कागा करंग ढंढोलिया सगला खाइया मासु। ए दुइ नैना मति छुइयो पिउ देखन की आस।। ~ बाबा फ़रीद
आचार्य प्रशांत: बाबा शेख फ़रीद का है। तो जो विरहिणी है वो कौए से बात कर रही है और कह रही है कि जितना माँस है शरीर में, तू खाले सब, मैं नहीं रोकती तुझे, लेकिन ये दो आँखें छोड़ देना। ये दो आँखें छोड़ देना क्योंकि इन्हें पिया को देखने की आशा है। आम व्यवहार में , बातचीत में, लोकोक्ति के तौर पर, कला में और फिल्मों में, बाबा फ़रीद के ये वचन खूब इस्तेमाल हुए हैं। ज़रा जाएँगे बाबा फ़रीद के पास, देखेंगे कि वो कहना क्या चाहते हैं उनसे।
शरीर से अर्थ है वो जो तुम हो। तुम क्या हो? तुम अनन्त नहीं। तुम एक टुकड़ा हो जिसकी सीमाएँ हैं। सीमाओं से बाधित जो तुम्हारा होना है, उसको शरीर कहते हैं। जो तुम्हारा अधूरा, अपूर्ण ‘मैं’ है, उसके सीमित विस्तार को नाम दिया जाता है शरीर। इसी कारण वेदान्त किसी एक शरीर की बात नहीं करता है, वो कई शरीरों की बात करता है। कौन-कौनसे हैं वो शरीर? वो कहता है, ‘स्थूल शरीर है’, वो कहता है, ‘सूक्ष्म शरीर है’ फिर वो कहता है, ‘कारण शरीर है।’
इसी तरह तुम्हारे होने को एक होने का नाम नहीं दिया गया है, तुम्हारे कई कोष बताये गए हैं, कई ठिकाने बताये गए हैं। और जो तुम हो, वो तीनों शरीर भी है और तीनों शरीर के पार जो बिन्दु है वो भी है। बाबा फ़रीद कह रहे हैं, ‘शरीर को जाने दो, आँखों को छोड़ देना।’ बाबा फ़रीद कह रहे हैं, ‘शरीर को जाने दो, आत्मा को छोड़ देना। शरीर ले जा।’
चुन-चुन खाइयो माँस।
‘जितने कोष हैं, सब समाप्त हो जाएँ और स्थूल भी जाए और सूक्ष्म भी जाए, अन्ततः जो कारण वृत्ति है वो भी जाए लेकिन मन का वो आखिरी कोना रह जाए जो अन्ततः आत्मा में मिल जाना है, जो अन्ततः सत्य में मिल जाना है। वही मेरी सबसे कीमती धरोहर है। मेरा सबकुछ चला जाए, मेरे भीतर की उस अन्तःप्रेरणा को छोड़कर जो मुझे सत्य की ओर ले जाती है। बाकी सब व्यर्थ है, वो चला भी गया तो मेरा क्या गया! लूट लो, सब ले जाओ।’
कौए से आशय है — परिस्थितियाँ, संसार। ‘संसार तू सबकुछ ले जा मेरा। (दोहराते हुए) तू सबकुछ ले जा मेरा। जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वो विचार रूप में ही संचित है।’ तो आ गया न मनोमय कोष में। ‘जा ले जा इसको। धन, दौलत, रिश्ते, नाते, धारणाएँ, ज्ञान सब छिन जाए मेरा।’ और उसे छिन ही जाना चाहिए क्योंकि सत्य कोषातीत है। ये सारे शरीर और कोष तो आवरण हैं न? जब तक कौआ माँस को खत्म नहीं कर देता, तब तक तो मैं अपने आपको माँस का पिंड ही समझता रहूँगा। इस माँस का खत्म होना ज़रूरी है।
माँस से क्या अभिप्राय है समझना। माँस से अभिप्राय है — मेरे ऊपर चढ़ा हुआ आवरण। मैं जो हूँ मेरे ऊपर जो नकली कपड़े, चेहरे, नकाब चढ़े हुए हैं, उनका नाम है माँस। बाबा फ़रीद कह रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं कि परिस्थितियाँ ऐसी बनें कि मेरे ऊपर के सारे आवरण हट जाएँ, मैं पूर्णतया निर्वस्त्र हो जाऊँ। ये नग्नता की प्रार्थना है।
कौए मुझे नग्न कर दे। लेकिन कुछ भी हो जाए, मेरा मन सत- दिशागामी बना रहे। मेरी आँखें सदा उसी की ओर देखें जो देखने योग्य है और एक ही है जो देखने योग्य है। उसके अलावा कुछ देखने योग्य नहीं। उसी सत्य को बाबा फ़रीद अपना पिया कहते हैं।
मोहे पिया मिलन की आस।
मोहे पिया मिलन की आस। बाबा फ़रीद की आँखों में और आमजन की आँखों में अंतर यही होता है। आँखें तुम्हारे पास भी हैं लेकिन तुमने हज़ार पिया कर लिये हैं। तुम्हारे हज़ार मालिक हैं, तुम्हारे हज़ार प्रेमी हैं, तुम हज़ार दिशाओं में भागने को तत्पर हो। तुम्हारा मन एकोन्मुखी नहीं है।
सन्त का मन एक दिशा में जाता है बस, अडिग। वो कहता है, ‘कुछ और मुझे कीमती मिला नहीं है। मैं तो भटका हुआ हूँ, मैं निर्वासित हूँ, मैं तो विरही हूँ। जो एकमात्र मेरी सम्पदा है, वो ये है कि मुझमें ताकत है घर लौट जाने की।’ जो घर से बिछुड़ गया हो, उसके पास और कोई ताकत नहीं होती। उसके पास एक ही ताकत हो सकती है जिसे वो ताकत का नाम दे, बाकी सब ताकतें व्यर्थ। एक ही ताकत, कौनसी? वापस लौट जाने की।
बाबा फ़रीद कहते हैं, ‘बस ये ताकत न छिने, बाकी तो मैं संसार में आया, तो जैसे सज़ा भोगने ही आया। एक ही सहारा है मेरे पास। बाकी सब तो बोझ है। तो बोझ मेरा हटे, बोझ मेरा हटे। कौए हटा दे मेरा बोझ। पर मेरा सहारा मत हटा देना। मेरी ये भावना मत हटा देना कि मुझे उसे पा लेना है जो मैंने खो दिया। मेरी ये सन्मति न हट जाए कि मैं कौन हूँ और कहाँ मुझे वापस जाना है।’
ए दुइ नैना मति छुइयो।
आँखें, आँखें और आँखें भी, याद रखना, हैं बाबा फ़रीद की पर उनमें प्रकाश वही दे रहा है जिसे वो आँखे देखना चाहती हैं। आँखें यदि पिया को देख सकती हैं तो इसकी वजह ये है कि आँखों को प्रकाशित करने वाला भी पिया ही है। बात जुड़ रही है तो कहे देता हूँ, बाबा फ़रीद कहते हैं, “ए दुइ नैना मति छुइयो”। सन्त अकेला होता है जो दोनों आँखों से देखता है, हम एक आँख से देखते हैं। दो आँखों से देखना मतलब — ‘द्वैत के दोनों सिरों को एकसाथ देख लेना।’ सन्त अकेला है जिसकी आँखें हैं, बाकी पूरा संसार काना है। हम ऐसे हैं जो एक आँख से देखते हैं, कभी इस आँख से, कभी उस आँख से।
प्रश्नकर्ता: सर, ‘दो नैना छोड़ देना, पर वो मत ले जाना।’ तो ले तो जाएँगे।
आचार्य प्रशांत: ले जा सकता है। तुम दुनिया को देखोगे अगर, तो वो सुना है कि चौबेजी छब्बे बनने निकले थे, दुबे रह गये? यहाँ जिन लोगों को एहसास हो भी जाता है, वो काने हैं तो वो दूसरी आँख की उम्मीद में जो आँख होती है उसे भी गँवा देते हैं। काना होने के साथ ये बड़ी मुसीबत है। तुम चाहते तो ये हो कि दूसरी आँख मिल जाए और उस चक्कर में जो होती है वो भी गँवा देते हो। तो कौए से जो खतरा है वो वास्तविक है। बाबा फ़रीद ठीक कह रहे हैं।
संसार में बिलकुल ये क्षमता होती है कि तुम अपूर्ण तो थे ही और वो तुम्हारी अपूर्णता को और गहरा दे। बात को समझना। तुम पैदा होते हो। तुम पैदा होते हो अपने संस्कारों के साथ, अपने शरीर में बैठी वृत्तियों के साथ। फिर तुम्हें सामाजिक रूप से संस्कारित किया जाता है। है न? एक अपूर्णता के साथ तुम पैदा होते हो, क्या है वो अपूर्णता? कि तुम्हारे पास शरीर है। अब चाहते तो तुम ये हो कि इस अपूर्णता का उपचार हो जाए। इस उपचार के लिए समाज तुम्हें तौर-तरीके और युक्तियाँ देता है। लेकिन होता क्या है? ये तो होता नहीं कि तुम जो तुम्हारी जैविक कंडीशनिंग (संस्कार) है, उससे मुक्त हो पाओ, इतना ज़रूर हो जाता है कि शारीरिक संस्कारों के ऊपर सामाजिक संस्कारों की एक परत और चढ़ जाती है। तो पहले एक आँख से अन्धे थे, अब दोनों आँख से अन्धे हो गये। एक बीमारी लेकर आये ही थे और एक बीमारी के उपचार में दूसरी और पैदा कर ली।
बात समझ में आ रही है?
तो बाबा फ़रीद जिस खतरे की बात कर रहे हैं, वो खतरा वास्तविक है। हम सबको ये प्रतीत तो होता ही है कि कुछ कमी है, कुछ कमी है, कुछ कमी है, पर उस कमी के उपचार में हम उस कमी के भाव को और गहरा देते हैं। जैसे कि कोई प्यासा आदमी हो और वो पानी के लिए दौड़े और दौड़े और दौड़े। और दौड़ने के कारण जितना उसके शरीर में जल था, वो भी खत्म हो जाए। तो जल पाने की इच्छा में जो जल बचा था वो भी गँवा बैठे।
समझ रहे हो न?
हम सब के साथ और क्या हुआ है, हम सब आँखवाले अन्धे ही तो हैं।
अभी जब आइटीएम यूनिवर्सिटी में था तो वहाँ उनको मैंने बोला, एक बनाओ पोस्टर और लिखो इस पर कि अन्धे आदमी को आँखें देना तो बड़ी ज़ाहिर सी बात है, लेकिन आँखवाले को आँखें दे देना, ये तो विशुद्ध जादू है और हम सबको इसी जादू की ज़रूरत है। अन्धे को आँखें देना तो कोई बड़ी बात है ही नहीं, पर हम सब वो हैं जिनके पास आँखें हैं पर अन्धे हैं। यहाँ जादू चाहिए कि आँखवाले अन्धों को दोबारा आँख दो।
बाबा फ़रीद की आशंका निर्मूल नहीं है। यहाँ सब आँखवाले अन्धे बैठे हैं, सब जानते हैं लेकिन सबकी आँखों पर पट्टी चढ़ी हुई है। अब क्या करें? सर्जरी करें? कोई ऐसा है नहीं, दिल-ही-दिल में जिसे सच्चाई का भीना सा एहसास न हो। सब जानते हो कि मामला नकली है। पर सब इस नकली खेल में भागीदार हो। कोई ऐसा नहीं बैठा है जो जानता नहीं है कि बात झूठी है। सोते हुए को तो कोई भी जगा सकता है, जगे हुए को जगाकर दिखाओ। सोते हुए को जगाने में क्या रखा है? वो बेचारा तो निर्दोष है। इनोसेंट (निर्दोष) है। उसको तो ज़रा सा हिलाओगे-डुलाओगे तो जग जाएगा, सही में सो रहा है। ज़रा मक्का़रों को जगाकर दिखाओ। वो मानेंगे ही नहीं कि वो जगे हुए हैं। (हँसते हुए)