आचार्य प्रशांत इस वक्त उत्तराखंड में दो सौ से ज़्यादा बाँधों का, डैम्स का निर्माण चल ही रहा है। और उसके अलावा सैकड़ों अन्य किस्म की तथाकथित विकास परियोजनाएँ। और ये सब-के-सब तोड़-फोड़ पर आधारित हैं। उसके अलावा हम रेल लेकर जा रहे हैं, एकदम पहाड़ की छाती तक हमें रेल पहुँचा देनी है। और वो जा रही है सुरंगों के माध्यम से, टनेल्स (सुरंग)। ठीक-ठीक आंकड़ा मुझे याद नहीं है। लेकिन मेरे खयाल से तीस या पचास किलोमीटर की सुरंग खोदी जा रही हैं कुल मिलाकर। कुछ ऐसा ही है।
अब आप देखिए क्या-क्या है- सड़क का चौड़ीकरण राजमार्ग का, रेलमार्ग का निर्माण जिसके लिए सुरंगे तोड़ी जा रही हैं, बाँध, अन्य किस्म की विकास परियोजनाएँ और प्राइवेट सेक्टर (नीजि क्षेत्र) द्वारा हाऊसिंग और हॉस्पिटालिटी (मेहमाननवाज़ी), इसके लिए तोड़-फोड़ और निर्माण। होटल बन रहे हैं, अपार्टमेंटस् बन रहे हैं और घर वगैरह तो बनते ही रहते हैं। इसके अलावा इन सबके सर पर क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) जिसके कारण अतिशय वृष्टि। ये हम क्या कर रहे हैं?
अभी हम रेल को चला देंगे और जब रेल चलती है, तो उसमें से कम्पन कितना होता है आप समझ रहे हैं? ये जो तोड़-फोड़ है, उसमें तो आप ये कह सकते हैं भाई कि एक बार सड़क बन गयी तो बन गयी। अब चलो, बन गयी अब इसके अलावा अतिरिक्त आगे और नहीं टूट-फूट होगी। लेकिन रेल तो रोज़ चलेगी न। और जब रेल चलती है तो वाइब्रेशन (कम्पन) होते हैं। और जब वाइब्रेशन होते हैं तो चट्टानें ढ़ीली पड़ती हैं।
दो चीज़ें एकदम ऐसे जुड़ी हुई हों, उनको आप हिलाएँ रोज़-रोज़ वाइब्रेशन दें तो क्या होगा? वो दोनों ढ़ीली पड़ेंगी। जब ढ़ीली पड़ेंगी तो टूट-टाटकर नीचे भी गिरेंगी। और उनके ऊपर जो कुछ बसा हुआ होगा, वो भी सब नीचे ध्वस्त हो जाएगा बिलकुल। तो अब ये सब होने जा रहा है। धर्म-धर्म-धर्म जितना नारा भारत में पिछले बीस-तीस साल में लगा है। इतना पहले नहीं लगता था। और पिछले बीस-तीस साल में भारत में सनातन धर्म का जितना नाश हुआ है, उतना भी कभी नहीं हुआ।
हमको कौनसा धर्म चाहिए? मैं बताता हूँ। हमको एनआरआईज़ वाला धर्म चाहिए। हमको ‘सूरज बढ़जात्या’ की फिल्मों वाला धर्म चाहिए, राजश्री प्रोडक्शन वाला धर्म। जहाँ बहुत सारा पैसा है सबसे पहले, जैसे एनआरआईज़ के होता है। बहुत सारा पैसा है बहुत सारा और साथ में घर में एक पूजा स्थल है, जहाँ पर सांस्कृतिक पिताजी अपनी दो सांस्कृतिक बेटियों और दो सांस्कृतिक पुत्रों और एक अति सांस्कृतिक पत्नी के साथ खड़े होकर रोज़ सुबह कोई कर्मकाण्डी प्रार्थना किया करते हैं। और उसके बाद पूरा जो परिवार है वो लड्डू, गुजिया खाता है। और सब एक साथ नाचते हैं।
ज़बरदस्त किस्म की शादियाँ होती हैं, आधी पिक्चर (चलचित्र) सिर्फ़ शादी पर आधारित होती है और उसमें पूरा सांस्कृतिक परिवार नाचता है। ये हमारा आज का आदर्श बन चुका है। द आइडियल हिन्दू ड्रीम (आदर्श हिन्दू स्वप्न), ये है। वहाँ किसी से पूछ दो गीता के दो शब्द पता हैं? नहीं किसी को पता होंगे। लेकिन कोई उथले किस्म का भजन सबने रट रखा होगा। वही राजा इन्द्र ने बाल्टी मँगायी। वो सबने रट रखा होगा।
वहाँ किसी से पूछ दो कि ‘अद्वैत’ या ‘सांख्य’ या ‘बौद्ध’ किसी दर्शन के बारे में तुलनात्मक कुछ टिप्पणी कर दो। वो तुम्हारा मुँह ताकेंगे। लेकिन उनसे पूछ लो तुमलोग तो बहुत धार्मिक हो न? बोले हाँ, हम हैं धार्मिक, लो लड्डू खाओ, शुद्ध देसी गाय के घी से बने हैं। हमारा धर्म क्या है? देसी गाय का घी।
वही एनआरआई स्वर्ग हमको उत्तराखंड में बनाना है। और वहाँ तो और अच्छा है। जलवायु सुइटज़रलैण्ड जैसी है वहाँ पर। तो लगता है कि हाँ भाई मामला एनआरआई है बिलकुल। है न? बढ़िया मलय पवन बह रही है, मन्द-मन्द शीतल-शीतल। वहाँ बढ़िया आलिशान कुछ खड़ा कर दो, उसके सामने यूँ देखो उसको ये देखो, ‘हिन्दू हृदय सम्राट।’
ऋषिकेश के आम रेस्टरां में भी माँस बिकना शुरू हो गया है। जो नहीं होता था। और मैंने इस मामले पर पहल भी करी है। जवाब ये मिलता है जो आ रहे हैं वहाँ, वो यही माँग रहे हैं माँस चाहिए। २०१६ में पहला वहाँ पर ‘मिथ डेमोलिशन टूर’ करा था। वहाँ बहुत आसान होता था वीगन खाना मिलना। क्यों आसान होता था? क्योंकि तब वहाँ विदेशी बहुत आते थे। और वहाँ जो विदेशी आते थे, वो कहते थे टोफू दो, वो चाय कहते थे बादाम के दूध की दे दो, नारियल की दूध की दे दो, सोया की दे दो। लेकिन जानवर पर क्रूरता करके ये जो तुम दूध वगैरह निकालते हो ये नहीं चाहिए।
२०१६ में वहाँ अच्छा खासा वीगन माहौल था। फिर बीच में आ गया कोविड, विदेशियों ने आना कर दिया बन्द। विदेशियों ने आना बन्द कर दिया और भारत में धार्मिकता और चढ़ गयी। इतना गन्दा कर डाला इन्होंने ऋषिकेश को, भीतरी तौर पर भी बाहरी तौर पर भी। वहाँ जो सफ़ाई का स्तर है, इन्होंने वो भी बहुत गिरा दिया। और बहुत उम्मीद कर रहा हूँ कि अब बेहतर हो जाएगा कुछ। क्योंकि अब फिर से विदेशियों ने आना शुरू कर दिया है। वो जब आते हैं तो भारतीय भी कहते हैं, साफ़ करो, साफ़ करो फॉरेनर्स (विदेशी) आ रहे हैं।
तो वहाँ पर लोग जानते हैं मुझको। उनसे बात करता हूँ तो जो सच्चाई है बोल ही देते हैं। बोलते हैं, विदेशी अभी भी यहाँ जितने हैं, वो माँस बिलकुल नहीं माँगते। ये जो देसी आते हैं न, इन्हें माँस चाहिए। ये कहते हैं और हम ठंडी जगह पर आये किसलिए हैं। बीयर और चिकन के बिना हिल्स (पहाड़) का मज़ा ही नहीं आता। बियर, चिकन, सेक्स।
वो कौनसी बीच (समुद्र तट) है, जिसपर बहुत जाता हूँ मैं। और वो वाला वीडियो भी बनाया था वहाँ पर, रिकॉर्डिंग करी थी। जिसमें वो दो लड़कियाँ आ गयी थी बीच में, जहाँ पर शमशान घाट भी है वो? फूलचट्टी। फूलचट्टी पर हमने अपने आरम्भिक शिविर करे थे २०११, २०१२ के। और बहुत सारे लोगों की ज़िन्दगियाँ बदली हैं फूलचट्टी पर।
वो इतनी शान्त जगह होती थी। वहाँ पर कहीं पर रौशनी भी नहीं दिखाई देती थी। रातभर बैठे रहे, पढ़े जा रहे हैं, ‘अपरोक्षानुभूति’ खुली हुई है। लालटेन की रौशनी है, पढ़ रहे हैं, पढ़ रहे हैं, वहीं पर सो गये हैं। सुबह उठ रहे हैं तो देख रहे हैं पानी बढ़ आया है बिलकुल पाँव तक। पानी बढ़ आया है, वहाँ रेत पर ही सो रहे थे। और बड़े वहाँ पर अद्भुत अनुभव रहे हैं। बहुत जाना है बहुत सीखा है।
अभी हालत ये है कि आप फूलचट्टी पर नंगे पाँव चलेंगे तो लहुलुहान हो जाएँगे, बताइए क्यों? बीयर की टूटी हुई बोतलें। ये हमारा विकास चल रहा है। और हम बहुत प्रसन्न हैं। हाँ, इस पूरी चीज़ में ऋषिकेश की इकोनोमी (अर्थव्यवस्था) ज़रूर आगे बढ़ी होगी। क्योंकि होटलों की संख्या बढ़ गयी है, राफ्टिंग ज़बरदस्त रूप से हो रही है, एडवेंचर स्पोर्ट्स (खतरनाक खेल) चल रहे हैं। और मटन वगैरह साधारण आलू-मेथी से तो महंगा ही आता है। तो उससे जीडीपी बढ़ता है। रेज़िडेंशियल(आवासीय) भी बढ़ा होगा, महंगा हो गया होगा।
इसी दिसम्बर में ऋषिकेश में प्रस्तावित था कि जाएँगे करेंगे, वो नहीं करा। कुछ तो बात ये थी कि सुरक्षा की दृष्टि से इधर-उधर से कुछ इनपुटस् (सूचना) आये थे कि ठीक नहीं है। अभी मत जाइए वहाँ पर सिक्योरिटी (सुरक्षा) का आपके लिए। लेकिन सिक्यूरिटी वगैरह की बहुत परवाह करी नहीं है अतीत में। रहा भी है कि दिक्कत हो सकती है तो भी चले गये हैं।
मन सा उचट रहा है। जिस जगह से मुझे इतना प्रेम रहा है और जिस जगह से मुझे बहुत प्रेम मिला भी है। जिस गंगा के तट पर मैंने इतना कुछ सीखा है। इन्होंने ऐसा कर दिया उसको कि उससे मेरा मन उचटने लग गया है। और मैं सचमुच मना रहा हूँ कि वहाँ पर विदेशी आना और बहुत सारे विदेशी आना शुरू करें। शायद कुछ सुधरेगा माहौल। क्योंकि वो यहाँ पर होटलों के लिए नहीं आते, होटल उनके पास अपने यहाँ बहुत अच्छे-अच्छे हैं। वो यहाँ विकास देखने नहीं आते, उनका अपना विकास ठीक-ठाक है। वो यहाँ जिस चीज़ के लिए आते हैं, वो दूसरी है। और वो जिस चीज़ के लिए आते हैं, उस चीज़ को हम खा गये।
मेरे पास कोई एक्सेस (पहुँच) नहीं है कि मैं जान पाऊँ कि पूरी जो प्रोजेक्ट फिज़िबिलिटी रिपोर्ट (परियोजना व्यवहार्यता विवरण) है, ये चार धाम की, वो क्या बोलती है। लेकिन पेड़ों का कटना, वो तो मैंने अपनी आँखों से देखा है न। हर दो सौ मीटर पर अर्थमूवर्स खड़े हुए हैं और वो पहाड़ काट रहे हैं। आपमें से कोई गया है उस रास्ते पर पिछले दो साल में? वो अभी भी चल ही रहा है वहाँ पर काम। इस पूरी चीज़ में वैसे, वो जो कल एक कमेंट आया था उत्तराखंड से, उसको दीजिएगा।
जो उत्तराखंड के निवासी हैं, उनका भी कुछ कम योगदान नहीं है। देवभूमि है, पूण्य भूमि है लेकिन अज्ञान और अन्धविश्वास से बिलकुल भरी हुई है। अगर स्थानीय निवासी एकजुट हो जाएँ कि वो ये सबकुछ नहीं होने देंगे जो वहाँ विकास के नाम पर हो रहा है। तो ये हो नहीं सकता। लेकिन वहाँ पर भी टी.वी. पहुँच गया न पचीस-तीस साल पहले। तो वहाँ भी सबको पैसा चाहिए और पैसा चाहिए और पैसा चाहिए। तो वो भी कहते हैं होता रहे।
देखिए, अध्यात्म जहाँ नहीं होगा वहाँ फिर एक ही चीज़ होगी जो हमें चाहिए होगी। क्या? भौतिक सुख और अनन्त भौतिक सुख। भौतिक आवश्यकताएँ सबकी होती हैं। बिलकुल होती हैं, आपकी हैं, मेरी हैं, सब की होती हैं। भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करना एक बात होती है। और भौतिक सुखों को ही जीवन का परम लक्ष्य बना लेना बिलकुल दूसरी बात होती है।
ये कल उत्तराखंड से आया है( मोबाइल में देखते हुए)। तो एक सज्जन हैं उन्होंने लिखा है। अब ये जो कमेंट है ये सार्वजनिक ही है, यूट्यूब पर पड़ा हुआ है, मैं उसको पढ़े देता हूँ, मैं उत्तराखंड में पैदा हुआ था, स्वाभाविक ही है कि मेरे आसपास माँसाहार चलता था, और चलता ही है। किन्तु जानवरों के लिए करुणावश मैंने माँस छोड़ दिया था। पर नवीं कक्षा में मेरे अध्यापक ने मुझसे कहा कि जान तो पौधों की भी जाती ही है। तो ये तर्क सुनकर मैंने फिर से माँसाहार शुरू कर दिया।
कक्षा ग्यारहवीं में मेरे सामने मैंने देखा, माँस की दुकान पर एक मुर्गे को बड़ी बेदर्दी से मारा गया। पहले उसके पैर काटे गये फिर सिर और जब वो तड़पकर मर गया तो उसकी खाल खींच कर काट दिया। उसे अन्य मुर्गे देख रहे थे। उनमें भय छाया हुआ था। मैं फिर भी नीच विचारों की आड़ ले ये सब देखकर भी चुपचाप बैठा रहा। और वहाँ से मुर्गे की जगह मछली का माँस खरीदकर घर ले गया।
लेकिन बारहवीं के बाद जीवन की दिशा तय करते समय जब मैं तमाम दिशाओं में सोचने लगा, तो मन हर बार किसी भी दिशा में थोड़ा आगे सोचकर बढ़ने से इनकार कर देता। निश्चित हो गया कि मन पुरानी दिशाओं में ज़्यादा दिनों तक रमेगा नहीं। तो फिर क्या करणीय है? क्या करूँ?
तब मैंने यूट्यूब में जीवन के बारे में खोजना शुरू किया। पहली बार फिर मैंने अचार्य जी को सुना, उस वक्त मैं जितना भी समझा जीवन की गाड़ी आगे को चल पड़ी थी। फिर मेरा माँस छूट गया। कुछ दिनों बाद दूध भी छूट गया। फिर मंदिर के लिए फूल भी जो खुद ही भूमि पर गिर गये हैं, वो जाने लगे। फिर खाए हुए फलों के बीजों को भी मैं अलग-अलग जगह फेंकने लगा। और कुछ को तो बोने भी लगा। फिर सूक्ष्म जीवों के जीवन को ध्यान में रखते हुए भी अपने चुनाव बदलने लग गया। (फिर ये बीच में कटा हुआ है।)
और अब ये सोचता हूँ कि ये सबकुछ करने वाला पहले भी प्रकृति थी। अब कोई और है। माँसभक्षण मेरे क्षेत्र में बहुत होता है। यह पर्यटन क्षेत्र है। लोग यहाँ आते हैं, घूमते हैं। उनमें से अधिकांश धुएँ, शराब और माँस का मज़ा लेकर चले जाते हैं। किन्तु मरे जानवरों की लाशें, भय, चीख, दर्द, जीवन कुछ भी नहीं बचता।
ये गोलू देवता के नाम पर मुर्गी व बकरी की बलि देते हैं। जिसमें बस ये होता है कि काटकर चढ़ावे की नौटंकी करके खुद ही खा जाते हैं। जबकि इनमें थोड़ी भी शर्म होती तो ये गोलू देवता के साथ ऐसा नहीं करते। क्योंकि गोलू देवता इसी क्षेत्र में भैंसे चराते थे, और उनका भैंसों के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध था। यहाँ तक कि उनके शत्रु ने भी उन्हें मारने के लिए भैंसों को मोहरा बनाया। और जब गोलू देवता भैंस को बचाने लगे, तो उनके शत्रु ने छल से उनकी गर्दन पर वार किया। फिर गोलू देवता ने अपनी गर्दन के रक्तस्राव पर कपड़ा बाँधकर खून को रोककर उस शत्रु को मारा। और फिर उनके अन्तिम क्षण उन्हीं भैंसों के साथ अत्यन्त करुणामय तरीके से व्यतीत हुए।
पर ठीक उसी जगह पर ‘जहाँ कभी प्रेम और करुणा की रसधार फूटी थी, गोलू देवता की वंशी का संगीत बहता था’, लोग आज निर्दोष पशुओं की जीवनधारा समाप्त करते हैं। करुणा व प्रेम की रसधार बहाने के स्थान पर उसी जगह पशुओं की रक्तधार बहाते हैं। अन्त में आखिरी बात कही है, ‘चैतन्यता ही बोध ला सकती है।’
तो अध्यात्म स्थानीय लोगों में भी नहीं, भले ही देवभूमि है। अन्धविश्वास कूट-कूटकर भरा हुआ है, अध्यात्म नहीं है। और अध्यात्म उनमें भी नहीं जो देहरादून में बैठे हैं कि दिल्ली में बैठे हैं। न स्थानीय लोगों में, न राजधानियों में बैठे हुए आकाओं में। तो बताइए कौन बचाएगा फिर प्रकृति को और पर्वतों को? ‘विकास’ की अन्धी परिभाषा: पहाड़ों पर प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण कौन लोग हैं? क्या स्थानीय निवासी? क्या स्थानीय निवासी पहाड़ों को गन्दा करते हैं? नहीं। स्थानीयों में तो फिर भी पर्वत के प्रति कुछ प्रेम होता है। पर्वतों को बर्बाद तो ये पर्यटक करते हैं। और इन्हीं पर्यटकों को आप और ज़्यादा और ज़्यादा वहाँ बुला रहे हो। काहे के लिए भाई?
कहेंगे, अर्थव्यवस्था के लिए। पहाड़ों के लोगों को भी तो पैसा मिलना चाहिए। तो एक काम कर लो, पहाड़ों के लोगों को सब्सिडाइज़ (रियायती) कर दो, वो कहीं बेहतर है। उन्हें सौ तरह की सब्सिडीज़ (रियायत) दे दो। अगर आप यही चाहते हो की पहाड़ के लोगों के हाथ में कुछ पैसा आये। तो उसके लिए पहाड़ को क्यों बर्बाद कर रहे हो? पहाड़ के लोगों को सब्सिडी दो बहुत अच्छी बात है। पूरा देश तैयार हो जाएगा।
भाई, पूरा देश जो टैक्स (कर) भरता है, उसका आधे से ज़्यादा तो तुम खा जाते हो अपने भ्रष्टाचार में। ठीक? हमारा आपका जो टैक्स जाता है, आपको क्या लग रहा है वो विकास के कार्यों पर खर्च होता है। हमारा-आपका टैक्स तो यही खा जाते हैं सब, नेता और ब्यरोक्रेट्स। तुम्हें पहाड़ों की इतनी ही चिन्ता है तो वो जो हम टैक्स देते हैं, उसी टैक्स का इस्तेमाल करके पहाड़ के लोगों को सब्सिडीज़ दे दो। उनकी ज़िन्दगी बेहतर हो जाएगी आर्थिक रूप से भी। लेकिन पहाड़ क्यों बर्बाद कर रहे हो।
ये इतनी अजीब बात है। एक विदेशी आता है जब हमारे पर्वतों पर। तो वो विदेश में माँसाहार करता होगा, भारत आकर कहता है, नहीं। माँसाहार छोड़ दो, मैं पशु क्रूरता के उत्पाद माने, दूध पनीर वगैरह भी नहीं छूऊँगा। ये विदेशियों का हाल रहता है। वो यहाँ पर साधारण कपड़े पहनकर घूमते हैं, अपने देश वाले नहीं। वहीं ऋषिकेश से एक-दो सौ, चार सौ रूपए का कुर्ता खरीद लेंगे। वही डाल लेंगे और वही पहनकर अपना घूम रहे हैं। एक फटी चप्पल में अपना वो मज़े कर रहे हैं।
और जब देसी आदमी पहाड़ों पर जाता है तो वहाँ बकरा चबाता है। वो कहता है, हम पहाड़ पर आये किसलिए हैं। बीयर और बार्बीक्यू। विदेशी माँसाहारी हैं पर वो पहाड़ पर आकर हो जाता है, शाकाहारी। और देसी अपने घर में भले शाकाहारी होगा। लेकिन पहाड़ पर चलकर हो जाता है, बलात्कारी। एकदम पूर्ण माँसाहारी। ये हमारी महान संस्कृति है। और वो इसलिए है क्योंकि संस्कृति में अध्यात्म कहीं नहीं है। बस संस्कृति भर है। मिट्ठू बोलो राम-राम। तो मिट्ठू राम-राम बोल रहा है, ‘तोता रटन्त संस्कृति।’
क्या है ये?(मोबाइल में देखते हुए) तो जब ये सब तोड़-फोड़ हुई थी। और उसमें जो बहाना बताया गया था, आर्मी का कि ये तो देश की रक्षा के लिए भी की जा रही है। तो भारतीय सेना की ओर से वक्तव्य आया था, मैं बिलकुल वैसे ही पढ़े देता हूँ- “इंडियन आर्मी रिलक्टेंटली फॉलोइंग पोलिटिकल इस्टैब्लिशमेंट,इंडियन आर्मी रिलेक्टेंटली फॉलोइंग पोलिटिकल इस्टैब्लिशमेंट” (भारतीय सेना अनिच्छा से राजनितिक प्रतिष्ठान का अनुसरण कर रही है।) ये है, विदिन कोट्स।
सीनियर एडवोकेट ‘कोलिन गोनसालविस’ रीप्रेज़ेंटिंग द इंडियन आर्मी, टोल्ड द सुप्रीम कोर्ट, डैट द डंडियन आर्मी वाज़ ओन्ली फॉलोइंग द पोलिटिकल इस्टैब्लिशमेंटस् विम्स ( भारतीय सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ वकील कोलिन गोन्साल्विस ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि भारतीय सेना केवल राजनीतिक प्रतिष्ठान की सनक का पालन कर रही थी।) विम्स माने सनक। सनक है। विकास चाहिए विकास।
दैट द इंडियन आर्मी वाज़ ओन्ली फॉलोइंग द पोलिटिकल इस्टैब्लिशमेंटस् विम्स एण्ड इट वाज़ आलरेडी हैपी विथ द एग्ज़ीस्टिग रोडस्, एण्ड इट वाज़ आलरेडी हैपी विथ द एग्ज़ीस्टिग रोडस् दैट कनेक्ट द पिलग्रीमेज टू द चारधाम। ( भारतीय सेना केवल राजनीतिक प्रतिष्ठान की सनक का पालन कर रही थी और यह पहले से ही मौजूदा सड़कों से खुश था, और यह पहले से ही मौजूदा सड़कों से खुश था जो चारधाम की तीर्थयात्रा को जोड़ती हैं।) इंडियन आर्मी वाज़ आलरेडी हैपी विथ द एग्ज़ीस्टिग रोडस्। ये रोड्स इंडियन आर्मी के लिए नहीं हैं। ये रोड्स हैं इंडियन प्राइड(भारतीय अहंकार) को शोकेस ( प्रदर्शन) करने के लिए।
सारा खेल ही वही है, ‘प्राइड’। प्राइड माने, अहंकार। हम भी तो कुछ हैं। ये देखो बड़ी-बड़ी चीज़ें हमारी भी देखो। और जब हम बड़ी-बड़ी चीज़ें दिखाएँगे तो लोग वैसे ही इम्प्रेस (खुश) हो जाएँगे। जैसे ‘करण जौहर’ और ‘सूरज बरजात्या’ की फिल्में देखकर इम्प्रेस होते हैं। और फिर हमको मिलेगा वोट। हम बोलेंगे देखो, हमने क्या बड़ी-बड़ी चीज़ें की हैं तुम्हारे प्राइड को बढ़ाने के लिए।
अब ये आर्मी (सेना) ने क्या कहा है? सुनिएगा। आर्मी कह रही है, किनसे? अ बेंच ऑफ जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड सूर्यकान्त एण्ड विक्रमनाथ ( डी वाई चन्द्रचूड सूर्यकान्त और विक्रमनाथ की न्यायपीठ), दैट द प्रोजेक्ट , कौन सा प्रोजेक्ट? यही जो रोड वाइडनिंग प्रोजेक्ट (सड़क चौड़ीकरण परियोजना) है।
दैट द प्रोजेक्ट वाज़ टेकिंग प्लेस बीकॉज़ इन 2016 द ‘चारधाम परियोजना’ वाज़ डिक्लेयर्ड विच इन्क्लूडेड कंस्ट्रक्शन ऑफ़ हाईवेज़ ओन द माउंटेंस। ( यह परियोजना इसलिए हो रही थी क्योंकि २०१६ में ‘चारधाम परियोजना’ घोषित की गयी थी, जिसमें पहाड़ों पर राजमार्गों का निर्माण भी शामिल था।) नाओ विदिन कोट्स वाट इज़ द आर्मी काउन्सिल सेइंग विदिन कोट्स ( अब उद्धरण के अन्दर सेना परिषद उद्धरण के अन्दर क्या कह रही है।) “दिस विल एनेबल एसयूवीज़ (SUVs) टू रेस अप एंड डाउन द माऊन्टेन, दिस कम्स एट अ टेरिबल कोस्ट एंड इट नीड्स टू बी वेयड” (इससे एसयूवीज़ पहाड़ पर ऊपर और नीचे दौड़ने में सक्षम हो जाएगी। इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है और इससे सावधान रहने की ज़रूरत है)
ये आर्मी ने कहा है कि ये आर्मी के लिए नहीं बन रहा है। ये बन रहा है एसयूवीज़ के लिए। सनासन-सनासन मौज़ मारी जाए। और एसयूवीज़ का मतलब आम आदमी भी नहीं होता। एसयूवीज़ का मतलब आर्मी तो होता ही नहीं है। एसयूवीज़ का मतलब आम आदमी भी नहीं होता। एसयूवीज़ का मतलब होता है एनआरआई। (गैर आवासीय भारतीय) वही द एनआरआई ड्रीम।
एनआरआई मतलब देसी एनआरआई भी शामिल है उसमें, गुडगांव वाला एनआरआई। और वो एनआरआई बहुत ज़रुरी है। क्यों? क्योकि वो फंडिंग (अनुदान) करता है न। वही है जो हिन्दू प्राइड (हिन्दू गर्व) का बादशाह है और वही फंडिंग (अनुदान) भी करता है। तो ये सारा विध्वंस उसके लिए किया जा रहा है। आपके और हमारे लिए भी नहीं है ये। आर्मी के लिए भी नहीं है, आम आदमी के लिए भी नहीं है। जोशीमठ यूँही नहीं धँस रहा।
समझ में आ रही है बात?
आगे ये अगेन (फिर) आर्मी के काउंसिल का वक्तव्य है, कैन द हिमालयाज़ अलाव ह्यूमन बिइंगस् टू डू थिंगस् डैट दे वान्ट टू डू? (आप जो कुछ भी करना चाहते हो, क्या हिमालय अनुमति देंगे आपको करने की?) द कॉन्सीक्वेंसेज़् आर टेरीबल, वन ऑफ़ अस मेट बिपिन रावत, चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ ,( परिणाम भयानक हैं, हममें से एक ने चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बिपिन रावत से मुलाकात की) ही सेड (उन्होंने कहा), अब ये बिपिन रावत का वक्तव्य है और बिपिन रावत खुद उतराखंडी थे।
बिपिन रावत सेड, वी द आर्मी वी द आर्मी आर हैप्पी विद द रोड्स एज़ दे आर ( बिपिन रावत ने कहा, जैसी सड़कें हैं, हम सेना उनसे खुश हैं।) हमें नहीं चाहिए। ये हो रहा है दिल्ली, चंडीगढ़, गुड़गांव, बाकी जितनी जगहों पर एसयूवी, एनआरआई, मामला है उसके लिए चल रहा है। ताकि आप कह सकें, हम भी तो कुछ हैं। पढ़ लीजएगा बाकी पूरा कितना मैं करूँ।