जुनून या सामाजिक प्रभाव?

Acharya Prashant

11 min
112 reads
जुनून या सामाजिक प्रभाव?
चाहे वो मेरी रूचि हो, चाहे मेरी पसंद हो, चाहे मेरे लक्ष्य हों; हम हमेशा पाते हैं कि हम कभी भी उसमें पूर्णता से अपनेआप को डुबो नहीं पाते, क्योंकि वो हमारे होते ही नहीं हैं। वो कहीं बाहर से आये होते हैं। हमने बस मान लिया होता है कि वो हमारे अपने है। मेरे अपने वो होते ही कहाँ हैं? मेरा अपना तो तब कुछ हो जब पहले मैं स्वयं को जानूं। कि जब ये शब्द बना था, जिन्होंने ये शब्द बनाया था, वो अच्छी तरह जानते थे कि पैशन-वैशन कुछ होता नहीं है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: सबके पास पैशन (जूनून) होते हैं लेकिन हम पैशन के साथ न्याय नहीं कर पाते, हम अपने पैशन का करें क्या?

आचार्य प्रशांत: तुम जो सवाल कर रहे हो कि हमारे सबके पास पैशन (जूनून) होते हैं लेकिन हम पैशन के साथ न्याय नहीं कर पाते, हम अपने पैशन का करें क्या, देखो, जो चीज़ तुम्हारी नहीं होती, तुम्हारी अपनी समझ की वजह से पुष्पित नहीं होती, उसके पीछे कभी भी तुम अपनी पूरी ऊर्जा लगा ही नहीं पाओगे। कभी नहीं लगा पाओगे। और यही कारण है कि हममें से ज़्यादातर लोग अपने तथाकथित पैशन को कभी पूर्णता पर ले ही नहीं जा पाते क्योंकि वो हमारा होता ही नहीं है। जो मेरा नहीं है मैं उसके पीछे कभी पूरे तरीके से संलग्न हो भी नहीं पाऊँगा, कभी मेरी पूरी ऊर्जा उसकी तरफ बढ़ेगी ही नहीं।

इसीलिए कहा है, वो मेरी रूचि हो, चाहे मेरी पसंद हो, चाहे मेरे लक्ष्य हों; हम हमेशा पाते हैं कि हम कभी भी उसमें पूर्णता से अपनेआप को डुबो नहीं पाते, क्योंकि वो हमारे होते ही नहीं हैं। वो कहीं बाहर से आये होते हैं। हमने बस मान लिया होता है कि वो हमारे अपने है। मेरे अपने वो होते ही कहाँ हैं? मेरा अपना तो तब कुछ हो जब पहले मैं स्वयं को जानूं। कि जब ये शब्द बना था, जिन्होंने ये शब्द बनाया था, वो अच्छी तरह जानते थे कि पैशन-वैशन कुछ होता नहीं है।

ये एक भूत है जो मन पर सवार हो जाता है और कष्ट देता है। ये कंडीशनिंग (संस्कार) है, एक वारयस है जो बाहर से आकर लग जाता है। इसलिए उन्होंने पैशन का जो मूल धातु है, उसको पेइन (पीड़ा) का लिया। जब शब्द बनाया जाता है न, तो हर शब्द के पीछे पूरा एक दर्शन होता है; शब्द ऐसे ही कहीं से उठकर नहीं आ जाता। हर शब्द के पीछे पूरी एक समझ होती है। तो जब भी किसी को बहुत पैशनेट (जुनूनी) देखा गया, तो ये समझ लिया गया कि इसको वायरस लग गया है, बीमारी लग गयी है और हर बीमारी बाहर से ही लगती हैं। कोई कीड़ा आ गया है, बाहर से लग गया है, ये अर्थ है उसका होने का।

उसके बाद जब तुम कहते हो कि मैं पूरी तरह जानता भी नहीं, ये उदाहरण इसलिए नहीं दिया गया था, तुम समझे नहीं बात को, ये उदाहरण ये बताने के लिए दिया गया था कि जिसको तुम अपना पैशन बोलते हो वो तुम्हारा पैशन नहीं तुम्हारी आदत होती है। उत्तर भारतीय खाना तुम्हारा पैशन नहीं है, तुम्हारी आदत है जो तुम्हारे ऊपर बचपन से डाल दी गयी है। ये बताया गया था, ये नहीं बताया गया था कि पूरी, आधा या अधूरा नॉलेज(ज्ञान) है।

तुम एक ख़ास ढर्रे से जीने के आदि हो और वो ढर्रा बाहर से आरोपित है। तुम एक घर में पैदा हुए जहाँ उत्तर भारतीय खाना बनता था, वो ढर्रा वहाँ से आ रहा है, बाहर से आ रहा है। बात समझ रहे हो?

वो कहीं बाहर से ढर्रा आ रहा है जिसको तुमने अपना पैशन मान लिया है। तुम डॉक्टर के घर पर पैदा होते हो, एक ढर्रा बाहर से आ रहा है, अब तुमने उसको अपना पैशन मान लिया। वो तुम्हारा पैशन है कुछ नहीं।

और क्या तुमने ये नहीं देखा है कि अक्सर डॉक्टरों के घर में ये रहता है कि बच्चों को भी डॉक्टर ही बनाना है? क्या तुमने ये नहीं देखा है कि संगीत के जो घराने होते हैं वहाँ अक्सर बच्चों को भी वही शिक्षा दे दी जाती है, एक्टर्स (अभिनेता) के यहाँ जो लोग पैदा होते हैं उन्हें भी वही बना दिया जाता है? वो पैशन वगैरह कुछ नहीं है। वो बाहर से थोपी गयी एक आदत है, बाहर से थोपे गये संस्कार हैं। उन्हें संस्कारित किया जा रहा है, उस संस्कार का ही नाम कंडीशनिंग हैं।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, दूसरे हमारे बारे में कुछ भी बोलते रहते हैं, क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: दूसरे एक जगह कुछ बोलते रहते हैं तो क्या हो? और मैंने कहा था कि अगर तुम्हें अपनी समझ है तो दूसरों पर तुम्हारा बहुत ध्यान जाएगा नहीं। ध्यान जाएगा भी तो दूसरे तुम्हें प्रभावित नहीं कर पाएँगे। ध्यान वैसे गया भी कि तुमने सुन भी लिया कि कोई क्या बोल रहा है, तुमने पढ़ भी लिया कि कोई क्या कह रहा है तुम्हारे विषय में; तो वो पढ़ना एक जगह है, ठीक, पर वो तुम पर इतना प्रभाव नहीं छोड़ पाएगा, वो तुम पर अपना दाग नहीं छोड़ पाएगा। वो उत्तर यहीं पर फिर से लागू होता है।

अच्छी पर्सनालिटी (व्यक्तित्व) दूसरे की नज़र में, ये तुम कह भी इसलिए पा रहे हो क्योंकि जो शब्द है पर्सनालिटी वो बना ही दूसरे को ध्यान में रखकर है। तुम्हें शायद बताया गया होगा कि पर्सनालिटी शब्द का, फिर उसमें, जो उसकी मूल धातु है, जहाँ से वो आ रहा है, रूट (जड़) जो है उसकी, वो है परसोना (ऐसा चरित्र जो किसी व्यक्ति का प्रतीत होता है और जो अक्सर उनके वास्तविक या निजी चरित्र से भिन्न होता है), ये बताया गया है?

प्रश्नकर्ता: जी सर।

आचार्य प्रशांत: और परसोना तो होता ही है किसी और को दिखाने के लिए। तो जब तक तुम पर्सनैलिटी के पीछे भागोगे, तुम सदा दूसरे के गुलाम रहोगे। अब जैसे आप मुस्कुरा रहे हो, पर आपको पता भी नहीं है कि उस मुस्कुराने में आप ग़ुलाम ही हो। ये ऐसा गुलाम है जो बहुत मुस्कुराता हैं। आप भी। गुलामी का यही मतलब नहीं है कि मैं बड़ा कष्ट अनुभव करूँगा।

हमें कितनी तकलीफ़ होती हैं अपने साथ अकेले रहने में। हमें कोई न कोई चाहिए नोचने-खसोटने के लिए। और हमारी बीमारियों के पहले शिकार हमारे दोस्त बनते हैं। तो जो परसोना है वो पहना किसके लिए जाता है? दूसरों के लिए। इसी तरह से ये सारी जो बात है कि अच्छी पर्सनैलिटी होनी चाहिए। अच्छी पर्सनैलिटी धारण ही दूसरों को दिखाने के लिए की जाती है। ठीक वैसे ही जैसे जो मंच पर एक कलाकार होता है, पर्सोना माने मास्क (नक़ाब), वो अलग-अलग तरीके के मास्क ऑडियंस (दर्शकों) को दिखाने के लिए ही तो पहनता है, दर्शकों के लिए ही तो है सबकुछ।

इसी तरीके से जब आप कहते हो कि मुझे अच्छी पर्सनैलिटी लेनी है, तब आपका अर्थ ही यही होता है कि मैं दूसरों की नज़र में अच्छी दिखूँ। एक दूसरा शब्द भी है जो पर्सनैलिटी से कहीं ज़्यादा खूबसूरत है और वो आपकी तरफ इशारा करता है। वो शब्द है— इंडिविजुएलिटी (निजता)। पर्सनैलिटी पर मत जाओ। इंडिविजुएलिटी , इंडिविजुएलिटी का अर्थ है तुम्हारी एसेंस (सार), तुम्हारा तत्व, वो जो तुम वास्तविकता में हो, वो नहीं जिसका तुमने मुखौटा ओढ़ रखा है। वो जो तुम हो ही।

समझ रहे हो? उसको तुम्हारी इंडिविजुएलिटी बोलते हैं। वही तुम्हारी निजता है, *इंडिविजुएलिटी*। पर्सनैलिटी की क्यों सोचते हो? क्योंकि पर्सनैलिटी जैसे ही आएगी, सदा वो दूसरों के लिए होगी। पर्सनैलिटी तुम्हारा वो नकाब है जो तुम ओढ़ते हो दूसरों को दिखाने के लिए। और तुम दूसरों को इसलिए दिखाना चाहते हो क्योंकि तुम दूसरों को खुश रखना चाहते हो, डरे हुए हो उनसे। तुम दूसरों की नज़र में अपनी अहमियत खोजते हो। तुम्हारा अपनी नज़र में चूँकि कोई अस्तित्व नहीं, कोई वजूद नहीं, इसलिए तुम मुखौटे ओढ़ते हो। मुखौटे ओढ़ने की ज़रुरत ही उसे पड़ती है। जो इंडिविजुअल (वैयक्तिक) है उसे किसी पर्सनैलिटी की ज़रुरत नहीं। ये बात कुछ-कुछ समझ आ रही है, पूरी तरह अगर नहीं भी तो?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ऐसा सुना है कि ईश्वर जो भी करता है अच्छे के लिए होता है, ये बात सही है क्या?

आचार्य प्रशांत: क्या हो रहा है, बैठो, क्या हो रहा है उसका हमें कुछ पता भी है? हम उस पंखे पर वापस जाते हैं। तुमने कहा, ‘*व्हाटेवर हैप्पन्स, हैप्पन्स फोर गुड*’ (जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है), पर व्हाट इज़ हैप्पनिंंग (क्या हो रहा है) इसका हमें कुछ पता भी तो होना चाहिए, हमें कुछ होश भी तो होना चाहिए। क्या इस पंखे को पता है व्हाट इज़ हैप्पनिंंग ?

प्रश्नकर्ता: नो सर।

आचार्य प्रशांत: तो हम तो ऐसे बोल रहे हैं, ‘*व्हाटेवेर हैप्पन्स, हैप्पन्स फोर गुड*’, जैसे हमें पता है *व्हाट हैप्पन्स*’, डू यू रियली नो व्हाट इज़ हैप्पनिंग (क्या आप सचमुच जानते हैं कि क्या हो रहा है)? आप यहाँ बैठे हो, आपके मन में दस तरह के ख़याल चल रहे हैं; ये ख़याल आपकी अनुमति लेकर आये हैं? आप इनके मालिक हो, आपको पता भी है क्या हो रहा है? जो हो रहा है बस हो रहा है। जैसे दो केमिकल्स (रसायन) का आपस में रिएक्शन (रासायनिक प्रतिक्रिया) होता है, लगता है बहुत कुछ हो रहा है पर उन्हें कुछ भी पता होता है कि क्या हो रहा है? उन्हें नहीं पता होता न? उसी तरीके से हम हैं, केमिकल, मैकेनिकल, जस्ट इंस्ट्रुमेंटल (बस रासायनिक और यांत्रिक)।

तो व्हाटेवर हैप्पन्स, हैप्पन्स फोर गुड ; पहली बात, हमें पता ही नहीं क्या हो रहा है, दूसरी बात, हमारी गुड (अच्छा) और बैड (बुरा) की जितनी व्याख्याएँ हैं, हमारी गुड और बैड की जितनी समझ है, वो बाहर से आयी है, वो आयातीत है। वो हमारी अपनी है ही नहीं, उधार की है। आप जिस चीज़ को गुड बोल रहे हो आपका पड़ोसी उसे बैड बोल देगा। एक ही घटना घट रही हो, एक बोलेगा, ‘बहुत अच्छी घटना है’ और एक बोलेगा, ‘बड़ी खराब घटना है।’ अब आप कैसे बोलोगे किव्हाटेवर हैप्पन्स, हैप्पन्स फोर गुड ? क्योंकि जो हुआ है वो न आप समझ रहे हो, न वो समझ रहा है। क्या गुड है, क्या बैड है, न आप समझ रहे हो न वो समझ रहा है।

अब आपने इसमें तीसरा मसाला और जोड़ दिया है गॉड (ईश्वर), ये कहाँ से आ गया? और ये क्या चीज़ है? कुछ इसका हमें पता भी है या बस हम नाम दे देते हैं? अगर आपको पता है तो फिर गॉड आपका एक विचार है। आपके विचार तो आपसे हमेशा छोटे होंगे? आपके विचार आपके पास्ट (अतीत) से आते हैं, अतीत से आते हैं, आपकी कल्पना है? ये तो भगवान को भी, ईश्वर को भी, जो भी वो होता हो, मैं नहीं जानता आप किसकी बात कर रहे हैं क्योंकि आप ‘किसी’ गॉड की बात कर रहे हैं।

हमारे साथ दिक्कत ये हैं कि चूँकि हम शब्दों का पिछले पंद्रह साल, अठारह साल, बीस साल से प्रयोग करे जा रहे हैं तो हमें ये भ्रम हो जाता हैं कि हम उन शब्दों को जानते हैं। उन शब्दों के पीछे जो रस है, उन शब्दों के पीछे जो अस्तित्व है हम उसको जानते हैं। पर चूँकि आप किसी शब्द का इस्तेमाल इतने दिनों से कर रहे हो इससे ये बिलकुल सिद्ध नहीं हो जाता कि आप उसको जानते हो। हाँ, आप उससे परिचित हो गये, उस ध्वनि से परिचित हो गये हो। उस शब्द की ध्वनि से परिचित हो गये हो, गॉड , पर इसका ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है कि आप जानते हो *गॉड*।

ज़रा लिखिएगा, मैं आपको कुछ शब्द देता हूँ। लिखिए:

फ़्रीडम (मुक्ति) आइ (मैं) थॉट (विचार) माइंड (मन) गोल (लक्ष्य) एम्बीशन (उद्देश्य) फैमिली (परिवार) कंट्री (देश) अलोननेस (एकांत) इमोशन (भावना) अटेंशन (ध्यान) एजुकेशन (शिक्षा) रिलेशनशिप (सम्बन्ध) ट्रुथ (सत्य)

ज़रा जाकर गौर करिएगा, इनमें से किसी भी एक शब्द को वाकई आप समझते हो क्या, वाकई? हाँ, आप इनसे परिचित ज़रूर हो क्योंकि इनका आप रोज़मर्रा की भाषा में इस्तेमाल करते हो। आप इनसे परिचित ज़रूर हो क्योंकि इनका आप रोज़मर्रा की भाषा में इस्तेमाल करते हो, पर क्या आप वाकई इन्हें समझते हो? आप ‘वाकई’ वाकई में समझते हो क्या? तो इतनी जल्दी हम मान न लिया करें कि हम शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं, ये जान रहे हैं, ये है वो है। इसी में निश्चित रूप से आप गॉड को भी जोड़ सकते हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories