनों महल में जाएँगे। कहीं भी कुछ हमारा निस्वार्थ, निष्काम तो होता ही नहीं। ये तो है ही नहीं कि मछली मर रही थी, मुझे पता है, मछली ही है, उठाकर के पानी में डाल दिया, अपना रास्ता नापा भाई। अब तुम्हें काहे को उसको मत्स्य-कन्या बनाना है और काहे को प्रेम-प्रसंग चलाना है?
किसी को कुछ देना चाहते हो तो दे दो। उम्मीद क्यों कर रहे हो? वो अपनी प्रकृति का ही पालन करेगा। तुम उसे कितना भी दे दो, मछली को पानी में भी डाल दोगे तो मछली ही रहेगी, एहसान-वहसान नहीं मानने वाली। ये जानते हुए भी मछली की मदद करो, तब करुणा है।
तुम कल्पनाएँ चला रहे हो कि हम मछली को पानी में डाल रहे हैं तो मछली मुझे दुआएँ देगी, दुआएँ देगी तो मुझे स्वर्ग मिलेगा। तो ये करुणा-वरुणा कुछ नहीं है, ये तो असाधारण व्यापार हो गया फिर। आ रही है बात समझ में?
किसी व्यक्ति का व्यवहार आपकी कामना से या आपके तथाकथित प्यार से निर्धारित नहीं होता। उसकी जो प्रकृति रही है, उसी से निर्धारित होता है।
इसीलिए, ज़्यादातर लोगों का भविष्य यदि जानना हो तो उनका अतीत देख लो। मत करो तुम बहुत उम्मीद कि उनका भविष्य उनके अतीत से अलग होगा। अतीत देख लो, भविष्य वैसा ही होगा 99%। ज़्यादातर लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी पटकथा के ग़ुलाम होते हैं, उनका अतीत उनके भविष्य का सूचक होता है।
हाँ, आपको जब उनसे कुछ कामना बैठ जाती है, दिल लगा लेते हो, तो आप कहते हो, “अतीत में कैसा भी रहा हो, आगे थोड़ी ऐसा होगा।” वो आगे भी…
श्रोता: वैसा ही।
आचार्य प्रशांत: आपको धोखा खाना है तो आप अतीत को दरकिनार करके भविष्य की आस बाँध लो, धोखा खा लो। बदलता व्यक्ति सिर्फ़ एक सूरत में है: वो प्रकृति से ऊपर ही उठ जाए और वो चीज़ तो आध्यात्मिक होती है।
आप जिससे उम्मीद कर रहे हो कि वो अतीत में जैसा था, भविष्य में वैसा नहीं रहेगा। अच्छा, आप में से कितने लोगों को किसी-न-किसी को लेकर ये उम्मीद है कि वो जैसा अतीत में था, भविष्य में वैसा नहीं रहेगा? अभी किसी दूसरे की बात कर रहे हैं, किसी दूसरे से। कितनों को ये उम्मीद है कि ये जैसा आज तक रहा है, भविष्य में वैसा नहीं रहेगा? कितनों को उम्मीद है किसी-न-किसी से? है? (काफ़ी श्रोता हाथ उठाते हैं)। मुझे भी है बहुत सारे लोगों से। कितने लोगों को ख़ुद से ये उम्मीद है कि अतीत में जैसे रहे, भविष्य में वैसे नहीं रहेंगे? (लगभग सारे श्रोता हाथ उठाते हैं)।
ये बदलाव सिर्फ़ एक सूरत में हो सकता है, कि आप प्रकृति के साक्षी हो जाएँ। और कोई तरीका नहीं है अतीत को भविष्य से अलग करने का। अन्यथा एक ही धारा है।
उसमें आप कहीं पर खड़े हो जाते हो, तो इधर वाले को (दाएँ तरफ़ इंगित करते हुए) बोल देते हो अतीत और इधर वाले को (बाएँ तरफ़ इंगित करते हुए) बोल देते हो....।
फिर इधर खड़े हो जाओगे। ये धारा बह रही है, नदी बह रही है पूरी सामने ऐसे, फिर यहाँ खड़े हो जाओगे तो बोल दोगे, ये भूत है, ये भविष्य है।
वो एक ही धारा है, पानी बदल कैसे जाएगा? भूत ही भविष्य है।
और बदलाव सिर्फ़ एक तरीके से हो सकता है, कि कोई तटस्थ हो जाए। तो तटस्थता पर श्लोक क्या है हमारा? काव्य जो बनाया था, कौन बताएगा? कुछ नहीं बदलने वाला, भूत ही भविष्य है। कोई उम्मीद मैं क्यों रखूँ? है ही नहीं।
श्रोता: नदी है तो तीर है, तृषा है तो नीर है। कभी ये रूप कभी वो देश, तटिनी तय करे तट का वेश।
आचार्य प्रशांत: सब एक शब्द बोल के सोचते हैं दूसरा आगे बढ़े। एक हम भी आगे डाले थोड़ा-सा। बेटा, तुमसे न हो पाएगा, लक्षण ठीक ही नहीं है। आ रही है बात समझ में? फ़ालतू की उम्मीदें छोड़ दो, जैसे आज तक रहे हो भविष्य में भी वैसे ही रहने वाले हो। कुछ नहीं बदलने का। बदलने का एकमात्र तरीका अध्यात्म ही होता है।
ज़ोर लगाने से, ऐसे सोचने से कि मैंने अभी कौन-सी टैक्टिक गलत चल दी थी, आगे मैं टैक्टिकली अलग हो जाऊँगा, ऐसे कुछ नहीं बदलता, कुछ नहीं बदलेगा। हाँ, इतना होता है कि नदी ऐसे बह रही थी (सीधी), भविष्य में ऐसे बहने लगेगी (टेढ़ी-मेढ़ी)। कुछ बदल गया क्या? बात वही है। अलग-अलग जगह पर नदी की तस्वीर लो तो अलग-अलग दिखाई देती है, पर है तो एक ही। उसी तरह भूत और भविष्य भी एक ही होते हैं।
आप जिस भी बदलाव की कामना कर रहे हैं: चाहे स्वयं में, चाहे दूसरों में; वो बदलाव कभी नहीं आने वाला। नहीं आने वाला। और कोई आकर जल्दी से आपको बोले न कि “हाँ देखो, तुमने बोला था, तुम्हारी खातिर बदल गया हूँ मैं।” बस ये देख लेना कि अगर ये सचमुच बदल गया है तो ये गीता परीक्षा दे, तो नंबर कितने आएँगे इसके। कोई दावा करे कि मैं बदल गया हूँ, तो एक कसौटी सुझा रहा हूँ, उसके सामने गीता परीक्षा रख दो और नंबर देख लो।
एक ही तरीका है बदलाव का, धारा से बाहर हो जाना। जो धारस्थ था, वो तटस्थ हो गया।
अब वो बहती हुई धार को देख रहा है। धार का दृष्टा हो गया, धार में बह नहीं रहा। धार में बहेगा तो यही भूत है, भूत है, भूत है, यही बहते-बहते भविष्य बन जाएगा।
प्रकृति को बदला नहीं जा सकता, अधिक से अधिक उसका दृष्टा हुआ जा सकता है। और दृष्टा होने का मतलब होता है, कुछ नहीं होना। दृष्टा होने का मतलब ये नहीं है कि आप कोई कबूतर वग़ैरह हो जो नदी के ऊपर ऐसे-ऐसे देख रहा है नदी को। हम हर चीज़ को कल्पना में ढाल लेते हैं, और कल्पना भी हम छोटी-मोटी नहीं करते हैं, कल्पना भी हमारी एंथ्रोपोमॉर्फिक ही होती है। मतलब, कबूतर भी हमारा ऐसा होगा जिसमें इंसानी समझ-बूझ होगी।
और अब हम कबूतर हो गए। अब हम, अब आचार्य जी ने यही तो बताया था। कईयों को सपना आएगा, कि “वो जो आचार्य जी, मैंने देखा, मेरे जीवन की नदी बह रही थी। मैंने उसमें देखा कि मैं कैसे गर्भ से बाहर आया। फिर मैंने देखा कि मैंने कैसे नर्स की यूनिफ़ॉर्म गंदी करी, फिर मैंने दादा जी की छाती पर मूता। फिर मैंने ये किया, फिर मैंने ये किया। फिर मैं ऊपर से ऐसे देख रहा था, मैं कबूतर हूँ।”
कहीं और सुनाओगे तो इस तरह की कहानियों पर श्रेय पाओगे और धार्मिक घोषित हो जाओगे। मेरे सामने सुनाओगे तो दिक़्क़त हो जाएगी। कबूतरबाज़ी थोड़ी होती है अध्यात्म।
प्रकृति का दृष्टा होना माने कोई होना नहीं होता। बहुत लोग आते हैं, कहते हैं, “मैं न ज़रा साक्षी भाव से ख़ुद को अभी देख रहा था।”
एक तो आया, बोला, “समटाइम्स आई वियर द विटनेस हैट।”
मैं ग़ज़ब हो गया।
अच्छा, समटाइम्स वी वेयर द विटनेस हैट, एंड यू नो दैट, राइट?
“हाँ।"
सो यू नो व्हेन यू आर द विटनेस।
“हाँ।”
तो मैंने कहा, हु नोज़ द विटनेस?
ये विटनेस का विटनेस कौन है? विटनेस तो वो है जिसका कोई विटनेस नहीं हो सकता। तो तुम्हें विटनेस के यानी साक्षी के बारे में कैसे पता चल गया? तुम साक्षी के भी साक्षी हो? तुमने साक्षी को डबल क्रॉस करा। साक्षी बेचारा सोच रहा था, मैं साक्षी हूँ। उसको पता ही नहीं वहाँ अँधेरे में दीवार के पीछे से कोई उसकी फोटो ले रहा है। और अगले दिन आके आचार्य के सामने फुग्गा फुला रहा है, “कि कल न मैं साक्षी हुआ।” अरे तुम्हें कैसे पता तुम साक्षी हुए? साक्षी का पता होना माने साक्षी को भी मैंने देखा। माने तुम साक्षी के पीछे-पीछे। ऋषि भी तुरीये पर रुक गए थे, तुम पंचम निकले। आ रही है बात समझ में?
प्रश्नकर्ता: सर, मुझे अब ये तो समझ में आ रहा है कि सामने वाला अपनी प्रकृति के हिसाब से काम करेगा। मुझे प्रॉब्लम उससे है, जो बुरा मानने को तैयार बैठा रहता है।
आचार्य प्रशांत: वो उम्मीद कर रहा है कि उसकी बदल जाएगी प्रकृति, क्योंकि कामना है।
“कल तक समोसा था, आज बर्फ़ी हो गया।” हो सकता है? वो अधिक से अधिक ये करेगा कि वो केचप में नहा के आ जाएगा, कहेगा, “देखो मैं मीठा हूँ।” शुरू में आप चाटोगे तो थोड़ा-थोड़ा मीठा लगेगा। कहोगे, “देखा, बर्फ़ी हो ही गया, मीठा-मीठा।” और फिर ऐसे आ काटोगे, “अरे रे रे रे, जल गया, मुँह जल गया, मुँह जल गया। फिर कहोगे, “वो मैं, आचार्य जी, तीन महीने से कुछ चल रहा था, सेशन्स नहीं देख पा रही थी, अब वापस आई हूँ।”
एक ही बार में टूट जाने दो न दिल को,
मरण भला तब जानिए, छूट जाए हंकार। जग की मरनी क्यों मरे, दिन में सौ-सौ बार।।
~ संत कबीर
जग की मरनी क्यों मरे दिन में सौ-सौ बार। एक ही बार टूट जाने दो, नहीं होगा। और होने का तो एक ही तरीका है। क्या? कबूतर बनो। उससे पूछो, कबूतर बनेगा? नहीं बनेगा, तो बह। आ रही है बात समझ में कुछ?
न आप बदल सकते, न कोई और बदल सकता। कल की बच्ची आज जवान है, कल बुड्ढी हो जाएगी, फिर मर जाएगी, फिर मिट्टी हो जाएगी, मिट्टी होकर फिर फूल बन जाएगी, फिर कहीं पैदा हो जाएगी। बदल सकते हो तो बदल के दिखाओ। क्या बदलोगे? हर चीज़ अपनी प्रकृति के अनुसार ही काम करती है, प्रकृति के भीतर अपवाद नहीं होते। एकमात्र अपवाद है, प्रकृति से ऊपर।
प्रकृति की धारा में ही रह के तुम कहो, “नहीं, मैं प्रकृति में पहले मछली थी, अब मगर हो गई हूँ। आचार्य जी की स्त्री पुस्तक पढ़ने के बाद अब मैं मिसेज़ मगरी हूँ।” तुम अभी भी मच्छी हो। मगर होने का एक ही तरीका है। क्या? बाहर आओ। मछली को जल को छोड़कर बाहर आना पड़ेगा, मृत्यु जैसा लगेगा, पर और कोई तरीका नहीं है। कुछ आ रही है बात समझ में?
कुछ नहीं बदलना। बहुत हमने बदलने की कोशिश करी है हर तरीके से, आर्थिक तरीके से, सामाजिक तरीके से, राजनैतिक तरीके से, व्यक्तिगत तरीके से। जितने तरीकों से हो सकता है और जहाँ-जहाँ बदलाव लाने की कोशिश की जा सकती है, इंसान ने यही तो करी है। जिसको हम सभ्यता कहते हैं, जिसको हम अपने विकास की पूरी यात्रा कहते हैं, वो और क्या है? बदलाव की हमारी कोशिश। यही तो करा है।
क्या बदल गया?
बाहर-बाहर से ये बदल गया है कि कभी छाल पहनते थे, अभी शॉल पहनते हो। बस यही बदल गया है। भीतरी तौर पर तो अभी भी वैसे ही हो जैसे दस हज़ार साल पहले, पचास हज़ार साल पहले थे। कुछ नहीं बदलता। पचास हज़ार साल पहले भी कोई किसी से उम्मीद रखता था और दिल तुड़वाता था। आज भी कोई किसी से उम्मीद रखता है और दिल तुड़वाता है। कुछ बदला? हाँ, छाल का शॉल बन गया है, बस यही हुआ है। जो नंगा घूमता था उसने चड्डी डाल ली है। ये बहुत बड़ा बदलाव है?
आपके सारे सपने इसीलिए व्यर्थ हैं, आपके सब सपने कहते हैं, अतीत दूसरा था, भविष्य दूसरा हो जाएगा। अतीत कुछ और था, भविष्य कुछ और हो जाएगा। नहीं होने वाला। हाँ, आप उस पर ड्रेसिंग कर दोगे। वो ड्रेसिंग तो ठीक है। पर समोसे को केचप में डुबोने से वो जलेबी तो नहीं हो जाता। कि हो जाता है?
तो कुछ व्यवहारिक आपको सूत्र बताए देता हूँ। जिनसे बहुत नाता न रखना हो, जिनसे बस व्यवहारिक रिश्ता रखना हो, उनके अतीत पर बहुत ध्यान दो। जिनसे कोई बहुत गहरा नाता आपको रखना ही नहीं है, कोई बहुत व्यवहारिक-सी बात है। उदाहरण के लिए आप अपनी कंपनी के लिए हायरिंग कर रहे हैं। द पास्ट विल बी अ वेरी रिलायबल इंडिकेटर ऑफ द फ्यूचर। आप मान लीजिए एचआर डिपार्टमेंट वग़ैरह से हैं, कहीं से हैं, उसके अतीत में एकदम घुस जाइए। वो कुछ भी बोलता रहे, प्रतिवाद करता रहे। वो कुछ भी बोलता रहे कि नहीं-नहीं, पहले ऐसा हुआ है, अब आगे मैं बदल दूँगा, बदल दूँगा।
निन्यानबे दशमलव नौ नौ प्रतिशत संभावना है जैसा वो पहले था, आगे भी वैसा ही रहेगा। बदलाव कुछ कर भी लेगा तो सतही बदलाव करेगा, उससे आगे नहीं।
लेकिन जहाँ मसला दिल लगाने का हो और जहाँ आप सचमुच चाहते हो कि बदल जाए बंदा, अब लग गया है दिल, है कोई बात, नहीं छोड़ सकते ये कह करके कि जैसा पहले था, आगे भी वैसा ही रहेगा। जहाँ पर ये आपने रुख ले लिया हो, वहाँ पर साधन बस एक है। क्या? अध्यात्म।
लेकिन किसी को अध्यात्म की ओर लाना माने बहुत ऊर्जा लगाना। अपनी बहुत ऊर्जा, एक तरह से अपनी ज़िंदगी से उसको ज़िंदगी देनी पड़ती है। एक तरह से अपना प्राण उसमें उलीचना पड़ता है। ये काम आप पाँच सौ लोगों के साथ नहीं कर सकते। बहुत जीवन-ऊर्जा चाहिए, बहुत ज़्यादा लोगों को जीवन देने के लिए। तो एक-लोग, दो-लोग जो आपके जीवन में हों जिनको आप सचमुच चाहते हो कि ये बदल जाएँ, तो उसका साधन बस एक है अध्यात्म। लगा दीजिए जान और उनको ले आइए। आ रही है बात समझ में?
अब प्रकृति में भी दो बातें हैं, एक वो जो आपका देहगत व्यवहार है। वहाँ तो 0.001 प्रतिशत संभावना है कि कोई यूँ ही बदल जाएगा। और एक दूसरे तरह का संस्कार होता है, सामाजिक, वहाँ फिर भी थोड़ी ज़्यादा संभावना है कि कोई बदल जाएगा। उदाहरण के लिए, आप अगर किसी का राजनैतिक दृष्टिकोण बदलना चाहते हैं तो थोड़ी संभावना हो सकती है, बहुत ज़्यादा नहीं, एक प्रतिशत। पर अगर कोई ईर्ष्यालु बहुत है, या कामुक बहुत है, या अप्रेमी है, कठोर है, प्रेम जैसी चीज़ है ही नहीं, तो इसको बदल पाने की संभावना तो एक प्रतिशत भी नहीं, 0.001 प्रतिशत है।
ये चीज़ तो सिर्फ किससे बदल सकती है? अध्यात्म से, कि पत्थर पर फूल खिल जाए, ये काम तो अध्यात्म ही कर सकता है।
प्रश्नकर्ता: जी, थैंक-यू सर।