तुम्हारा भी मन बहुत भटकता है? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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तुम्हारा भी मन बहुत भटकता है? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा मन बहुत भटकता है और जब भी मन को एकाग्र करने की कोशिश करता हूँ, तो एकाग्र नहीं हो पाता। तो ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए आचार्य जी?

आचार्य प्रशांत: मैं तुम्हें बता दूँ कि मन को कैसे एकाग्र करते हैं ताकि तुम इसको बिलकुल बढ़िया वाली जगह पर एकाग्र कर दो, है न? क्या इरादें हैं भाई‌‌? कि जैसे कोई कसाई मुझसे आकर के पूछे कि ये मेरे बकरे भागते बहुत हैं इधर-उधर और मैं उसको बता दूँ कि कैसे वो न भागें ताकि वो..

श्रोतागण: काट सके।

आचार्य: भली बात है कि मन भाग जाता है, नहीं भागेगा तो तुम करोगे क्या उसका? कहाँ एकाग्र करने वाले हो ये तो बताओ। तुम्हें एकाग्रता तो चाहिए और बहुत दुकानों पर एकाग्रता बिक रही है। बताया जा रहा है कंसंट्रेट (ध्यान केंद्रित करना) कैसे करना है, पर कहाँ कंसंट्रेट करोगे? पहले मुझे ये बताओ। अपने सड़े हुए दफ्तर में बैठे हो, जहाँ सड़ा हुआ काम है, वहाँ से मन भाग रहा है, ये तो भली बात है कि भाग रहा है।

मन भाग करके तुमको यही बता रहा है कि जहाँ बैठ गये हो वहाँ नहीं बैठना चाहिए और ज़िन्दगी में जो भी कुछ कर रहे हो वो इस लायक नहीं है कि तुम्हें शान्ति दे सके। तो मन वहाँ से भागता है। मन को एक बार वो तो देकर देखो न जो मन को चाहिए। फिर मुझे बताना कि मन भागा क्या।

जिनका मन एकाग्र नहीं हो पाता, वो भले हैं उनसे जिनका मन एकाग्र हो पाता है। अपने बच्चों को कंसंट्रेशन सिखा मत देना। देखना कि लोग कहाँ-कहाँ मन को एकाग्र कर लेते हैं। दुनिया के बड़े-से-बड़े पाप हो रहे हैं एकाग्रता से। सब बड़े अपराधियों को देखना, उन्होंने बहुत एकाग्र होकर अपराध किये। और दुर्भाग्य की बात ये है कि देखोगे तो अपराध ही ज्यादा पाओगे।

सत्कार्य करने के लिए एकाग्रता नहीं एकनिष्ठा चाहिए और इन दोनों में बहुत अन्तर है। सही जीवन एकाग्रता से नहीं आता। एकाग्रता और एकनिष्ठा में अन्तर क्या होता है? एकाग्रता में विषय तुम चुनते हो। तुम चुनते हो कि अब मुझे ज़रा एकाग्र हो जाना है, जैसे अपने बच्चों को बताते हो न कि बेटा, अब एकाग्र हो करके ज़रा इतिहास पढ़ो। और एकनिष्ठा में तुम चुनने का अधिकार त्याग देते हो, वो एकनिष्ठा है।

मन तुम्हारा इधर-उधर भागता ही इसीलिए है क्योंकि तुम उसे सही जगह नहीं दे रहे। और मन बहुत जिद्दी है, उसे सही जगह नहीं दोगे तो वो तो भागेगा। तुम बहुत ज़बरदस्ती करोगे उसके साथ, तो वो कहेगा, ‘ ठीक है, अभी कर लो ज़बरदस्ती, हम मौका देखकर भागेंगे। अभी नहीं भागेंगे तो सपनों में भागेंगे।’ तो जो लोग अपने जीवन को बड़ा संयमित कर लेते हैं, बड़ा अनुशासित कर लेते हैं, उनका मन मौका देख करके फिर सपनों में और ढ़ील के क्षणों में बंधन तोड़-तोड़कर भागता है फिर। तुम्हें किसी को बंधक बनाकर रखना है, हिंसा करनी है या उसे प्रेम पूर्वक शान्ति दे देनी है? बोलो, क्या करना चाहते हो? बच्चा है तुम्हारा ,वो भागता है। अरे भाई, तो तुम देखो कि कैसे अभिभावक हो तुम। उसको वो दो न जो उसे तृप्त कर देगा।

प्र: आचार्य जी, बच्चों के प्रति सख्ती ना रखी जाए तो समाज उन्हें भला बुरा कहता है और हमारी परवरिश पर सवाल उठाता है। ऐसे में क्या करना चाहिए?

आचार्य: बच्चा थोड़ी है, पब्लिक प्रॉपर्टी (सार्वजनिक संपत्ति) है। दुनिया के लिए पैदा किया था। पैदा करते ही न्यौछावर कर दिया था दुनिया को। ये बालक मैंने विश्व कल्याण हेतु अभी-अभी ताजा पैदा किया है। अब ये विश्व को समर्पित है। सीधे क्यों नहीं बोलते कि बहुत डरते हो। डर का इलाज करो ना अपने, बच्चे की काहे जान ले रहे हो? दुनिया से इतना खौफ़ खाते हो और वही खौफ़ बच्चे में घुसेड़ रहे हो। और वो भाग रहा है इधर-उधर… एकाग्रता के पीछे लालच होता है। एकाग्रता के पीछे ड़र होता है। एकनिष्ठा में प्रेम होता है। मैंकॉलेजी लड़कों से बात करता था तो मैं पूछता था कि अगर ये बंदूक हो और ऐसे दिखाऊं तो तुरंत एकाग्र हो जाओगे या नहीं? बोलते थे, ‘हो जाएँगे।’अभी बंदूक दिखा दी जाये तो बिलकुल चित्त स्थिर हो जाएगा। सब विचार-विचार ‌आने बंद हो जाएँगे। समाधि लग गयी एकदम अब। योगस्थ हो गये हैं। तुम्हें तो बंदूक वाला योग चाहिए। और ये भय वाला योग है,एकाग्रयोग।

वैसे ही एक दूसरा होता है। अभी यहाँ पीछे, ना राम हों, ना कृष्ण हों, ना बुद्ध हों, मैंने पूछा एक बार लड़कों से, मैंने कहा, ‘यहाँ मैं कोलाज (संग्रह) लगा दूँ तस्वीरों का और वो सारी तस्वीरें देवी-देवताओं, महात्माओं, संतों की हों और बीच में उसमें एक नग्न स्त्री की छोटी-सी तस्वीर हो,कोलाज है, एकाग्र हो जाओगे या नहीं? बोले, ‘टेलेस्कोप लेकर हो जाएँगे पर हो जरूर जाएँगे।’ ये लोभ वाला चित्त है, एकाग्र। या तो तुम इससे (बंदूक से) एकाग्र हो सकते हो या यहाँ पर (पीछे दीवार पर) कुछ लोभ, लोभित करने वाली वस्तु मिलती हो, उससे एकाग्र हो सकते हो। ऐसी होती है एकाग्रता। और किसी तीसरी प्रकार की होती हो तो बताओ।

एकाग्रता सदा अहम् को बल देती है क्योंकि एकाग्र करने वाली वस्तु या तो तुम्हें प्रिय होती है या अप्रिय होती है। प्रिय होती है तो उसकी तरफ एकाग्र होते हो, अप्रिय होती है तो उसके विरुद्ध एकाग्र होते हो। एकाग्रता का अहम् से लेना देना है, अध्यात्म से नहीं। अध्यात्म तुम्हें नहीं सिखाता एकाग्रता। एकाग्रता का तो मतलब होता है कि अहम् अब और ठोस पिंड हो गया। बिखरा हुआ जो अमॉर्फस (अनाकार) अहम् था वो अब और ज्यादा एक पिंड हो गया, एक जान हो गया, ठोस हो गया, क्रिस्टलाइज हो गया। और अध्यात्म है उस पिंड का घुल जाना।

अभी मुझे सुन रहे हो, क्या एकाग्र हो? नहीं। अभी तुम जो हो वो एकनिष्ठा कहलाती है। विचार और विचलन एकाग्रता में भी नहीं पता चलते, एकनिष्ठा में भी नहीं। पर दोनों में आयामगत अंतर है। अभी भी तुम में से बहुत होंगे जिनके विचार इधर-उधर नहीं भाग रहे होंगे पर विचारों के विचलित न होने का कारण एकाग्रता नहीं है, ध्यान है। यूँ ही बैठे हो। भय या लोभ से संबंधित कोई कारण नहीं है, अकारण बैठे हो। जीवन में कुछ ऐसा लेकर के आओ जहाँ एकाग्रता की जरूरत न पड़े।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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