प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कैसे पता करें कि कोई कर्म ध्यान से निकल रहा है?
आचार्य प्रशांत: जब ये जाँचने की कोई ज़रूरत ही न पड़े, कि सर्वप्रथम मैं जो कर रही हूँ वो सही है या गलत और दूसरी बात कि मुझे जो लग रहा है, जो आन्तरिक निर्देश प्राप्त हो रहे हैं, वो उससे (सत्य से) आ रहे हैं या मानसिक ही हैं। जब इन दोनों में से कोई भी बात जाँचने की ज़रूरत न पड़े, आप भूल ही जाओ जाँचना, तब समझ लेना कि आप जो कर रहे हो, वो स्वास्थ्यपूर्ण है।
और मज़ेदार बात ये है कि जब आप सब भूल ही जाओगे जाँचना, तब आप ये भी भूल जाओगे कि आपको ये जाँचना था। समझिए बात को — पूर्ण सुरक्षा तब है, जब आप भूल ही जाओ, पूर्णतया भूल गये। ऐसा नहीं कि सिर्फ़ स्मृति का लोप हुआ थोड़ी देर के लिए। भूल ही गये कि ताला लगाना होता है, पर जो भूल ही गया कि ताला लगाना होता है, वो निश्चित ही वहाँ पहुँच चुका है जहाँ उसे ताला लगाने की ज़रूरत भी नहीं है।
जब तक आप जाँच रहे हो, जब तक आप जानना चाहते हो कि उचित कर्म क्या है, तब तक उचित कर्म होगा नहीं। क्योंकि आप जिन भी पैमानों पर जाँचोगे वो पैमाने आपके होंगे। वो पैमाने आपके अनुभव से, समाज से आये होंगे, आपके अतीत से आये होंगे।
आपके पास ये जाँचने का कोई तरीका नहीं हो सकता है कि आपको कौनसा दैवीय निर्देश प्राप्त हो रहा है और वो निर्देश दैवीय है भी कि नहीं, उसका पालन करें भी कि नहीं। तो सवाल ये है कि फिर करें क्या? आप कुछ करें नहीं। जो आपके माध्यम से हो रहा है, आप बस उस पर नज़र रखें। ये नज़र बड़ी अद्भुत चीज़ होती है। जो भी नकली होता है, वो जल जाता है। उस पर नज़र डालने भर से वो जल जाता है, उसका नकलीपन सामने आ जाता है।
आपने अपने आम अनुभव में भी गौर किया होगा कि कोई यदि आपको धोखा दे रहा है, झूठ बोल रहा है और आप उससे आँख-से-आँख मिलाकर बात करें तो वो असहज हो जाता है। ये नज़र का कमाल है। पर फिर नज़र में सच्चाई होनी चाहिए। जो झूठ बोल रहा है, वो किसी ऐसे की नज़र से नहीं जल जाएगा, जो खुद झूठा है।
जब आपकी नज़रों में सच्चाई होती है, तब देखना काफी होता है। 'मैंने देखा, मैंने पूछा' और वो घटना इतनी त्वरित और सूक्ष्म होती है कि उसमें देखना और पूछना कोई सोचे, विचारे स्थूल कर्म नहीं होते हैं कि मैंने देख-देखकर, सोच-सोचकर पूछा। उसी समय ठीक तभी तत्काल जाना कि ये क्या हो रहा है। फिर यदि वो झूठा है तो अपनेआप ही नहीं होगा।
आपका काम है नकली को काटते रहना, असली अपनेआप घटित होता है। वो आपके जाँचने से नहीं जँचेगा, वो आपके बुलाने से नहीं आएगा, वो आपके करने से नहीं होगा; उसका कर्ता कोई और है, वो स्वयं करेगा। उसके करने के रास्ते में आप बाधा बनकर खड़े हो जाते हो, आप बस ये देखते रहो कि आप बाधा तो नहीं बन रहे। आप स्वयं बाधा हो, आप यदि बाधा बन रहे हो तो अपनेआप को हटा दो। आपका काम है, बस हटाते जाना; हटना-हटना, कम होना।
मुझे मालूम है इस उत्तर से सन्तुष्टि नहीं मिलती है क्योंकि इसमें कहीं भी ये निहित नहीं है कि क्या करें। और हम ये जानना चाहते हैं कि हमें बताया जाये कि क्या करें, क्योंकि हम कर्ता बने रहना चाहते हैं। मैंने बिलकुल नहीं बताया कि क्या कीजिए, मैंने बस ये कहा, 'जो कर रहे हैं, उस पर ज़रा साफ़ नज़र रखिए।' और साफ़ नज़र से मैंने ये भी नहीं कहा कि आपके माध्यम से, या आपके करने से, कोई नया, बेहतर, उचित कर्म हो जाएगा। मैंने कहा, 'आप नज़र रखोगे तो आपकी अपनी मलिनता जल जाएगी, साफ़ हो जाएगी, फिर अपनेआप कहीं से उचित कर्म आ जाएगा।'
देखिए, जब भी आपने जाँचा, आप चूक कर जाओगे। आप अभी का उदाहरण ले लो। आप से मैं कुछ बोल रहा हूँ, आपको हैरानी होगी ये जानकर कि पिछले घंटे भर में जो भी कुछ आप तक वास्तव में पहुँचा है, वो मात्र ऐसे पहुँचा है कि आपने उसे जाँचा नहीं। जाँचने का मतलब है सोचना। आप बहुत सोच नहीं पाये थे, आप साथ थे मेरे। चूँकि आप साथ थे मेरे इसीलिए कुछ आप तक पहुँच पाया। वो कभी भी आप तक पहुँच सकता है अगर आपके द्वार खुले हों। सामान्यतया बन्द होते हैं। और जिन्होंने बीच-बीच में जाँचा, जिन्होंने बीच-बीच में निर्धारित करने की कोशिश की थी कितना ठीक है, कितना गलत है या तुलना करने की कोशिश की वो पीछे रह गये, वो अपने में रह गये, उन्हें कुछ नहीं मिला।
जाँचना डर का प्रतीक है, जाँचना अविश्वास का प्रतीक है। जहाँ अविश्वास है वहाँ श्रद्धा कहाँ। परम को मत जाँचिए अपनेआप को जाँचिए, अपने पर नज़र रखिए। ये मत पूछिए कि कैसे पता करूँ कि उसका सन्देशा क्या है? कैसे पता करूँ कि उसकी सलाह मेरे लिए ठीक है या नहीं — भूलिये इस बात को। आप दिन-रात करते ही तो रहते हैं, कभी ये, कभी वो। बिना करें तो रहते नहीं। उस करनी पर ध्यान दीजिए।
प्र: लेकिन सर जो हम एक्टिविटीज कर रहे हैं वो हमारा हृदय बोल रहा है, मानसिक जो अवस्था वो बोल रही है कि वो चीज़ सही है। लेकिन हम सोसाइटी में रहते हैं, सामाजिक दायरे में रहते हैं, लॉ रूल्स ( कानूनी नियम) के अन्दर रहते हैं। जहाँ ये फ्रेम बना दिया जाता है कि ये रूल-रेगुलेशन हैं जिसमें आपको रहना हैं। और कहीं-न-कहीं आपका हृदय या मानसिक अवस्था वो बोले कि नहीं ये गलत है कि मुझे हीलिंग या हैप्पीनेस प्रोवाइड नहीं कर रहे हैं। तो अगर वहाँ पर वो टकराव होता है उन दोनों के बीच में तो आपको क्या लगता है कि वो जो हेल्दी लाइफ़ हम समझ रहे थे, उसमें कहीं-न-कहीं उसमें टकराव कर रहे हैं, उस चीज़ को हम रिस्ट्रिक्ट (प्रतिबन्धित) कर रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: देखिए, अगर एक तरफ़ हृदय है और दूसरी तरफ़ समाज, तो आप उस टकराव की परवाह कीजिए ही मत, उस टकराव का अन्त पूर्व निर्धारित है। वो एक ऐसा युद्ध है जिसमें एक ही पक्ष का जीतना नियत है, दूसरा जीत ही नहीं सकता। आप क्यों हैरान हो रहे हो। हाथी और चीटीं अखाड़े में आमने-सामने और आपको हैरानी ये कि हाथी की मदद कैसे की जाये। अरे! वो हाथी है, वो कर लेगा अपनी मदद। नहीं, हाथी की मदद करने के फेर में हम उसे बेड़ियाँ और पहना देते हैं।
आपको बिलकुल निर्धारित करने की ज़रूरत नहीं है कि जब सत्य और संसार आमने-सामने खड़े हों तो आपको किधर को जाना हैं। सत्य जीत लेगा उसे आपकी मदद नहीं चाहिए, वो स्वयं जीतेगा। वो हारता सिर्फ़ एक स्थिति में है, जब आप जीतना न चाहें। वो आपकी बड़ी इज़्ज़त करता है क्योंकि आप हैं वही उसमें और आपमें मूलत: कोई भेद नहीं हैं। जब आपने ही तय कर रखा हो कि आपको हारना है, तब सत्य कहता है, 'ठीक है, जैसे तुम्हारी मर्ज़ी।'
आप न हारने की सोचें, न जीतने की सोचें, सत्य का काम है जीतना। सत्य के अलावा कुछ है ही नहीं तो हारेगा कैसे? हाँ, आप बोल देंगे कि नहीं, अभी सत्य चाहिए नहीं हमें तो वो कहेगा, ठीक। पूर्णतया मुक्त हो तुम, मुक्ति स्वभाव है तुम्हारा। तो तुम इसके लिए भी मुक्त हो कि सत्य को अनादरित कर दो, कि सत्य से दूरी बनाकर रहो। रहो जितनी दूर तक रहना चाहते हो। जितनी दूरी बनाओगे, उतना मेरे लिए तड़पोगे। तो मेरी हार में भी मेरी जीत है। जितनी मुझसे दूरी बनाओगे उतना तुम्हारा जीवन प्यास से भर जाएगा, उतना ज़्यादा विक्षिप्त होकर घूमोगे। मेरा ही नाम रटोगे, मेरी हार में भी मेरी जीत है।
तो अगर तुम अभी नहीं जीतना चाहते तो ठीक है, मैं पीछे हट जाता हूँ। चीटीं जीती, चीटीं जीती। जब वो क्षण आएगा न, जब फैसला होना होगा, सेनाएँ सामने खड़ी होंगी, दिल और दिमाग की मुठभेड़ होगी, तब चुपचाप होने दीजिएगा जो हो रहा है, और आप देखेंगे कि दिल यूँ जीता। आप बीच में मत आ जाइएगा, आप डर हैं, आप विचार हैं, आप कल्पना हैं, आप सुरक्षा की कोशिश हैं। आप बीच में आएँगे, हाथी पीछे हट जाएगा, वो आपका सम्मान करता है। वो कहेगा, 'ठीक है, फिलहाल के लिए चीटीं को ही विजय घोषित करो।' आप बीच में मत आइएगा, होने दीजिएगा जो हो।
प्र सर ऐसा क्यों लगता है कि हम जीतने के लायक नहीं है।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि आप है ही नहीं। सही ही लगता है। गलत क्या लगता है? अब जो जीतने के लायक नहीं है उससे यारी क्यों कर रखी है? जो इतना ग्रहित है उससे जुड़े क्यों बैठे हैं? वो जो है, जिसका स्वभाव है पराजय, आपने उससे तादात्म्य क्यों बना रखा है? यदि सत्य सदा जीतता है तो झूठ सदा हारता है। ठीक?
आप झूठों से क्यों रिश्ते बनाये बैठे हैं? आपने क्यों उनको अपने नाम में, अपने दिमाग में, अपने जीवन में शुमार कर रखा है? जो झूठ से इतना सम्बद्ध हो, वो तो निश्चित रूप से हार को ही अंगीकार कर रहा है। जिसे सत्य मिल जाता है वो झूठ के पास थोड़े ही लौट-लौट, लौट-लौट जाता है।
हम सवाल अक्सर ऐसे करते हैं, जैसे सत्य कोई कितने दूर की बात हो। कहते भी हैं न, ' बियोंड (पार)' ये अच्छा भ्रम है, सही बहाना है। ये नहीं दिखाई पड़ता कि समय भी उसका है, संसार भी उसका है, आकाश भी उसका है, सबकुछ उसका है, वो निरन्तर आपके सामने आ ही रहा है। अब मैं आपसे बात कर रहा हूँ, आप इधर (आकाश की ओर इंगित करते हुए) देख रहे हैं, कहीं आकाश में बैठा है, आकाश में नहीं बैठा है। पर ये अच्छा बहाना है, सामने जो बैठा है उससे मुँह चुराने के लिए आकाश की ओर देखो। सत्य सामने बैठा हो ध्यान मत दो, जब सत्य की बात हो तो ऊपर देखना शुरू कर दो।
अरे! वो ऊपर से आएगा क्या? कोई कौआ उड़ रहा होगा, बीट गिर जाएगी, इतना मत देखो ऊपर।
सामने वाला है उसको किसी तरीके से बाधित कर दो, उसको रोक दो, वो न पहुँच पाये तुम तक। उसके लिए हृदय मत खोलना, वहाँ से तो भाग-भाग जाना, नदारद रहना बिलकुल और फिर पूछना कि हम नालायक क्यों हैं।
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