प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, कबीर साहब का दोहा है, साखी है:
अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार। मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारूँ वार।। ~ कबीर साहब
इस पर ज़रा प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: “अपने अपने चोर को, सब कोई डारै मार।” कौन है ये चोर? इतना सर्वव्यापक कैसे है कि सभी को लगा हुआ है? सभी की इससे दुश्मनी क्या है?
चोर वो जो दुख देता हो, संताप। वो, जो तुम्हारा चैन चुरा ले गया है, शान्ति चुरा ले गया है, वो, जिसके कारण तुम उसी को नहीं पा पाते जो तुम्हारा है, उसका नाम चोर। कौन होता है चोर? जो तुम्हारी अपनी वस्तु तुमसे चुरा ले, छीन ले जाए, हर ले। ठीक?
क्या है तुम्हारा अपना, बिलकुल निजी? जो किसी ने दिया नहीं, किसी के देने से नहीं मिलेगा। जिसको बताने वालों ने स्वभाव कहा है, आत्मा कहा है। जिसका वर्णन सच्चिदानन्द कहकर किया गया है। वही है तुम्हारा।
कौन चुरा लेता है उसको? उसको बहुत नामों से हम इंगित करते हैं। कभी माया कह देते हैं, कभी शैतान कह देते हैं, कभी अविद्या, कभी अहंकार कह देते हैं। और चूँकि हमें ये लगता है कि वो हमारा चैन चुरा ले गया है हमसे, तो हम तमाम तरह की विधियाँ ईजाद करते हैं। माया को दुश्मन जानते हैं, अहंकार मिटाने की बात करते हैं, अहंकार को मौत देने की बात करते हैं।
और ये बड़ी विचित्र बात है, आदमी सदा से माया को अपना दुश्मन जानकर माया का दुश्मन रहा है। आदमी सदा से अहंकार को जड़-मूल से उखाड़ने में तत्पर रहा है। पर माया और अहंता तो वैसे-के-वैसे हैं। ज़रूर कोई भूल हो रही है। कबीर साहब उसी भूल की ओर इशारा कर रहे हैं। समझेंगे थोड़ा।
जब तुम कह रहे हो कि अहंकार तुम्हारी शान्ति चुरा ले जाता है तो तुम्हारी मान्यता कुछ ऐसी है कि शान्ति तो तुम्हारी थी ही, शान्ति कोई ऐसी वस्तु थी जो तुम्हें उपलब्ध थी ही और फिर कोई आया चोर, तुम्हारी चीज़ तुमसे उठाकर, चुराकर ले गया। पर क्या वो उपलब्ध थी? नहीं।
शान्ति स्वभाव है, ये बात ज़रा दूर की है। इतनी दूर की है कि मैं कहूँगा कि ये बात किताबी है। पास की बात तो ये है कि हमें अशान्ति से ही बड़ा मोह है। पैदा ही वो जीव होता है जो अशान्त है। अशान्ति उसकी पहचान है।
अशान्ति उसकी?
प्र: पहचान है।
आचार्य: पहचान है। तो तुम कैसे कह रहे हो कि माया तुम्हारी वस्तु चुरा ले गयी? शान्ति तुम्हारी थी कब जो कोई चुरा ले जाए? जिसने जन्म लिया, उसका नाम ही था अशान्ति। अशान्ति ने ही जन्म लिया और दावा तुम्हारा ये है कि माया तुम्हारी शान्ति चुरा ले गयी। बताओ वो शान्ति तुम्हारी थी कब?
तुम एक ऐसी चीज़ पर स्वामित्व बता रहे हो, दावा दिखा रहे हो, जिसके तुम कभी आस-पास नहीं भटके, जिससे तुम्हारा कोई लेना-देना कभी नहीं था। माया का तो धन्यवाद दो कि उसने तुमको बता दिया कि तुम कितने अशान्त हो।
कोई तुम्हें गुस्सा दिलाता है और तुम्हें गुस्सा आ जाता है तो तुम कहते हो, ‘ल्यो! माया का हमला हो गया।’ कुछ ऐसा प्रदर्शित कर रहे हो जैसे कि तुम शान्त थे और किसी बाहर वाले ने आकर तुम पर धावा बोल दिया, अशान्ति ने तुम पर आक्रमण कर दिया।
नहीं, माया तो उपकार कर रही है तुमपर। देखोगे तो कहोगे कि दोस्त है। वो तुमको दिखा रही है कि कितनी अशान्ति तुममें भरी ही हुई है। वो कुछ नया न तुम्हें दे रही है, न कुछ तुम्हारा वो तुमसे छीन रही है। तुम्हारी जो वस्तुस्थिति है, जो हक़ीक़त है, उसी से तुम्हें वो अवगत करा रही है।
ज़रा ज़ोर की हवा चलती है और कमज़ोर पेड़ गिर जाता है। हवा का क्या दोष! हाँ, हवा नहीं चलती तो कभी किसी को पता नहीं चलता कि तना खोखला था। बाहर से तो तना सुदृढ़ ही दिख रहा था। माया हवा है। हवा चलती है तो पुराने, कमज़ोर, बीमार, बूढ़े पत्ते गिर जाते हैं। हरे पत्तों का क्या बिगड़ता है! और गिरते हैं पुराने पत्ते तो पेड़ का भला ही होता है।
कबीर साहब कह रहे हैं, “मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारूँ वार।”
पहली बात तो, जिसको तुम माया इत्यादि कहकर इंगित करते हो, वो एहसान करती है तुमपर, वो तुम्हें बता देती है कि हो कौन तुम। अन्यथा तुम किताबी ब्रह्मवाक्य ही रटते रह जाते। तुम इसी आनन्द में लिप्त रहे आते कि ब्रह्म हूँ मैं, पूर्ण हूँ मैं!
जब वार होता है माया का, तो पता चलता है कि कौन हूँ, मामला कितने पानी में है। सब पोल खुल जाती है। पोल जब खुल जाती है, तब तुम ये नहीं कहते कि कमज़ोरी मेरे भीतर थी। तब तुम कहते हो, ‘बाहर से हमला हुआ, मेरे साथ धोखा हुआ। बाहर से चोर आया, मेरा चैन चुरा ले गया।’
बात आ रही है समझ में?
“मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारूँ वार।”
इस चोर के प्रति दो वजहों से कृतज्ञता है। पहली वजह तो ये कि ये न होता तो मुझे आईना कौन दिखाता। और दूसरी बात ये कि ये चोर पलता ही अकृतज्ञता पर है, ये चोर पलता ही शिकायतों पर है। ये चोर हमला ही उनपर करता है जिनके भीतर भरी होती हैं शिकायतें।
तुम्हारे भीतर अगर किसी के प्रति भी शिकायत भरी है, तुम शिकार हो जाओगे। और तुम अहोभाव से, कृतज्ञता से ओत-प्रोत हो, ये दर्शाने का इससे अच्छा तरीक़ा क्या हो सकता है कि जो तुमपर वार करने आये, तुम उसके प्रति भी कृतज्ञ रहे आओ।
माया तुमपर हमला करे — तुम्हारे अनुसार, माया तुम पर हमला करे — और तुम झींकने लग जाओ, तुम लड़ने लग जाओ, तुम विरोध करने लग जाओ, तुम शिकायत पर उतर जाओ, तुम अपना भाग्य कोसने लग जाओ तो तुमने यही दर्शाया कि वो हमला जायज़ था। क्योंकि माया का हमला तो कमज़ोरों पर ही होता है और कमज़ोर लोग ही शिकायतों में बड़ा रस लेते हैं। ‘ये बुरा, ये बोला; इसने ऐसा कर दिया; वहाँ पर सब पाप है, उपद्रव है, ग़लत है।’
बात समझ में आ रही है?
तुम्हारी आंतरिक अपूर्णता है जिसके कारण बाहर से आये प्रभावों का शिकार बन जाते हो, वरना प्रभावों में क्या दम था!
चोरी कोई बाहर वाला आकर नहीं कर रहा है, चोरी हो चुकी है। चोरी हुई थी तभी तो तुम्हारा जन्म हुआ था, चोरी हुई थी तभी तो कुछ कमी है। उसी कमी का नाम है अपूर्णता। उसी कमी का नाम है अपूर्णता।
जब चोरी हो जाती है तो कुछ कमी हो जाती है न। कुछ चोरी हो गया, कुछ छूट गया, कुछ बाक़ी रह गया, कुछ कमी है; उसी का नाम है अपूर्णता। अपूर्णता भीतर बैठी हुई है। उसको भरो, उसको पूर्णता दो। लड़कर कोई फ़ायदा नहीं होगा।
अपूर्णता के जितने भी चिह्न तुम्हें दिखायी देते हों, उनके प्रति कृतज्ञ रहो कि पता तो चला कि भीतर कितना बड़ा छेद था। जितनी बार दिखायी दे कि थक गये, कि मन ख़राब कर लिया, कि रोने-झींकने लगे, शिकायतों पर उतर आये, मन में द्वेष उठने लगा, हिंसा उठी, संशय उठा, श्रद्धा घटी, उतनी बार कहना, 'धन्यवाद! पता तो चला कि भीतर क्या पनप रहा था।'
भूल कर भी स्थितियों को दोष मत देना। स्थितियाँ तुम्हारे भीतर जो था बस उसको प्रदर्शित कर देती हैं। स्थितियाँ तुमको बस आईना दिखा देती हैं। कभी न कहना कि घटना ऐसी घटी, माहौल ऐसा था कि हम आपा खो बैठे। कभी न कहना कि दूसरा है ही इतना बुरा कि तुम्हें उसपर घृणा है।
घृणा जिसके भीतर नहीं होगी उसके भीतर किसी बाहर वाले की उपस्थिति से अचानक नहीं उठ जाएगी। किसी को देखकर के अगर तुम्हें घृणा उठती है तो इसका मतलब तुम भीतर अपने घृणा लिये घूम ही रहे हो। छुपी हुई थी, कोई आया, उसकी उपस्थिति में प्रकट हो गयी, सामने आ गयी। इसका अर्थ ये नहीं है कि उसने तुममें घृणा का संचार कर दिया। धन्यवाद दो। धन्यवाद दो, और ये धन्यवाद ही है जो भीतर के खालीपन को भर डालेगा। ये अनुग्रह ही है जो भीतर की सारी कमियाँ पूरी कर डालेगा।
लड़ने मत लग जाना! मारने मत लग जाना!
जो मारने को उतारू है, वही तो सता रहा है तुमको। वो नहीं सता रहा जिसको तुम मार रहे हो। जिसको तुम मार रहे हो, वो नहीं सता रहा तुमको। जिसके प्रति तुममें घृणा और वैमनस्य है, वो नहीं सता रहा तुमको। वो जो तुम्हारे भीतर बैठा है और मारने पर उतारू है, वो सता रहा है तुम्हें। ये जो मारने वाला है, अगर तुम इसको मारने लग गये तो तुमने वही किया जो मारने वाला कर रहा था। बात बनेगी नहीं।
ये मारने वाला अधूरेपन से ग्रस्त है, इसे पूरापन दो। पूरेपन की पहचान ये होती है कि जो पूरा हो गया, उसे और नहीं चाहिए। जो अधूरा है, उसे अभी और चाहिए। तो वो क्या और इकट्ठा करता है? तमाम तरह की धारणाएँ, विचार, राग-द्वेष, मोह, शक, संशय।
जो अधूरा है, उसी के पास बहुत सारी मानसिक सामग्री मिलेगी। जो पूरा है, उसके पास कुछ नहीं मिलेगा। क्यों नहीं मिलेगा उसके पास कुछ? क्योंकि पूरे में कुछ जोड़ोगे कैसे, वो तो पूरा है।
“सरबस डारूँ वार।” न्यौछावर करने के लिए पूरापन चाहिए, पकड़कर रखने के लिए अधूरापन चाहिए। जिसके पास पूरापन है, मात्र वही है जो न्यौछावर कर सकता है। जो अधूरा है वो न्यौछावर कर ही नहीं पाएगा। वो तो अधूरेपन की भावना से ग्रस्त है, पकड़कर रखेगा। मुट्ठी उसकी भिंची हुई रहेगी।
बात समझ रहे हो?
हर घटना जिसको तुमने अपने जीवन पर एक दाग की तरह लिया है, वो वास्तव में वरदान थी तुम्हारे लिए। वो घटना न घटती तो कभी तुम्हें पता न चलता कि भीतर कितना कचरा भरा हुआ है। और उस कचरे से मुक्त होने का तरीक़ा एक ही है — देख लो कि तुम्हें कचरे की ज़रूरत ही नहीं है। क्यों? क्योंकि ज़रूरतों से आगे हो तुम, भरपूर और पूरे हो तुम।
ज़रूरत किसको होती है? जिसे कमी होती है। जब भी कहोगे कि मुझे ज़रूरत है, पूरापन नहीं ला पाओगे, क्योंकि पूरापन अधूरेपन में जोड़ा नहीं जा सकता। अधूरे में क्या जोड़ा जा सकता है जो अधूरे को पूरा करेगा? कुछ अधूरा ही। अधूरे में कुछ अधूरा ही जुड़ेगा जो अधूरे को पूरा करेगा।
तो जब भी तुम अपनेआप को अधूरा मानते हो, अपनेआप में कुछ व्यर्थ, कुछ कचरा ही जोड़ लेते हो। उस सबको न्यौछावर करो, उस सबको छोड़ो।
आ रही है बात समझ में?
अहंकार प्यासा है सत्य के लिए, और अहंकार ही एकमात्र अपना ज़रिया है सत्य को पाने का। इगो को लोग घमंड से जोड़ देते हैं, प्राइड से जोड़ देते हैं, जबकि उसके पास लाचारगी है। वो किस बात पर गर्वित अनुभव करेगा, वो तो खाली-खाली सा, भिखारी सा है। उसे किस बात पर घमंड होगा! पर मजबूर को लोग मग़रूर बोल देते हैं।
अपने बारे में जो कुछ भी दिखे, उसको छुपा मत जाओ, उसको नकार मत दो, उसको लेकर के बुरा मत मान जाओ। यही न उम्मीद करते रहो कि अपने बारे में सब अच्छा-ही-अच्छा पता चलेगा। जितनी अपनी गन्दगी प्रकट होती जाए, तुम उतने कृतज्ञ रहो। तुम कहो, ‘भला हुआ ये पता चला! भला हुआ ऐसी घटना घटी जिसमें भीतर की सारी कालिमा प्रकट हो गयी। वो घटना न घटती तो कहाँ से आती वो कालिमा!’
गुरुओं ने तो कई बार ऐसी घटनाएँ आयोजित करवायी हैं जहाँ शिष्य के भीतर का भय या क्रोध या लोभ सामने आये। वो घटना आयोजित न करवायी जाए तो शिष्य को कैसे पता चलेगा कि भीतर लालच या डर या शंका कितनी बैठी हुई थी।
बात समझ रहे हो?
जो तुम्हें सताता है वही तुम्हारी मुक्ति का साधन भी है। वहीं पर देखना। जब कुछ बुरा लगे तो अच्छे की तलाश में मत निकल पड़ना, जो बुरा लग रहा है उसी में प्रवेश कर जाना। वो तुम्हें बुरा लग ही इसलिए रहा है ताकि उसपर तुम्हारा ध्यान जा सके।
पर हम बड़े खिलाड़ी लोग हैं न! जब कुछ बुरा लगता है तो हम उसकी ओर पीठ कर लेते हैं, हम दूसरी दिशा चल देते हैं। जैसे घर के एक कमरे से बदबू उठती हो तो आप कहो, ‘छोड़ो, कहीं और जाकर बैठ जाते हैं।’ भूल ही जाते हो कि वो कमरा आप ही के घर का है, कहाँ तक भागोगे? वो दुर्गंध इसलिए है ताकि वो कमरा साफ़ हो सके।
आ रही है बात समझ में?
प्र: अगर बहुत समय तक कोई भी अच्छी ख़बर न आये, तो? जैसा आपने कहा कि जब कोई ग़लत ख़बर आये तो देखते रहो।
आचार्य: तो ये बहुत अच्छी बात है कि बहुत समय तक ग़लत-ही-ग़लत ख़बर आ रही है। सोचो कि अगर बहुत कुछ ग़लत हो और ख़बर अच्छी आ रही हो, तो? जल्दी बताओ!
बीमार हो तुम, बहुत बीमार हो। और दो साल से प्रतिमाह तुम्हारी मेडिकल रिपोर्ट बता रही है कि ठीक हो तुम। मारे जाओगे। बीमारी गहरा रही है और ख़बर अभी अच्छी ही आ रही है। बीमारी गहराती जा रही है और ख़बर यही बता रही है कि अभी तो सब?
प्र: ठीक है।
आचार्य: ठीक है। और कोई ये न कहे कि बीमारी तो हमें है नहीं। मेरा मुँह खुलवाओगे तो मैं कहूँगा — बेटा, बीमारी ही पैदा होती है। जो पैदा हुआ है, वही बीमार है। बीमार तो सब हो। तो बहुत भली बात है सबके लिए कि तुम्हें बुरी-ही-बुरी ख़बर आयें, क्योंकि जो पैदा हुआ है वो बुरी ही हालत में पैदा हुआ है। जब बुरी हालत में पैदा हुआ है तो उसे उसकी बुरी हालत की ख़बर आनी ज़रूरी है। बुरी हालत अगर छिपी रह गयी तो बुराई और बुरी हो जाएगी।
कोई न कहे कि हमें स्थितियों ने बुरा बना दिया। इस बात पर बिलकुल ध्यान दे लो। कोई न कहे कि हालात ऐसे थे कि हम बुरे हो गये, कोई न कहे कि माहौल ऐसा था कि हमें बुरा बर्ताव करना पड़ा। बुरे तो हम हैं ही, हम पैदाइशी बुरे हैं।
कभी मैं कहता हूँ कि बच्चा वृत्ति साथ लेकर पैदा होता है और कभी और साफ़ बोलना होता है तो कहता हूँ, 'वृत्ति ही बच्चा बनकर पैदा होती है।' जो मूल अपूर्णता की वृत्ति होती है, जीव-वृत्ति होती है, अहम्-वृत्ति होती है, वही तो गर्भ से जन्म लेती है। बीमारी का ही तो जन्म होता है।
अब ये जो बीमारी जन्मी है, ये चाहती है कि मुझे सब भली-भली ख़बरें आयें। ये अपनेआप को ही धोखा देना चाहती है। बीमारी का ही लक्षण है। बीमारी तो ये चाहेगी ही।
स्वास्थ्य चाहेगा कि उसको सच्ची ख़बर बतायी जाए। सच्चाई का सम्बन्ध तो स्वास्थ्य से है। अगर तुम स्वस्थ होते तो तुमको बहुत भला लगता कि किसी ने ईमानदारी से हमें हक़ीक़त बता दी। पर चूँकि तुम बीमार हो इसीलिए तुम चाहते हो कि तुम्हारी बीमारी छुपी रहे। ये बीमारी ऐसी है कि ये स्वयं को छुपाना चाहती है। बीमारी को छुपाना ही तो बीमारी है तुम्हारी। जो बीमारी को खुलकर प्रकट करने लग गया, समझ लो स्वास्थ्य की ओर बढ़ने लग गया।
पर हमें तो अगर बीमारी दिखती है तो या तो हम उसे अनदेखा कर देते हैं या फिर किसी दूसरे पर दोषारोपण कर देते हैं। 'मैं बुरा आदमी नहीं हूँ, पर उस आदमी की शक्ल ही इतनी मनहूस है कि मुझे क्रोध आ गया। वरना क्रोध? साहब, क्रोध तो हमें छूता ही नहीं!' तो अगर हमें गुस्सा भी आ गया तो ग़लती दूसरे की है। क्रोध भी आ गया हमें, तो ग़लती दूसरे की है।
सुनते नहीं हो बलात्कारियों के वक्तव्य, ‘हम थोड़े ही बुरे हैं, हम तो बड़े ही संस्कारी बल्कि कहिए तो ब्रह्मचारी हैं, वो तो हमारे सामने उत्तेजक वस्त्र पहनकर आ गयी तो हम आपा खो बैठे। हमारी कोई ग़लती थोड़े ही है। आप बता रहे हैं हम बलात्कारी हैं, हम बता रहे हैं हम ब्रह्मचारी हैं। हमने अगर बलात्कार भी किया, तो ग़लती उसकी जिसका शोषण हुआ। तू क्यों आयी ऐसे हमारे सामने?’
बीमार की बीमारी ही यही कि उसे मानना ही नहीं है कि वो बीमार है। वो मानेगा ही नहीं कि वो बलात्कार का बीज उसके भीतर छुपा हुआ था। ये स्थिति न मिलती तो किसी दूसरी स्थिति में अंकुर फूटता।
समझ रहे हो?
बुरी ख़बर आये, अच्छी बात। बुरी-ही-बुरी ख़बर आये, बहुत अच्छी बात।
कैंसर के रोगियों को जानते हो ख़तरा क्या रहता है?
एक बार उनकी चिकित्सा हुई, कैंसर की जितनी कोशिकाएँ थीं सब नष्ट कर दी गयीं। लेकिन दो-चार भी अगर कोशिकाएँ छूट गयीं कैंसर की शरीर में, तो वो?
प्र: दोबारा पैदा हो जाता है।
आचार्य: कैंसर दोबारा पैदा हो जाता है। और यही नहीं होगा फिर कि जिस जगह पर पहले आया था, वहीं होगा। वो कोशिकाएँ घूम-फिरकर शरीर में कहीं और भी पहुँच सकती हैं। तो अच्छा है कि बुरी ख़बर आ जाये। अच्छा है कि तुम्हें बता दिया जाए कि अभी कुछ कोशिकाएँ बाक़ी हैं। अगर बीमारी बाक़ी थी और उसके बावजूद अच्छी ख़बर आ गयी, तो तुम मरे। तुम तो प्रार्थना यही करो कि बुरी-बुरी ख़बरें आया करें।
हमें अपनी उज्ज्वल छवि देखने की बड़ी इच्छा होती है न! वो भी इच्छा क्यों होती है? क्योंकि किताबों में पढ़ लिया है कि बड़े-बड़े लोग हुए हैं और वो उज्ज्वल-ही-उज्ज्वल थे। उनके धवल वस्त्रों पर कहीं कोई दाग नहीं। वहाँ बुराई का नाम-ओ-निशान नहीं। और यहाँ आचार्य जी बता रहे हैं कि तुम्हारे बारे में जितनी बुरी ख़बर आये, उतना अच्छा। तो ज़रा निराशा होती है।
हमें लगता है कि फिर हम वैसे कब बनेंगे। अगर हमारे बारे में सब बुरी-ही-बुरी ख़बर आती रहेंगी, लगातार यही प्रदर्शित होता रहेगा कि अभी हममें ये भी दोष है, अभी ये भी विकार है, अभी भीतर ये भी अवगुण छुपा हुआ है तो फिर हम विवेकानंद कब बनेंगे! बहुत जल्दी है। जल्दी ही ख़बर आ जाए कि सफ़ाई पूरी हो गयी, मामला तैयार है।
मामला ऐसे ही तैयार होता है। सारे दोष अनावृत हो जाएँ। एक-एक विकार उद्घाटित हो जाए, धूल का आख़िरी कण भी जो तुम्हारे मानस दर्पण पर पड़ा हो, वो चमकने लग जाए। दिखने लग जाए कि भीतर के दर्पण पर एक भी धूल का दाना बचा हुआ है, वो भी सामने आ जाए। यही प्रार्थना करो।
धोबी पटक-पटककर धोये, रेशे के भीतर भी जो सूक्ष्मतम गन्दगी बची हो, उसको भी निकाल दे। ऐसी नज़र हो धोबी की कि इतना सा भी दाग छूट न जाए। लोग कहें कि वस्त्र साफ़ है, वो कहे, 'नहीं, अभी भी गन्दा है, अभी और पटका जाएगा, अभी और धुलेगा।'
प्र: सुनने में काव्य है, पर जब बीतती है तो…
आचार्य: वो तो इस पर निर्भर करता है कि तुम्हें पीटे जाने से ज़्यादा द्वेष है या साफ़ होने से ज़्यादा प्रेम है। दोनों घटनाएँ एक साथ घट रही हैं। तुम्हारे दोष निकाले जा रहे हैं, तुम्हारी खोट निकाली जा रही है, तुम पिट रहे हो; बुरा तो लगता है। लेकिन तुम साफ़ भी हो रहे हो, आनन्द भी आता है। अब तुम देख लो कि तुम्हें उस आनन्द से ज़्यादा प्रेम है या पिटने से ज़्यादा रोष है।
हम, भाई, बीमार लोग हैं। बीमारी ही पैदा होती है। तो अधिकांशत: यही देखा जाता है कि हमें पिटना बड़ा बुरा लगता है। कपड़ा चिल्लाकर बोलता है, ‘अरे! फाड़ ही डालोगे क्या?’ (श्रोतागण हँसते हैं)
'सफ़ाई तो होगी कि नहीं होगी, नहीं पता, पर हम नहीं बचेंगे। तुम्हारे उपायों से जान जाएगी हमारी। पक्का है, मौत होगी।'
अब तुम देख लो तुमको ज़िन्दगी ज़्यादा पसन्द है या मुक्ति। लेकिन बीमार आदमी को तो हर वक़्त यही ख़याल आता है कि काश! ज़िन्दगी बची रहे।
तो क्या चाहिए भाई?
पिटना कम बुरा लगेगा अगर ये उम्मीद त्याग दो कि आदर्श जीवन वो है जिसमें पिटाई नहीं होती। तुम्हारे मन में बड़ी एक आदर्श छवि बैठी हुई है कि कुछ लोग होते हैं, कोई ऐसी अवस्था होती है जब पिटना बन्द हो जाता है, जब बस निर्मलता प्रकाशित होती है चारों तरफ़। तुम वो ख़याल ही छोड़ दो। देहधारी को वो ख़याल रखने का कोई हक़ नहीं है।
देहधारी को अगर ख़याल रखना है तो बस इस बात का रखे कि अभी दाग कहाँ-कहाँ बाक़ी है। दाग के बाद क्या है, दाग के आगे क्या है, इसकी कल्पना मत करो। तीर-तुक्का मत लगाओ।
पर पढ़ लेते हो न! फ़लाने ऋषि थे, फ़लाने मुनि थे, फ़लाने सज्जन थे, देवता भी आकर उनके चरण स्पर्श करते थे। तुम कहते हो, ‘एक तो वो लोग जिनका इतना आदर कि देवता भी उनके चरण स्पर्श करते थे। और हमें बताया जा रहा है कि तुम्हें पटक-पटक के धोया जाएगा और तब भी तुम्हारी मैल निकलेगी नहीं तो तुम्हें फाड़ा जाएगा। तो हमने ऐसा क्या गुनाह किया है भाई?’
तुम्हें समस्या पिटने से नहीं है। तुम्हारी सारी समस्या ये है कि वो कहानियाँ तुम्हारे ज़ेहन में बैठ गयी हैं।
खेल सीधा है — दाग देखो, दाग धोओ; फिर? दाग देखो, दाग धोओ। फिर? दाग देखो, दाग धोओ। फिर? दाग देखो, दाग धोओ।
‘गुरुदेव इस सबका अन्त कहाँ है? दागों के आगे क्या है?’
भक्क! और धोओ। (श्रोतागण हँसते हैं)
ये पूछना ही कि दागों के आगे क्या है, बड़ी दागदार बात है। मत पूछो कि दागों के आगे क्या है। तुम्हें बस इतना अधिकार है कि दाग देखो, दाग धोओ। उसके आगे कल्पना करो ही मत। तनाव आ गया। कह रहे हैं, ‘क्या इसीलिए पैदा हुए थे?’ तुम कह रहे हो, ‘क्या इसीलिए पैदा हुए थे?’ मैं कह रहा हूँ, ‘पैदा ही क्यों हुए?’
सारा खेल ही इसी बात का है कि उस बिन्दु पर पहुँच जाओ जिसके बाद पैदा नहीं हुआ जाता दोबारा।
प्र: आज जब आपने रूमाल माँगा, तो सबसे पहले जो विचार आया वो था कि मेरा रूमाल दागदार है, आचार्य जी के हाथ में देने से दाग लग जाएगा।
आचार्य: अरे राम जी!
प्र: मैंने माथा पोंछा है इससे, नाक पोंछा है। आचार्य जी, सबसे पहले वो झिझक मेरे मन में आयी।
आचार्य: 'लागा चुनरी में दाग!' लागा रूमाल में दाग, दिखाऊँ कैसे!
रूमाल नहीं था, वो देह थी। हम ऐसे ही हैं। जैसे रूमाल नहीं छोड़ा गया, वैसे देह नहीं छोड़ी जाती। दाग दोनों में है।
प्र: देखने और धुलने के बीच में क्या होता है?
आचार्य: कुछ नहीं। देखने और धुलने के बीच में जो कुछ है, वो धुलने के विरुद्ध षड्यंत्र है। अगर देखते ही धुलाई नहीं हुई तो फिर धुलाई नहीं होगी। जिसने भी कहा कि दिख अभी गया है, धोएँगे कल, वो बेईमानी कर रहा है। उसका धोने का इरादा ही नहीं है। देखना और धुलना होगा तो तुरन्त होगा। जो कोई कहे, 'मैं जान तो गया हूँ, अमल हो रहा है, हो रहा है, पंचवर्षीय योजना है, धीरे-धीरे बढ़ रहा है', समझना बेईमान आदमी है।
प्र: ग्रेस पीरियड (मोहलत) भी नहीं है।
आचार्य: हाँ जी! दुनिया भरी हुई है ऐसे डिसग्रेसफुल (अपमानजनक) लोगों से। वो सब ग्रेस पीरियड पर ही चल रहे हैं। साधकों का यही तो फ़साना है पूरा, 'जानते हम सब हैं, होने कुछ नहीं देते।' जैसे हॉस्टल में रहने वाला कोई लौंडा। जानता भलीभाँति है कि कच्छा हफ़्तेभर से नहीं बदला, पहन आठवें दिन भी वही लेता है।
दाग अच्छे हैं!
प्र: अगर हम दागों की तरफ़ से उठकर सफ़ाई की तरफ़ आ जाएँ, तो जब दाग दिखेगा तो दुख नहीं होगा।
आचार्य: बढ़िया बात! सफ़ाई इसीलिए तो नहीं हो पाती है। तुम अपनेआप को पहले ही इतना साफ़ मानते हो कि अब जब दाग दिखता है तो बुरा लगता है।
मैं कहता हूँ कि तुम विपरीत ध्रुव से शुरुआत करो। जब तुम पहले ही मानकर बैठे होते हो कि मैं तो बड़ा साफ़-सफ़ा आदमी हूँ, और फिर जब गन्दगी दिखेगी तो कैसा लगेगा? कैसा लगेगा? बुरा लगेगा। तुम उल्टी तरफ़ से शुरुआत करो, तुम कहो, ‘पैदा हुआ हूँ तो गन्दा ही होऊँगा। अगर पैदा हुआ हूँ तो गन्दा हूँ।’
गन्दगी से ही भ्रूण की शुरुआत हुई थी और गर्भ से भी जब बाहर आया तो गन्दगी में ही लोट रहा था। पैदा हुआ हूँ तो गन्दा ही होऊँगा। तो अब अगर गन्दगी दिख गयी तो कौनसी ताज्जुब की बात! गंदे तो हम हैं ही। अब गन्दगी दिखेगी तो ठीक है, दिख गयी गन्दगी। ‘चलो भाई, साफ़ करो!’ और दिख गयी? ‘चलो भाई, साफ़ करो!’ और दिख गयी? ‘चलो भाई, साफ़ करो!’
पर हमारे मन में हमारी बड़ी उज्ज्वल, निर्मल छवि है, आहाहा! फिर कोई गन्दगी दिखा देता है तो कहते हैं, ‘तुझे तो सिर्फ़ मेरी गन्दगी पता है।’ जो मेरी गन्दगी बताये सो गन्दा।
मुझे तो कभी-कभी बड़ा रस आता है। लोग बैठे होते हैं, और मैं छेड़ूँगा, खोट बताऊँगा, गन्दगी दिखाऊँगा। और थोड़ी देर पहले बता रहे होते हैं, ‘तस्मै श्री गुरुवे नम:’, और जहाँ मैं कोचना शुरू करता हूँ, तहाँ चेहरे से. . .। अब कह कुछ नहीं पाते, सवाल नैतिकता का है, पर आँखें ज़रा आग्नेय हो जाती हैं। क्या करें!
मात्र जो श्रोता है, और जो शिष्य है, श्रावक है, उनमें इसी मूल भेद से पहचान कर लेना। जो बस यूँही कौतूहलवश, मनोरंजन की ख़ातिर सुनने बैठ गया है, जैसे ही उसके दोष निकाले जाएँगे, उसका मन खट्टा होगा। वो बुरा मानेगा।
गुरु के लिए बहुत आसान है परख करना। दोष निकालो, जिसको बुरा लग जाए, जान लो कि वो शिष्य होने के क़ाबिल ही नहीं। और जो वास्तव में मुक्ति का अभिलाषी है, जो वास्तव में गुरु के पास मुमुक्षा से प्रेरित होकर आया है, ज्यों ही उसके दोष उद्घाटित किये जाएँगे, वो और नमित हो जाएगा, एहसान मानेगा, झुक जाएगा। वो कहेगा, ‘इसलिए तो आये थे। बताइए कि अभी कहाँ-कहाँ दाग बाक़ी हैं। और बताने से आगे जाकर आप अगर धो ही दें पटक-पटककर, तो क्या कहने! सोने पर सुहागा!’
ये मुश्किल होता है, आम श्रोता के लिए बड़ा मुश्किल होता है।
लोग तो सत्संग में भी ऐसे आते हैं जैसे गपशप करने। गपशप का क़ायदा ये होता है कि एक-दूसरे को आहत मत कर देना। होता है न? कुछ ऐसी बात न बोल देना जो दूसरे को बुरी लग जाए। ये गपशप का क़ायदा है।
गुरु के सानिध्य में बैठने का क़ायदा दूसरा है। वहाँ हाथ जोड़कर के विनती की जाती है कि बताओ, कहाँ-कहाँ दोष बाक़ी है, कहाँ-कहाँ दाग लगा है। और बताने से आगे जाकर अगर साफ़ भी कर दो तो सौभाग्य हमारा!
प्र२: मुक्ति क्या है?
आचार्य बन्धन क्या है? बन्धन न हो तो मुक्ति की बात कौन करेगा! बन्धन क्या है?
अब नहीं जवाब दोगे जब मैं पूछूँगा ‘बन्धन क्या है?’ क्योंकि मुक्ति तो एब्सोल्यूट होती है और बन्धन व्यक्तिगत होता है। वहाँ अपनी पोल खोलनी पड़ती है। मुक्त-मुक्त तो सारे जन एक से होते हैं, क्योंकि मुक्ति क्या होती है? खुले आकाश जैसी। आकाश में कोई भेद नहीं। पर बन्धन सबके अलग-अलग होते हैं। निजी बन्धन होते हैं सबके। तो मैं पूछूँगा, ‘बन्धन क्या है?’, तो नहीं बताओगे। कहोगे, ‘अरे, क्या घर की बात खुले में बताएँगे!’
तो जो कुछ तुम्हें बाँधकर रखे हो, उससे आज़ाद होना ही कहलाता है मुक्ति। बन्धनों का हटना ही मुक्ति है।
बन्धन क्या हैं, ये तुम जानो!
जो कुछ तुम्हें सीमित करता हो, वो बन्धन तुम्हारा। जो कुछ तुम्हारी उड़ान को रोकता हो, वो बन्धन तुम्हारा। जो कुछ तुम्हें एक छोटे से दायरे में क़ैद रखता हो, वो बन्धन तुम्हारा। जो भी कुछ तुम्हारी अनन्तता के आड़े आता हो, वो बन्धन तुम्हारा। जो भी तुम्हें डर में रखे, वो बन्धन तुम्हारा। जिस भी रेखा का उल्लंघन करने में तुम्हारे पाँव काँपें, वो बन्धन तुम्हारा।
तो देखो कि बन्धन क्या हैं तुम्हारे, और फिर पूछो अपनेआप से कि क्या पा रहा हूँ मैं इन बन्धनों को बरकरार रखकर। हमें बेड़ियाँ कोई बाहर वाला थोड़े ही पहनाने आता है, उन्हें तो हम ख़ुद ही धारण करते हैं — आभूषण हैं हमारे।
बन्धनों से मुक्ति ऐसे ही मिलती है कि बन्धनों को छोड़ दिया जाए। नहीं कह रहा हूँ मैं कि बन्धनों को तोड़ दिया जाए। बन्धनों को कहूँगा यदि कि तोड़ दिया जाए, तो तुम्हें बहाना मिल जाएगा। तुम कहोगे कि अभी इतनी ताक़त नहीं हममें कि बन्धनों को तोड़ पायें।
बन्धनों को तोड़ना नहीं है। तुमने बाबा, पकड़ रखा है, बस छोड़ना है। क्या छोड़ने के लिए भी ताक़त चाहिए? छोड़ने के लिए तो ताक़त नहीं चाहिए। ताक़त तो बल्कि चाहिए पकड़ने के लिए।
बन्धनों को छोड़ देना ही मुक्ति है। तब तक नहीं छूटेंगे जब तक उनसे मुँह चुराओगे। बन्धनों के पास जाओ, उनको पकड़ने में तुम अपना कुछ तो हित देखते हो। ज़रा जिज्ञासा करो, ज़रा परख करो, ज़रा प्रयोग करो। जाँचो कि क्या इन बन्धनों के साथ मेरा कोई हित है। अगर हित हो तो बेशक पकड़े रहना। अगर तुम्हारी ईमानदार जाँच यही निष्कर्ष देती हो कि बन्धनों के साथ रहने में ही तुम्हारा हित है, तो मैं कह रहा हूँ, तुम बेशक बन्धनों को पकड़े रहो। लेकिन अगर तुम्हें साफ़ दिखायी देता हो कि बेवकूफ़ी कर रहे हो, अवसर गँवा रहे हो, जीवन और ऊर्जा व्यर्थ जा रहे हैं, तो छोड़ ही दो। यही मुक्ति है।
ज्ञान भी चाहिए मुक्ति के लिए और श्रद्धा भी। ज्ञान और भक्ति, दोनों न हों तो मुक्ति नहीं होगी। ज्ञान चाहिए ताकि बन्धनों के प्रति जिज्ञासा कर पाओ और श्रद्धा चाहिए ताकि उनको छोड़ पाओ।
बन्धन पकड़े रहने के पीछे एक तर्क़ ये होता है कि कम-से-कम कुछ तो है मुट्ठी में। अपने ही बन्धन पकड़ रखे हैं। पर मन तर्क क्या देता है? ‘कम-से-कम मुट्ठी खाली तो नहीं है।’ श्रद्धा चाहिए। श्रद्धा ही तुम्हें बताएगी कि जो पकड़ रखा है, छोड़ भी दोगे तो भी मौज में रहोगे। अभी से नहीं बताया जा सकता कि क्या होगा जब छोड़ दोगे, पर एक बात पक्की है, जो हालत अभी तुम्हारी है, जो भी होगा इससे तो बेहतर ही होगा।
प्र१: आचार्य जी, जो हमको पढ़ने को दिया गया यहाँ, उसमें ओशो की एक उक्ति है कि अहंकार का अस्तित्व नहीं है। जैसे अंधेरा प्रकाश की गैर-हाज़िरी है, तो आप अहंकार को क़ुर्बान नहीं कर सकते हैं। सारे बन्धन का कारण शायद अहंकार ही है। पर अहंकार को छोड़ना, जो चीज़ अस्तित्व में ही नहीं है, उसको क़ुर्बान कैसे किया जाए? उसको कैसे छोड़ा जाए?
आचार्य: रूमाल तो दिया नहीं, कह रहे हो इगो (अहंकार) एग्ज़िस्ट (अस्तित्व) नहीं करती है। जैसे कोई खाँसे बार-बार और फिर बोले, 'मैं एग्ज़िस्ट नहीं करता।'
तुम अगर नहीं हो अस्तित्वमान, अगर नहीं है तुम्हारी हस्ती और एग्ज़िस्टेंस , तो खाँस कौन रहा है? अगर इगो नहीं है तो डर कौन रहा है? अगर अहम् नहीं है तो भय, लोभ, मद-मात्सर्य, शंका किसको हैं? या इनसे भी इनकार करते हो? भय है जीवन में न?
प्र१: जी।
आचार्य तो अहम् कैसे नहीं है? या ये कहोगे कि खाँसी तो है, पर खाँसने वाला कोई नहीं?
प्र१: मैं उनकी बात कर रहा था।
आचार्य: वो उन्होंने कहा। हमें तो बड़ी विनम्रतापूर्वक वो बयान करना चाहिए जो हमारी हक़ीक़त है। हमारी हक़ीक़त तो ये है कि हमारे पास अहम् के अलावा कुछ नहीं। बुद्ध पुरुषों को कहने दो कि अहम् धोखा है और झूठ है। हम तो दिन-रात अहम् में ही जीते हैं। तो हमारे लिए तो यही वक्तव्य सार्थक है कि मुझे तो यही पता है कि अहम् है और मात्र अहम् है।
तुम (ऊपर की और इशारा करते हुए) कहोगे कि आत्मा मात्र है और आत्मा के अतिरिक्त और कोई सत्य नहीं। लेकिन, ‘हे महापुरुष! मुझे तो अभी तुम यही कहने दो कि जिधर देखता हूँ उधर बस अहम् पसरा हुआ नज़र आता है। मेरी ज़िन्दगी में तो रोग है, वहम है, मृत्यु है, भय है।’ अहम् और किसको कहते हैं? या ये कहोगे कि वहम है, पर अहम् नहीं? गड़बड़ है बात। वहम तो है, तो अहम् भी होगा।
उन ऋषियों को उच्चारित करने दो, ‘अहम् ब्रह्मस्मि।’ वो कह सकते हैं कि मैं ब्रह्म मात्र हूँ, अहम् मिट गया। अहम् है ही नहीं, बचा क्या? मात्र ब्रह्म। उनको कहने दो। तुम कहोगे तो गड़बड़ हो जाएगी।
जो जहाँ है, वहीं पर अपनी हक़ीक़त का वर्णन करे। रोगी अगर कह देगा कि मुझे रोग ही नहीं, तो उपचार कैसा फिर! रोगी तो यही बोले कि हाँ, रोग है। और रोग है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण क्या है? दुख है।
या तो ये कह दो कि दुख है ही नहीं। और अगर तुम ईमानदारी से कह सको कि दुख नहीं है, तो तत्क्षण तुम्हारा इलाज हो जाएगा। पर कह नहीं पाओगे कि दुख नहीं है। दुख तो तुम्हें अनुभव होता है। और दुख के साथ तो तुम्हारा बड़ा जुड़ाव है। जब दुख आता है तो तुम कहते हो, ‘दुख लग रहा है, दुख लग रहा है, दुख लग रहा है। मैं दुखी हूँ। मैं दुखी हूँ।’ और अगले पल बोलते हो ‘मैं ब्रह्म हूँ।’ तो कौनसा ब्रह्म है भाई जो दुखी हो जाता है!
मत बोलो कि मैं ब्रह्म हूँ। जिन्होंने कहा, उन्हें बोलने का हक़ था। हमारा अभी नहीं है।