प्रश्नकर्ता: हम ध्यान में डर क्यों जाते हैं?
आचार्य प्रशांत: हम ध्यान में डर क्यों जाते हैं? डर का या बेचैनी का या किसी भी तरह के विचित्र या विशिष्ट अनुभवों का सामना किस-किस का हुआ है, ध्यान में? कि ध्यान की किसी भी विधि का उपयोग किया। श्रवण भी ध्यान की एक विधि ही है। अभी आप बैठे हैं सुनने के लिए, यह भी ध्यान की एक विधि ही है। और ध्यान की और पच्चीसों, पचासों, सैकड़ों विधियाँ हो सकती हैं। कोई कुछ करता है, कोई कुछ करता है; कोई कुछ भी नहीं करता! वह भी ध्यान है।
यह अनुभव हुआ है कि ध्यान में ऐसे अनुभव होने लगते हैं, जो कि अन्यथा नहीं होते? और उनमें से अधिकांश अनुभव ध्यान से विमुख करने वाले होते हैं। शरीर में किसी भाग में अचानक विचित्र संवेदना पैदा हो जाएगी, जैसे कहीं झुरझुरी उठी हो। एक महाशय ने कहा, उनको ऐसा लगता था जैसे तलवे पर चीटियाँ रेंग रही हों। अचानक कुछ ऐसा याद आने लगेगा जो कि अन्यथा याद नहीं आता।
जिन ध्वनियों पर आमतौर पर कान नहीं धरते, वो ध्वनियाँ महत्वपूर्ण लगने लगेंगी। और अगर ध्यान गहराया, तो उठ करके भाग देने का मन भी होता है। ऐसा लगता है जैसे कुछ छूटा जा रहा हो। यह अनुभव प्रायः बहुत ध्यानियों में देखे जाते हैं। जिसने भी शांत होने की चेष्टा की, वहीं यह ख़बर लेकर आता है कि अशांति विघ्न डालती है। जा रहे हैं शांति की ओर, और सामना किससे हो गया? अशांति से। तो यह बात बड़ी विचित्र लगती है, कि बढ़ तो रहे थे शांति की ओर और मिल गई अशांति, यह कैसे हो गया!
ध्यान में डर उत्पन्न नहीं हो जाता, उपज नहीं जाता, पैदा नहीं हो जाता; ध्यान में डर उद्घाटित हो जाता है, बेपर्दा हो जाता है। पैदा होने और प्रकट होने में अंतर है, या नहीं है? क्या अंतर है? पैदा होना उसका होता है, जो न हो और आ गया। और उद्घाटन या प्राकट्य कहते हैं जब दिख नहीं रहा था और दिख गया। दिख नहीं रहा था और दिख गया। ध्यान रोशनी है, ध्यान प्रकाश है। ध्यान का अर्थ ही है कि सच्चाई को ध्येय बनाना है। जब आपने सच्चाई को लक्ष्य किया, तो आप कहलाते हो ध्यानी या ध्याता। सच्चाई यदि ध्येय है, तो प्रक्रिया कहलाती है ध्यान। सच्चाई कहीं जाती तो है नहीं। जो जाने लग जाए कि आने लग जाए, वह तो सच्चाई हुई नहीं। सच्चाई तो पारिभाषिक रूप से, मौलिक रूप से वही है, जो न आएगी और न जाएगी।
तो फिर तो ध्यान बात ही विरोधाभासी है। अगर सच्चाई वह है जिसका आना-जाना, जन्म-मृत्यु नहीं होते, भूत-भविष्य नहीं होता तो फिर उसको लक्ष्य क्यों बना रहे हैं? जब वह मिटती ही नहीं और जब वह है ही सर्वव्यापक, अनंत, निरंतर तो उसकी खोज कैसी? क्या वह खो गई है? जो खो जाए, वह तो झूठ ही होगा। जो खो गया, मिट गया, वह तो झूठ ही होगा।
सत्य मिटता नहीं, लेकिन सत्य माया के पर्दे तले आवृत्त हो सकता है। उसे मिटा पाने की किसी की ताक़त नहीं। लेकिन आँखों पर माया का पर्दा चढ़ सकता है, तब सामने हाथी भी खड़ा हो तो दिखाई देगा नहीं! हाथी को हटा पाने की किसी की सामर्थ्य नहीं। और हाथी तो धूल का कण है, हम किस की बात कर रहे हैं? अनंत सत्य की। हाथी को तो फिर भी तुम किसी प्रकार हटा लो। पर सत्य के सामने हाथी की भी क्या हैसियत है? कि जैसे तिनका हो, जैसे जर्रा हो। तो वह हट तो सकता नहीं। लेकिन फिर भी जितने ध्यानी हैं, वह सब सत्य को खोजने ही निकले हैं। इतना बड़ा हाथी, जंगल से ज़्यादा बड़ा हाथी। इतने बड़े हाथी को खोजने क्यों निकले हो भाई? वह खो तो सकता नहीं, उसे खोजने क्यों निकले हो? क्योंकि वह तो नहीं खोता, लेकिन खोजने वाले की आँखों पर पर्दा ज़रूर चढ़ जाता है।
तो सत्य की तलाश वास्तव में सत्य की तलाश नहीं है, क्योंकि वह कभी खोया ही नहीं। सत्य की तलाश वास्तव में अपनी आँखों पर पड़े पर्दे हटाने की प्रक्रिया है। जिन्हें भी दर्शन हुए हैं, जिनका भी सच्चाई से साक्षात्कार हुआ है, उन्होंने या तो सिर पीट लिया है या फिर बहुत हँसे हैं या हक्के-बक्के रह गए हैं, अवाक रह गए हैं, बोलती बंद हो गई है। बोलती बंद इसलिए नहीं हो गई कि कुछ बहुत बड़ा दिख गया। बोलती बंद इसलिए हो गई कि इतनी सहज बात, इतनी साधारण बात, हमको दिखाई क्यों न दी, सुझाई क्यों न दी! वह तो है ही, उसका तो नाम ही है 'प्रत्यक्ष'। प्रत्यक्ष समझते हो? प्रति-अक्ष, आँखों के सामने; पर आँखों पर पर्दे पड़े हैं इसलिए दिखता नहीं।
तो आप ध्यान में बैठते हो, तो समझो कि आप वास्तव में क्या कर रहे हो। सत्य को लेकर के आप कुछ भी नहीं कर रहे हो, क्योंकि उसके साथ कुछ किया जा सकता नहीं। वह चीज़ कुछ ऐसी है कि उसके साथ छेड़खानी संभव नहीं है। उसको लक्ष्य बनाकर, उसको विषय बनाकर कुछ नहीं किया जा सकता। न उसकी ओर बढ़ा जा सकता है, न उससे दूर जाया जा सकता है; हालाँकि सामान्य बोलचाल में गुरुओं ने भी इस तरह कहा है कि सच की ओर बढ़ो। पर यकीन जानना, सच की ओर बढ़ा नहीं जा सकता। ठीक वैसे, जैसे सच से दूर नहीं जाया जा सकता।
इसी प्रकार न उसको पकड़ा जा सकता है, न उसको छोड़ा जा सकता है, वह चीज़ ऐसी है। इसलिए तो मन को कँपा देती है। मन को चाहिए कुछ ऐसा जो पकड़ में आ जाए। और पकड़ में आ गया, तो तुम क्या करोगे? इस्तेमाल करोगे, उपयोग करोगे। अपनी मंशा के मुताबिक़ उपयोग करोगे। सत्य पकड़ में नहीं आता। है, पर पकड़ में नहीं आएगा। तुम उसका उपयोग नहीं कर सकते, वह तुम्हारा उपयोग ज़रूर कर लेगा; इसीलिए मन उसको पसंद नहीं करता। इसीलिए तो मन स्वीकार कर लेता है कि आँखों पर पर्दा पड़ जाए, क्योंकि पसंद तो वैसे ही नहीं आ रहा था। अब पर्दा पड़ गया तो अच्छा है, दिखाई भी नहीं दे रहा।
तो ध्यान की जो पूरी प्रक्रिया है, वह वास्तव में अपने जाले साफ़ करने की प्रक्रिया है। अब इन जालों को समझना थोडा सा। मन ऐसा ही है, जैसे ये आपके प्रश्न हैं न, मन ऐसा ही है। मन कैसा है? ऐसा। ये क्या हैं? ये एक के ऊपर एक सवाल हैं। ये सवाल दर सवाल हैं। यह परतें हैं, यह तहें हैं। एक को हटाओ, तो दूसरा; दूसरे को हटाओ, तो तीसरा; तीसरे को हटाओ, तो? और बात ख़त्म तब होती है, जब श्रोतागण कहते हैं, आचार्य जी सवाल बचे ही नहीं। सत्य है सवालों का न बचना। इन परतों के नीचे, हमारी उलझनों के नीचे, हमारे डरों के नीचे, हमारे सरोकारों के नीचे, हमारे स्वार्थों और रुचियों के नीचे सत्य आच्छादित हो जाता है, आवृत्त हो जाता है। याद रखना, खो नहीं जाता, आवृत्त हो जाता है। और ये भी सत्य पर नहीं चढ़ गए हैं। ये चढ़ कहाँ गए हैं? कहाँ चढ़े हैं ये? हमारी आँख पर। क्योंकि सत्य को जब छुआ नहीं जा सकता, तो उस पर पर्दा कौन चढ़ाएगा!
इंसान से बिल्ली के गले में तो घंटी बाँधी जाती नहीं, उस हाथी को कपड़ा कौन पहनाएगा? कौन उसे आवृत्त करेगा? मुहावरा सुना है न, क्या? 'बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा।' तो ऐसे तो हम हैं कि एक छोटी सी बिल्ली भी पकड़ में आए न, और उसके गले में घंटी बाँध पाए न। तो अब सत्य को कौन जाएगा अच्छादित करने, कि पकड़ भी लिया और उस पर पर्दा चढ़ा दिया, आवरण चढ़ा दिया, उसको ढक दिया; वह हो नहीं सकता। तो समझना कि भले ही कहने के तौर पर यह कहा जा रहा है कि इन सब चीज़ों ने ढक लिया हैं। उपनिषद् भी कुछ ऐसे ही वर्णन कहते हैं। वह कहते हैं कि सत्य का मुँह एक स्वर्णिम प्रकाश से ढका हुआ है, इसलिए दिखाई नहीं देता। लेकिन वास्तव में समझना बात क्या है, क्या इशारा है? हमारी आँखें ढकी हुई हैं, इसलिए हमें सच्चाई पता नहीं चलती।
और हमारी आँखें इन चीज़ों से ढकी हुई हैं, देखो, मेरी नौकरी कैसी चल रही है, मेरे घर में क्या हो रहा है, यही सब तो बातें होती हैं न। इसमें भले न लिखी हों, क्योंकि अभी तो आचार्य जी सामने हैं, उटपटाँग कुछ लिखोगे नहीं। पर अन्यथा मन में क्या चलता रहता है? यही सब तो चलता रहता है। तो इन चक्करों में, इन चक्करों में आँखें और मन उलझे रह जाते हैं, जो प्रत्यक्ष है वह दिखाई नहीं देता।
अब इनके बारे में भी कुछ ख़ास बातें समझना। ये प्रश्न उसी श्रृंखला में नहीं हैं, जिसमें ये तुमने यहाँ रखे थे। मैं जब आया तो ये यूँही पड़े हुए थे, थोड़े अव्यवस्थित। फिर मैंने इनको लिया, मैंने इनको ज़रा व्यवस्थित किया। मैंने इनको एक क्रम दिया, एक ऑर्डर दिया, दिया न? उसमें मैंने ऊपर क्या रखा? जो प्रश्न मुझे लेना है। समझो बात को। और छुपा क्या दिया, नीचे क्या कर दिया? जिससे अभी कोई प्रयोजन नहीं। इसी तरह से मन की परतों में जो ऊपर की परत रहती है, जो प्रकाशित परत रहती है, प्रकाश किस पर पड़ रहा है? अब तुम कहोगे, पर वास्तव में जो भीतर के काग़ज़ हैं, जो भीतर की परतें हैं वह बिलकुल अंधेरी हैं; हैं कि नहीं हैं? तुम एक सूक्ष्म यंत्र अगर लगा कर देख सको कि भीतर क्या प्रकाश है, तो तुमको वहाँ प्रकाश बिलकुल नहीं मिलेगा। प्रकाश किस पर पड़ रहा है? सिर्फ़ उस परत पर जो मैंने चुनकर के ऊपर रख दी है, क्योंकि मुझे उससे सरोकार है। या यह कह लो जिसके साथ मुझे सुविधा है, वह मैंने ऊपर रख दी और बाक़ी सब मैंने नीचे रख दिया।
घर में जब भी तुम एक के ऊपर एक कोई चीज़ जमाते हो; चाहे वह फाइलें हों, चाहे वह कपड़े हों, चाहे सीडी हो। और कौन सी चीज़ें हैं जो एक के ऊपर एक जमाते हो? चाहे किताबें हों। अक्सर तुम पाओगे कि तुम ऊपर वह रखते हो जिससे तुम्हें वास्ता है, रुचि है। और जो कुछ तुम्हें परेशान करता हो उसको तुम तत्काल कहाँ रख दोगे? नीचे कहीं छुपा करके कि आँखों के सामने पड़े नहीं, क्योंकि मन सत्य से घबराता है। वह इस बात का सामना करने से घबराता है कि बहुत कुछ है जीवन में जो ठीक नहीं है। तो इतना कुछ है जीवन में एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, पचास मुद्दे हैं जीवन में। पचास चीज़ें चल रही हैं जीवन में। और पचास तो बहुत छोटी संख्या है, मन अनंत सागर है। यहाँ न जाने क्या-क्या चल रहा है।
लेकिन मैं प्रकाशित किसको होने दूँगा, मैं प्रकाश किस पर पड़ने दूँगा? प्रकाश किस पर पड़ता है? जो तह सबसे ऊपर होती है। मैं प्रकाश सिर्फ़ उस पर पड़ने दूँगा जिस तह से मेरा सरोकार है, मेरा प्रयोजन है। और फिर मैं इसको उठाऊँगा, और मैं ऐसे पढ़ूँगा जैसे बस यही तो लिखा है। हक़ीक़त यह है कि बहुत कुछ लिखा है; पर मैं पढ़ ऐसे रहा हूँ जैसे सिर्फ़ यही लिखा है। बाक़ी हर चीज़ को मैंने अंधेरा कर दिया। और कहीं रोशनी पड़ नहीं रही है।
ये सब याद रखना, क्या हैं। एक-एक कदम चलो साथ मेरे। सबसे पहले हमने कहा कि ध्यान में तुम सत्य खोजने नहीं निकलते। ध्यान में तुम अपनी ही आँखों के परदे हटाने चलते हो। सत्य को खोजने की कोई आवश्यकता होती नहीं। तो जिसे तुम ध्यान कहते हो उसमें वास्तव में तुम अपने भ्रम ही हटा रहे हो। फिर हमने भ्रमों की प्रकृति पर ज़रा बात की। हमने कहा भ्रम ऐसे होते हैं, सतह-दर-सतह, परत-दर-परत। और हमने कहा उनमें से प्रकाशित परत सिर्फ़ वह होती है जिसके साथ हमको थोड़ी सी सुविधा होती है, रुचि होती है, स्वार्थ होता है। और घोर अंधेरे में वह परत छुपा देते हैं हम मन की, जो परत हमको असहज करेगी, डराएगी।
तो ऊपर-ऊपर हम वो बातें रखते हैं प्रकाशित जिनके साथ ज़िंदगी कम-से-कम सतही चैन से चल सके। हम बस उन बातों को याद रखते हैं; बाक़ी सब कुछ हम मन की निचली गुफाओं में डाल देते हैं, तहखानों में डाल देते हैं। जैसे किसी घर में आप प्रवेश करें तो बैठक में वही सब कुछ दिखाई देगा जो सुविधाजनक है। जिससे लगे कि घर में बड़ी खुशहाली और बड़ी व्यवस्था है। और कचरा, कूड़ा सब कहाँ होता है अक्सर? वह तहखाने में होता है, नीचे डाल दिया जाता है या कि पीछे के किसी कमरे में। मन ऐसा है। यह सामने का कमरा है। हम बस कोशिश करते हैं इसी में जियें। पर तुम कोशिश कर लो इसमें जीने की; पर मौजूद तो ये सब भी हैं ही।
अब ध्यान में क्या होता है, समझना। ये सब क्या हैं? हमारी आँखों के सामने के जाले हैं। ये मन की परतें हैं। ध्यान में तुम इन्हीं को हटाने चलते हो। ध्यान तुमने आरम्भ किया, सबसे पहले कौन सी परत हटेगी? जो बहुत गंदी थी ही नहीं, जिसके साथ तुमको सुविधा थी। जहाँ पर बहुत मुसीबत थी ही नहीं। सबसे पहले वह परत हटेगी, सबसे पहले यानी कि वह बीमारी दूर होगी, जो सबसे छोटी है। तो यह हट गई, ठीक है। अभी तुम ध्यान में उतर रहे हो।
अब तुम्हारा ध्यान ज़रा गाढ़ा हुआ। अब सामने क्या आया? वह आया जो थोड़ा सा कम सुविधा का है। तकलीफ़ थोड़ी बढ़ी। अरे, यह क्या दिख गया! हम तो इसको छुपाए बैठे थे न, हम इसे प्रकाशित ही नहीं होने दे रहे थे। और ध्यान रोशनी है। पहली परत हटी, तो यह दूसरी परत सामने आ गई। अब इस पर जो लिखा हुआ है, वह सुहा नहीं रहा है। सुहा नहीं रहा था, तभी तो हमने उसको छुपा रखा था। खैर किसी तरह से हमने इसका भी सामना किया, ध्यान को हमने और गहराई दी। ध्यान ज़रा गहरा हुआ तो कुछ और सामने आ गया, लिखा हुआ।
अभी यह अपने मन में उतर रहे हैं हम। सत्य की ओर बढ़ नहीं रहे हैं; बल्कि कहाँ उतर रहे हैं? मन में उतर रहे हैं। अपना दर्शन कर रहे हैं। और अपना दर्शन मतलब आत्मा का दर्शन नहीं हो रहा है। अभी यह मन का ही दर्शन हो रहा है। ये चित्त की तहें हैं, जो खुल रही हैं। अब जो लिखा हुआ है, अरे बाप रे! अब ये कुछ ठीक नहीं लग रहा है। अब ध्यान कंपित होना शुरू हुआ। अभी तक तो ध्यान में बड़ी रुचि थी, बड़ी सुविधा थी; लग रहा था बस घंटियाँ-ही-घंटियाँ बज रही हैं, मंदिर में आ गए हैं, ख़ुशबू उठ रही है। अब यहाँ आ रहे हैं, तो लग रहा है ख़ुशबू उतनी ज़्यादा नहीं है; बीच-बीच में कुछ आसपास गंदा भी है क्या! अब कह रहे हैं आसपास कुछ गंदा है क्या! लेकिन वास्तव में यह गंदगी कहाँ की है? यह भीतर की है। अब ध्यान में उतर रहे हो, कहाँ की गंदगी खुल रही है? भीतर की।
अभी तो लग रहा था धूप है, अगरबत्ती है, देव प्रतिमा है, सुंदर घंटियाँ हैं, स्वच्छ कलश है, सब कुछ कितना मधुर और पवित्र है। और अब वास्ता किससे, साक्षात्कार किससे होने लग गया? स्वयं से। और आत्म साक्षात्कार का मतलब आत्मा से साक्षात्कार नहीं होता। आत्म साक्षात्कार का यही मतलब होता है कि अपनी गंदगी से रूबरू होने लग गए। और जितना ध्यान गहरा जाएगा उतना ज़्यादा, अरे बाप रे बाप! अरे बाप रे बाप! अरे बाबा! अरे बाप! यह भी लिखा हुआ है, अरे बाप! थोड़ी देर में ध्यानी बाबा की हिम्मत जवाब दे जाती है। वह कहते हैं, 'हो गया बस, ध्यान। ठीक है, आधे ही घंटे तो करना होता है!'
आधे घंटे में सुविधा है, बताओ क्यों? क्योंकि आधे घंटे में कुल दो परतें ही उतर पाती हैं। और परतें कितनी हैं? परतें हैं हज़ारों। आधे घंटे का ध्यान सुविधा जनक होता है। दो-चार परतें खुलीं, उसके बाद तुम कुर्ता झाड़ कर खड़े हो गए; बोले, ‘ठीक, हो गया।’ चौबीस घंटे का ध्यान बहुत परेशानी दे देता है। क्योंकि चौबीस घंटे ध्यान चलेगा तो? बाबा रे सब खुल जाएगा! और सब खुल गया तो नंगे हो गए, बात ज़ाहिर हो गई। ऊपर-ऊपर तो सब घर में लिपा-पुता था, सुन्दर-सुन्दर था। और नीचे गंदा नाला बहता था। शताब्दियों की, युगों की गंदगी छिपी हुई थी। अब वह सब सामने आ रही है, तो तुम घबरा कर फिर भागते हो।
फिर तुम कहते हो ध्यान डराता है। ध्यान डरा नहीं रहा है। डर तुममें बैठा हुआ है पहले से ही; ध्यान में बस वह डर प्रकाशित हो जा रहा है। हम ऐसे डरे हुए हैं कि हम अपने ही डर से परिचित नहीं हैं। ध्यान में हमारा ही छुपा हुआ डर हमारे सामने आ जा रहा है। और यह बात ध्यान भर की नहीं है। अध्यात्म में जो भी उतरेगा, उसे बड़ी असुविधा का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि सामना तो हमेशा चिकना-चुपड़ा होता है।(22:55) फसाड (मुखौटा) होता है वह एक। फसाड समझते हो न? सामना, मुख। समस्याएँ तो कहीं छुप जाती हैं न जा करके। समस्याएँ सामने आ जाएँ, तो फिर उनका निवारण ही हो जाए।
ध्यान का अर्थ होता है कि घर के उन सब जगहों पर अब सूरज चमकेगा, जहाँ कभी रोशनी पहुँचती ही नहीं थी। वहाँ असुविधा है, वहाँ दिक्क़त है, क्योंकि वहाँ हमारे भय छुपे हुए हैं, वहाँ हमारी ग्रंथियाँ छुपी हुई हैं, कुंठाएँ छुपी हुई हैं। वो बड़ी चीज़ नहीं हैं; पर चूँकि हमारी आँखों पर पर्दा पड़ा है, इसलिए हमें वो चीज़ें बड़ी लगने लगती हैं। सूरज की रोशनी उन पर पड़ने लगे, सूरज किसको कह रहा हूँ मैं? सत्य को। जिसकी रोशनी पूरे संसार को जगमगाती है, जिसकी रोशनी हर जगह है। जैसे सत्य हर जगह कहते हैं न, सर्वत्र, सर्वव्यापक। तो उसी का प्रतीक समझ लो सूर्य की रोशनी। वह रोशनी पड़ने लगे तो भीतर जो कुछ है कचरा, कूड़ा वह सब साफ़ हो ही जाए; पर बहुत समय से हमने उसपर रोशनी पड़ने नहीं दी, तो भीतर की बीमारियाँ ज़रा बड़ी हो गई हैं। बड़ी हो गई हैं तो बहुत डराती हैं। जितना डराती हैं उतना हम उन पर रोशनी पड़ने नहीं देते।
अभी हम फँस गए। क्यों फँस गए? क्योंकि रोशनी ही इलाज़ है डर का, और डर के कारण तुम रोशनी पड़ने नहीं दोगे। तो यह बात अजीब है! रोशनी ही डर का इलाज़ है। और चूँकि तुम डरे हुए हो इसलिए अपने ऊपर रोशनी पड़ने नहीं दोगे। रोशनी पड़ने नहीं दोगे, तो इलाज़ होगा नहीं। इलाज़ होगा नहीं, तो तुम रोशनी पड़ने नहीं दोगे। रोशनी पड़ने नहीं दोगे, तो इलाज़ होगा नहीं। इलाज़ होगा नहीं, तो तुम रोशनी पड़ने नहीं दोगे। तुम फँस गए! इसी को कहते हैं फिर दुष्चक्र। इसी को जानने वालों ने फिर आवागमन का चक्र भी बोला है, कि मुक्ति अब संभव नहीं है। तुम जहाँ फँसे हो वहीं गोल-गोल घूमोगे, बाहर नहीं निकल पाओगे। आ रही है बात समझ में?
जैसे कि किसी की याददाश्त गुम हो गई हो। दिमाग़ पर चोट लगी, याददाश्त गुम हो गई। और उसकी याददाश्त का इलाज़ एक चिकित्सक ही कर सकता है; पर अब उसे याद ही नहीं है कि चिकित्सक कहाँ है! क्योंकि याददाश्त गुम हो गई है। यह तो बात बड़ी अजीब है! याद कौन दिलाएगा? चिकित्सक। और चूँकि याद नहीं है, इसलिए यह भी याद नहीं है कि चिकित्सक बैठता कहाँ है। तो यह तो फँस गए, क़ैद हो गए। अब यह चक्र बन गया। हम ऐसे ही चक्र में फँसे हैं, इसलिए फिर समझाने वालों ने तुमसे कहा है, कि बेटा तुम्हारे करे नहीं होगा, तुम तो फँसे हुए हो, तो तुम्हारे बूते का नहीं है। तुम सोचते हो कि तुम कर लोगे; पर देखो न अपनी हालत। तुम अंधेरे में हो, इसलिए रोशनी से डरते हो। तुम रोशनी से डरते हो, इसलिए और अंधेरे में हो। यह फँसा हुआ आदमी स्वयं कैसे अपने चक्र को तोड़ देगा?
फिर इसलिए महत्व है प्रार्थना का, समर्पण का। इसलिए जिन्होंने समझा है, जिन्होंने पाया है उन्होंने तुमसे कहा है, कि छोटी चीज़ें तुम्हें तुम्हारे करने से मिल जाती हैं; जो वास्तविक है और बड़ा है, वह तुमको सिर्फ़ अनुकंपा से और प्रार्थना से मिलता है। तो उन्होंने तुम से कहा कि छोटी चीज़ों के लिए प्रार्थना कर मत देना, क्योंकि छोटी चीज़ें प्रार्थना से मिलतीं नहीं।
तुमको एक बोरी रेत चाहिए, प्रार्थना करोगे तो नहीं मिलेगी। तुम दस हज़ार साल एक पाँव पर खड़े प्रार्थना करोगे, ‘परमात्मा, एक बोरी रेत दिला दे।’ यकीन जानो, मुट्ठी भर रेत भी नहीं पाओगे, क्योंकि तुमने माँग कैसी रखी है? छोटी। छोटी माँगें परमात्मा से कभी कर मत देना, पूरी नहीं होतीं। और इसलिए मंदिरों में जाते हो, माँगें करते हो। अक्सर पाते हो कि जो माँगा, वह मिला नहीं। क्यों नहीं मिला? बहुत छोटी चीज़ माँग ली थी। वहाँ छोटी चीज़ माँगोगे, कोई जवाब नहीं आएगा। वहाँ तो कुछ बड़ा माँगो तो ही जवाब आता है।
जैसे कि थोक की दुकान पर तुम जा करके कहो अगर कि ज़रा एक पाव भिंडी दे देना, तो वह भगा देता है, देखा है कभी? वहाँ तो बात होती है कुंटलों में, कम-से-कम पसेरी में। और तुमने जाकर क्या बोला? छोटी चीज़ माँगोगे, वहाँ से भगा दिया जाएगा। परमात्मा थोक का व्यापारी है। वहाँ खुदरा काम नहीं चलता, रिटेलिंग नहीं चलती, कि भैया एक मूली देना। और हमारी माँगें सब होती ही ऐसी हैं कि एक मूली मिल जाए, तो मज़ा आ जाए। वह तुम्हारी माँग पूरी नहीं होगी।
वहाँ तो जाकर के कुछ बड़ा ही माँगो। बड़ा माँगोगे, मिल जाएगा। और बड़ा तो एक ही होता है, कौन? स्वयं परमात्मा। यह तो तुम फँस गए। परमात्मा से कुछ नहीं मिल सकता सिवाय परमात्मा के। तुमने और कुछ माँगा, मिलेगा ही नहीं, क्योंकि हर चीज़ छोटी है उसके आगे। सत्य के आगे, अनंत के आगे क्या बड़ा है? अनंत के आगे जो हैसियत दो की है, वही दो हज़ार की है। सब शून्य बराबर। वह मिलते ही नहीं फिर। तो वहाँ जो भी माँगोगे वह मिलेगा नहीं। वहाँ से लेकिन बड़ी-से-बड़ी चीज़ माँगी तो मिल जाएगी। वहाँ जाना, तो उससे कहना कि तुम ही मिल जाओ, तुमसे कुछ नहीं चाहिए।
तो इस कमरे में जिसमें तुम क़ैद हो, ये तहें जिनमें तुम उलझे हुए हो, इनके अंदर-अंदर का कुछ माँगो, तो ख़ुद ही अर्जित कर लेना। रुपया कमाना है, ख़ुद कमा लो। सत्य को कोई रुचि नहीं है कि तुम्हें रुपया लाकर दे। तुम और तुम्हारा रुपया, रखो अपनी जेब में। अस्तित्व को क्या लेना-देना, परमात्मा को क्या लेना-देना! तुम निकले हो नींबू खरीदने, इसमें ब्रह्म को क्यों शामिल करते हो? मंत्र क्या जाप कर रहे हो? नींबू है, जाओ खरीद लो।
लेकिन अगर उस भयानक पीड़ा से मुक्ति चाहिए, जिसमें फँसे हुए हो, तो उसको याद कर लेना। तभी याद करना जब मुक्ति का पूरा-पूरा इरादा हो। और तभी याद करना, जब साफ़ देख लो कि हमने तो जब भी अपने दम पर इन्हें हटाने की कोशिश की है; कभी दो परत पर जाकर रुक गए हैं, कभी चार परत पर जाकर रुक गए हैं। और परतें बहुत हैं। मन कितना तो पुराना है, समय जितना पुराना है मन। इतनी इस पर परतें पड़ी हुई हैं। जब दिख जाए अपने करे नहीं हो रहा, तो थम जाना और याद कर लेना। वास्तव में यह कहना भी ज़रूरी नहीं है कि थम जाना और याद कर लेना। बस थम जाना। थम जाना और याद करना एक ही होते हैं। थमने के बाद अगर याद करने लग गए, तो चल दिए। बस थम जाओ। आ रही है बात समझ में?
मैं नहीं कह रहा हूँ कि एक के बाद एक डर दिखाई देंगे, तो हिम्मत करो और डरों पर जीत हासिल कर लो। ध्यान में बैठोगे, न जाने क्या-क्या दिखाई देने लगेगा, जो अन्यथा न दिखाई देता! मैं तो कह रहा हूँ, कि जो आम आदमी होता है; जैसा भी गृहस्थ, गृही, संसारी, जो बोल लो, जिसे ध्यान इत्यादि में, सत्य इत्यादि में कोई रुचि ही नहीं, वह ज़रा सुकून में जीता है, भले ही उसका सुकून सतही और झूठा हो। क्योंकि उसको दिखाई ही बस क्या पड़ता है? वो जिसको वह देखना चाहता है। पूरी बात उसे न देखनी है, न उसे दिखाई पड़ती है। वह एक झूठे चैन में जी लेता है, और झूठे ही चैन में मर भी जाता है। ठीक? आपत्ति की कोई बात नहीं। झूठे चैन में अगर तुमको जीना स्वीकार हो, तो कोई बात नहीं।
लेकिन अगर तुम ज़रा खोजी आदमी हो, तुम वह हो जिसे चैन नहीं पड़ रहा है झूठ के साथ, तुम वह हो जो ध्यान करने निकला है, जो तलाश करने निकल पड़ा है। तो जब डर से सामना हो, तो डर से भिड़ना इत्यादि नहीं, जीत नहीं पाओगे; थम जाना। डर सामने आ गया है, थम जाओ। और डर सामने आएगा, पसीने छूटेंगे, पाँव काँपेंगे। वो सब दिखाई देने लगेगा जो साधारण आदमी को साधारणतया दिखाई ही नहीं देता। बड़ा बुरा सा लगता है। लगता है सब छूटा जा रहा है, सब मिटा जा रहा है और अपमान का भी अनुभव होता है। न भाग जाना, न भिड़ जाना। क्योंकि भाग गए, तो भाग गए। और भिड़ गए, तो जीतोगे नहीं।
मैं तुमसे कह रहा हूँ बस वहीं पर थम जाना। जब डर प्रतीत हो, तो थम जाना। उससे कहना तुम भी थे! मन की गुफाओं के भीतर कैसे-कैसे बाघ, भालू छुपे बैठे हैं! हमें तो पता भी नहीं था कि हम इतने बड़े कूड़ेदान है! हम तो सोचते थे कि हम बड़े साफ़-सुथरे हैं, रोज़ नहाते हैं। साबुन भी लगाया, शैम्पू भी लगाया, रोज़ लगाया। पता ही नहीं था कि भीतर सदियों पुराना मामला सड़ रहा है। यहाँ दो दिन पुरानी कोई चीज़ हो जाए घर में तो वह सड़ने लगती है, तुरन्त उसको फेंक कर आते हो। और मन में जानते हो कितना पुराना अतीत भरा हुआ है? कितना पुराना? जितना पुराना यह ब्रह्माण्ड है।
जिस दिन से समय शुरू हुआ, उस दिन से मन शुरू हो गया। शारीरिक रूप से आपने जन्म अभी लिया है, मन का जन्म थोड़े अभी हो गया है, मन तो बहुत पुराना है। मन उतना पुराना नहीं होता तो आपका शरीर इस रूप में क्यों होता? तुम्हारे शरीर को कैसे पता कि इसी रूप में जन्म लेना है? उसे बहुत पुरानी स्मृतियाँ हैं। बहुत पुरानी स्मृतियाँ हैं। और मन को जो स्मृतियाँ हैं, वह तुम भुला नहीं सकते। कोशिश कर लो। सबसे पुरानी तुम्हारी स्मृति शरीर की है। शरीर में जो स्मृतियाँ बैठी हुई हैं, तुम कोशिश कर लो कि उन्हें भूल जाओ, भूल नहीं पाएगा। तुम शरीर को कोशिश करो दीक्षित करने की। शरीर से बोलो तू कौआ है, और दो साल कोशिश करो शरीर को समझाने की, कि तू कौआ है। वह उड़ने नहीं लगेगा, न काँव-काँव बोलेगा, क्योंकि उसमें बहुत गहरी स्मृति बैठी हुई है, बहुत पुरानी। वह मिटेगी ही नहीं, न ढकेगी।
तुम दिल से बोलो धड़कना भूल जा, ना। उसको लाखों वर्षों का अभ्यास है धड़कने का। और तुम उससे दो दफ़े, चार दफ़े, दो साल ही तो बात कर रहे हो। इसको धडकने का कितना अभ्यास है? बहुत पुराना। माँ के गर्भ में शिशु हो, वह उसको बोले, तू अस्सी दाँत लेकर पैदा होना। वह माँ की नहीं सुनेगा। पैदा तो वह बत्तीस के साथ होगा। बत्तीस आँकड़ा नहीं है, बत्तीस स्मृति है। उसको याद है कि पहले भी बत्तीस था, उससे पहले भी बत्तीस था, उससे पहले भी बत्तीस था, उससे पहले भी बत्तीस था, उससे पहले भी बत्तीस था। तो मुझे भी कितना रखना है? बत्तीस। तुम्हारे क्यों है पाँच उँगलियाँ? कारण एक है, तुमसे पहले वाले की भी तो पाँच ही थी!
इसकी शक्ल देखो माँ से मिलती-जुलती है, यह स्मृति है। पुरानी चीज़ तुम तक पहुँच गई, इसी को तो स्मृति कहते हैं, कि कल जो हुआ, वह आज भी है। इसी को क्या कहते हैं? स्मृति, तो बस। मन में युगों पुराना कचरा भरा हुआ है। मैं उसे कचरा क्यों कह रहा हूँ? मैं कचरा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह तुम्हारे काम का नहीं है। कचरे की क्या परिभाषा? जो चीज़ काम की न हो, उसे तुम कह देते हो कचरा। जिसका कोई उपयोग न हो वही तो कचरा कहलाता है न। और अगर कचरे में भी तुम उपयोग खोज लो, तो फिर उसे कचरा कहोगे क्या? फिर वह कचरा नहीं है। तो कचरे का निर्धारण उपयोग से होता है। वह सब कुछ जो बैठा हुआ है मन में, उसका वास्तव में कोई उपयोग नहीं है। या उसका उपयोग है भी, तो बहुत सीमित है। पारमार्थिक दृष्टि से उसका कोई उपयोग नहीं है।
देखो, समझो, एक पत्थर अचानक से वहाँ से आता है। खिड़की खुली है, एक पत्थर आया। तुम्हें पढ़ाने की, समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी कि बिदक जाओ, पीछे हट जाओ, रक्षा कर लो। तुम्हें कोई गुरु नहीं चाहिए। तुम्हारा हाथ अपनेआप उठेगा, और यह तुम्हें किसने पढ़ाया? यह तुम्हें तुम्हारे अतीत ने पढ़ाया। छोटा सा बच्चा भी पैदा हुआ है, अभी दो दिन का है। इतनी बात वह भी जानता है। तुम उसे कोई गर्म चीज़ छुआ दो, तुरन्त अपना हाथ पीछे खींच लेता है। उसे किसने सिखाया कि गर्मी से बचो? किसने सिखाया? बहुत पीछे से सीख कर आया है। तो ये जो स्मृतियाँ हैं मन में, ये सब कुछ जो मन में पुराना कचरा बैठा हुआ है, इसका उपयोग है; लेकिन इसका उपयोग बस शरीर की रक्षा करने तक सीमित है। शरीर की रक्षा करने तक और कुछ हद तक अपनेआप को मानसिक सुरक्षा देने तक। उन सब चीज़ों का महत्व है। पर अगर तुम कहोगे कि जो सब कुछ मन में भरा हुआ है, उसका उपयोग करके मैं परमात्मा को पा लूँगा या मुक्ति पा लूँगा, तो वह नहीं हो पाएगा।
अब समझ में आ रहा है कि क्यों तत्वज्ञों ने हमेशा तुमसे कहा है कि अतीत के ग़ुलाम बनकर मत रहना। बार-बार बोला है, पास्ट, पास्ट, पास्ट। मुक्ति पाओ। वह इसलिए बोला है, क्योंकि पीछे से क्या आ रहा है? समय की धारा क्या लेकर कर आ रही है? आत्मा तो लेकर आ नहीं रही। आत्मा समय की धारा में तो बह नहीं सकती। समय की धारा बहुत छोटी चीज़ है; आत्मा विराट। और दूसरी बात आत्मा अचल है, उसमें कोई बहाव संभव नहीं है। तो समय की धारा क्या लेकर आती है पीछे से — शरीर को और मन को। ये हैं जो समय की धारा के साथ बहते हुए आ रहे हैं। और समय की धारा इनसे बस यह चाहती है कि आगे भी बहते ही रहें।
तुममें कुछ ऐसा है जो न शरीर है, न मन है; वह छटपटाता है। इस बहाव में, इस क़ैद में वह छटपटाता है। उसके उपयोग की नहीं है धारा। उसे आज़ादी चाहिए। तो धारा से जो कुछ मिला है तुमको, पीछे से जो कुछ मिला है तुमको, शरीर और वृत्तियाँ, वो सत्य के अभियान में तुम्हारे काम नहीं आएँगे। कष्टों से अगर मुक्ति चाहते हो, तो समय ने जो कुछ तुमको दिया है वह तुम्हारे काम नहीं आएगा। धारा है, धारा में जब तक बहते रहोगे, तब तक धारा में ही रहोगे। तो मैं कहता हूँ थम जाओ। डर भी एक बहाव है, लहरों की तरह आता है। आया अचानक से थपेड़ा मारा, अनुभव किया है? जैसे कभी समुद्र तट पर खड़े हो, देख रहे हो, देख रहे हो, अचानक लहर आती है और मारा थपेड़ा! थम जाओ।
ध्यानी के लिए थम जाना बहुत आवश्यक है। ज्यों ही तुम थमते हो, त्यों ही तुम सारे प्रवाह के दृष्टा भर रह जाते हो। तुम थमे देख रहे हो। दिख रहा है कि डर बहुत आया। डर आया पर तुमने उसको गुज़र जाने दिया। न तुम भाग गए, न तुम भिड़ गए। तुम भगोड़े तो नहीं ही हो, तुम हिम्मती भी नहीं हो। तुम सिर्फ़ थमे हुए हो। हिम्मत भी एक प्रकार का डर होती है। आक्रमण उसी पर तो करते हो न जिससे डरते हो। जो भाग गया वह भी डरा हुआ है, और जो भिड़ गया वह भी डरा हुआ है।
ध्यान करने निकलोगे, न जाने क्या-क्या देखोगे। पूरा संसार देख लोगे, और आज ही भर का संसार नहीं, अभी तक जो कुछ हुआ है वह सब कुछ। फ़िल्म की तरह नहीं चलेगा कि तुमको राजा अकबर और राजा अशोक दिखाई दे रहे हैं। उस अर्थ में नहीं सब कुछ पुराना देख लोगे। अपनेआप को देख लोगे। और पूरे संसार का जो तत्व है, मूल प्रकृति के तीन गुण; वही तुम्हारा भी तत्व है, प्रकृति के तीन गुण। वह सब दिखाई पड़ेंगे भीतर, ख़ौफ़ उठेगा। तुम थम जाना। थमना ही प्रार्थना है। भिड़ते हो, तो कहते हो कि अपने दम पर जीत लूँगा। थमते हो, तो कहते हो कि प्रार्थी हुआ, अब जिसको बचाना हो वह हमें बचाए। फिर मदद अपनेआप आ जाती है।
अध्यात्म को सुख का साधन मत समझ लेना। यह बड़ी भूल है। और यह भूल दो तरीक़ों से चलती है। पहली बात, हम सुख के आकांक्षी होते हैं; दूसरी बात, बाज़ार में बहुत प्रचलित है यह, और गुरुओं ने भी इस तरह की बात कही है कि आध्यात्मिक आदमी बड़े सुख इत्यादि में जीता है। यह महा भ्रम है। आम आदमी सुख में जीता है, सुख का अभिलाषी होता है, अपने लिए झूठे सुख का निर्माण कर लेता है। अध्यात्म में तो वही उतर सकता है, जिसमें अपने भीतर संचित सब दुखों को, भयों को और शंकाओं को देख पाने की श्रद्धा हो—मैं हिम्मत नहीं कर रहा, श्रद्धा हो।
अगर सुख के लिए अध्यात्म में आ रहे हो तो तुमको निराशा मिलेगी। और अगर कोई ऐसा है जो कह रहा है कि अध्यात्म में जब से उतरा हूँ, तब से जीवन सुखी हो गया है। तो मैं उससे थोड़ा मिलना चाहूँगा, उसे थोड़ा दुख देना चाहूँगा। दुख देने की ज़रूरत होती है क्या, दुख तो है। बस उसको उघाड़ना होता है। और याद रखना, उघड़ गया तो मिट जाएगा; छुपा रह गया तो बचा रहेगा और बढ़ता रहेगा। उघाड़ना ज़रूरी है, लेकिन उघाड़ोगे तो ऐसा लगेगा जैसे दुख बढ़ गया हो। बल्कि जो उघाड़ने में तुम्हारी मदद करेगा उसके ऊपर भी तुम इल्ज़ाम रखोगे। क्या कहोगे? कि इसने तकलीफ़ दी है। उसने तकलीफ़ दी नहीं है, उसने तकलीफ़ को उघाड़ दिया है, अनावृत कर दिया है। जब अनावृत हो जाती है तकलीफ़, तो फिर उसका इलाज़ हो जाता है।
देखा है तुम्हें कहीं चोट लगी होती है, तुम उसको ढके बैठे होते हो। फिर जाते हो चिकित्सक के पास। तुम जो कुछ भी अपना पट्टी, पंजरा, बाँध के गए होते हो, वह उसको खोलता है और जब हटाता है तो तुम चीखते हो। और फिर वह ज़रा निर्ममता के साथ उसकी सफ़ाई कर देता है। जब सफ़ाई कर रहा होता है, तो तुम दुआएँ तो नहीं दे रहे होते उसे! (सब हँसते हुए)। कैसा लगता है? बुरा लगता है न। ज़ख्म है, वह उस पर नमक का पानी डाल रहा है।
कभी हुआ है ऐसा? ज़ख्म हो गया हो, गिर-विर गए हो और फिर जितनी बार तुम जाते हो मरहम पट्टी, ड्रेसिंग कराने, वह क्या करता है? सबसे पहले एक बोतल होती है बड़ी सी, जिसमें नमक का पानी होता है। वह उस पर डालता है। जितनी बार डालता है, उतनी बार कैसा लगता है? स्वर्ग मिला, मिठाई मिली? कैसा लगता है? दुख छुपा हुआ था, उसने दुख को उभार दिया। अब इलाज़ हो रहा है, अब इलाज़ होगा। दिया नहीं जा रहा दुख। दुख तुम्हें दिया किसने? ख़ुद तुमने। ज़ख्म कौन लेकर आया? तुम्हें ज़ख्म चिकित्सक ने दिया है क्या? तो दुख किसने दिया तुमको? ख़ुद तुमने; पर इल्ज़ाम किस पर जाएगा? चिकित्सक पर। यह खूब होता आया है।
दुख का सामना करने को तैयार रहो। और याद रखना, सामना से मेरा अर्थ मुक़ाबला नहीं है। सामना माने सामना, दुख के सामने आने के लिए तैयार रहो। दुख के दृष्टा बनने के लिए तैयार रहो। झूठों में मत जियो। हक़ीक़त का सामना करो। बुरा लगता हो तो लगे। भीतर से विचित्र तरीक़े के विरोध उठते हैं।
तुम तो शायद बस अपना ही मामला देख पाते हो। मैं तो दिन भर बीसों लोगों को देखता हूँ न। जो भी झूठ को त्यागना चाहता है, मैंने पाया है कि झूठ उसको दुगने बल से पकड़ता है। जब तक तुम झूठ को त्यागने के आतुर नहीं थे, तब तक झूठ भी तुम्हारी बगल में शांत बैठा था। साथ तो था ही, क्योंकि तुम्हारे जीवन में था; पर शांत लगता था। और ज्योंही तुमने कहा कि अब ज़रा इसको त्यागें और दरवाज़े की तरफ़ बढ़े, वह पीछे से टाँग पकड़ लेगा तुम्हारी और जब वह तुम्हारी टाँग पकड़ेगा, तब तुम्हें पता चलेगा कि उसकी पकड़ में दम कितना है।
दलदल में तुम कितने गहरे धंसे हो, यह तुम्हें सिर्फ़ तब पता चलेगा जब तुम उस दलदल से बाहर आने की कोशिश करोगे। अन्यथा यदि तुम दलदल में शताब्दियों से फँसे हुए हो, तो तुम्हें यह भी लग सकता है कि हम तो फँसे हुए हैं ही नहीं या कि हम तो स्वेच्छा से फँसे हुए हैं, जिस दिन मन करेगा, बाहर आ जाएँगे। ऐसों से मैं कहता हूँ ज़रा बाहर आकर दिखाओ। और जब वह ज़रा सा भी बाहर आने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें पता चलता है दलदल का बल। गला पकड़ लेती है दलदल। बाहर निकाल कर दिखाओ!
बातें करना एक बात है और बातें, याद रखना, हमेशा भविष्य की होती हैं। पैसा इकट्ठा कर लूँ, फिर हरिद्वार चला जाऊँगा। सेवानिवृत्त हो जाऊँ, फिर उपन्यास लिखूँगा। ज़रा अभी कुछ काम हैं, घर में शादी-ब्याह है, निपटा लूँ; उसके बाद सही कामों में उतरूँगा। जब भी तुम आगे के लिए सोचोगे, सांत्वना मिल जाएगी। पर जब भी तुम करने निकलोगे—और करना हमेशा अभी होता है, अभी—जब भी कर रहे हो, तभी तो कर रहे हो। भविष्य के लिए तो बस सोच होती है।
सोच में सुविधा है। जब करने निकलोगे तो पता चलेगा कितना मुश्किल है। इसलिए हमें आशा बहुत प्यारी होती है। आशा में दिलासा है, आगे कर लेंगे न। अजी! हम किसी से कम है, हम में भी बहुत बल है। बस दो साल रुको, अभी दिखाते हैं कि आगे करेंगे कि नहीं। छोटे-मोटे बस कुछ काम हैं। बिटिया की शादी करनी है, बेटे को कनाडा में सेटल कराना है, अपने लिए घर बनवाना है, दो मुकदमे चल रहे हैं, वह जीतने हैं। ये सब हो जाए, फिर तुम देखना हमारा अभियान, सिकंदर शर्मा जाएगा! ठीक।
हार मिलेगी। जो दलदल से बाहर निकलने की चेष्टा करेगा, उसे हार मिलेगी। मैं तुमसे कह रहा हूँ, उस हार के सामने खड़े हो जाना। इस बात को कई तरीक़ों से दोहरा-दोहरा कर कह रहा हूँ। मैं एक तरफ़ तो यह कह रहा हूँ कि हार मिलेगी, दूसरी तरफ़ मैं कह रहा हूँ कि उस हार के तुम सामने खड़े हो जाना, थम जाना। हार मिलेगी यह पक्का है, क्योंकि तुम्हारे व्यक्तिगत तंत्र में यह सामर्थ्य नहीं है, कि सदियों की माया को जीत पाए। अभी तुमको भले यह बड़ी विचित्र बात लगती हो। अभी तुम्हें बड़ा भरोसा होगा अपनेआप पर। नहीं, जब हम करने निकलेंगे, तब देखिएगा। अभी तक तो हमने कोशिश नहीं करी न, अभी तक तो कोशिश नहीं करी, जिस दिन चाहेंगे…
तुम मिलो किसी सौ किलो वाले से, उससे कहो, ‘कुछ करेगा?’ कहेगा, जिस महीने चाहेंगे, उसी महीने बीस किलो कम कर देंगे। उससे पूछो, किस महीने चाहेगा तू? वह महीना कब आएगा? जब तक वह महीना नहीं आ रहा, तब तक सुविधा है। जिस दिन वह महीना आ गया, उस दिन वह रोज जाएगा। क्योंकि तब उसे पता चलेगा कि कम नहीं होता। मन ऐसा ही है मोटा आदमी; जो बहुत कुछ ओढ़े हुए है, लपेटे हुए है, धारण किए हुए है। नहीं होता। हार मिलेगी, तुम भाग मत जाना। जो खड़ा हो गया, वह प्रार्थी हो गया।
तुम तो बस स्वीकार कर लेना कि अपने दम पर तो मैं हारा हुआ ही हूँ। हाँ मुक्ति की तुम्हारी इच्छा सबल और सच्ची होनी चाहिए। ये बातें बड़ी विरोधाभासी लग रही हैं न। मैं कह रहा हूँ मुक्ति की तुम्हारी इच्छा सच्ची होनी चाहिए, लेकिन फिर भी तुम जब मुक्ति की कोशिश करोगे, तो तुम्हें हार ही मिलेगी। कोई है जो देख रहा है कि इसकी चाहत सच्ची है, लेकिन इसका बल छोटा है। इसका प्रयास असफल जा रहा है। फिर वह तुम्हारे दम में अपना दम जोड़ देता है और बात बन जाती है। लेकिन वह तुम्हारे दम में अपना दम तब तक नहीं जोड़ेगा, जब तक तुम थम जाने का माद्दा नहीं दिखा देते। तुम वह करो जितना तुम कर सकते हो। फिर वो वह कर देता है जो वह कर सकता है।
चमत्कार होते हैं। तुम्हारे जीवन में अगर चमत्कार नहीं हो रहे तो इसलिए नहीं हो रहा, क्योंकि अभी तुम ही वह नहीं कर रहे जो तुम कर सकते हो। ध्यान का फलित हो जाना, मुक्ति का गठित हो जाना, ये सब चमत्कार ही होते है। जो कुछ भी वास्तविक है, वह चमत्कार है। चमत्कार तुम्हारे करने से नहीं होता; पर चमत्कार तुम्हारे बिना किए भी नहीं होगा। तुम कहोगे अगर कि अपने बूते पर मैं चमत्कार कर दूँगा अपनी ताक़त से, तो नहीं होगा। पर अगर तुम यह कहोगे कि मैं कुछ भी नहीं करूँगा और चमत्कार अपनेआप हो जाएगा, तो भी नहीं होगा। तुम्हें सामना करना होगा। तुम्हें सामना करना होगा, जैसे प्रह्लाद जा कर के बैठ गया था अपनी ही चिता पर। सामना कर रहा था। अपने बूते लेकिन बचता नहीं, लेकिन अपने बूते उसने वह किया जो वह कर सकता था। क्या किया? सामना किया। फिर बचाने के लिए कोई उतर आया। तुम वह करो जो तुम कर सकते हो। वह वह करेगा जो वह कर सकता है; लेकिन वह तभी करता है जब वह तुम्हारी प्रबल इच्छा देख लेता है। वह कहता है इस बच्चे को तो चाहिए, फिर वह दे देता है।
वहाँ ऊपर मर्तबान रखा हुआ है रसोई में, एकदम ऊपर और उसमें है मिठाई। क्या है? मिठाई। और बच्चा है इतना बड़ा और नीचे पाँव पटक रहा है। कभी चिल्ला रहा है, कभी रूठ रहा है, कभी माँ-बाप से फ़रियाद कर रहा है। मिल रही नहीं है मिठाई, लेकिन लगा हुआ है, लगा हुआ है। जो कर सकता है सब कर लिया। अपनी तरफ़ से उसने सीढ़ी बनाने की भी कोशिश कर ली। सीढ़ी बनाने की कोशिश करी और गिरा धम से, हार मिली। हार भी मिली, चोट भी लगी। जब उसने सारे जतन कर लिए, तो माँ आई और मर्तबान से मिठाई निकाल कर दे दी।
अब तुम बताओ, उसको जो मिला, क्या उसे उसके प्रयत्नों के कारण मिला? अच्छा, नहीं मिला; प्रयत्न के कारण तो नहीं मिला। क्या उसे जो मिला, वह उसके प्रयत्नों के बिना मिला? तो ऐसा होता है। तुम्हारे करने से नहीं मिलेगा, लेकिन तुम्हारा करना फिर भी ज़रूरी है। और हम दोनों ही तरह की ग़लतियाँ कर देते हैं। एक अति पर वह लोग हैं, जो कहते हैं कि मैं सिकंदर हूँ, मैं पा लूँगा, अपने करे पा लूँगा। वो करे ही जा रहे हैं, करे ही जा रहे हैं। उन्हें नहीं मिलेगा, क्योंकि करने से नहीं मिलता। और दूसरी ओर हैं कुछ, जो कहते हैं करने से तो मिलता ही नहीं, तो हम कुछ करें काहे को? तो वह दिन भर सोते हैं, वह हाथ-पाँव ही नहीं हिलाते। वह कहते हैं, हमारे करे तो कुछ होता ही नहीं, तो हम मेहनत क्यों करें? हम पसीना क्यों बहाए? तो वो बिलकुल कुछ नहीं करते। इन दोनों को ही नहीं मिलता।
जिसको यह भरोसा हो कि मैं ही पा लूँगा, उसे भी नहीं मिलता और जिसमें पाने की इतनी भी इच्छा न हो, कि श्रम करने निकल पड़े, अपनी चाहत को अभिव्यक्त करने निकल पड़े उसे भी नहीं मिलता।
तुम्हारे सामने पहाड़ जैसा डर आएगा, उसे तुम अपनी निजी सामर्थ्य से नहीं जीत पाओगे। तुम थम जाना। तुम्हारा थमना ही परमात्मा को पैगाम होगा। वह मदद भेज देगा। तुमने नहीं जीता पहाड़ को। जीता किसने है? उसकी अनुकंपा ने, उसने जो मदद भेजी उसने जीता पहाड़ को। लेकिन वह मदद तुम्हें इसलिए मिली क्योंकि तुम थम गए। तुम भाग जाते तो मदद नहीं मिलती। वास्तव में मदद तब भी मिलती, उतरी थी मदद, लेकिन तुम तो भाग गए। अब मदद आकर खड़ी हुई है। तुमको देख रही है, कहाँ गया? कहाँ गया?
कि जैसे किसी घर में आग लगी हो और तुम ऊपर की मंज़िल में फँसे हुए हो। एक बार मेरे साथ हुआ था यह, बोधस्थल में लगी थी आग। पाँच-सात लोग थे; अनुश्री भी थीं। भयानक आग। उसमें मौत भी हुई। नीचे की मंज़िलों से लगी थी और ऊपर को बढ़ती आ रही, बढ़ती आ रही। हम सबसे ऊपर पहुँच गए। न इधर कोई इमारत है, न उधर कोई इमारत है। अब वहाँ से बचने का एक ही तरीक़ा था कि कूद जाओ चौथी मंज़िल से नीचे। और फायर ब्रिगेड, पुलिस, एम्बुलेंस सबको कॉल चली गई थी; नीचे फायर ब्रिगेड की दो-चार गाड़ियाँ आकर के लगी हुई हैं। हमारा क्या काम था? उस वक़्त हमें क्या करना था? थमे रहना था। तुमने प्रार्थना भेज दी है, अब तुम बस थमे रहो। अगर तुम भाग गए, ऊपर से नीचे कूद गए, तो फायर ब्रिगेड वाला तो आएगा तुम्हें ऊपर बचाने और कहे, गए कहाँ ये? मदद तो आ गयी; पर मदद लेने के लिए तुम्हारा मौजूद होना भी तो ज़रूरी है। तुम तो कूद चुके हो! तो वहाँ पर हम लोगों ने एक ही काम किया कि हम थमे रहे। तुम वह करो जो तुम कर सकते हो और सौ, एक सौ एक, एक सौ दो जितने होते हैं, सब पर प्रार्थना भेज दो।
हमने प्रार्थना भेज दी है और हम अब अडिग रुके हुए हैं। और कुछ नहीं कर सकते, तो इतना तो कर सकते हैं न। क्या? कि भाग न जाए। और भागे होते तो? चौथी मंज़िल थी, एक ही तरीक़ा था भागने का। और लपटें इतनी तेज थीं कि शीशे चटक कर गिर चुके थे, इमारत ढहने को हो रही थी।
जानने वालों ने कई बार इंसान के मन को और जीवन को, दोनों को कहा है जलता हुआ घर। बुद्ध से पूछो तो वह यही कहते हैं, कहते हैं कि आदमी एक जलते हुए घर में फँसा हुआ है, उससे आनंद की बात मत करो, उससे तो बस मुक्ति की बात करो।
जो जलते हुए घर में फँसा हो उसके लिए आनंद इत्यादि शब्द कोई अर्थ रखते हैं? उसके लिए तो एक ही शब्द क़ीमती है, क्या? छुटकारा। जहाँ फँसा हूँ, वहाँ से किसी तरीक़े से छूट जाऊँ। जलता हुआ घर! ख़ुद तो तुम बाहर निकल भी नहीं सकते। हाँ, निकालने वाले को तुमने फ़रियाद भेज दी है कि फँस गए हैं, निकाल दो। वह कह रहा है, निकालने के लिए तो हम पहुँचेंगे। सवाल बस यह है कि क्या तब तक तुम थमे रहोगे? न भिड़ना, न भागना।
और यह सारी बातें सिर्फ़ उनके लिए हैं जिन्होंने भांग-धतूरा नहीं चढ़ा रखा। नहीं तो घर जल भी रहा हो, तो भी तुम्हारी बेहोशी नहीं टूटेगी। इतनी बड़ी-बड़ी पाँच बोतलें चढ़ा कर के सोये थे। अब घर जल रहा हो, कि सिर जल रहा हो, कि पजामा अपना जल रहा हो पता ही नहीं चलेगा। इसलिए तुम पाते हो कि संसार बड़े सुख में है। वह सुखस्वप्न में है, जैसे कि किसी को इतना नशा हो, इतना नशा हो, कि उसे यह भी न पता चले कि वह जल रहा है। देख पा रहे हो? घर जल रहा है, सिर जल रहा है, पजामा भी जल रहा है; लेकिन नशा इतना गहरा है कि सुखस्वप्न लिए जा रहे हैं, अहा! सपने में सब बढ़िया है। दुनिया ऐसे जीती है। सब जल रहा है, लेकिन सुख का सपना टूट नहीं रहा है।
मेरी सारी बातें उनके लिए हैं ही नहीं जिन्होंने नशा बहुत कर लिया है। उन्हें न तो भागना है, न बचना है, न भिड़ना है।
मैंने तो यही कहा, "न भागना न भिड़ना;" वह कहेंगे, "भाग कौन रहा है!" मैंने कहा, "भिड़ मत जाना;" वह कहेंगे, "भिड कौन रहा है! हमें न भागना है, न भिड़ना है; हमें तो सोना है।"
सोने और थमने में बहुत अंतर है।
समझना, थम जाना सतो गुण की बात है। भाग जाना या भिड़ जाना कर्म की बात है, तो राजसिक है। लेकिन ज़्यादातर दुनिया थमती तो नहीं ही है, वह भागती-भिड़ती भी नहीं है। वह सिर्फ़ सोती है और सोने में सुख बहुत है। गांजा चढ़ा कर के सो गए; दुख कहाँ है बताओ? उनसे पूछो, तो कहेंगे समाधि लगी हुई है, ज़रा भी तुम हमको बाधा मत देना। गहरा अंधकार, घोर तमसा। उनसे बात नहीं की जाती।
रजो गुणियों से बात की जा सकती है, क्योंकि उनको कम-से-कम भागने-भिड़ने में रुचि है। वो कर्म के माध्यम से कुछ बदलना चाहते हैं। रजोगुणी आदमी बदलने में रुचि रखता है न? तभी तो कर्म करे जाता है कि यह बदल दूँ, घर में ज़रा नया कुछ सामान लगा दूँ, रंग-रोगन कर दूँ। रजोगुणी की रुचि किसमें है? बदलाव में। सतोगुणी की भी रुचि बदलाव में है; पर वह असली बदलाव लाना चाहता है। रजोगुणी की भी रुचि बदलाव में है, भले ही वह नकली बदलाव लाना चाहता हो। जो तामसिक मन है, उसे बदलाव चाहिए ही नहीं। वह कहता है, जो चल रहा है बिलकुल ठीक है; हमें सोने दो।
और उस तामसिक मन की पहचान यह होती है कि उसको यह बात बड़ी विचित्र सी लगती है कि उसे प्रेरित किया जा रहा है बदलने के लिए। वह कहता है, बदलाव की ज़रूरत क्या है? मैं लोगों से बात करता हूँ, वहाँ बहुतों के मुँह पर भाव ऐसे ही रहते हैं कि यह सब आप जो कह रहे हैं, यह करने की ज़रूरत क्या है? सब ठीक तो चल रहा है। जो यह कहे कि सब ठीक चल रहा है, उसी को जान लेना कि पाँच बोतल; इससे कम नहीं है उसको।
जलते हुए घर में जो बोले कि सब ठीक चल रहा है, उसने कम-से-कम पाँच बोतल चढ़ा रखी है। और ऐसे तुमको बहुत मिलेंगे, जो कहते हैं ऑल इज वेल (सब बढ़िया है)। उनसे पूछो, क्या चल रहा है? वह कहेंगे, बस बहुत बढ़िया। उनको यह भी नहीं पता कि पीछे ही आग लगी हुई है। पीछे कहाँ, उनके पीछे नहीं, उनके पिछवाड़े। नशा इतना है कि अपने ही प्रति असंवेदनशील हो गए हैं। उनसे पूछो, कैसे हो? तो बोलेंगे, बहुत बढ़िया। हाऊ डू यू डू? फाइन। जहाँ फाइन आए, वहाँ तुम वाइन समझ लेना। बिलकुल चढ़ी हुई है, नहीं तो फाइन यह बोल कैसे देते? फाइन कैसे बोल देते? जो जगे, उन्होंने तो पहली बात कहीं जीवन दुख है।
बुद्ध ने कहा, "जीवन दुख है।" और तुम कहाँ के महा बुद्ध हो जो कह रहे हो कि जीवन फाइन है। पर देख रहे हो न प्रचलन, कोई मिलता है जिससे सुबह-सुबह पूछो, ‘क्या हाल हैं?’ सुबह-सुबह निकलते हो और कोई सामने आता है, तो यही तो पूछते हो, ‘वर्मा जी कैसे हैं?’ बढ़िया। तुम बोलो, ठीक, ब्रांड? और आगे बढ़ जाना। कम-से-कम उनको थोड़ा अचरज तो होगा कि यह क्या बोले? ब्रांड माने क्या? क्या पता इसी बात से जग जाए!
कोई मिला है, जो तुम्हें बोले बैड मॉर्निंग ? यहाँ तो शुरुआत ही होती है। मॉर्निंग भी गुड है, आफ्टरनून भी गुड है, इवनिंग भी गुड है, उसके बाद नाइट भी गुड है; परमात्मा वहाँ बैठ कर के ताज्जुब मना रहा है! कह रहा है, यहाँ गुड चल रहा है! यह गुड है? मृत्यु लोक में, नरक लोक में, यह जब देखो तब बताते रहते हैं कि सब गुड है। ये भी गुड है, वो भी गुड है। इन पगलों को पता भी नहीं कि कितना बैड है!
देखिए, दो मन होते हैं। एक वो, जो गुड-गुड इसलिए बोलता है क्योंकि उसे बैड का अंदाज़ा ही नहीं है, पता ही नहीं है, वह अंधा है, वह नशे में है, वह अचेतन है, वह संवेदनशील है, बेहोश है। वह बेहोश है, तो वह बैड को भी गुड बोले जा रहा है। और दूसरा संत होता है। संत भलीभाँति जानता है कि बैड है, बुराई है, दुख है। लेकिन वह वहाँ जाकर बैठ गया होता है, जहाँ न बैडनेस , न गुडनेस पहुँचती है। वह वहाँ जाकर बैठ गया होता है जहाँ न सुख, न दुख पहुँचता है। तो संत को हक़ है, मात्र संत को ही हक़ है यह कहने का कि सब ठीक है। संत कहे सब ठीक है, तो यह उसका परम ज्ञान है। छोटा ज्ञान नहीं, साधारण ज्ञान नहीं। संत कहे यदि कि सब ठीक है, तो यह बात परम ज्ञान की है।
वह यह कह रहा है कि भले ही सब कुछ अव्यवस्थित दिखता हो, भले ही चारों तरफ़ अराजकता हो, मृत्यु हो, दुख हो, लेकिन फिर भी संभव है दुख से अछूता जीना। और चूँकि संभव है दुख से अनछुए रह कर जीना। तो वह कहता है, सब ठीक है। यह संत की बात है। संत बोले सब ठीक है, तो जानना उसे दुख पता है, लेकिन वह दुख से निर्लिप्त है। और जब कोई साधारण संसारी मिले और उससे तुम पूछो, केम छो? और वह बोले, ‘मजा मा।’ तो कहना, यह पाँच बोतल से नीचे इसका खेल नहीं है।
जो जगा है वह रोया है। और अगर तुम्हारे जीवन में अभी आँसू नहीं हैं, तो इसका मतलब बेहोशी बहुत गहरी है। जब तक तुम्हारे जीवन में आँसू नहीं आएँगे, तब तक तुम्हारे जीवन में प्रौढ़ता भी नहीं आएगी; तब तक तुम बच्चे जैसे ही रहोगे। तुम्हारी शक्ल भी बच्चे जैसी रहेगी। तुम्हारी बोली, मन, भाव-भंगिमा, सब बालक समान रहेंगे। तुम बड़े नहीं हो पाओगे। बड़े तो रोकर ही होते हैं। जो जगेगा, वह रोएगा। जो जगेगा, उसमें एक गंभीरता आ जाएगी। महावीर को, बुद्ध को कभी खिलखिलाते देखा है? कल्पना भी कर सकते हो कि जीजस अट्टहास कर रहे हैं? या कि रमण महर्षि?
सौम्य, मृदुल मुस्कुराहट दूसरी बात है। वह तो इतनी हल्की, कि पता भी न चले। वह दूसरी बात है। सुखी हो जाना, प्रसन्न हो जाना बिलकुल अलग बात है। वहाँ तुम यह नहीं पाओगे। वहाँ तो समस्त संसार के दुख के प्रति करुणा है। उन्हें दुख दिखता है, इसलिए उनमें करुणा है। तुम्हें दुख दिखता ही नहीं, इसलिए तुम में कोई करुणा नहीं और जहाँ करुणा नहीं, वहाँ हिंसा है। उन्हें दुख दिखता है। गुरु नानक, गुरु कबीर उनकी आँखें देखो, अधमुंदी। कभी दाँत देखे हैं तुमने, कि तुम्हें गुरुओं के दाँत दिखाई दे रहे हैं? हुआ है कभी? किसी छवि में देखा है? वहाँ करुणा है। उन्हें दुख दिखता है, जो जगेगा, उसे दुख दिखेगा।
मैंने थोड़ी देर पहले कहा था, जो जगेगा दुख पाएगा। उस पाने को दिखना सुनना। पाएगा का अर्थ यह नहीं कि कहीं बाहर से पाएगा। दुख भीतर ही है; जो जगेगा, उसका दुख उद्घाटित हो जाएगा, प्रकट हो जाएगा। कई बार दोहराया है मैंने, आज फिर…
सुखिया सब संसार है। सुखिया सब संसार है, खाये और सोये। बड़ा सुख है और क्या खाया है? धतूरा!
"सुखिया सब संसार है, खाए और सोए। दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए।।"
~ कबीर साहब
जो जगेगा, वह रोएगा; क्योंकि जो जगेगा, उसे सर्वत्र दुख ही दुख पसरा दिखाई देगा। अगर तुम खिलखिलाहट में जीने वाले जीव हो, अगर तुम उनके शिष्य हो जो सिखाते हैं कि हँसते रहो, हँसते रहो; तो तुम कबीरों से तो बहुत दूर हो। कबीर तो रोते हैं। बुल्लेशाह तो रोते हैं। मीरा के आँसू थमते ही नहीं।
तुम कौन हो जिसके जीवन में इतनी किलकारियाँ और इतनी खुशियाँ हैं? मीरा तो रोती हैं। तुम कौन हो? जाओ फरीद के पास, जाओ रूमी के पास उनको नींद ही नहीं आती! उनका निरंतर जगराता है, वो जगे हैं! उनकी आँखें फटी हुई हैं, वो आस देख रहे हैं। फरीद के पास जाओगे वह कहेंगे, मैं मर भी जाऊँ; कौवे से बात कर रहे हैं। मैं मर भी जाऊँ, तो मेरा सारा माँस खा लेना कौवे। चुनी-चुनी खाइयो मास। सब खा मास, पूरा खा लेना। पर कौवे, आँखों को मत खाना। मेरी आँखें छोड़ देना। मैं मर भी जाऊँ, तो मेरी आँखें फटी-फटी दूर क्षितिज की ओर ताकती रहे; क्योंकि इनमें पिया मिलन की आस है।
कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन-चुन खाइयो मास। दो नैना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस।। ~बाबा फरीद
उनको तो दिख रहा है कि पिया दूर हैं। उनको तो दुख है, वियोग है। और तुम्हारे सामने ज़रा दुख आता है, भले ही ध्यान में दुख आया हो, तो तुमको घबराहट हो जाती है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि ज़बरदस्ती दुख ओढ़ो अपने ऊपर। ज़बरदस्ती दुख ओढ़ने की ज़रूरत ही नहीं है, क्योंकि दुख तो पहले ही प्रचुरता से मौजूद है। और कितना लाओगे! और ला भी नहीं सकते। वह अधिकतम है, वह सेचुरेशन पर है। बस ज़रा छुपा हुआ है। अब यह तुमको चुनाव करना है, इसके आगे की बात तुम्हारी है। चाहो तो उसे छुपा ही रहने दो। और अगर वह छुपा रहेगा, तो ऊपर-ऊपर सुख रहेगा, ऊपर-ऊपर सुविधा रहेगी।
चाहो तो खाओ और सोओ। "सुखिया सब संसार है, खाए और सोए।" चाहो तो ऐसे जी लो। और चाहो तो एक-एक करके ध्यान में, सत्संग में, अध्यात्म में, भक्ति में परतें हटाते जाओ। जितनी परतें हटाओगे, उतना सामना होगा दुख से। चुनाव तुम्हें करना है, कि पर्दे पड़े रहे या राज़ फाश कर दें। चुन लो।
यह देखो कैसे सन्नाटा घिर आया बिलकुल! बात ही इतनी डरावनी है, तो काम कितना डरावना होगा! अभी आप में से कुछ लोग मुस्कुरा रहे हैं। जो मुस्कुरा रहे हैं, उनकी मुस्कुराहट में कुछ बात है; क्योंकि यह मुस्कुराहट सुख देख कर नहीं आ रही, यह मुस्कुराहट दुख के सामने आ रही है। अभी सारी बात हुई है दुख से साक्षात्कार की और दुख से साक्षात्कार करते हुए भी जो मुस्कुरा ले, वह बुद्ध हो गया। दुख सामने है, ऐसा नहीं कि हम दुख के प्रति अंधे है। हमें दुख दिख रहा है। दुख दिख रहा है, हम मुस्कुरा रहे हैं। इस मुस्कुराहट में जो सुंदरता है, उसकी बात क्या! इस मुस्कराहट में प्रौढ़ता है, वयस्कता है। अभी इंसान की मुस्कुराहट नहीं है। यह ऐसा है जैसे भगवान मुस्कुराए हों। जो खुशी में मुस्कुरा रहा है, उसकी मुस्कुराहट दो कौड़ी की है। दर्द में मुस्करा दे जो, उसकी मुस्कुराहट को समझना कि ऊपरवाला मुस्कुराया है।
तो न मैं दुख का पक्षधर हूँ, न मैं हँसी के ख़िलाफ़ हूँ। मैं होश का पक्षधर हूँ और बेहोशी के ख़िलाफ़ हूँ। मैं कह रहा हूँ तुम होश में मुस्कुराओ, तुम्हारी मुस्कुराहट लाजवाब है। और मैं कह रहा हूँ तुम अगर बेहोशी में ठट्ठे मारोगे ,खुशियाँ दिखाओगे, तो लानत है ऐसी खुशियों पर। दुर्भाग्यवश ज़्यादातर खुशियाँ बेहोशी की होती हैं। दुर्भाग्यवश सत्य जब सामने हो, ध्यान जब गहरा रहा हो, दुख जब प्रकट होता हो, तब हम श्रद्धा नहीं दिखा पाते मुस्कुराने की। आँसू झर रहे हों और तब तुम मुस्कुरा दो; क्या बात है, फूल खिल आया, रजनीगंधा! रात की ख़ुशबू। बहुत ज़ोर की नहीं। अँधेरा पसरा हुआ है। अँधेरा पसरा हुआ है और बीच में छोटा सा, धवल, सफ़ेद फूल दीये की तरह हल्के से मुस्कुरा रहा है और तुम्हें ख़ुशबू आ गई। अब बात दूसरी है।
अध्यात्म दुख में गोता मारने की कला है। और जो दुख में गोता मारेगा, वह मोती बिन लाएगा। दुख का सागर है और उसके तल पर, मोती बिखरे हुए हैं। उसी को तो कहा है, "जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ।"
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ। मैं बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ।।
~ कबीर साहब
श्रोता: तो इसका मतलब थम जाना ही समझ जाना है!
आचार्य: बस। समझाने वाले इसको बोल गए हैं, ‘न दैन्यं न पलायनम्। न दैन्यं न पलायनम्।’ इसीलिए अध्यात्म के नाम पर बहुत कुछ जो आपको आजकल देखने को मिलता है, वह वास्तव में कुछ नहीं है, सुख की कोशिश है, इसलिए बहुत झूठी है। वह एक तरह की आध्यात्मिक पार्टी है। आओ, नाचो, ज़ोर-ज़ोर से हँसो, उन्मत हो जाओ इत्यादि; उससे बात बनेगी नहीं। वह कोई विशेष ग़लत काम नहीं हो रहा है। बस बात इतनी सी है कि वह काम तो आप ख़ुद भी करते ही रहते हैं। तो क्या लाभ हो जाना है।
प्र: आचार्य जी, एक ओर जहाँ आपने अभी कहा कि जो रोया नहीं, वह परिपक्व हो ही नहीं सकता और दूसरी ओर हम कहते हैं कि रोता ही वही है जो परिपक्व नहीं होता। इन दोनों रोने की समझ में क्या भेद है?
आचार्य: एक तरफ़ तो हम यह देखते हैं कि बच्चे बात-बात पर रो देते हैं। और दूसरी तरफ़ अभी क्या कहा, कि जो रोया नहीं उसमें वयस्कता नहीं आई। तो यह शंका उठ सकती है। कि अगर रोने से ही वयस्कता आती है, तो सबसे ज़्यादा कौन रोते है?
श्रोतागण: बच्चे।
आचार्य: सबसे ज़्यादा तो उनको प्रौढ़ होना चाहिए था। अच्छा सवाल है। बच्चे के रोने में गहराई नहीं है। दो तरह के दुख होते हैं। इसको अच्छे से समझ लेना। पहला दुख होता है संसारी का दुख और दूसरा दुख होता है ध्यानी का दुख। यह भेद बिलकुल साफ़-साफ़ जान लेना। पहला दुख होता है, संसारी का दुख। और दूसरा दुख होता है ध्यानी का दुख।
संसारी को दुख इसलिए मिलता है क्योंकि वह सुख की ओर जाता है। ध्यानी को दुख इसलिए मिलता है क्योंकि वह सत्य की ओर जाता है। छोटा बच्चा क्यों रोता है? बहुत ज़ोर से भागा, चिरैया के पीछे; चिड़िया, चिड़िया, चिड़िया, चिड़िया करते हुए भागा और गिरा। गिरा तो लगी घुटने में, छिल भी गया। अब क्या है? अभी थोड़ी देर पहले तो किलकारी थी, सब गुलजार था; चिरिया चिरिया चिरिया। और अभी क्या है? कैसे रोते है बच्चे गिरने के बाद? कैसे रोते है? थोड़ी देर पहले जितनी वहाँ पर हँसी थी और उत्सुकता थी और उत्तेजना थी, आशा थी, गति थी; वह सब किस में परिवर्तित हो गई? दुख में।
अब पीछे से माँ आई है। वह कह रही है, ‘यहाँ गिरी? ज़मीन ने मारा? चल ज़मीन को मारते हैं।’ अब ज़मीन को मारा जा रहा है और उसके मुँह में शक्कर डाली जा रही है। काहे को माने, हाँ ડડ! वह सप्तम से नीचे ही नहीं आ रहा! यह दुख मिला है किसके साथ? सुख के साथ। यह संसारी का दुख है। संसारी सुख की चेष्टा करता है और क्या पाता है? दुख।
ध्यानी का दुख दूसरा है। मैं तुमसे जिस दुख का सामना करने को कह रहा हूँ, वह संसारी का दुख नहीं है। याद रखना, प्रश्न क्या आया था। प्रश्न आया था कि ध्यान करती हूँ तो डर लगता है। मैं किसके दुख की बात कर रहा हूँ? मैं ध्यानी के दुख की बात कर रहा हूँ। ध्यानी का दुख संसारी का दुख नहीं है। संसारी का दुख तो बच्चे का दुख है। कि चिड़िया पाने निकले थे और चोटिल हो गए। चार दिन तक घूम रहे थे कि चिड़िया मिल गयी है; पाँचवे दिन चिड़िया छोड़ के चली गई है, तो पंखे से लटक रहे हैं।
देखा है न, बागों में घूम रहे होते है चिड़ा चिड़िया? पाँचवे दिन चिड़िया फुर्र! और चिड़ा कह रहा है कि यह पंखा है, यही मुक्ति दिलाएगा। सुख चाहा दुख पाया, क्योंकि द्वैत का नियम है कि दुख तो सुख की छाया है। जहाँ सुख है, वहाँ दुख अनिवार्य है; यह संसारी का दुख है। उसे दुख मिलता है झटके की तरह। भौंचक्का रह जाता है, सदमा लग जाता है, शौक ! क्योंकि पाने क्या चले थे? सुख। और मिल क्या गया? कि गए उस कमरे में घुसे कि वहाँ प्रियतमा मिलेगी और वहाँ बैठी थी चुड़ैल। जितनी आस लगाए घुसे थे, जितनी उमंग के साथ; उससे दूनी तेजी से बदहवास भागते नज़र आ रहे हैं। यह संसारी का दुख है। सुख चाहा, दुख पाया।
और याद रखना जो आज प्रिय है, वह कल अप्रिय न हो जाए, यह हो नहीं सकता। अभी अगर दिन है, तो थोड़ी देर में रात न हो जाए, यह हो नहीं सकता। संसार का नियम है, यहाँ सब कुछ परिवर्तनशील है, कुछ ठहरता नहीं। ध्यानी का दुख प्रौढ़ का दुख है, वयस्क का दुख है, बड़े का दुख है, ग्रोन अप का दुख है। वह दुख झटके की तरह नहीं आता, वह दुख सुख की ख़ातिर नहीं आता; वहाँ तुम जानते-बूझते दुख में गिरते हो। वहाँ यह नहीं होता कि अरे धोखा हो गया, दुर्घटना हो गई! वहाँ दुर्घटना नहीं है। वहाँ तुम जानते-बूझते कह रहे हो, मुझे फना होना है। दुर्घटना में चोट नहीं लग गई, हम ख़ुद रण क्षेत्र में उतरे थे सिर कटाने को। यूँही नहीं चोट लग गई कि भाग तो रहे थे तितली के पीछे और ज़रा गिर गए तो खून निकल आया। ना, ना, ना, ना, ना; यह अनजाने में नहीं हो गया है, यह संयोगवश नहीं हो गया है। हम जानते थे कि हम जहाँ जा रहे हैं, वहाँ हमें दुख मिलेगा। पर हम वह सूरमा हैं जो अपने हाथों अपना गला काटता है।
मिले हो न कबीर के सूरमा से? वह यह थोड़ी कहता है कि सो रहे थे, कोई गला काट कर ले गया या कि लड़ रहे थे तो कोई सिर पर चढ़ा और गला काट ले गया। वह तो कहता है कि हम रण क्षेत्र में जाने से पहले ख़ुद ही अपना गला काट देते हैं। हम इंतज़ार ही नहीं करते कि दुश्मन आकर हमारा गला काटे। कबीर से पूछोगे कि आपका सूरमा कैसा है? वह कहेंगे, ‘वह ऐसा है कि वह पहले अपना गला काटता है, सिर अलग रख देता है, उसके बाद कहता है अब लड़ने जा रहे हैं। अब मरने का कोई डर ही नहीं। तू मेरा बिगाड़ क्या लेगा।’ अब लड़ते हैं। और उसकी लड़ाई फिर अथक, अनंत होती है।
"कबीर साचा सूरमा, लड़े हरी के हेत। पुरजा-पुरजा कट मरे, तबहू न छाड़े खेत।"
~ कबीर साहब
उसका पुर्जा-पुर्जा कट रहा है, वह मर रहा है, लेकिन वह छोड़ कर नहीं भागता रण क्षेत्र को, खेत को! क्यों नहीं? क्योंकि जो बुरे-से-बुरा हो सकता था, उसमें तो उसने ख़ुद ही गोता लगा दिया है। उसको कोई चीज़ अब बुरी लगती नहीं। सिर तो उसने ख़ुद ही काटा है, अब और क्या बुरा होगा उसके साथ! मृत्यु का उसने वरण कर लिया है, दुख को उसने चुन लिया है; अब उसे क्या बुरा लगेगा! यह बच्चे वाला दुख नहीं है, यह सूरमा का दुख है। हमें दुख अकस्मात् नहीं मिलता। संसारी को दुख मिलता है अकस्मात् और सूरमा को दुख मिलता है स्वेच्छा से। हमने दुख को आमंत्रित किया है, तू आ।
दुख दोनों को है; पर अंतर समझ लेना अच्छे से। संसारी दुख से बचने भागता है, पकड़ा जाता है और पिटता है; कितनी जलील बात है न! तुम भाग किसलिए रहे थे? कि दुख से बच जाए। तुम किस की ओर भाग रहे थे? सुख की ओर। तुम भाग रहे हो सुख की ओर बड़े लालायित और पीछे से दुख आया, उसने तुम को पकड़ा और एक चाँटा! और अब तुम भैं-भैं करके छाती पीट रहे हो। यह संसारी का दुख है, इसमें कोई गरिमा नहीं है। है इसमें कोई गरिमा? इसमें कोई गौरव है? कि चाह तो रहे हैं प्रसन्नता और मिल गया शोक। आस तो लगाए बैठे हैं कि खुशी मिल जाए, मिल गया अफ़सोस।
बच-बचकर भाग रहे हैं, जैसे कोई चोर हो। उसको भीड़ ने पकड़ रखा हो। वह बार-बार बच कर भागता हो और फिर कोई पकड़ लेता और दो। फिर भागा वह और फिर पकड़ा गया। उसके कपड़े चिथड़े हो गए हैं। कितना गौरवमयी दृश्य है, यह बताओ? कितना गौरव है इस दृश्य में, बोलो? उसके यहाँ से खून बह रहा है और आँख काली हो गई है, पैंट फटी हुई है, इधर-उधर से दिख रहा है कि खरोंचे जाने के, पीटे जाने के निशान हैं। और यह फिर भागना चाह रहे और फिर धरे गए, फिर पीटे गए। यह संसारी है। यह बार-बार दुख से भागता है और बार-बार पकड़ा जाता है और पीटा जाता है।
और अब तुलना कर लो इसकी कबीर साहब के सूरमा से। सामने उसके खड़ी है फ़ौज दुख की। और वह अकेला, निहत्था खड़ा होकर कह रहा है, ‘हम आ रहे हैं। हम आ रहे हैं, जो कर सकते हो कर लेना; क्या कर लोगे!’ इसमें गरिमा है, इसमें भव्यता है। यहाँ तुम्हें परमात्मा दिखाई देगा। चोट दोनों को लग रही है। वह जो चोर पिट रहा है, चोट उसको भी लग रही है। और जो सूरमा घाव खा रहा है और पुर्जा-पुर्जा इसका कट रहा है, चोट इसको भी लग रही है; पर ज़मीन-आसमान का फ़र्क है, है कि नहीं?
एक चोर भाग रहा हो, अब पीछे से पुलिस की गोली खाए पीठ पर। पहले तो चोर हैं और फिर भागने की कोशिश कर रहा था कि बच जाऊँ, किसी तरह से बच जाऊँ और वह पीठ पर गोली खा ली। एक वह है और एक है योद्धा; जो ससम्मान लड़ रहा है, गरिमा और मर्यादा के साथ लड़ रहा है और जानता है कि ख़तरा पूरा है। फिर भी ख़तरे की ओर बढ़ रहा है और छाती पर गोली खा रहा है। इसकी बात दूसरी है कि नहीं? यह ध्यानी का दुख है। छाती पर लिया है, पीठ पर नहीं लिया है। दुख को हम छाती पर लेते हैं, बुलाते हैं, आ।
चाहते तो बच सकते थे; पर बचना कौन चाहता है! और संसारी चाहता था बचना, बच पाया नहीं। अंतर देख पा रहे हो? संसारी दुख से बचना चाहता था बच पाया नहीं, क्योंकि उसे सुख चाहिए। और सुख माने दुख। और ध्यानी चाहता तो दुख से बचा रह सकता था। उसने कहा नहीं, हमें तो दुख में गोता मारना है। जो दुख में गोता मार देगा, यह बड़ी अजीब बात है, वह दुख के पार निकल जाएगा। और जो दुख से बचने की कोशिश करेगा, वह जितना बचने की कोशिश करेगा उतना दुख पाएगा।
तो इसीलिए फिर ध्यानी को जो उपलब्ध होता है उसे न सुख कहते हैं, न दुख कहते हैं; उसे आनंद कहते हैं। संसारी सफ़ल हो भी गया, तो अधिक-से-अधिक क्या पाएगा? सुख। और सुख माने दुख। और ध्यानी को न सुख चाहिए न दुख, तो उसको मिलता है आनंद। न वह सुख का प्रार्थी है, न वह दुख से भयभीत है। न वह सुख का प्रार्थी है, इच्छुक है, न वह दुख से भयभीत है; ऐसे पर आनंद बरसता है। आँसू उसके भी गिरते हैं, पीड़ा उसे भी होती है; पर उसके आँसू वही हैं, कि "दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए।"
तो संसारी को रोते देखना और संत को रोते देखना, एक ही बात मत समझ लेना; ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। संसारी को कष्ट पाते देखना और संत को कष्ट पाते देखना, एक ही बात मत समझ लेना; बहुत फ़र्क है। उसको कष्ट सज़ा की तरह मिला है और इसने कष्ट का वरण किया है। उसके लिए कष्ट ज़हर है, इसके लिए कष्ट प्रसाद है। ठीक है?
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