कई सालों बाद पता चले कि गुरु से धोखा मिला || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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कई सालों बाद पता चले कि गुरु से धोखा मिला || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमस्ते। मैं एक पचास वर्षीय महिला हूँ और एक शिक्षिका भी। शर्म सी आती है बताते हुए कि अट्ठाईस साल तक मैं सपरिवार एक ऐसे पंथ को मान रही थी जो कि स्वयं-घोषित, मोक्षाधिकारी, जीवनमुक्त, सत्ताधारी गुरु द्वारा चलाया जा रहा है। वहाँ बहुत लोगों का, यहाँ तक कि स्त्रियों का भी शोषण होता रहा है। उस चक्रव्यूह से बाहर निकले मुझे अब करीब डेढ़ साल हो गये हैं। मेरे परिवार वाले मुझसे ज़्यादा करीब से वहाँ की गंदगी जानते हैं और उन्होंने मुझसे रिश्ता सा तोड़ लिया है। धर्म के नाम पर चलने वाली इस मक्कारी के विचार को मैं मन से पूरी तरह से निकाल नहीं पा रही हूँ। कभी मुझे लगता है कि अपनी सामर्थ्य अनुसार मुझे आवाज़ उठानी चाहिए और कभी लगता है कि मेरी जान बच गयी, बस इसी बात का शुक्र मनाऊँ और अध्यात्म में आगे बढ़ूँ। कृपा करके कुछ सही दिशा दीजिए।

आचार्य प्रशांत: ये चक्र चल रहा है न, बहुत सालों से, बहुत दशकों से, शायद सदा से ही। लोग किसी गुरु इत्यादि के पास जाते हैं। ज़्यादातर लोग तो लंबे समय तक, लगभग जीवन भर जान ही नहीं पाते कि असलियत क्या है या अगर थोड़ी बहुत सच्चाई उजागर भी होने लगी तो वो ख़ुद ही सच्चाई से नज़रें चुरा लेते हैं।

कुछ लोग होते हैं जिनके सामने यथार्थ अपनी पूरी नग्नता से प्रदर्शित हो जाता है। फिर वो बाहर निकलते हैं, आवाज़ उठाते हैं, शोर मचता है, मीडिया में ख़बरें उछलती हैं। कुछ मामलों में किस्सा न्यायालय तक चला जाता है और दो-चार मामलों में तो सज़ा वगैरह भी हो जाती है। और फिर कुछ सालों बाद पुनः कोई ऐसा मामला प्रकाश में आ जाता है और फिर उसके कुछ सालों बाद फिर कोई मामला।

ये क्या चल रहा है, थोड़ा हमको समझना होगा। आपने पूछा है कि आपने उस पंथ को छोड़ दिया लेकिन फिर भी आपके मन से, वो जो बीते अट्ठाईस सालों के अनुभव हैं, वो निकल नहीं रहे हैं। आप उस पंथ के ख़िलाफ़ या धोखाधड़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहती हैं और दूसरा विकल्प आप कह रही हैं कि लगता है आवाज़ न उठाऊँ, चुपचाप अपने निजी अध्यात्म में आगे बढ़ूँ। थोड़ा समझते हैं।

हम जाते ही क्यों हैं किसी ऐसे के पास जो कहता है कि रास्ता दिखाऊँगा, गुरु वगैरह? हमें ज़रूरत क्या पड़ जाती हैं? ज़रूरत ये पड़ जाती है कि कहीं-न-कहीं हमें थोड़ा अंदाज़, कुछ अनुभव तो होता ही है कि ज़िन्दगी में रोशनी नहीं है, ताक़त नहीं है, आत्मिक बल नहीं है। और जब आत्मिक बल नहीं होता तो आदमी को किसी के निर्देशों की, सहारों की ज़रूरत पड़ती है। तो हम अपने चारों ओर देखते हैं, जैसे कि हमारी आदत है हर मामले में, कि जितने-जितने लोग कमज़ोर हैं वो कहाँ जा रहे हैं। तो हम देखते हैं कि वो सब जा रहे हैं किसी प्रसिद्ध गुरु इत्यादि या पंथ इत्यादि की ओर, तो हम भी चल देते हैं।

अब ये जो हम निर्णय लेते हैं, किसी गुरु वगैरह के पास जाने का, वो निर्णय लिया तो इसलिए जाता है क्योंकि व्यक्तिगत जीवन में कुछ कमी दिख रही होती है। लेकिन ग़ौर से देखिएगा, आप जिसके पास जा रहे हैं, उसकी ओर जाना उसी पुरानी कमी का विस्तार है या विरोध है। आपकी ज़िन्दगी में आपको कुछ समस्या दिख रही है। उसके कारण आप किसी के पास जाना चाहते हैं कि उन समस्याओं का कुछ हल निकले। आपने इस किसी पंथ की ओर जो कदम बढ़ाया है, वो कदम आपकी समस्याओं का विस्तार ही है या समस्याओं के विरोध में हैं, समस्याओं के विलय के लिए है?

मैं बहुत गूढ़ बात नहीं कह रहा हूँ। थोड़ा सा ध्यान देंगे तो समझ में आएगा। एक व्यक्ति का एक ढर्रा है, एक मानसिकता है, है न? उसका एक केंद्र है जहाँ से वो सारे काम करता है। एक तरह की उसकी सोच है, ऐसे समझ लीजिए। ज़िन्दगी के प्रति उसके दृष्टिकोण हैं, उसकी अपनी कुछ ख़यालात हैं, मान्यताएँ हैं।

अब वो किसी आश्रम, किसी गुरु, किसी पंथ की ओर बढ़ रहा है, तो ये जो उसने अभी ताज़ा, नया निर्णय लिया कि मैं फ़लाने पंथ की ओर बढ़ूँगा, फ़लाने की बात सुनूँगा या फ़लानी किताब पढ़ूँगा — यह निर्णय उसके पुराने ही चलते आ रहे व्यक्तित्व, पुराने ही चलते आ रहे ढर्रों का विस्तार मात्र है या उन ढर्रों को उसने एक विरोधपूर्ण चुनौती दी है?

आप ऊपर-ऊपर से कहेंगे कि देखिए, जब भी कोई किसी शिक्षक के पास, पथ-प्रदर्शक के पास जाता है, तो इसलिए जाता है क्योंकि समस्याओं का वो समाधान चाहता है। नहीं, यह बात ऊपर-ऊपर की है, अंदर की बात मुझे बताइए।

हम जब भी किसी गुरु वगैरह के पास जाते हैं या किसी से भी कोई बात करते हैं; दोस्त से ही सलाह लेते हैं, मान लीजिए, अपनी समस्याओं के बारे में; किसी किताब का चयन करते हैं या कोई वक्ता है, उसकी कुछ बातें सुनना शुरू करते हैं, तो कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जैसे हैं उसी के मुताबिक हमने गुरु चुन लिया हो, उसी के मुताबिक हमने कोई किताब उठा ली हो और धर्म या अध्यात्म का भी नाम लेकर हम बस अपने पूर्ववर्ती — पूर्ववर्ती माने जो पहले से चले आ रहे हैं — अपने पूर्ववर्ती ढर्रों को ही आगे बढ़ा रहे हैं?

ऊपर-ऊपर से हमने ख़ुद को ये समझा रखा हो कि मैं अब जीवन में एक नई शुरुआत के लिए जाने लग गया हूँ, किसी संस्था के पास या आश्रम के पास या गुरु के पास। ऊपर-ऊपर से हमने अपनेआप को यह समझा लिया हो और अंदर-ही-अंदर हम जो कर रहें हों, ये नया प्रयास, वो हो मात्र इसलिए कि नया कुछ जीवन में आए न, बना सब पुराने जैसा ही रहे।

देखिए, बहुत सारी हमारी समस्याएँ सिर्फ़ इसलिए हैं कि हमारे पास कोई निजता नहीं होती, कोई आत्मिकता नहीं होती। हम एक व्यक्ति होते ही नहीं हैं, हम जैसे भीड़ होते हैं। हम सौ तरह के दबावों का और प्रभावों का एक गट्ठर, एक पुलिंदा होते हैं। भीड़ ने हमारी कुंडली लिखी होती है। बहुत सारी हमारी समस्याएँ इसीलिए है कि हमें कुछ समझ में ही नहीं आया होता जीवनभर कि क्या करना है, क्या नहीं करना है। जैसा इधर किसी ने दबाव बना दिया, जैसा उधर से किसी ने सलाह दे दी, जैसा पीछे से किसी ने थोड़ा ठेल दिया, धक्का दे दिया, वैसा हमारा जीवन हो जाता है। तो ये हमारी समस्या रही है।

एक उदाहरण ले रहा हूँ कि हम भीड़ के प्रवाह में बहे हैं। अब आपको जाना है, मान लीजिए किसी गुरु वगैरह के पास। वहाँ भी जाने का आपने निर्णय कैसे लिया? कि वहाँ आपने देखा बहुत बड़ी भीड़ जा रही है; बहुत बड़ी संख्या में उनके अनुयायी हैं और आप भी उधर को ही चल दिए। अब बताइए, जैसा आपका जीवन चल रहा था और ये जो अभी आपने निर्णय लिया, क्या ये दोनों ही, एक ही सिद्धान्त पर आधारित नहीं है? अभी तक आपका जो जीवन चल रहा था, उसमें क्या था मूल सिद्धान्त? आपके जीवन का सिद्धान्त यह था कि जैसे दुनिया चल रही है, वैसे चलो; जैसे भीड़ बह रही है, वैसे तुम भी बहो। जो कोई आकर दबाव बना दे, प्रभावित कर दे, उससे प्रभावित हो जाओ, इंप्रेस्ड, इनफ्लूएंस्ड (प्रभावित)। यही था न?

और उसी सिद्धान्त को आधार बना करके आपने गुरु का भी चयन कर लिया। जिधर को भीड़ जा रही है, उधर को चल पड़ो। तो आपने अपने पुराने ढर्रे का विरोध किया है या विस्तार किया है? अगर आपने पुराने ढर्रे का विस्तार ही किया है तो कोई नया नतीज़ा क्यों मिलेगा? वही नतीज़े मिलेंगे जो सदा से जीवन में मिलते आ रहे थे। बल्कि एक चीज़ और अधिक घातक हो जाएगी। वो ये कि पहले आपको कम-से-कम आत्म-मुग्धता नहीं थी।

आत्म-मुग्धता समझते हैं? जहाँ आदमी अपने ही ऊपर रीझा होता है; जहाँ आदमी अपना ही कायल हो गया होता है; जहाँ आदमी अपनेआप को ही सही, जायज़ ठहरा रहा होता है; मैं तो सही हूँ, सेल्फ़-राइटिअस्नेस। कम-से-कम आपमें पहले नहीं थी। उसका प्रमाण यह है कि आपको समस्या दिखती थी, तभी तो आप किसी गुरु के पास गये। तो पहले कम-से-कम आपके भीतर कहीं-न-कहीं यह स्वीकार भाव था कि आप में कुछ ग़लत है, कुछ खोट है।

और अब जब आप जुड़ गये हैं किसी गुरु से, धर्म से, अध्यात्म से, तो अब आपके भीतर से वो विनम्रता भी ख़त्म हुई। अब आपके भीतर से वो जो सच्चाई की ज़रा सी रोशनी थी, वो भी मिट गयी। अब आपमें एक गहरी अकड़ आ जानी है कि मैं तो जो सबसे ऊँचा काम है, वो कर रही हूँ। और सबसे ऊँचा काम क्या है? कि मैं तो किसी धर्मगुरु के साथ चल रही हूँ और उन्होंने सबसे ऊँची सीख दी हैं और मुझे सबसे ऊँचे उसके परिणाम मिलेंगे। तो अब आपके जीवन में सुधरने और बदलने के रास्ते सब बंद हो गये।

हम क्यों दोष देते हैं गुरुओं को?

आपने कहा कि आप अट्ठाईस साल तक किसी ऐसे पंथ को मान रही थीं जो स्वयंघोषित, मोक्षाधिकारी, जीवन-मुक्त, सत्ताधारी गुरु द्वारा चलाया जाता है।

जैसे लोग होते हैं, उसी अनुसार, उस जगह पर, उस समाज में वैसे गुरु पाये जाते हैं।

देखिए, एक जनसमुदाय कैसा है और उनका गुरु कैसा है — ये बातें आपस में गहराई से अंतर-सम्बन्धित होती हैं। वज़ह साफ़ है। गुरु आपसे बहुत दूर का हो ही नहीं सकता, क्योंकि गुरु को एक हाथ बढ़ा करके आपको थामना होता है। गुरु आपसे बहुत दूर का हो गया तो फिर वो अनाम रह जाएगा, गुमनाम, प्रचलित नहीं हो पाएगा।

ऐसा सैद्धांतिक रूप पर संभव तो है कि कोई बहुत गया-गुज़रा और गिरी हुई चेतना का समाज हो और उसमें भी कोई बहुत ज्ञानी और ऊँची चेतना का गुरु किसी तरीक़े से पाया जाए। लेकिन फिर वो गुरु बहुत प्रचलित नहीं हो पाएगा, क्योंकि उसमें और जो उसके इर्द-गिर्द का समाज है, उसमें बहुत फासला होगा। उनकी आपस में बात ही नहीं हो पाएगी, संवाद ही नहीं बैठेगा, लोग समझ ही नहीं पाएँगे कि वो बात क्या कह रहा है। तो इसलिए समाज की चेतना का जो स्तर होता है, उसी के आसपास का स्तर होता है जो प्रचलित और बड़े गुरु होते हैं।

समाज बेहतर होने लगेगा, समाज को बेहतर गुरु मिलने लग जाएँगे।

लेकिन जब भी किसी गुरु वगैरह की करतूत का भंडाफोड़ होता है, समाज तत्काल सारा दोष गुरु पर ही डाल देता है कि यह फर्ज़ी है, यही धोखा दे रहा था, इसने इतने लोगों को बेवकूफ़ बनाया, ठगा। यह बात ऊपरी-ऊपरी तौर पर सही है, अंदरूनी तौर पर सही नहीं है। अंदरूनी तौर पर बात ये है कि वो लोग ही ऐसे हैं। कोई बेहतर व्यक्ति कोई बेहतर मार्गदर्शक उनको अगर मिला होता, तो क्या वो जाते भी उसके पास? और क्या बेहतर मार्गदर्शक हर समय ही मौजूद नहीं होते? कभी दूर, कभी पास। ज़रूरी नहीं है कि आपके शहर में, आपके मोहल्ले में ही मौजूद हो, दूर हो सकता है।

पर पृथ्वी कभी भी ज्ञानियों से पूरी तरह खाली तो नहीं रही। तो अज्ञानी को गुरु बनाना हमारा काम है न। कोई अपनेआप को घोषित कर दे कि मैं तो गुरु हूँ, तो उससे क्या होता है? वो स्वयंभू गुरु हो जाएगा। जैसा आपने कहा न, स्वघोषित। तो स्वघोषित हो जाएगा, लेकिन उसकी कोई बात ही सुनने नहीं आएगा।

वास्तव में गुरु को गुरु तो समाज बनाता है। तो समाज को अपनेआप से सवाल करना होगा न कि ऐसे इंसान को मैंने गुरु बनाया क्यों। ज्ञानी को ज्ञानी समाज नहीं बनाता, वो एक आंतरिक घटना है। पर जिस अर्थ में हम आमतौर पर गुरु शब्द का प्रयोग करते हैं, गुरु को गुरु तो समाज बनाता है, क्योंकि गुरु से हमारा आशय करीब-करीब नेतृत्व से होता है। हम कहते हैं, धार्मिक नेता।

गुरु वही जिसके सामने चेलों की, अनुयायियों की, श्रोताओं की बड़ी भीड़ हो। तभी तो किसी को गुरु मानते हो न? ज्ञानी तो कोई अपने भीतर भी हो सकता है। लेकिन गुरु होना एक सामाजिक घटना है। गुरु कोई नहीं हो पाएगा, आजकल के प्रचलित अर्थो में, गुरु कोई नहीं हो पाएगा अगर उसके सामने हज़ारों की, लाखों की भीड़ न बैठी हो।

तो गुरु को गुरु बनाया किसने? उन हज़ारों-लाखों लोगों ने जो सामने बैठे हैं। ये लोग कैसे हैं? क्यों बैठे हैं वहाँ? और यह मत कहिए कि इनको बेवकूफ़ बनाया गया है इसलिए बैठे हैं वहाँ पर। ये वही पा रहे हैं उस गुरु के माध्यम से जो ये पाना चाहते थे। एक तरह से गुरु इनका नेतृत्व नहीं कर रहा, गुरु तो इनका अनुगमन कर रहा है। गुरु इनके आगे नहीं चल रहा है, गुरु इनके पीछे चल रहा है। ये जो सुनना चाहते हैं, वही इनको सुना दिया गया है। तभी तो इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठा है। कोई खरी-सच्ची बात बोली जा रही होती तो इतने लोग उसको सुनने वाले आते क्या?

समझ रहे हैं?

देखिए, एक वजह थी कि अध्यात्म की एक-के-बाद एक ऊँचाइयाँ भारत ने छुईं। एक-के-बाद एक नए धर्म और उन धर्मों की शाखाएँ और दर्शन की नई-नई धाराएँ भारत में फूटती रहीं। वजह यह थी कि भारत में जो सामान्य जनसमुदाय ही था, जो प्रचलित संस्कृति ही थी, वो सच्चाई को बड़ा आदर देती थी। चूँकि वो सच्चाई को बड़ा आदर देती थी, इसलिए एक उर्वर भूमि तैयार हुई जिस पर धर्म के तमाम तरह के वृक्ष खड़े हुए।

ये काम दुनिया में बाक़ी जगह उतनी आसानी से नहीं हो पाया। बाक़ी जगहों पर मुक्ति को और मुक्त विचार को और सच्चाई को उतना ज़्यादा आदर नहीं था जितना भारत में था। बहुत प्रमाण है। उदाहरण के लिए, भारत में कभी किसी धार्मिक व्यक्ति को मार देने की, मृत्युदण्ड देने की परंपरा नहीं रही है। भारत में एक वैचारिक विस्तार रहा है — सच चाहिए भले ही सच्ची बात चुभती हो, कड़वी लगती हो, अपनी मान्यताओं के विरुद्ध जाती हो। इसलिए यहाँ पर फिर ऊँचे-से-ऊँचे गुरु और ग्रंथ पाये भी गये।

गुरु‌ और ग्रंथ जो यहाँ ऊँचे-से-ऊँचे हुए, उसका श्रेय यहाँ के समाज को और स्थितियों को मिलना चाहिए। नहीं तो जैसे जीसस को सूली पर लटका दिया गया, वैसे यहाँ पर अगर जगह-जगह ऋषियों को सूली पर लटकाया जा रहा होता तो कहाँ से आ जाते उपनिषद्। ऋषि बेचारे अपनी जान बचा कर छिपे रहते। वो कहाँ इतनी साफ़ बातें बोलते!

यहाँ तो कोई ऐसी बात नहीं रही है धर्म-ग्रंथों की भी, जिसे धर्म-ग्रंथों ने ही चुनौती न दे दी हो। और जब भी कोई बात कही गयी, तो लोग सच के पारखी थे, लोग सच के इच्छुक थे, उन्होंने बात को ध्यान से और सादर सुना। तो लोगों को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि भारत ने अध्यात्म की ऊँचाइयाँ छुईं।

यहाँ ऐसा नहीं होता था कि कोई संत निकला, कोई ऋषि निकला तो उसको पत्थर मार दो या उसके हाथ-पाँव काट दो या उसकी ज़बान काट दो या उसको बंदी बना करके कारागृह में डाल दो क्योंकि उसकी बात पसंद नहीं आ रही है। तो जो एक व्यापक सामाजिक माहौल था, उस सामाजिक माहौल के कारण यहाँ आप फिर कह पाते हो, ‘बाप रे! इतनी ऊँची बातें कही गयी भारत में, इतनी ऊँची बातें कही गयी!’ ये उस सामाजिक माहौल का श्रेय है।

आज अगर वो ऊँची बातें नहीं कही जा रही है, आज अगर आप ही के शब्दों में कहूँ तो गुरु इत्यादियों का स्तर गिरता जा रहा है, तो उसका ज़िम्मेदार भी फिर कौन हुआ? समाज ही हुआ न। आपको वही मिल जाएगा जो आप चाहते हो। जब आप ऐसे थे कि कोई अष्टावक्र उठ सकता था आपके बीच से, तब कोई अष्टावक्र उठा। आप वैसे नहीं होते जैसे आप थे, तो न अष्टावक्र होते न अष्टावक्र-संहिता होती। और अष्टावक्र भारत में हो सकते थे। उस समय पर दुनिया में और जगहों की जो हालत थी, वहाँ वो नहीं हो पाते।

अगर हम मध्ययुगों की बात करें, हम बात करें बारहवीं शताब्दी, चौदहवीं शताब्दी, सोलहवीं शताब्दी, इस समय पर भारत में बहुत अनुपम और बड़ा विस्तृत भक्ति-साहित्य रचा गया। और यही वो समय था जब यूरोप अँधेरे में डूबा हुआ था। अंधविश्वास, महामारी, तमाम तरह की रूढ़ियाँ, इनमें लिप्त था यूरोप।

तो वो जो भक्ति का साहित्य भारत में रचा गया, वो यूरोप में थोड़े ही रचा जा सकता था उस समय। भारत में ही अनुकूल परिस्थितियाँ थी सामाजिक तौर पर कि यहाँ पर संत लोग हो पाते, शांति से बैठ कर किसी पेड़ के नीचे ध्यान कर पाते, भजन कर पाते। ये काम और जगहों पर हो ही नहीं सकता था। इसीलिए और जगहों पर हुआ भी नहीं। तो इस बात को समझना होगा। बार-बार न तो नेता को दोष दे देना चाहिए, न गुरु को। लोगों को नेता भी वही मिल जाता है जिसके वो पात्र होते हैं और लोगों को गुरु भी उसी तरह का ही मिलता है जिसके वो अधिकारी होते हैं।

हमें स्वयं को बदलना पड़ेगा। हमें अपनेआप से पूछना पड़ेगा कि हमें क्या चाहिए। अगर जैसी ज़िन्दगी चल रही है, हम उसी में संतुष्ट हैं तो ऊपर-ऊपर झूठ-मूठ का नाटक क्या करना? एक सतही बदलाव दिखा करके हम किसको धोखा देना चाहते हैं? फिर तो जैसे ज़िन्दगी चल रही है, चलाए चलो। लेकिन नहीं, शायद गहरे बदलाव की हमारी इच्छा ही नहीं है। शायद जैसी ज़िन्दगी हमारी चल रही है, उसमें हमें कहीं-न-कहीं यह भ्रम बैठा हुआ है कि सब बढ़िया है, सब ठीक है। और जो चल रहा है, वैसे ही चल कर जीवन सार्थक हो जाएगा, मंज़िलें मिल जाएगी, सुख-चैन रहेगा। ऐसी कोई धारणा होगी, तभी तो हम कोई मूलभूत बदलाव आने नहीं देते ज़िन्दगी में।

जिस दिन आप चाहने लगोगे कि आपको मिले मूलभूत बदलाव, आपकी चेतना में जैसे क्रांति हो जाए, विस्फोट हो जाए, उस दिन आपको क्रांति लाने वाला गुरु भी मिल जाएगा। वो किसी भी शक्ल में, किसी भी सूरत में, किसी भी स्थिति में मिल सकता है।

लेकिन जब आपकी माँग ही न हो एक अंदरूनी भूचाल की, तो फिर आपको क्यों कोई ऐसा मिलेगा जो आपकी आंतरिक व्यवस्था को उलट-पलट दे? और वैसा अगर आपको मिल भी गया अनायास, संयोगवश, तो आप उसे स्वीकार ही नहीं करोगे। वो बहुत करुणा दिखाए, वो ज़बरदस्ती आपके जीवन में घुस आए, तो आप कहोगे, ‘बाबा, पीछे हट। क्यों चिपक रहा है?’ उस पर भी वो पीछे न हटे तो आप उसके विरोधी हो जाओगे। उसके ख़िलाफ़ संभव है कि कोई हिंसक कारवाई भी कर दो।

तो इसमें बात यहाँ पर गुरु वगैरह की है ही नहीं, बात हमारी है। हमें जब अपनी वर्तमान स्थिति से विरक्ति होगी थोड़ी, एक जुगुप्सा उठेगी, अस्वीकार उठेगा, तो फिर हम ढूँढ़ेंगे और मदद माँगेंगे किसी ऐसे से जो हमें आमूलचूल बदल सकता हो। और फिर कह रहा हूँ, ज़रूरी नहीं है कि वो मदद किसी व्यक्ति से ही आए। वो किसी भी तरह से आ सकती है।

अगर अध्यात्म में थोड़ा भी आपकी पैठ है तो आप यह समझते हैं कि गुरु आवश्यक नहीं है कि कोई व्यक्ति ही हो। गुरु आवश्यक यह भी नहीं है कि आपसे बाहर का ही कोई विषय हो, कोई इकाई हो। कुछ भी हो सकता है। गुरु किस रूप में, किस शक्ल में आएगा, वो बात प्रमुख नहीं है। प्रमुख बात यह है कि आपको चाहिए भी है; चाहिए होगा तो मिल जाएगा।

अब आपने पूछा कि मैं क्या करूँ आवाज़ उठाऊँ या अध्यात्म में आगे बढूँ, अभी तक जो मैंने बात बोली उससे आप समझ गयीं होंगी कि जिनको आप नकली गुरु बोलते हैं, वो आते कहाँ से हैं। वो हमारे अंधेरे से आते हैं; वो हमारी अंधी इच्छाओं से आते हैं। तो अगर आप चाहते हैं कि समाज में गुरुओं का जो स्तर है, वो बढ़े, तो समाज में पहले आम आदमी को अपनी चेतना के स्तर को उठाना होगा। जैसी आम आदमी की चेतना होगी, उसी अनुसार गुरुओं का स्तर पाया जाएगा। कौओं की जमात होगी तो उसमें जो बड़े-से-बड़ा गुरुदेव भी होगा, वो कोई कौआ ही होगा।

आपको देखना होगा कि आप क्या बने बैठे हो जीवन में। जो आप नहीं हो, अगर आपने वही बने रहने की ज़िद पकड़ ली है तो फिर उसी के अनुसार आपको परिस्थितियाँ मिलती रहेंगी। परिस्थितियों को दोष मत दीजिएगा, अपनी फिर ज़िद को दोष दीजिएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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