एवं बुद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।३.४३।।
इस प्रकार हे महाबाहो अर्जुन! अपने आप को भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जानकर और मन को निश्चयात्मिका बुद्धि की सहायता से स्थिर करके इस काम-रूपी दुर्जय शत्रु को जीतो।
~श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ४३
आचार्य प्रशांत: ‘संस्तभ्यात्मानमात्मना’—कहीं-कहीं पर आपको इसका अनुवाद मिलेगा कि आत्मा के द्वारा मन को स्थिर या स्तम्भित करो, अर्जुन। अब आत्मा के द्वारा, माने जैसे आत्मा का उपकरण की तरह उपयोग किया जा रहा हो, कि जैसे ‘हाथों के द्वारा इस मग को उठाओ’, तो हाथ फिर क्या हो गये?
श्रोता: उपकरण।
आचार्य: है न! तो कह रहे हैं, ‘आत्मा के द्वारा मन को स्थिर करो।’ आत्मा का इस्तेमाल करने वाला कौन है? मैं कहूँ, ‘हाथों के द्वारा मैं इसको (मग को) उठा रहा हूँ’, तो मैं हूँ, ये मेरे हाथ हैं और उसके द्वारा इसको उठा रहा हूँ। बोले, ‘आत्मा के द्वारा मन को स्थिर करो, अर्जुन।’ ये बिलकुल गलत इसका अनुवाद है। ऐसा इससे कोई आशय नहीं है।
आत्मा और मन की बात नहीं हो रही है। डोलता अहम् है। अहम् चूँकि डोलता रहता है तो इसलिए मन में तो कूद-फाँद मची ही रहेगी। मन क्या है? अहम् के आसपास का पूरा क्षेत्र। अहम् क्या है? मन का केन्द्र। जब केन्द्र ही कूद-फाँद कर रहा हो, तो क्षेत्र का क्या होगा?
ये (एक कपड़े को पकड़कर इसके बीचोबीच इशारा करते हुए) इसका क्या है? ये क्या है?
श्रोता: केन्द्र।
आचार्य प्रशांत: ठीक है? न हवा चल रही है, न आप में से कोई आकर के इसको हिला-डुला रहा है। बस एक छोटी सी बात हो रही है, ये जो केन्द्र है..., ‘अरे, यहाँ कुछ मिल जाएगा क्या? सेल (बिक्री) लगी है क्या कुछ चश्मे पर? अच्छा, ये क्या है? माइक, मुझे भी आचार्य बनना है। और, ये क्या है? कलम, अभी, अभी किताब लिखूँगा, लेखक बनूँगा। और ये क्या है? बढ़िया इसने कपड़े पहन रखे हैं, बताना भाई, कहाँ से लाये?’
अब ये (केन्द्र) कूद मचा रहा है, तो इसका (पूरे कपड़े का) क्या हो रहा है? ये भी जहाँ-जहाँ ये (केन्द्र) जा रहा है वहाँ पर ये (कपड़ा) भी परेशान है। तो मन में अगर चंचलता रहती है और मन में बड़ा डोलाडोल रहता है, तो उसका कारण ये है कि मन का केन्द्र हमारा स्थिर नहीं है। और मन के केन्द्र का क्या नाम है? अहंकार। आत्मा के द्वारा कुछ नहीं किया जाता।
आत्मा माध्यम थोड़े ही है भाई, आत्मा साधन थोड़े ही है भाई। आत्मा क्या है? अन्त है और साध्य है। तो आत्मा के द्वारा थोड़ी कुछ करोगे। आत्मा करछुल थोड़ी है कि करछुल के द्वारा सब्जी को पकायें। आत्मा करण-उपकरण थोड़ी है। तो आत्मा के द्वारा मन को शान्त करने की बात नहीं है। आत्मज्ञान के द्वारा अहंकार को शान्त करो, स्थिर करो, अर्जुन। और फिर पाओगे कि मन का मौसम अपनेआप ठीक हो गया है।
मन की परवाह बहुत नहीं करनी चाहिए। हम ज़्यादा बातें मन के सन्दर्भ में करते रहते हैं। माइंड, माइंड, माइंड, माइंड, माइंड। और जो आधुनिक आध्यात्मिक साहित्य है वो तो पूरा बस ‘माइंड, माइंड’ यही बात करता रहता है, ‘द माइंड, माइंड, माइंड।’ अब माइंड क्या है? अहंकार की छाया। मैं जाऊँ किसी चिकित्सक के पास और उसको अपनी छाया दिखाऊँ और कहूँ, ‘देखिए वो जो छाया है, छाया को देखिए, उसका घुटना सूझा हुआ है और ज़रा उसकी मरहम पट्टी कर दीजिए।’
अरे भाई, छाया तो वैसी ही होगी जैसे तुम हो। तो मन तो वैसा ही होगा जैसा अहम् है। मन वैसा ही होगा जैसा अहम् है। तो ये मत बोला करो, ‘आज मन परेशान है।’ मन कुछ नहीं होता। जैसा अहम् होता है वैसा मन होता है। अभी कुछ दिन पहले हम बात कर रहे थे न, कि मन यदि व्यथित है तो कारण एक ही है कि अहम् विस्थापित है। अहम् अपने केन्द्र से हिला-डुला है, विस्थापन हो चुका है उसका, अपने आसन पर नहीं है अहम्। और जब अहम् विस्थापित होगा, तो मन विक्षिप्त होगा, विचलित होगा, व्यथित होगा। समझ में आ रही है बात आपको?
तो मन की बात करने से लाभ नहीं है। अहम् की बात करनी होगी। पर अहम् स्वयं ही अपनी बात करना नहीं चाहता। वो कहता है, ‘मेरी हालत कैसी भी रहे, मन ठीक कर दो।’ मेरी हालत कैसी भी रहे, मन ठीक कर दो। आपने किसी को कहते सुना है? — ‘मैं ठीक होना चाहता हूँ, मुझे ठीक कर दो।’
आपने लोगों को कहते सुना होगा, ‘मेरा मूड (मनोदशा) ठीक कर दो या मेरा माइंड (मन) ठीक कर दो।’ मूड और माइंड, मन और माहौल, ये हम ठीक करना चाहते हैं और ‘मैं’ को ठीक?
श्रोता: करते नहीं।
आचार्य: तो मैं आपको एक बात बिलकुल भरोसे के साथ बोल देता हूँ, ‘जब तक ‘मैं’ ठीक नहीं होगा, न मन ठीक होगा न उसका माहौल ठीक होगा, न मूड न माइंड। कुछ ठीक नहीं हो सकता।’
और जिन लोगों के मन में समस्याएँ चलती रहती हों, चाहे वो छोटी समस्याएँ हों चाहे वो मनोरोग हों, वो अच्छे से समझ लें कि कहीं-न-कहीं कारण ये है कि ‘मैं’ अपनेआप को लेकर अज्ञान में है। आत्म-अज्ञान ही मन की तमाम परेशानियों का कारण होता है। ‘मैं’ जब स्वयं को लेकर अज्ञान में रहेगा, तो ‘मैं’ क्या करेगा?
हाँ, ये (कपड़े का केन्द्र दिखाते हुए) है, ये कौन है? माने इसका क्या नाम? ‘मैं’। अब ये खुद को नहीं जानता, लेकिन इसको एक तकलीफ़ का अनुभव होता रहता है। कुछ ठीक नहीं है, कुछ तो गड़बड़ है, कुछ तो गड़बड़ है, कुछ ठीक है नहीं, कहीं कोई समस्या है ज़रूर। कभी इसे लगता है कि कहीं कुछ ज़्यादा है, उसको हटाना है। कभी लगता है कि कम है, उसको बढ़ाना है। ये सब इसको अपना...। समझ में आ रही है बात?
लेकिन ये जानता तो कुछ है नहीं, और अपने आसपास इसने ये क्या निर्मित कर रखा है पूरा? मन। इस मन में क्या-क्या होता है? इस मन में क्या-क्या होता है? आपका पूरा ब्रह्मांड। आपका पूरा व्यक्तिगत विश्व है ये, सबकुछ है इसमें, आपके रिश्ते, आपके नाते, आपका अतीत, आपकी कामनाएँ, आपका ये रह गया, आपको कहीं चोट लग गयी, आपको कहीं खुशियाँ मिलीं, आपको पचास तरीके की आशाएँ हैं, आपके दोस्त हैं, आपका ज्ञान है बहुत सारा, आपने किताबें पढ़ी हुई हैं, वो सारी सामग्री कहाँ है? वो ये रहीं।
लेकिन ये भाई (केन्द्र/’मैं’) क्या है? इसे अपना कुछ पता नहीं। अपना कुछ पता नहीं, लेकिन बदहज़मी इसको हमेशा रहती है, गुड़-गुड़, गुड़-गुड़ पेट में हो रही है। क्यों हो रही है? कुछ पता नहीं। तो ये क्या करेगा? अब ये जाएगा चाय पीने। कहे, ‘कौनसी चाय है?’ पियेगा, फिर बोलेगा, ‘अरे, भैंसिया के दूध की नहीं है, मज़ा नहीं आया।’
पता कुछ था नहीं कि क्या चाहिए, चाय दिख गई संयोग की बात, तो चाय में घुस गया। चाय में घुस गया, नतीजा क्या हुआ? इस पर (कपड़े पर) क्या हो गया अब? चाय के दाग लग गये। इसकी (केन्द्र/’मैं’ की) मूर्खता से ये (कपड़ा/मन) दागदार हो गया। इस पर (कपड़े/मन पर) पहले ही इतनी सारी चीज़ें थीं। तुम्हारा पूरा ब्रह्मांड इसमें घुसा हुआ है, इसमें अब एक चीज़ और घुस गयी, क्या? चाय। ये फिर चले, इन्हें कुछ पता तो है नहीं अपना, रोते-कलपते।
‘हाँ, ये दीदी जी बैठी हुई हैं। इनका चश्मा बड़ा मज़ेदार है।’ और जाकर उनका चश्मा किसी तरीके से कुछ जुगाड़ करके या कुछ भी करके उठा लाये। अब इन्हें अपना तो पता है नहीं कि इनकी आँख में समस्या है भी कि नहीं है। चश्मा ले आये हैं, तो चश्मा लगा लिया। आँख में समस्या है कि नहीं है, कि कितने पॉवर का लगेगा, कौनसा लेन्स लगेगा, कुछ पता नहीं। पर चश्मा देखा, बोले, ‘दीदी बड़ी बढ़िया लग रही हैं चश्मे में।’ अपना भी इन्होंने..., (कपड़े के केन्द्र के ऊपर चश्मा लगाते हुए) ये दीदी का चश्मा लगा लिया इसने। ये लग गया चश्मा, अब ये है चश्मा। इसमें (कपड़े/मन में) और क्या जुड़ गया?
श्रोता: चश्मा।
आचार्य: अभी थोड़ी देर पहले क्या जुड़ा था? अब ये चश्मा लगाने से क्या होगा? और कुछ नहीं दिखाई देगा। (कपड़े को मेज़ पर गिराते हुए) भड़ाम! दिख तो कुछ रहा नहीं था। कहीं जाकर पट से गिर गये। अब गिर गये तो क्या होगा? ‘अरे, चोट लग गयी है।’ अब गये इनके (भजन टीम के एक सदस्य की ओर इशारा करते हुए) पास, ये डॉक्टर हैं। ये डॉक्टर हैं, ये देखें। ‘अरे! डॉक्टर साहब, क्या बात है! क्या बढ़िया! ये क्या बजा रहे हो?’ बोले, ‘हमें भी सीखना है, हमें भी सीखना है, हम भी बजाएँगे।’
अब इसमें (कपड़े/मन में) और क्या जुड़ गया? क्या जुड़ गया? वो जुड़ गया इनका कीबोर्ड। लेना एक न देना दो। वो वहाँ पर गा रहे हैं सन्तवाणी, इनको लगा काम कीबोर्ड का है सारा, तो अब ये कीबोर्ड लेकर बैठ गये। इतने लोग देखा नहीं गिटार बजाते हैं जवान लोग सब। सबके पास एक गिटार होता है। ऐसा ही होता है। लुढकते-पुढकते कहीं पहुँच गये, वहाँ गिटार देखा, बोले, ‘हम भी बजाएँगे।’
अब ये गये थे डॉक्टर के पास और उठा क्या लाये? गिटार। डॉक्टर से क्या मिला? गिटार। अब ये जाकर ऐसे...क्या कर रहे? कीबोर्ड बजा रहे। कीबोर्ड बजा रहे। अब इनके ही जैसी इनको एक और मिल गयी। वो भी ऐसे ही खोज रही थी चश्मा लगाकर, मान लो ये (एक स्वयंसेविका की ओर इशारा करते हुए) बैठी हैं। अब इन्होंने यहाँ गिटार बजाया तो वही हुआ जो गिटार बजाने पर होता है जवान आदमी द्वारा। तो ये क्या बोलीं? ‘वाह! क्या गिटार बजाया!’ एक रूमाल और चाहिए। मान लो ये (दूसरे हाथ की ऊँगली दिखाते हुए) है, रुमाल की आप कल्पना कर लेना। तो अब क्या होगा? (दोनों को नचाते हुए मिलाते हैं) ये लो, अब इधर भी चश्मा, उधर भी चश्मा, दिख दोनों को कुछ नहीं रहा है। पर मधुर मिलन हो गया हो गया। हो गया, अब उसमें से और पचास तरह की चीज़ें निकलेंगी।
(एक स्वयंसेवक कोई दूसरा कपड़ा आचार्य जी को देने को आगे बढ़ाते हैं) ये तुम मास्क दे रहे हो क्या चश्मे..? ठीक है, समझ गये लोग, समझ गये। समझदार को इशारा काफ़ी होता है। तो उँगली से समझ जाओ मामला सारा।
आप बात समझ रहे हैं? और हम बात क्या करते रहते हैं? ‘अरे, मन खराब है।’ क्या खराब है? मन नहीं खराब है, ये (कपड़े के केन्द्र की ओर इशारा करते हुए) ‘मैं’ खराब है। मन नहीं खराब है, ‘मैं’ खराब है, ‘मैं’। और वो मन को हर तरीके से गन्दा करता है। अब ये ले जाकर पता नहीं कौनसे नाले में डाल दे, क्योंकि इसको किसी ने बता दिया कि नाला नहाए तीर्थ होता है। वो एक कौआ बिरयानी वाली पिक्चर किसने देखी है? (श्रोताओं में हँसी)
वो उसको बोल दिया कि यहाँ नहा लो, ये छोटी गंगा है। और वो गया पूरी जान से भड़ाम से कूदा उसमें। और फिर बाहर निकलता है ऐसे (हाथ से चेहरा पोंछते हुए) करके। बोलता है, ‘छोटी गंगा बोलकर सारा नाले में डाल दिया।’ तो अभी तो ये जो... तो फिर इसीलिए सन्तों ने कहा, “मैली चादर ओढ के कैसे...।” चादर मैली कैसे होती है, समझ में आ रही है बात? समझ में आ रही है?
“लागा चुनरी में दाग”—चुनरी में दाग कैसे लगता है, समझ में आ रहा है? ये (केन्द्र/‘मैं’) पगला है, ये चुनरी को ले जाकर कहीं भी डाल देता है और ये (कपड़ा/मन) फिर मैली होती जाती है, होती जाती है, होती जाती है। इतनी मैली हो जाती है कि फिर इसमें कोई साबुन लगाओ, कोई पानी लगाओ, कुछ नहीं होता। तो श्रीकृष्ण मन की सफ़ाई करने को नहीं कह रहे हैं। किसकी सफ़ाई करने को बोल रहे हैं? ‘मैं’ की।
आत्मज्ञान माने ‘मन को जानना’ नहीं होता। आत्मज्ञान माने ‘मैं’ को जानना। मन का सुधार अपनेआप हो जाता है। मन में कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो स्वायत्त हो, सम्प्रभु हो। मन के पास अपनी कोई, हाँ, स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती है। मन में मेरे..., कोई बात बताओ जो आमतौर पर मन में चलती है।
श्रोता: चाय।
आचार्य: हाँ, चाय। तो मन में चाय क्यों चल रही है? क्योंकि ‘मैं’ क्या बना बैठा है? मैं भूखा हूँ, मैं प्यासा हूँ। तो मन में क्या चल रहा है? अब जब तक ‘मैं’ कह रहा है कि मैं भूखा प्यासा हूँ, तो मन में तो चाय?
श्रोता: चलेगी ही चलेगी।
आचार्य: ‘मैं’ को बदले बिना मन को बदल सकते हो? और क्या चलता रहता है मन में? मन में चल रहा है, चल रहा है, चल रहा है, चल रहा है, और मन से वो चीज़ हटाना चाहते हो। सब कहते हैं, ‘मेरे मन में फलानी चीज़ें हैं, हटानी हैं, हटानी हैं। मन में ये आ गया, अरे! कैसे हटाऊँ, मन से कैसे निकालूँ?’ मन में क्या चलता रहता है?
श्रोता: पैसा, घर।
आचार्य: हाँ, पैसा चलता रहता है। अब ‘मैं’ क्या बना बैठा है? गरीब हूँ, मैं गरीब हूँ। जब तक तुम—गरीब माने अपूर्ण, दरिद्र माने जिसके पास पूरा नहीं। जिसके पास पूरा नहीं वही गरीब है। गरीब का ये थोड़ी मतलब है कि तुम्हारे पास कितना है। जो कहे कि मेरे पास पूरा नहीं है वो गरीब हो गया। ठीक है?
जब तक तुम्हारा अपनेआप को लेकर के भाव ये है कि मैं गरीब हूँ, तो मन में क्या रहेगा? पैसा, पैसा, पैसा, पैसा, पैसा। अब तुम मन से पैसा निकाल सकते हो क्या बिना इस ‘मैं’ को बदले? क्या मन से पैसा हटा पाओगे बिना इस ‘मैं’ को बदले? लेकिन हम कोशिश में क्या रहते हैं? मन बदल दें और ‘मैं’ को ध्यान न देना पड़े। ये कोशिश ही किसकी है? ‘मैं’ की। मन के पास कोई—ये कोशिश ही किसकी है? ‘मैं’ की। वो अपने को बदलने के अलावा सब बदलने को तैयार है।
वो बाहर की दुनिया तो बदलने को ही तैयार है, वो भीतर की दुनिया माने, भीतर की दुनिया माने मन, ये जो भीतर की दुनिया है वो इसको भी बदलने को तैयार है। बस वो किसको नहीं बदलने को तैयार है? स्वयं को।
आपके मन में क्या चल रहा है, इससे बस ये पता चलता है कि आप क्या बने बैठे हो। आप अगर मक्खी बने बैठे हो, तो मन में गुड़-शक्कर न चल रहा हो ऐसा नहीं होगा।
अब आप कहो, ‘गुड़-शक्कर बाहर फेंक दो।’ कैसे फेंक दोगे?
आप मक्खी हो, गुड़ शक्कर कैसे फेंक दोगे? और गुड़-शक्कर बाहर फेंक दिया तो आप भी बाहर चले जाओगे, क्योंकि आप मक्खी हो। यहाँ पर गुड़ रखा हुआ था, मक्खी कहाँ थी? यहाँ थी। मैंने गुड़ बाहर फेंक दिया, मक्खी कहाँ है? मक्खी बाहर है। मन से कोई चीज़ बाहर फेंकोगे तो मन बाहर चला जाएगा। मन से कुछ बाहर मत फेंको। देखो, मन के अन्दर एकदम केन्द्र पर कौन बैठा है।
‘अरे, मेरे मन में वासना का बहुत खयाल आता है। महिलाएँ ही महिलाएँ घूम रही हैं। सबको बाहर निकालो, डंडा मारो, घुसी पड़ी हैं।’ तुम कौन हो? तुम पुरुष हो। जब तक तुम पुरुष हो, वो सब की सब तो आएँगी न। और उनको तुम बाहर निकालोगे तो वो जहाँ भी गईं हैं, तुम उनके पीछे-पीछे वहीं चले जाओगे। वो कह रहे, ‘हम ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे, सबको निकाल दो।’
निकाल दिया। अब कोई भी नहीं है। तुम भी नहीं हो। बोले, ‘सबको तो, यहाँ पर पहले एक पुरुष था, आठ महिलाएँ थीं, आठों महिलाएँ निकाल दीं?’ हाँ, आठों महिलाएँ तो नहीं दिख रही हैं, पर वो पुरुष भी नहीं दिख रहा। वो कहाँ गया? वो आठों के पीछे गया और कहाँ गया। वो यहाँ क्या करेगा? समझ में आ रही है बात ये?
आत्मज्ञान का मतलब क्या है? ‘मैं’ को बदलने का एकमात्र तरीका। और कोई तरीका नहीं है ‘मैं’ को बदलने का। बस ये जानना पड़ेगा कि उसका हाल क्या है। और कैसे जाना जाता है कि उसका हाल क्या है? उसकी हरकतें देखकर। लिख लो सूत्र, ‘हाल जानना हो तो हरकत पकड़ो।’ हाल जानना हो तो हरकत पकड़ लो। यही आत्मज्ञान है। याद रखो सूत्र। सिर्फ़ गति ही पकड़ी जा सकती है। जो स्थिर हो उसका संज्ञान नहीं लिया जा सकता। इसलिए आत्मा अज्ञेय होती है क्योंकि आत्मा गति नहीं करती। अहम् की गति कहलाती है भाव, विचार और कर्म।
अहम् की गति कहलाती है भाव, विचार और कर्म। और मात्र गति के ही द्वारा किसी भी इकाई का संज्ञान लिया जा सकता है। जो गतिशील न हो आप उसको कॉग्नाइज़ (जान) नहीं कर सकते। जाना ही जाता है बस बदलाव को देखकर। जिसमें कुछ बदल न रहा हो उसको जानना असम्भव है। आसमान बिलकुल एक जैसा हो, बिलकुल एक जैसा हो, कोई बादल न हो, कोई तारा न हो, आप यहाँ से आसमान को देख रहे हैं और आपको हज़ार मील दूर ले जाया जाए, क्या आप बता पाओगे कि हज़ार मील दूर आ गये?
नहीं बता पाओगे क्योंकि आप अगर सिर्फ़ ऊपर देख रहे हो, दिखाई देगा कि ऊपर तो पहले जैसा था वैसा ही अभी भी है। आपको कुछ पता ही नहीं चलेगा कि क्या बदल गया। जो बदल रहा हो सिर्फ़ उसको जाना जा सकता है। जो एकदम न बदल रहा हो, जो निरन्तर हो, उसको जानने का कोई तरीका नहीं हो सकता। मैं हूँ, यहाँ बैठा हूँ। आप मुझे सिर्फ़ इसलिए जान पा रहे हो क्योंकि इस जगह पर ये देह बदल कर कुर्सी हो जाती है। एक सीमा खिंच जाती है, एक बदलाव आ जाता है यहाँ पर। यहाँ पर एक बदलाव आता है, एक ट्रांज़िशन (संक्रमण)। आप सिर्फ़ इसलिए मुझे जान पा रहे हो।
अगर मैं अनन्त हो जाऊँ, वहाँ (एक छोर) से लेकर वहाँ (दूसरे छोर) तक, तो आप कह ही नहीं पाओगे कि मैं यहाँ पर हूँ। मैं यहाँ इसीलिए हूँ क्योंकि मैं यहाँ (एक तरफ़) से शुरू होकर यहाँ (दूसरी तरफ़) पर खत्म हो रहा हूँ, बदलाव है। यहाँ शुरू हुआ तो एक बदलाव आया, डिसकॉन्टिन्यूटी (असतता) और यहाँ खत्म हुआ तो यहाँ दूसरा बदलाव आया।
इन दो बदलावों के बीच में जो है उसको आप बोल देते हो कि ये व्यक्ति बैठा हुआ है। मात्र बदलाव ही जाने जा सकते हैं। इसलिए जो लोग बोलते हैं, ‘मैंने आत्मा को जान लिया।’ वो आत्मा के नाम पर पता नहीं कौनसी चीज़ बदलती हुई जान आये।
आत्मा वो जो एकदम अचल, अटल, अडोल है। उसमें बदलाव क्या कम्पन भी नहीं होता। (हाथ की एक उँगली दिखाते हुए) ऐसे भी नहीं करती। उसको जान कैसे लोगे? समझ में आ रही है बात? कोई वस्तु जानी जाए, इसके लिए आवश्यक है कि वो कभी शुरू हो और कभी खत्म हो। आदि और अन्त के मध्य जो होता है उसी को अस्तित्व बोलते हैं। जिसका न आदि है न अन्त है उसका अस्तित्व ही नहीं है। तो फिर उसको जाना नहीं जा सकता।
तो अहम् को जानने का फिर तरीका क्या हुआ? उसकी गति पकड़ो, गति, गति। गति माने बदलाव, गति माने? बदलाव। जो कुछ भी गतिशील है वो लगातार (बदल रहा है)।
तो देखो ये कैसे बदलता है। बस यही आत्मज्ञान का तरीका है और कोई तरीका नहीं है। देखो, एक भाव कैसे दूसरे भाव में परिवर्तित हो जाता है। देखो, नहीं था विचार और आ गया ऐसे जैसे झोंका आ गया हो हवा का, लहर आ गयी हो समुद्र की। कहाँ से आ गया?
आत्मज्ञान के लिए अहम् की गति को पकड़ो। वही गति जब सूक्ष्म होती है तो विचार कहलाती है, जब स्थूल होती है तो कर्म कहलाती है। वो बात एक ही है, बस इतना सा है कि जब कर्मेन्द्रियों से कर देते हो तो कह देते हो, ‘ये तो कर्म हो गया।’ और जब ये जो प्रधान इन्द्रिय होती है, क्या? मन, मन, उससे कर देते हो तो कहते हो, ‘विचार हो गया।’ हैं दोनों एक ही। दोनों ही काम इन्द्रियों द्वारा ही किए गये हैं। ये तुम्हारा हाथ है, ये भी क्या है? एक इन्द्रिय है। और ये मन है, ये भी क्या है? (इन्द्रिय)।
बस ये बड़ी सूक्ष्म इन्द्रिय है। मन किसी ने देखा आज तक? आँखें मन को नहीं देख पातीं। लेकिन मन की भी करतूत का अनुभव होता है। कुछ आपके मन में है, ये आप बता सकते हो। ठीक वैसे जैसे आप बता सकते हो कि कुछ आपके हाथ में है। समझ में आ रही है बात?
तो मन की गति हो और चाहे तन की गति हो, ये दोनों गतियाँ हैं किसकी? अहम् की ही। और बस इन्हीं दोनों के द्वारा आत्मज्ञान हो सकता है।
तन की गति देखो, मन की गति देखो। देखो, शरीर क्या कर रहा है, देखो मन क्या कर रहा है। इसके अलावा और किसी तरीके से कह रहे हो कि खुद को जान रहे हो तो झाँसा है, पाखंड है। देखो कि शरीर किधर को भाग रहा है और देखो मन किधर को भाग रहा है।
असल में शरीर के भागने में भी थोड़ा झाँसा हो सकता है। लेकिन उसको सुझाया जाता है आत्मज्ञान की विधि के रूप में क्योंकि मन को देखना थोड़ा मुश्किल होता है। और मन को देखने में एक खतरा ये भी होता है कि आप स्वयं ही निर्णायक बन जाते हैं कि आपने देखा क्या। नहीं समझे? तन ने ये मग उठा लिया, अब ये बात सीसीटीवी में आ गयी, वो लगा है वहाँ पर कैमरा, और सीसीटीवी क्या, ये लगे हुए हैं न ये इतने सारे तोप, तो इनमें आ गयी। तो अब कोई छुपा नहीं सकता कि ये तन ने उठा लिया।
लेकिन अभी मन ने जाकर के इनकी जेब में जो माल था वो सब उठा लिया। पाँच हज़ार रुपए मन ने उठा लिये। सबूत बताओ, किस कैमरे में आया? आया? तो यहाँ (चाय का कप उठाते हुए) आप इनकार नहीं कर पाओगे कि आपने चाय उठायी, पर यहाँ (सिर की तरफ़ इशारा करते हुए) आप इनकार कर दोगे कि आपने पैसा किसी का उठा लिया। तो आप खुद को झाँसा न दे पाओ, इसके लिए आत्मज्ञान की जो पहली शर्त होती है वो होती है कि अपने तन को ही देख लो।
जो तन को देखने में ईमानदारी बरतने लगता है उसको फिर धीरे-धीरे ये आज़ादी है कि वो कहे कि मैंने अपने मन को पढ़ा। लेकिन कोई अपने तन को ही न जानता हो, वो कहे, ‘मैं तो अपने मन को पढ़ता हूँ।’ तो वो खुद को ही बुद्धू बना रहा है।
पहले तन वाला तो कार्यक्रम देख लो न, क्या किया। एक से एक हुनरमन्द, वो सो रहे हैं। मैंने कहा, ‘क्या कर रहे हो?’ बोले, ‘तन की आँखें बन्द हैं, मन की आँखें खुली हैं। साहब बोल गये थे न, “बाहर के पट बन्द कर”, तो हमने कर दिये।’ बाहर के पट ऐसे (आँख बन्द करके दर्शाते हुए) बन्द हैं और भीतर के पट खुले हुए हैं। अब बाहर के पट बन्द हैं, ये तो सीसीटीवी देख रहा है, पर भीतर के खुले हैं इसका सबूत दिखाओ।
तुम्हें अच्छे से पता है कि इसका कोई सबूत हो नहीं सकता, तो तुम यहाँ पर जालसाजी कर जाते हो कि हमने तो भीतर के पट खोल रखे हैं। भीतर के पट खोल रखे हैं। उसका फिर एक ही इलाज है कि भीतर के पट खोल रखे थे न, तो बाहर के पटों पर (अपने आँखों को एक हाथ से ढकते हुए) चलो काली पट्टी बाँध देते हैं, अब भीतर के पट से चलो। चलो बेटा, तुम तो भीतर के पट वाले हो, चलो भीतर के पट से। समझ में आ रही है बात?
तन में बेईमानी थोड़ी मुश्किल होती है। पहले तन के तल पर तो ईमानदारी कर लो। मन की बातें बाद में करना। ये छोड़ दो कि हम मन से किसी के हैं, पहले तन से तो हो जाओ। और तन से क्या आशय है? कि जो स्थूल काम है, पहले उनको तो ठीक से करने लगो।
जो कर्म है स्थूल, पहले उनमें तो ईमानदारी बरतने लगो। फिर कहना कि मन से समर्पित हो या नमित हो या कुछ और हो। जो काम सीधे-सीधे तन के हैं वो तो तुमसे करे नहीं जाते। तुमसे कोई कहे, ‘जाओ मेरे लिए वहाँ से जाकर दो किलो फलाना सामान उठा लाओ’, वो तुमसे करा नहीं जाता। तुमसे कहा जाए, ‘इतने बजे उठ जाना’, तुम्हारा तन उठ नहीं पाता। तुमसे कहा जाए, ‘दिन भर में इतना काम कर देना’, तुम्हारा तन उतना काम कर नहीं पाता। लेकिन खुद को तुमने बड़ा सम्मानजनक एक दिलासा दे रखा है, क्या? (सीने पर हाथ रखते हुए) हम मन से आपके हैं। हम मन से आपके हैं। और तन से किसके हो?
तन तो तुम्हारा जब देखो तब तो बिस्तर पर पड़ा मिलता है। बिस्तर से उठा दो तो सोफे पर पड़ा मिलता है। सोफे से उठा दो तो कुर्सी पर सोया मिलता है। लेकिन जहाँ पकड़े जाओगे और खासतौर पर सज़ा दे दी जाए, तो कहेंगे, ‘मन को चोट लग गयी।’ मन को क्यों चोट लग गयी? ‘क्योंकि मन आपका था न। बड़े जालिम हो! अपनी ही चीज़ को तोड़ते हो।’ ये है न, ये... ऐसी चीजों को तोड़ने में मुझे बड़ा आनन्द आता है। समझ में आ रही है बात?
बहुत साधारण से सूत्र हैं। सारा पाप कहाँ से आ रहा है? आत्मज्ञान के अभाव से। और आत्मज्ञान में सबसे पहले किसके प्रति ईमानदार होना पड़ता है? तन के प्रति। तो तन के प्रति जो ईमानदार नहीं है वो क्या हो गया? बहुत बड़ा पापी। सारा पाप कहाँ से आ रहा था? कामना से। कामना कहाँ से आ रही थी? आत्मज्ञान के अभाव से। और आत्मज्ञान में सबसे पहले क्या आता है? तन का अवलोकन। जो अपने तन को ही लेकर के सत्यनिष्ठ नहीं है उससे बड़ा पापी कोई होगा? समझ में आ रही है बात? मन की कहानियों को तन की जालसाजी का कवच मत बनाओ।
कह रहे हैं, ‘आत्मज्ञान से अहंकार निश्चल हो जाता है।’ निश्चल क्यों हो जाएगा? निश्चल क्यों हो जाएगा, ये जानने के लिए समझना होगा कि वो चलायमान क्यों रहता है। क्यों वो इधर-उधर कूदता-डोलता रहता है? खुद को जानता नहीं। तो जब तुम उसको जानते हो तो वो कैसा हो जाता है? निश्चल, स्तम्भवत, जैसे ये खम्भा है। इसे इसकी जगह मिल गयी है। इसे एक गहराई मिल गयी है, अब ये वज़न उठा सकता है। मज़ेदार बात है, उसे जब गहराई मिल जाती है तो वो वज़न उठाने लगता है। और गहराई न मिली हो तो तुम्हारा सिर फोड़ दे।
गहराई मिली है तो तुम उसका सहारा ले सकते हो। और उसे गहराई अगर नहीं मिली है, तो वो तुम्हारे ही सिर पर गिरेगा। वो खम्भा नहीं है, वो इंसान है। इंसान और खम्भा एक ही बात होते हैं। जिसमें गहराई होती है वो बहुतों को सहारा दे देता है, न जाने कितने टन, कितने क्विंटल का वज़न अपने ऊपर उठा लेता है। और जिसमें गहराई नहीं होती, वो पता नहीं किस-किसका सिर फोड़ देता है। किसी के ऊपर भी गिर जाता है वो। जो ही उसके पास होगा वो ही खतरे में होगा। हिलता-डुलता खम्भा है और तुम उसके पास खड़े हो। खतरे की बात हो गयी न।
गहराई को क्या बोलते हैं? आत्मा। आत्मा क्या है? उथलेपन से इनकार। गहराई में कोई चीज़ नहीं मिलेगी, आत्मा, कि फावड़ा लेकर खोद मारा तो आत्मा निकली लोटे के अन्दर। बोले कि अति प्राचीन आत्मा है, काँसे के पात्र में मिली। खोदने से आत्मा नहीं मिलती। सतह से इनकार करता हूँ, मुझे गहराई चाहिए। ये इनकार आत्मा है। बिना विरोध और विद्रोह के अध्यात्म नहीं होता।
तीसरा अध्याय अब अपने अन्त पर कह लो या उत्कर्ष पर कह लो पहुँच रहा है। तो ये बात आपको पुनः याद दिलानी आवश्यक है। अध्यात्म इसलिए नहीं है कि आप जिस हालत में बैठे हो उसी हालत में आपको शान्त और शीतल कर दे। अध्यात्म इसलिए है ताकि आप जिस हालत में बैठे हो उस हालत के प्रति आप में गहरा रोष और विद्रोह भर दे। और बहुत हमने मक्कारी से दुरुपयोग करा है अध्यात्म का अपनी घटिया ज़िन्दगी को ही किसी तरीके से वैध ठहराने के लिए, जस्टिफाई (उचित सिद्ध करना) करने के लिए।
दिन भर घटिया काम किया, शाम को जाकर कहीं बैठ गये, कथा सुन ली, सत्संग कर लिया, भजन कीर्तन हो गया, थोड़ी शान्ति मिल गयी। अध्यात्म इसलिए नहीं होता है। अध्यात्म इसलिए होता है कि आप भारी विरोध से फनफना उठें। आप कहें, ‘मैं जैसा हूँ, मुझे ऐसे नहीं रहना। मैं जैसे जी रहा हूँ, मुझे ऐसे नहीं जीना।’
मैं यहाँ तक कहूँगा, ‘अध्यात्म इसलिए होता है कि आपको घृणा हो जाए अपनेआप से।’ बहुत लोगों को ये बात बड़ी विचित्र लगेगी, कहेंगे कि अध्यात्म के क्षेत्र में ‘घृणा’ जैसे शब्द का क्या काम। मैं बहुत ज़िम्मेदारी से बोल रहा हूँ। घृणा का बहुत महत्वपूर्ण काम है। खुद से घिन आनी चाहिए। और जिसको खुद से घिन नहीं आ रही, वो वहीं लोटता रहेगा जहाँ आज तक लोटता आया है। समझ में आ रही है बात?
आगे कह रहे हैं कि अहम् को स्थिर करके, संयत करके फिर ये जो दुश्मन हैं, कामरूप, इसको त्याग दो। दुश्मन को कैसे त्यागा जाता है? दुश्मन को परास्त करके। जो तीसरी बात भी है कि काम को त्याग दो, वो सिर्फ़ कैसे हो सकती है? आत्मज्ञान से। बताओ, आत्मज्ञान से ही कैसे कामना हटती है?
जब आप जान जाते हो कि आप मछली हो और आप कामना किसकी कर रहे हो? पेड़ पर चढ़ने की। और पेड़ पर चढ़ने के लिए आप एक टूर ऑपरेटर को दो लाख रुपए देने को तैयार हो। वो कह रहा है, ‘पेड़ पर एकदम चोटी पर बैठाऊँगा, इम्पोर्टेड (आयातित) दूरबीन दिखाऊँगा, क्या नज़ारे होंगे! और वहाँ पर ले जाकर फास्टफूड खिलाऊँगा।’
और मछली रानी क्या बोल रही है? ‘हाँ, बिलकुल, बिलकुल।’ क्योंकि उसको पता ही नहीं है कि वो मछली है। उसको पता ही नहीं है कि सागर से उसका रिश्ता क्या है। उसको पता ही नहीं है कि कोई भी चोटी, कोई भी शिखर अगर उसे सागर से दूर ले जाता है तो वो मरी। अब वो जो टूर वाला है, उसने मछली के भीतर बड़ी उत्तेजित कर दी है, क्या चीज़? कामना। ये कामना क्या हो गयी मछली की? शत्रु। तो श्रीकृष्ण यहाँ पर काम को जीव का शत्रु घोषित कर रहे हैं, क्योंकि वो आपको वो तो नहीं ही दे पाता जो आपको चाहिए, बल्कि आपको ऐसी जगहों पर ढकेल देता है जहाँ आपकी और दुर्दशा हो जाती है।
मछली को भूख लगी थी, भूखी थी, मछली भूखी हो सकती है। मछली को भूख लगी थी और आया एक सौदागर और बोलता है, ‘पेड़ के ऊपर बढ़िया फल लगे हैं, आजा, कटहल खिलाऊँगा।’ भूख का तो पता नहीं, मछली प्यास से मर गयी। ये करता है, काम। काम आपको जो समाधान देता है वो आपकी समस्या से बदतर होता है। मछली भूखी ही थी, कम-से-कम प्यासी तो नहीं थी न। मछली भूखी थी पर कम-से-कम प्यासी तो नहीं थी न। और कम-से-कम साँस न लेने से, दम घुटने से तो नहीं मर रही थी न। वो पेड़ के ऊपर उसकी भूख मिटी क्या? भूख तो नहीं मिटी, वो प्यास से और साँस से मर गयी।
ये करती है, कामना। जो आपकी मूल समस्या है उसका तो कोई समाधान होता ही नहीं। आपको समस्या से भी ज़्यादा हानिप्रद समाधान मिल जाते हैं। आपको नहीं पता आपको क्या चाहिए, तो आप अपने घर कुछ ऐसा ले आते हैं जो आपको कहीं का नहीं छोड़ता। समझाने वालों ने कहा है कि जब पता न हो कि क्या चाहिए तब कुछ भी मत चाहना। और आमतौर पर ये होता है कि जब आप नहीं जानते आपको क्या चाहिए तब आप सबसे ज़्यादा चाहते हो और कुछ भी चाह लेते हो। सबसे आसान है कोई भी माल उसको बेच देना जिसको नहीं पता कि उसे कौनसा माल चाहिए। उसे कोई भी माल बेचा जा सकता है।
किसी ने कहा था कि अगर आप नहीं जानते कि आपके लिए कौनसी राह सही है, तो आपके लिए फिर कोई भी राह सही है। इसी तरह अगर आप नहीं जानते कि आपके लिए कौनसा माल सही है, तो फिर आपके लिए कोई भी माल सही है। दुकानदारों के लिए फ़रिश्ते होते हैं ऐसे लोग जो नहीं जानते कि उन्हें क्या चाहिए।
हर दुकानदार सुबह उठकर के यही प्रार्थना करता है, ‘ऐसों को भेजो जिन्हें पता ही न हो कि उन्हें चाहिए क्या।’ उन्हें कुछ भी बेचा जा सकता है और कितना भी बेचा जा सकता है। जो पूरी दुनिया ही है, ये एक दुकानदार है। हम ग्राहक हैं। हम यहाँ से कुछ भी खरीद रहे हैं और बहुत सारा खरीद रहे हैं, क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हम कौन हैं, हमें चाहिए क्या। समझ में आ रही है बात?
चलो आगे बढ़ते हैं। मछली भूखी थी, ये तो समझ में आता है। पर हमारे साहब ने इससे भी बहुत आगे का नज़ारा देखा है। उन्होंने देखा है कि मछली प्यासी भी थी और उसको कोई एसयूवी (स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल) में बैठाकर ले गया। बोलता है, ‘मेरे साथ चलो, मैं तुमको पैकेज्ड वाटर की दुकान तक ले जाऊँगा।’ तो साहब गये और मछली रानी से बोले, “पानी में मीन पियासी, सुन-सुन आवे मोहे हाँसी।“
हमने सुना है कि उस मछली की जान तो उन्होंने बचा दी बस इतना सा बोलकर के, पर सब मछलियों को वो नहीं बचा पाएँगे। आप ही हो सब मछलियाँ, पानी की ग्राहक मछलियाँ। एक और अपनेआप से प्रश्न करिएगा। ठीक है? गृहकार्य की तरह ले लीजिए। आप जो कुछ अपनी ज़िन्दगी में लेकर के आये, वो जिस उम्मीद से लेकर आये थे, वो उम्मीद पूरी हुई क्या?
आपके पास कुछ करने की अपनी दृष्टि में कुछ वजह रही होगी। वो वजह असली हो न हो, हम खुद को तार्किक ठहराने के लिए कुछ-न-कुछ वजह आविष्कृत तो करते ही हैं। तो आपने अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ भी करा, उसके पीछे आपने अपनेआप को कोई वजह बतायी होगी। वो जो भी कारण था, वो कारण कहीं से भी वैध साबित हुआ क्या? जिस कारण से आपने कामना करी, कामना की पूर्ति उस कारण को मिटा पायी क्या? कामना यथावत रह गयी, तौलिए में चाय लग गयी। कामना तो यथावत रह गयी, तौलिए में चाय लग गयी। (आचार्य जी गीत गुनगुनाते हैं)
“जा के बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे, लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे”
कितनी अजीब बात है न! जब चुनरी में दाग लग जाता है तब तो और दौड़कर बाबुल के पास जाना चाहिए। पर जिनकी चुनरी में दाग लगा होता है वो बाबुल से सबसे ज़्यादा नज़रें चुराते हैं। चुनरी माने मन, बाबुल माने सत्य। मैंने देखा है, ये आसपास मेरे लोग हैं, जिसने कुछ ठीक कर रखा होता है वो एकदम उछलकर मेरे पास आएगा, बड़े उत्साह से बताएगा, ‘मैंने ऐसा किया, मैंने ऐसा किया।’
उनको मैं बहुत जवाब नहीं देता। मैं कहता हूँ, ‘तुम पहले ही ठीक हालत में हो, मैं तुम्हें क्या जवाब दूँ। बहुत अच्छी बात है।’ और मैंने देखा है जो मेरे पास न आ रहा हो वो वही होता है, “जा के बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, लागा चुनरी में...।”
अब चुनरी में दाग का तो ऐसा है कि ये भी बोला उन्होंने कि “कहें कबीर काली चादर कैसे चाढे रंग।” तो चुनरी में दाग लगे ही नहीं, इसका एक तरीका ये भी होता है कि चादर ऐसी काली कर लो कि फिर उसमें रंग चढ़ने का कोई सवाल ही न रहे। फिर घर जाने की कोई बात ही नहीं, भटको। इतना भटकना, इतना भटकना, बस ये नहीं जानना कि भटकने वाला कौन है।
बस भटको, भटको, भटको। भटकते-भटकते कहीं मर जाओ। अब मर जाओ, ये तो फिर भी ठीक है। जब तक भटक रहे हो, जितनी दुर्दशा हो सके बर्दाश्त करो। सबकुछ कर लो, बस सीधी रेखा में मत चलो। सबकुछ कर डालो, बस जो एकदम सीधा है, निपट सत्य है, सम्मुख है, समक्ष है, उससे बचते रहो। बाकी सब टेढ़े, तिरछे, आड़े, अटपटे काम सब कर डालो। बस जो सीधा है वो मत करो। बताइएगा मुझको क्योंकि मुझे नहीं समझ में आया।
मैं बहुत बार बोला करता हूँ कि मेरी, मेरी शायद उपलब्धि ये है कि मैं कुछ मामलों में बड़ा अनाड़ी रह गया। ये माँ से जैसे मुझे वरदान मिला कि कुछ बातें मुझे कभी समझ में ही नहीं आयीं। अभी भी मैं प्रयास करता हूँ आप लोगों को देखकर के कि मैं समझूँ तो कि ऐसा कैसे हो जाता है। मुझे कभी समझ में ही नहीं आया कि जो सही है वो कठिन कैसे हो सकता है।
जो सहज है उससे इनकार कैसे किया जा सकता है। जो चीज़ पता है कि सच है ही, उसको पीठ कैसे दिखाई जा सकती है। ये कला मैं सीख ही नहीं पाया। बड़ी अद्भुत कला होती है ये, सीखनी पड़ती है। सही जानते हुए भी गलत जीने की कला। कर्तव्य जानते हुए भी कामना पालने की कला। ये मुझे बताइएगा, ये कैसे कर लेते हो? ये जो पूरा आपका विज्ञान है — लेकिन, पर, किन्तु, परन्तु, हाँ वो तो ठीक है लेकिन।
अगर कुछ ठीक है तो वाक्य वहीं पर समाप्त हुआ, पूर्ण विराम। ठीक है तो ठीक है। ‘ठीक है’ वैसा ही होता है जैसा गणित के किसी समीकरण में, किसी समस्या के समाधान में आता है हेंस प्रूव्ड (अतः सिद्ध)। उसके बाद भी कुछ लिखते हो क्या? उसके बाद भी कुछ लिखते हो? आपने कह दिया, ‘बस हो गया। अतः सिद्ध।’ और सिद्ध माने समाप्त। तो सत्य एक समाप्ति होता है, उसके बाद, सत्य के बाद ‘लेकिन’, ‘किन्तु’, ‘परन्तु’, ‘हाँ जी ये बात तो आपकी ठीक है लेकिन’ ये नहीं लगाया जाता। और एक तरह से मेरा सौभाग्य है कि मुझे वो सब लगाना आया नहीं। मैंने बहुत बार तो कोशिश भी करी कि ये सीखूँ। आप में से कोई गुरु वगैरह मेरा बनने को तैयार हो तो मुझे सिखा दीजिए।
कैसे कर लेते हो ये? कौनसा अपनेआप को तर्क दे लेते हो जो सच पर भारी पड़ता है? देख नहीं रहे आज पहली ही बात क्या बोल रहे हैं? सारे तर्क कहाँ से आते हैं? बुद्धि से। और बुद्धि कहाँ से आती है? जंगल से आती है भाई। तुम जंगल की चीज़ को सच के ऊपर बैठा रहे हो। जंगल में क्या है? लंगूर। वो लंगूर सच से ऊपर बैठेगा? लंगूर लेकिन बैठ जाते हैं। देखा नहीं है? मन्दिरों के शिखरों के ऊपर एकदम। और कहीं मिले न मिले लंगूर, मन्दिर के गुम्बद पर ज़रूर मिलेगा। वो वहाँ बैठकर के घोषणा कर रहा होता है, क्या? होगा ऊँचे-से-ऊँचा मन्दिर, लंगूर उसके ऊपर भी बैठ सकता है।
वैसे ही हम सच से ऊपर अपनी बन्दर जैसी कामना और जंगल वाली बुद्धि को बैठाते हैं। और कुछ-न-कुछ तर्क निकाल लाते हैं, लेकिन, किन्तु, परन्तु करने के लिए। इंसान हो तो जैसे ही कहा करो, ‘बात ठीक है’, उसके बाद कोई बात करा मत करो। ‘बात ठीक है’ कहते ही बात रुक जानी चाहिए। एक बार कह दिया ‘बात ठीक है’ तो अब आगे कोई बात नहीं होगी। अगर ठीक है, तो बस यही है। अब आगे और क्या बात हो सकती है? सत्य तो अन्तिम होता है न या उसके आगे भी कुछ होता है? तो जो अन्तिम है उसके आगे की क्या बात करनी है?
और ऐसों से बहुत बचकर चलना जिनकी व्याकरण में ये सब बहुत अटा-पटा रहता है। ‘नहीं जी, वो बात तो आपकी बिलकुल सही है; नहीं, वो बात आपकी बिलकुल सही है लेकिन…।’ ये उथले लोग हैं, ये गन्दे लोग हैं, ये बिके हुए लोग हैं। इंसान की, इंसान की पहचान होता है उसका मौन। सच के सामने उसके सिर का झुक जाना।
सच जिसके सामने हो और फिर भी उसकी ज़बान चलती ही जाए, वो आदमी ‘आदमी’ कहलाने योग्य नहीं है। एक बार कह दिया, ‘ठीक है’, फिर मौन आ जाना चाहिए, मौन, बस मौन। उसके बाद ज़बान नहीं चलनी चाहिए। ज़बान से मेरा आशय है मन। ज़बान तो हम चलाते नहीं हैं, वो तो खतरा हो जाएगा। मन चलाते हैं। उसके बाद मन, बुद्धि, तर्क, ये सब नहीं चलने चाहिए।
एक बार जान जाओ कि क्या सही है, उसके बाद खुद को इजाज़त देना बन्द करो। सही है तो अब? “खड़े रहना मैदान में, सम्मुख सहना तीर।”
सूरा नाम रखाय के, अब क्यों डरना वीर। खड़े रहना मैदान में, सम्मुख सहना तीर।।
~कबीर साहब
अब तो जो है सो है। न कोई सोच न विचार, अब यही है। अब विचारने से कोई फ़ायदा नहीं। कुछ बातों में हम विचार नहीं किया करते। हमारी अदा है। जिनको नहीं सत्य समझ में आता उनको अदा बोलकर टरकाना पड़ता है न।
कोई पूछे, ‘क्यों हो ऐसे?’ तो बोलो, ‘स्टाइल है।’ बोलो, ‘सच तो तुमको समझ में आता नहीं, तो स्टाइल शायद समझ में आये।’ समझ में आ रही है बात? इंसान बनो, और इंसान का मतलब होता है, बहुत प्यारा आज शब्द दिया न, स्तम्भ, स्तम्भ, खम्भा। खड़ा हूँ तो खड़ा हूँ, अड़ा हूँ तो अड़ा हूँ। निश्चल भी, गहरा भी और अटूट भी।
ऐसे नहीं टूट जाते खम्भे। क्या हूँ मैं? खम्भा, स्तम्भ। और हम कैसे होते हैं? (हाथ लहराते हुए) “हवा हूँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ।” मैं कमसिन कली हूँ, मैं ऐसे नाचती हूँ। किसी ने फूँक भी मार दी तो मैं ऐसे (हाथ से मुरझाकर गिरना दर्शाते हुए) हो जाती हूँ। खम्भा बनो, हिलने का नहीं। ‘बसन्ती हवा’ प्यारी कविता है।
वही हाँ, वही जो युगों से गगन को बिना कष्ट-श्रम के सम्भाले हुए हूँ; हवा हूँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ। वही हाँ, वही जो धरा का बसन्ती सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ; हवा हूँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ।
किसी और सन्दर्भ में लिखी गयी है। पर हम भीतर से भी वैसे ही होते हैं हवा-हवाई, कि किसी ने फूँक भी मार दी तो? हिल गये। क्या हुआ, क्यों परेशान हो? ‘हिल गये।’ हिलना नहीं है। कैसा होना है?
श्रोता: मज़बूत।
आचार्य: मैं दक्षिण जब भी जाता हूँ तो वहाँ के वृक्षों को देखकर अभिभूत रहता हूँ, फैसिनेटेड (मुग्ध)। वो होते हैं असली खम्भे, (मकान के एक खम्भे की ओर इशारा करते हुए) ये तो कुछ नहीं, ऐसे ही। मेरे जैसे पाँच ऐसे (दोनों हाथ फैलाकर) करके खड़े हो जाएँ तो भी वो हमारे आगोश में न आयें।
वट, ऐसे चौड़े वट, वो हो जाओ। कोई हिला कर दिखाये। देखते हैं कौनसा तूफान, कौनसा भूचाल आ रहा है कि हमें हिला देगा। एक बार मैंने देखा गोवा में, पूरे एक प्लॉट पर एक पेड़ था, वो पेड़ ही प्लॉट था। वहाँ गाड़ी रोकी, मैं उसको देखता रहा। मेरे साथ एक वानर था। वो इतना खुश हो गया कि वहाँ नाचने लगा। वो पेड़ को देखकर खुश हो गया। बोला, ‘ऐसे भी पेड़ होते हैं! मेरे गुड़गाँव में तो ऐसे होते ही नहीं। मैंने तो टहनियाँ देखी हैं वहाँ।’
यही होता है। जीवन में भी जब कोई मिलता है न वट जैसा, तो वैसा ही आनन्द फूटता है। ये तो तुमने मात्र वृक्ष देखा था, जब कोई मनुष्य दिखेगा वट जैसा तब देखना अपना आनन्द। ऐसे ही थोड़ी लोग आज भी राम और कृष्ण, राम और कृष्ण गाते रहते हैं। क्योंकि वो वट थे। और उनको जिसने एक बार देख लिया उसका आनन्द अब थमता ही नहीं। वो फिर गाता ही जाता है, ‘क्या देख लिया मैंने ये, क्या देख लिया, क्या देख लिया।’ समझ में आ रही है बात ये?
जिसको देखने का आनन्द ऐसा हो, वैसा हो जाने का आनन्द कैसा होगा, ये बताओ। सबके लिए एक और काम जो कि आप करोगे नहीं, पर मेरा धर्म है। अकम्प रहने, अकम्प रहने की मिसालें खोजकर लाइये। जहाँ कुछ भी हो गया है, पर इंसान सच से हिला नहीं है। बहुत मिलेंगी, ज्ञानियों में मिलेंगी, सन्तों में मिलेंगी, वैज्ञानिकों में मिलेंगी, सिख गुरु, गुरुओं में मिलेंगी। खोजकर लाइये। कि सिर कट जाएगा, लेकिन सिर झुकेगा नहीं। जहाँ अब खड़े हो गये, जहाँ अब तन गये, वहाँ अब तन गये। हमें हमारी ज़मीन मिल गयी है, वहाँ से अब हटें कैसे।
छोटे नन्हे पौधे होते हैं, आप देखते हो न, नर्सरी से उठा लाते हो, अपने यहाँ रोप देते हो। वो जो वानर वाला वट है उसको भी क्या उठाकर यहाँ से कहीं प्रत्यारोपित करोगे? कर सकते हो? वो कहता है, ‘मुझे मेरी ज़मीन मिल गयी है। अब कट सकता हूँ, हट नहीं सकता।’ नन्हे-नन्हे कलमें होती हैं, उनको यहाँ से निकालकर यहाँ डाल देते हो, यहाँ डाल देते हो, वो मान जाती हैं। वट नहीं मानते। वो कहते हैं, ‘अब हमें हटाने का एक ही तरीका है।’ क्या? ‘काट दो।’
क्यों नहीं हो सकते ऐसे? और होने की विधि है, बोलो? आत्मज्ञान। और कोई विधि नहीं है। मैं, मैं निवेदन कर रहा हूँ। थोड़ा-सा इस चीज़ को ज़िन्दगी में आने दीजिए। एक निर्विकल्पता, कि कुछ चीज़ों पर अब अडिग हो गये हैं, वहाँ हम अब बात ही नहीं करते। कुछ बातों से हम नहीं हट सकते तो नहीं हट सकते। जिसको मानस (श्रीरामचरितमानस) में कह दिया है कि “प्राण जाय पर वचन न जाय।” कि अब वचन दे दिया, दे दिया, प्राण चला जाएगा पर अब जो बात बोल दी है उससे नहीं पीछे हटेंगे।
वहाँ तो बात बोली गयी है, वचन है। मैं वचन से भी गहरी बात बोल रहा हूँ। हमारी हस्ती, हमारा अस्तित्व, हमारा केन्द्र कहीं पर अब जाकर के स्थापित हो गया है। आसीत् हो गया है। वहाँ से नहीं हट सकता, प्राण भले चला जाए। तो मैं निवेदन कर रहा हूँ आपसे, इस चीज़ को थोड़ा सा जीकर के देखिये। देखिये, कितनी शान्ति मिलती है। खतरे आएँगे, समस्या, ये सब ठीक है लेकिन बहुत-बहुत आप विश्राम अनुभव करेंगे।
ऐसा लगेगा कि कोई खोज थी, वो पूरी हो गयी। ऐसा लगेगा जैसे मंज़िल मिल गयी या करीब आ रही है। और हर चीज़ आपके लिए एक विकल्प बनकर अगर खड़ी हो गयी न, ‘अच्छा, ये भी आ गयी, मुझे हिला गयी। ये भी चीज़ आ गयी, इसकी ओर देख लूँ क्या?’ तो ज़िन्दगी बड़ी, क्या बोलूँ, निर्मूल रहती है, रूटलेस, उखड़ी हुई। कोई उसमें मज़ा नहीं आता। आदमी बस हर समय उसमें चिन्ता ही करता रहता है कि मेरा क्या होगा, मेरा क्या होगा।
कोई आदर्श के मारे नहीं कह रहा हूँ, विचार से नहीं कह रहा हूँ। आप जैसा ही हूँ लेकिन कोई चीज़ है जो थोड़ी सी मैंने जी है, उस नाते आपको कह रहा हूँ कि आप भी उसको थोड़ा चखिए। और आपसे भिन्न नहीं हूँ। अगर मैं उसको जी सकता हूँ, तो आप भी जी सकते हो। कुछ बातों को ज़िन्दगी से बेदखल कर दीजिए। कुछ सम्भावनाओं पर दरवाज़ा हमेशा के लिए बन्द कर दीजिए। ताला मारिए, चाबी खो दीजिए। कहिए, ‘अब ये बातें तो हो नहीं सकतीं।’
यही मेरा सूत्र है। मैंने जीवन में और नहीं कुछ जाना है, बस कुछ बातें अब नहीं हैं तो नहीं हैं, यही मेरा सूत्र है। इसीलिए नेति-नेति मुझे इतनी पसन्द है। क्या करना है, ये तो मुझे बहुत बाद में स्पष्ट होता रहा है, पहले तो हमेशा मुझे यही दिखाई दिया कि क्या-क्या है जो किसी हाल में नहीं करना है। कुछ भी हो जाए, ये तो नहीं करूँगा और ये नहीं होने दूँगा और न ऐसा सोचूँगा, न ऐसा कहूँगा, न ऐसा करूँगा।
अंग्रेज़ी में उसके लिए एक हल्का शब्द होता है, कमिटमेंट (प्रतिबद्धता)। ये शब्द इशारा उसी ओर कर रहा है लेकिन इस शब्द में वो गहराई नहीं है जो गहराई है निष्ठा में, प्रेम में। पर आपको अगर कमिटमेंट से समझ में आता है तो उसी से समझ लीजिए। ठीक है?
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ४३) आचार्य जी द्वारा दिया गया काव्यात्मक अर्थ —
बुद्धि तुम्हारी शुद्ध रहे तो तुम ही अपने मीत हो काम शत्रु भागे छुपे खुद ही खुद को जीत लो