ध्यान से पढ़ना और आत्म-जिज्ञासा || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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ध्यान से पढ़ना और आत्म-जिज्ञासा || आचार्य प्रशांत (2013)

प्रश्नकर्ता: समटाइम्स व्हेन देयर इज़ डीप इन्वॉल्वमेंट विथ रीडिंग, आई फ़ॉरगेट द सराउंडिंग्स। ऑनली द बुक रिमेंस। इज़ दैट इन्वॉल्वमेंट इन एस्केप फ़्रॉम व्हॉट इज़ हैपनिंग अराउंड और रियली बीइंग विथ ऑनसेल्फ़? (कभी-कभी जब पढ़ने से गहरा जुड़ाव होता है तो मैं अपने आस-पास का माहौल भूल जाता हूँ। केवल किताब रह जाती है। क्या ये आस-पास जो हो रहा है उससे बचने में शामिल होना है, या वास्तव में स्वयं के साथ होना है?)

आचार्य प्रशांत: जब भी कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं, जिनका आपको बहुत ध्यान तभी तक रहता है, जब तक मन ज़बरदस्ती सक्रिय है। जो आदमी शान्त हो गया, उसको बहुत बातों की फ़िक्र छूट जाती है। क्या कहूँगा? तो जो आपने सराउंडिंग लिखी है कि आइ फ़ॉर्गेट द सराउंडिंग (मैं आस-पास को भूल जाती हूँँ)। सराउंडिंग (आस-पास) उन्हीं चीज़ों में से है।

जो आदमी शान्त हो गया। उसको बहुत बातें भूलने लग जाती हैं। एक तरीके की लापरवाही भी आने लग जाती है। बिलकुल हो सकता है कि वो किचन (रसोई) में दूध जला दे। बिलकुल हो सकता है कि वो अपनी गाड़ी की सर्विसिंग की डेट भूल जाए। क्योंकि उसको दिखने लग गया कि दुनिया में ये बहुत छोटी चीज़ें हैं। और कुछ है, जो बहुत महत्वपूर्ण है। बहुत बड़ी बड़ी बातों को छोड़ने लग सकता है, दरकिरार करने लग सकता है।

आपके देश में जितने भी बुद्ध पुरुष हुए हैं किसी के जीवन की एग्ज़ैक्ट (समुचित) घटनाओं का ब्यौरा हीं नहीं मिलता। क्योंकि वो बातें छोटी थी। जो असली बात थी वो मिल गयी न। उन्होंने जो कहा वो मिल जाता है एग्ज़ैक्ट। पर उनकी ज़िन्दगी कैसी बीती ये नहीं पता चलेगा। आज तक किसी को ये नहीं पता कि कबीर ने शादी करी थी कि नहीं करी थी। कबीर के दोहे सारे संरक्षित हैं। पर कबीर की ज़िन्दगी का वृत्तान्त कुछ नहीं पता। किसी को नहीं पता। क्योंकि इस देश को ये अक्ल हमेशा से रही है कि क्या महत्वपूर्ण है, और क्या महत्वहीन है।

महत्वपूर्ण है जो कबीर ने कहा। और ये महत्वहीन है कि कबीर की शादी हुई कि नहीं हुई। आप कहीं से मुझे बता दो कृष्ण कब पैदा हुए। ये महत्वहीन है। किसी ने रिकॉर्ड (दर्ज़) ही नहीं रखा, कृष्ण कब पैदा हुए। कोई कहता है तीन-हज़ार साल, कोई कहता है पाँच-हज़ार साल। जबकि आप चाहते तो ये रिकॉर्ड रख सकते थे। आप जो कैलेंडर (पंचांग) फ़ॉलो (अनुसरण) करते हो। जो क्राइस्ट से रिलेटेड है। जिसमें आप एडी और बीसी कहते हो। उससे पुराना कैलेंडर, 'शक संवत' आपने सुना होगा, 'विक्रमी कैलेंडर' सुना होगा। ये सब भारतीय हैं। तो भारतीय अगर चाहते तो कृष्ण कब पैदा हुए, कब मरे, इसका रिकॉर्ड रख सकते थे। राम कब पैदा हुए, कब मरे बिलकुल रिकॉर्ड रख सकते थे। हमने रिकॉर्ड नहीं रखा। हमने कहा, ‘ये फालतू की बात है। इस पर ध्यान कौन दे?’

जो आदमी समझदार हो जाता है, वो बहुत सारी फालतू बातों का ध्यान रखना, रिकॉर्ड रखना, फ़िक्र करना छोड़ देता है।

उपनिषद् का ऋषि है। उसने इस बात का ध्यान ही नहीं रखा कि अपना नाम भी तो बता दूँ। आप उपनिषद् पूरा पढ़ जाते हो। किसने लिखा पता ही नहीं चलता। वो कहता है, ‘असली बात ये है कि हमें जो कहना था, हमने कह दिया। ये बहुत छोटी बात है कि हमारा नाम उजागर होता है कि नहीं।’ क्योंकि जो ये कह रहा है वो वैसे भी कोई पर्सनैलिटी (व्यक्तित्व) नहीं है। जो ये कह रहा है वो कोई पर्सन (व्यक्ति) नहीं है, जिसके मुँह से ये बात निकल रही है। ये तो एक अस्तित्व की आवाज़ है, जो मेरे माध्यम से आ रही है। तो ज़रूरी नहीं है कि मैं अपना नाम बताऊँ। तो उसने अपने नाम को महत्व ही नहीं दिया।

आप धीरे-धीरे यही पाओगे कि जैसे-जैसे आप डूबते जाओगे, बहुत सी बातें, जिनको आज आप महत्व देते हो, उसको आप महत्व देना छोड़ दोगे। महत्व देना छोड़ दोगे। ये नहीं है कि आप विपरीत चीज़ को महत्व देने लगोगे। आप उसको, और उसके विपरीत, दोनों को महत्व देना छोड़ दोगे। इसका अर्थ ये नहीं कि आज आप शानदार और तड़कीले कपड़े पहनते हो, और उसके बाद आप बहुत हल्के कपड़े पहनने शुरू कर दोगे। न। आप कपड़ों को ही महत्व देना छोड़ दोगे। आपका कहोगे, ‘कपड़ा ही तो है। जो मिला डाल लो, आगे बढ़ो। रखा क्या है इसमें?’

आप आज शरीर को बहुत महत्व देते हो। आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा। ये होता है। ये अनिवार्य रूप से होता है। और जब ये हो तो कोई कुंठा महसूस करने की ज़रूरत नहीं है। कि अरे मैं लापरवाह हो गयी हूँ, मुझे छोटी-छोटी चीज़ों का खयाल नहीं रहता, मेरे पैसे छूट जाते हैं।

मैं शर्ट, पैंट पहना करता था। मुझे ये सिग्नल (संकेत) ही लापरवाही ने दिया कि अब समय आ गया शर्ट, पैंट, कोर्ट छोड़ने का। एक बार बरेली गया। ठंड के दिन थे। शॉल डाल के गया था। और अपना ऐसे ही कुछ पहन रखा था। वहाँ संवाद था तो उसको वहाँ सूट लेकर जा रहा था। और उस सूट अपने पूरे पैक में था। तो शॉल डाल रख है। सूट हाथ में है। सुबह गया। सो गया ट्रेन में। उतरा ट्रेन। शॉल् ट्रेन में छोड़ दी। अच्छी बात। वहाँ संवाद लिया सूट पहन के। ट्रेन में आया। सूट उतारा। ये सब कैज़ुअल्स (आरामदायक कपड़े) डाले। सूट को टाँग दिया खूटी पर। गाजियाबाद आया। सूट छोड़कर नीचे उतर आया। एक ही दिन में दो घटनाएँ। मैंने कहा, ‘ये जो है, ये संयोग नहीं है, ये सन्देश है।’ बात समझ में आ गयी कि सूट पहनना छोड़ दो। छोड़ दिया। अस्तित्व खुद बता रहा था कि अब तुमको ये याद नहीं रहता। अब ये तुम्हारे लिए महत्वहीन हो गया है।

तुम्हारे लिए जो चीज़ें महत्वहीन होने लग जाएँगी उसके सिग्नल आने शुरू हो जाएँगे। उनको छोड़ दो। बिलकुल छोड़ दो। अब पता नहीं क्या-क्या छूटने वाला है। मेरा सब कुछ छूटने लगा है। मोबाइल छूट जाएगा, कहीं गाड़ी की चाबी छूट जाएगी, सब छूटने लगा है। खो जाता है। तो ये सब सन्देश आ रहे हैं कि ये सब अब छूटने को ही है। ये बहुत दिन चलेगा नहीं। ठीक है, छूट जाएगा अच्छी बात है।

प्र: फिर इगो (अहंकार) रोकता है न।

आचार्य: जब तक रोके, रोकने दीजिए। बहुत समय तक नहीं रोक पाएगा। कुछ समय तक रोकेगा। रोकने दीजिए।

प्र: लेकिन कई बार, जैसे कोई चीज़ भूल जाते हैं तो उसके बाद खुद भी तो गिल्ट होता है। ऐसा क्यों?

आचार्य: हाँँ, वो तो होगा ही। बड़ा महँगा था शॉल और सूट। अभी तक अफ़सोस है, मुझे भी (सभी श्रोतागण हँसते हैं..)।

प्र: पर फिर भी इस तरीकें से जो गिल्ट मुझे जो हो रहा है। बतानी तो नहीं चाहिए। खुद की शर्म की बात है। परसों माता-पिता की एनिवर्सरी (सालगिरह) हुई है।

आचार्य: समय आ रहा है। (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: सर, कैसे भूलना है?

आचार्य: जान-बूझकर नहीं भूलना। आप पूरी कोशिश करिए, याद रखने की। आप अपनी पूरी कोशिश करिए याद रखने की। पर फिर भी भूलेगा। जब दिख गया है कि उसका कोई महत्व ही नहीं हैं तो भूलेगा। फिर जब बहुत भूले जाएगा तो आप कहोगे, ‘अब छोड़ ही दो न। भूल ही जाता है ये तो कौन याद रखे?’

प्र: तो फिर वो गिल्ट क्यों होता है?

आचार्य: होगा ही। अब ज़िन्दगी भर किसी को अपने विश करा है, एक बार नहीं विश करोगे तो होगा ही। फिर धीरे-धीरे खाल मोटी हो जाएगी।

प्र: वो कंडीशनिंग का तो हिस्सा है।

आचार्य: हाँँ, वो कंडीशन है। फिर कोई बोलेगा भी कि अरे तुम बेवफ़ा हो। तुम बर्थडे पर हमें विश नहीं करते। बोलोगे, ‘हे!’ (श्रोतागण हँसते हैं)। मुझसे कभी कोई कहता है तो, ‘याद दिला दिया करो। जिस दिन हो, उस दिन फ़ोन करके बोल दो, है। हम कर देंगे विश।’ भाई अफ़सोस तुम्हें हो रहा है न कि तुम्हारे बर्थडे पर विश नहीं किया? सुबह फ़ोन करो। बोलो, ‘बर्थडे हैं, विश करो।’ हम कर देंगे। हमें कोई दिक्कत नहीं है। अब तुम हमसे उम्मीद करोगे, हम याद रखेंगे किसका कब जन्मदिन आता है तो टू मच (बहुत हो गया)। ये हमारे बस की नहीं है।’

प्र: ह्वॉट इज़ द डिफरेंस बिटवीन क्वेश्चन एंड इंक्वायरी? हाउ टू डिस्टिंग्यूश बिटवीन दीज एंड हाउ टू हैंडल? (प्रश्न और पूछताछ में अन्तर क्या है? इनमें अन्तर कैसे करें और कैसे सम्भालें?)

आचार्य: क्वेश्चन इज़ एक्टिव माइंड। इंक्वायरी हैपेंस व्हेन द माइंड इज़ नॉट ऐक्टिव। व्हेनवर द माइंड विल बी एक्टिव माइंड विल कंसेंट्रेट इन ऑब्जेक्ट। माइंड लिव्स इन ऑब्जेक्ट, ऑब्जेक्टिफ़िकेशन (प्रश्न सक्रिय मन है। पूछताछ तब होती है जब मन सक्रिय नहीं होता है। जब भी मन सक्रिय होगा, मन वस्तु में एकाग्र होगा। मन वस्तु में रहता है, वस्तुकरण में)। जब भी आप क्वेश्चन (प्रश्न) करोगे वो आपके इगो से आएगा, स्वार्थ से आएगा। और केन्द्रित होगा। उसका केन्द्र होगा एक। केन्द्र होगा आपका अपना अहंकार।

सवाल हमेशा एक केन्द्र से आता है। लिमिटेड (शंकुचित) होता है, ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) होता है। सेल्फ़ इंटरेस्ट (स्वार्थ) से आता है। आप कोई ऐसा क्वेश्चन कर ही नहीं सकते, जिसमें आपका इंटरेस्ट (रुचि) न हो। क्वेश्चन विल आलवेज अराइज़ आउट ऑफ सेल्फ़ इंट्रेस्ट (स्वार्थ से हमेशा सवाल उठेंगे)। समझ रहे हैं?

इनक्वायरी बिलकुल दूसरी चीज़ है। इनक्वायरी में कोई सवाल नहीं होता। इनक्वायरी एक्टिव (सक्रिय) होती ही नहीं है। इनक्वायरी सिर्फ़ एक ऐसा मन है, जो खुला हुआ है। ऐसे समझ लीजिए कि मैं इस कमरे में सवाल पूछूँ तो वो तो क्वेश्चन है। पर इस कमरे में जो रोशनियाँ जल रही हैं, जिनके कारण हम एक-दूसरे को देख पा रहे हैं और सवाल कर पा रहे हैं, ये इनक्वायरी है।

समझ रहे हैं बात को?

इनक्वायरी का अर्थ है, एक ऐसा मन जो बस खुला हुआ है। और सबकुछ सोख रहा है। वो पर्टिकुलर (विशिष्ट) नहीं है। उसका कोई केन्द्र नहीं है। कोई ऑब्जेक्ट नहीं है। वो स्पेसिफ़िक (निश्चित) नहीं है। इनक्वायरी को रेलवे (रेल) इनक्वायरी मत समझ लीजिएगा। जाकर पूछ रहे हो कि फ़लानी ट्रेन कब आएगी। उसका नाम इनक्वायरी नहीं होना चाहिए। उसका नाम क्वेरी होना चाहिए। एनक्वायरी उसके लिए गलत शब्द है। दैट शुड एक्चुअली बी ट्रेन क्वेरी। क्वेरिंग इज़ अ वेरी स्मॉल थिंग। क्वेरिंग एंड क्वेश्चनिंग आर ऑलमोस्ट सेम बट इनक्वायरी इज़ अ डिफ़्रेंट डाइमेंशन (वह वास्तव में रेल पूछताछ होनी चाहिए। पूछना बहुत छोटी सी बात है। प्रश्न करना और प्रश्नात्मक लगभग समान हैं, लेकिन इनक्वायरी एक अलग आयाम है)।

हम इनक्वायरी शब्द का अर्थ ले लेते हैं, आमतौर पर पूछताछ। इनक्वायरी में कोई पूछताछ हो ही नहीं सकती। इनक्वायरी में सिर्फ़ साइलेंस (मौन) हो सकता है। एक ऐसा साइलेंस जिसमें सब समझ में आने लग जाए। क्वेश्चन में शब्द होंगे, आवाज़ होगी। वो एक तरह की नॉइज़ (शोर) है। क्वेश्चन में शब्द होंगे, आवाज़ होगा, उद्देश्य होगा, शोर होगा। इनक्वायरी में कोई आवाज़ नहीं होगी, कोई शोर नहीं होगा, कोई केन्द्र नहीं होगा, कुछ जानने की इच्छा नहीं होगी, बस जानना होगा। सवाल आप तब करते हो, जब इच्छा होती है। कुछ पता चले। इनक्वायरी में कोई इच्छा नहीं होती, इनक्वायरी में मात्र जानना होता है।

प्र: ये इंटलेक्ट (बुद्धि) और इंटेलिजेंस (बुद्धिमत्ता) क्या होती है?

आचार्य: इंटलेक्ट तो एक्युमुलेटेड (इकट्ठा) नॉलेज (ज्ञान) है। क्वेश्चन इंटलेक्ट का पार्ट है। आप जितनी क्वेशचनिंग करोगे इंटलेक्ट उतनी बढ़ेगी। जिन्हें इंटेलेक्ट बढ़ानी हो — और इंटलेक्ट बढ़ाना भी कोई बुरी बात नहीं है — जिन्हें इंटलेक्ट बढ़ानी हो वो खूब सवाल करें। पर जिन्हें इंटेलिजेंस का अनुभव करना है। वो सवालों को छोड़ें, और शान्त हो जाएँ।

कल रोहित को बोल रहा था कि रमण के पास एक आये। उन्होंने कहा, आप बाहर निकले प्रचार क्यों नहीं करते? आप चुप बैठे रहते हो। आप दुनिया में कुछ करते क्यों नहीं हो? रमण ने कहा, ‘देखो बेटा, शब्द निकलता है विचार से। विचार आता है अहंकार से। अहंकार से पहले होता है एक सूक्ष्म बोध। और सूक्ष्म बोध से पहले होता है मौन। तो जो शब्द होता है, शब्द आया विचार से, विचार आया अहंकार से, अहंकार आया सूक्ष्म बोध से। और सूक्ष्म बोध से पहले होता है, बस मौन।’

तो उन्होंने कहा, ‘शब्द का पर पितामह है, ग्रैंड ग्रैंड फ़ादर है मौन। अगर शब्द कीमती हैं तो सोचो मौन कितना कीमती होगा। तुम कह रहे हो, हमसे कुछ बोलिए। हम तुम्हें बोलने से ज़्यादा कीमती चीज़ दे रहे हैं, मौन।’ अगर शब्द कीमती है तो सोचो मौन कितना कीमती होगा। उसका ग्रैंड ग्रैंड डेडी (परदादा) है, मौन। मौन से ये निकला, ये निकला, ये निकला, ये निकला, ये निकला, फिर उसमें से शब्द निकला। तो शब्द तो बहुत बाद में आता है। मौन बहुत पहले होता है। मौन कहीं ज़्यादा कीमती है।

प्र: तो मौन तक जाने के लिए हमें शब्दों का सहारा तो लेना ही पड़ेगा।

आचार्य: शब्द वही अच्छा है जो मौन की तरफ़ ले जाए। पर आम तौर पर शब्द मौन की तरफ़ नहीं ले जाते। आम तौर पर शब्द और ज़्यादा शब्दों की ओर ही ले जाते है। जैसे आप किसी से बहस करें। ये बहस आपको मौन नहीं करेगी। ये बहस आपको और उत्तेजित करेगी। 'एक शब्द शीतल करे, एक शब्द दे जार।' शब्द वही भला है जो निशब्द की ओर ले जाए। शब्द वही भला है जो मौन की ओर ले जाए।

प्र: लेकिन ये जाना कैसे जा सकता है, या एहसास कैसे किया जा सकता है। कई बार ऐसा ही होता है, शब्दों में उलझ जाते हैं। और फिर हमें कुछ एहसास हो रहा होता है, नहीं-नहीं ये बड़ा…

आचार्य: उत्तेजना का एहसास होता है न?

प्र: हाँँ।

आचार्य: जो शब्द आपको उत्तेजना का एहसास करा दे, समझिए वो शब्द निरर्थक है। जो शब्द मन को उत्तेजित कर दे, वो शब्द आपको नुकसान दे रहा है। जो शब्द मन को शान्त कर दे, वही शब्द भला है। आप सवाल लेकर के आओ बहुत सारे। और आप पाओ कि अब सवालों को पूछने की ज़रूरत ही नहीं है। तो समझिए कि जो कहा जा रहा है, वो आपके काम का है। पर अगर किसी के आने से, किसी के सामने होने से, किसी विशेष माहौल में आपके भीतर और ज़्यादा सन्देह, और ज़्यादा सवाल उठने लगते हैं तो समझिए कि मामला गड़बड़ है। आप ये अक्सर अनुभव करेंगे कि कई बार प्रश्न होते हैं। पर होते हुए भी लगता है, ये निरर्थक है। इसमें कोई वजन नहीं हैं, अब कौन पूछे। तब समझिए कि बात ठीक है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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